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Wednesday, November 19, 2014

हर घट से अपनी प्यास मत बुझा ओ प्यासे

हर घट से अपनी प्यास मत बुझा ओ प्यासे
प्याला बदला तो मधु ही विष बन जाता है!

हैं बरन बरन के फूल धूल की बगिया में
लेकिन सब ही आए पूजा के काम नहीं,
कुछ में शोख़ी, है कुछ में केवल रूप रंग
कुछ हँसते सुबह मगर मुसकाते शाम नहीं,
दुनिया है एक नुमाइश सीरत-सूरत की
हर सुंदर शीशे को मत अश्रु दिखा अपने,
सौंदर्य न अपनाता, केवल मुस्काता है!
*बरन-बरन=वर्ण-वर्ण

पपिहे पर वज्र गिरे फिर भी उसने अपनी
पीड़ा को किसी दूसरे जल से नहीं कहा,
लग गया चाँद को दाग़, मगर अब तक निशि का
आँगन तज कर वह और न जा कर कहीं रहा,
हर एक यहाँ है अडिग-अचल अपने प्रण पर
फिर तू ही क्यों भटका फिरता है इधर-उधर,
मत बदल-बदल कर राह सफ़र तय कर अपना
हर पाठ मंज़िल की दूरी नहीं घटाता है!

दीपक ने जलन दिखा डाली सबको अपनी
इस कारण अब तक उसका जलना बंद नहीं,
है भटक रहा भँवरा वन-वन बस इसीलिए
है एक फूल का चुंबन उसे पसंद नहीं,
है प्यार स्वतंत्र, मगर है कहीं नियंत्रण भी
ज्यों छंद कहीं है मुक्त, कहीं है बंधन भी,
हर देहरी पर मत अपनी भक्ति चढ़ा पागल
मंदिर का तो बस पाषाणों से नाता है!

~ गोपालदास 'नीरज'

   October 7, 2014

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