Tuesday, November 1, 2016

काँच बिखरा है धरा पर



काँच बिखरा है धरा पर
तू न नंगे पाँव चल

स्वप्न स्वर्णिम हों भले ही सच नहीं होते मगर
जागरण के नाम कर दे नींद की सारी उमर
सामना कर ज़िन्दगी का
ठोकरें खा कर संभल

आज तक जग ने किसी के दर्द को बाँटा नहीं
दीप तेरी देहरी का ही न बुझ जाए कहीं
आंधियाँ हर रोज़ ही
आने लगी हैं आजकल

और कुछ करना अगर, तेरे लिए संभव न हो
दूसरों के रास्ते में कम से कम काँटे न बो
काटनी तुझको पड़ेगी
अन्यथा वो ही फ़सल

पाँव के छाले न गिन, यदि लक्ष्य पाना है तुझे
चल थकन को साथ लेकर, दूर जाना है तुझे
तेज़ कर रफ्तार अपनी
दिन कहीं जाए न ढल

~ जगपाल सिंह ‘सरोज’


  Nov 1, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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