Friday, November 28, 2014

फिर उसी रहगुज़ार पर शायद



फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर, शायद

जिनके हम मुन्तज़र रहे उनको
मिल गये और हमसफर शायद
*मुन्तज़र=प्रतीक्षारत

जान पहचान से भी क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त, ग़ौर कर शायद

अजनबीयत की धुन्ध छँट जाये
चमक उठे तेरी नज़र शायद

ज़िन्दगी भर लहू रुलायेगी
यादे-याराने-बेख़बर शायद
*यादे-याराने-बेख़बर=भूले-बिसरे दोस्तों की यादें

जो भी बिछड़े, वो कब मिले हैं फ़राज़
फिर भी तू इन्तज़ार कर, शायद

~ अहमद फ़राज़


   April 29, 2013 | e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

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