Tuesday, April 7, 2015

धंधे की कुछ बात करो, कुछ पैसे जोड़ो

Bharat Vyas

कवि राजा कविता के ना अब कान मरोड़ो
धंधे की कुछ बात करो, कुछ पैसे जोड़ो।

शेर-शायरी कवि राजा ना काम आएगी,
कविता की पोथी को दीमक खा जाएगी।
भाव चढ़ रहे, अनाज हो रहा महंगा दिन-दिन,
भूख मरोगे, रात कटेगी तारे गिन-गिन।
इसीलिए कहता हूँ भैय्या यह सब छोडो,
धंधे की कुछ बात करो, कुछ पैसे जोड़ो।

अरे! छोड़ो कलम, चलाओ मत कविता की चाकी।
घर की रोकड देखो, कितने पैसे बाकी।
अरे! कितना घर में घी है, कितना गरम मसाला,
कितने पापड, बडी, मंगोडी, मिर्च-मसाला,
कितना तेल, नोन िमर्ची, हल्दी और धनिया।
कवि राजा चुपके से तुम बन जाओ बनिया।

अरे! पैसे पर रच काव्य, भूख पर गीत बनाओ।
अरे! गेहूं पर हो गज़ल, धान के शेर सुनाओ।
नोन मिर्च पर चौपाई, चावल पर दोहे।
सुकवि कोयले पर कविता लिखो तो सोहे।
कम भाडे की खोली पर लिखो कव्वाली,
झन-झन करती कहो रुबाई पैसे वाली।

शब्दों का जंजाल बडा लफ़डा होता है।
कवि-सम्मेलन दोस्त बडा झगडा होता है।
मुशायरे के शेरों पर रगडा होता है।
पैसे वाला शेर बडा तगडा होता है।

इसीलिए कहता हूँ न इससे सिर फोडो,
धंधे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो।

~  भरत व्यास

  Jun 5, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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