Thursday, March 19, 2015

जो कोई आवे है, नज़दीक



हम न निकहत हैं न गुल हैं जो महकते जावें
आग की तरह जिधर जावें दहकते जावें
*निकहत=ख़ुशबू, गुल=फूल

ऐ ख़ुशा-मस्त कि ताबूत के आगे जिस के
आब-पाशी के बदल मय को छिड़कते जावें
*ख़ुशा-मस्त=ख़ुशकिस्मत पीने वाला; आब-पाशी=सींचना

जो कोई आवे है नज़दीक ही बैठे है तिरे
हम कहाँ तक तिरे पहलू से सरकते जावें

ग़ैर को राह हो घर में तिरे सुब्हान-अल्लाह
और हम दूर से दर को तिरे तकते जावें

वक़्त अब वो है कि इक एक 'हसन' हो के ब-तंग
सब्र-ओ-ताब ओ ख़िरद-ओ-होश खिसकते जावें
*सब्र-ओ-ताब=सब्र की हद; ख़िरद=बुद्धि

~ मीर हसन
 

   March 19, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

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