Saturday, October 1, 2016

धूप ही क्यों छांव भी दो



धूप ही क्यों छांव भी दो
पंथ ही क्यों पांव भी दो
सफर लम्बी हो गई अब,
ठहरने को गांव भी दो।

प्यास ही क्यों नीर भी दो
धार ही क्यों तीर भी दो
जी रही पुरुषार्थ कब से,
अब मुझे तकदीर भी दो।

पीर ही क्यों प्रीत भी दो
हार ही क्यों जीत भी दो
शुन्य में खोए बहुत अब,
चेतना को गीत भी दो।

ग्रन्थ ही क्यों ज्ञान भी दो
ज्ञान ही क्यों ध्यान भी दो
तुम हमारी अस्मिता को,
अब निजी पहचान भी दो।

*अस्मिता=मन का यह भाव कि स्वयं की एक पृथक् और विशिष्ट सत्ता है, अहंभाव।

~ कनक प्रभा

  Oct 1, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

No comments:

Post a Comment