Sunday, February 2, 2020

वक़्त की खेती हैं हम

 
वक़्त की खेती हैं हम
वक़्त बोता है उगाता पालता है
और बढ़ने के मवाक़े भी हमें देता है वक़्त

*मवाक़े=मौके

सब्ज़ को ज़र्रीं बताने की इजाज़त मर्हमत करता है और
नाचने देता है बाद-ए-शोख़ की मौजों के साथ
झूमने देता है सूरज की किरन की हम-दमी में
चाँदनी पी कर हमें ब-दस्त पाता है तो ख़ुश होता है वक़्त

*सब्ज़=हरा; ज़री=सुनहरा; मर्हमत=प्रदान; बाद-ए-शोख़=नटखट हवा; ब-दस्त=हाथ में

फूलने फलने की तदबीरें बताता है हमें
हाँ मगर अंजाम कार
काट लेना है हमें
हम बिल-आख़िर उस के नग़्मे
हम बिल-आख़िर उस की फ़स्ल

*तदबीरें=उपाय; बिल-आख़िर-अंत में

‍~ अमीक़ हनफ़ी


 Feb 2, 2020 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

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