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Tuesday, October 18, 2016

यह कच्ची कमज़ोर सूत-सी नींद



यह कच्ची
कमज़ोर सूत-सी नींद नहीं
जो अपने आप टूटती है

रोज़-रोज़ की दारुण विपत्तियाँ हैं
जो आँखें खोल देती हैं अचानक

सुनो, बहुत चुपचाप पाँवों से
चला आता है कोई दुःख
पलकें छूने के लिए
सीने के भीतर आनेवाले
कुछ अकेले दिनों तक
पैठ जाने के लिए

मैं एक अकेला
थका-हारा कवि
कुछ भी नहीं हूँ अकेला
मेरी छोड़ी गयीं अधूरी लड़ाइयाँ
मुझे और थका देंगी

सुनो, वहीं था मैं
अपनी थकान, निराशा, क्रोध
आँसुओं, अकेलेपन और
एकाध छोटी-मोटी
खुशियों के साथ

यहीं नींद मेरी टूटी थी
कोई दुःख था शायद
जो अब सिर्फ़ मेरा नहीं था

अब सिर्फ़ मैं नहीं था अकेला
अपने जागने में

चलने के पहले
एक बार और पुकारो मुझे

मैं तुम्हारे साथ हूँ

तुम्हारी पुकार की उँगलियाँ थाम कर
चलता चला आऊँगा
तुम्हारे पीछे-पीछे

अपने पिछले अँधेरों को पार करता।

~ उदय प्रकाश


  Oct 15, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, October 4, 2016

धन्य प्रिया तुम जागीं




धन्य प्रिया तुम जागीं,
ना जाने दुख भरी रैन में कब तेरी अंखियां लागीं।

जीवन नदिया, बैरी केवट, पार न कोई अपना
घाट पराया, देस बिराना, हाट-बाट सब सपना
क्या मन की, क्या तन की, किहनी अपनी अंसुअन पागी।

दाना-पानी, ठौर ठिकाना, कहां बसेरा अपना
निस दिन चलना, पल-पल जलना, नींद भई इक छलना
पाखी रूंख न पाएं, अंखियां बरस-बरस की जागी।

प्रेम न सांचा, शपथ न सांचा, सांच न संग हमारा
एक सांस का जीवन सारा, बिरथा का चौबारा
जीवन के इस पल फिर तुम क्यों जनम-जनम की लागीं।

धन्य प्रिया तुम जागीं,
ना जाने दुख भरी रैन में कब तेरी अंखियां लागीं।

~ उदय प्रकाश


  Oct 4, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh