Friday, December 11, 2015

प्राण पत्थर थे, अब फूलमाला हुये

प्राण पत्थर थे, अब फूलमाला हुये
हम अँधेरों में हँसता उजाला हुये
प्रीति के रंग ने जब हमें रंग दिया
हम स्वयं प्यार की रंगशाला हुये।

*रंगशाला=रंगभूमि, खेलने का घर

~ कुँवर बेचैन

  Dec 2, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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