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Sunday, April 29, 2018

मेरे सँग सँग चल दिया चाँद!

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मैंने देखा, मैं जिधर चला,
मेरे सँग सँग चल दिया चाँद!

घर लौट चुकी थी थकी साँझ;
था भारी मन दुर्बल काया,
था ऊब गया बैठे बैठे
मैं अपनी खिड़की पर आया।
टूटा न ध्यान, सोचता रहा
गति जाने अब ले चले किधर!
थे थके पाँव, बढ गए किंतु
चल दिये उधर, मन हुआ जिधर!

पर जाने क्यों, मैं जिधर चला
मेरे सँग सँग चल दिया चाँद!
पीले गुलाब-सा लगता था
हल्के रंग का हल्दिया चाँद!

साथी था, फिर भी मन न हुआ
हल्का, हो गया भार दूना।
वह भी बेचारा एकाकी
उसका भी जीवन-पथ सूना!

क्या कहते, दोनों ही चुप थे,
अपनी अपनी चुप सहते थे!
दुख के साथी बस देख देख
बिन कहे हृदय की कहते थे!

था ताल एक; मैं बैठ गया,
मैंने संकेत किया, आओ,
रवि-मुकुर! उतर आओ अस्थिर
कवि-उर को दर्पण बन जाओ।

मैं उठा, उठा वह; जिधर चला,
मेरे सँग सँग चल दिया चाँद!
मैं गीतों में; वह ओसों में
बरसा औ' रोया किया चाँद!

क्या पल भर भी कर सकी ओट
झुरमुट या कोई तरु ड़ाली,
पीपल के चमकीले पत्ते...
या इमली की झिलमिल जाली?

मैं मौन विजन में चलता था,
वह शून्य व्योम में बढता था;
कल्पना मुझे ले उड़ती थी,
वह नभ में ऊँचा चढ़्ता था!

मैं ठोकर खाता, रुकता वह;
जब चला, साथ चल दिया चाँद!
पल भर को साथ न छोड़ सका
एसा पक्का कर लिया चाँद!

अस्ताचलगामी चाँद नहीं क्या
मेरे ही टूटे दिल सा?
टूटी नौका सा डूब रहा,
जिसको न निकट का तट मिलता!

वह डूबा ज्यौं तैराक थका,
मैं भी श्रम से, दुख से टूटा!
थे चढे साथ, हम गिरे साथ,
पर फिर भी साथ नहीं छूटा!

अस्ताचल में ओझल होता शशि
मैं निद्रा के अंचल में,
वह फिर उगता, मैं फिर जगता
घटते बढते हम प्रतिपल में!

मैनें फिर-फिर अजमा देखा
मेरे सँग सँग चल दिया चाँद!
वह मुझसा ही जलता बुझता
बन साँझ-सुबह का दिया चाँद!

~ नरेन्द्र शर्मा


  Apr 29, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, April 28, 2018

तेरा परस्तार

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वो जो कहलाता था दीवाना तिरा
वो जिसे हिफ़्ज़ (याद) था अफ़्साना तिरा
जिस की दीवारों पे आवेज़ां (सजायी) थीं
तस्वीरें तिरी,
वो जो दोहराता था
तक़रीरें (प्रस्तुति) तिरी,
वो जो ख़ुश था तिरी ख़ुशियों से
तिरे ग़म से उदास,
दूर रह के जो समझता था
वो है तेरे पास,
वो जिसे सज्दा (सर झुकाना) तुझे करने से
इंकार न था,
उस को दर-अस्ल कभी तुझ से
कोई प्यार न था,

उस की मुश्किल थी
कि दुश्वार थे उस के रस्ते,
जिन पे बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर (बिना भय)
घूमते रहज़न थे
सदा उस की अना (अहम) के दर पे,
उस ने घबरा के
सब अपनी अना की दौलत
तेरी तहवील (निष्ठा) में रखवा दी थी,
अपनी ज़िल्लत (अपमान) को वो दुनिया की नज़र
और अपनी भी निगाहों से छुपाने के लिए,
कामयाबी को तिरी,
तिरी फ़ुतूहात (विजय),
तिरी इज़्ज़त को,
वो तिरे नाम तिरी शोहरत को,
अपने होने का सबब जानता था,
है वजूद उस का जुदा तुझ से
ये कब मानता था।

वो मगर
पुर-ख़तर (जोख़िम भरे) रास्तों से आज निकल आया है,
वक़्त ने तेरे बराबर न सही
कुछ न कुछ अपना करम उस पे भी फ़रमाया है,
अब उसे तेरी ज़रूरत ही नहीं,
जिस का दावा था कभी
अब वो अक़ीदत (विश्वास) ही नहीं,
तेरी तहवील (निष्ठा) में जो रक्खी थी कल
उस ने अना
आज वो माँग रहा है वापस
बात इतनी सी है
ऐ साहिब-ए-नाम-ओ-शोहरत (नाम और प्रसिद्धि प्राप्त इंसान)
जिस को कल
तेरे ख़ुदा होने से इंकार न था,
वो कभी तेरा परस्तार (श्रद्धालु) न था।

~ जावेद अख़्तर


  Apr 28, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, April 27, 2018

मर्द बदलने वाली लड़की

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मैं उन लड़कियों में से नहीं
जो अपने जीवन की शुरूआत
किसी एक मर्द से करती है
और उस मर्द के छोड़ जाने को
जीवन का अन्त समझ लेती हैं
मैं उन तमाम सती-सावित्रीनुमा
लड़कियों में से तो बिल्कुल नहीं हूँ

मैंने अपने यौवन के शुरूआत से ही
उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर
अलग-अलग मानसिकता के
पुरुष मित्र बनाए हैं
हरेक के साथ
बड़ी शिद्दत से निभाई है दोस्ती

यहाँ तक कि कोई मुझे उन क्षणों में देखता
तो समझ सकता था
राधा, अनारकली या हीर-सी कोई रूमानी प्रेमिका

इस बात को स्वीकार करने में मुझे
न तो किसी तरह की लाज है
न झिझक
बेशक कोई कह दे मुझे
छिनाल, तिरिया-चरित्र या कुलटा वगैरह-वगैरह

चूँकि मैं मर्द बदलने वाली लड़की हूँ
इसलिए 'सभ्य' समाज के खाँचे में
लगातार मिसफ़िट होती रही हूँ
पतिव्रता टाइप लड़कियाँ या पत्नीव्रता लड़के
दोनों ही मान लेते हैं मुझे ‘आउटसाइडर’
पर मुझे इन सब की ज़रा भी परवाह नहीं
क्योंकि मैं उन लड़कियों में से नहीं
आलोचना और उलहाने सुनते ही
जिनके हाथ-पैर काँपने लगते हैं
बहने लगते हैं हज़ारों मन टसुए
जो क्रोध को पी जाती हैं
प्रताड़ना को सह लेती हैं
और फिर भटकती हैं इधर-उधर
अबला बनकर धरती पर

चूँकि मैं मर्द बदलने वाली लड़की हूँ
इसलिए मैंने वह सब देखा है
जो सिर्फ़ लड़कियों को सहेली बनाकर
कभी नहीं देख-जान पाती
मैंने औरतों और मर्दों दोनों से दोस्ती की
इस बात पर थोड़ा गुमान भी है
गाहे-बगाहे मैं ख़ुद ही ढिंढोरा पिटवा लेती हूँ
कि यह है ‘मर्द बदलने वाली लड़की’

यह वाक्य
अब मेरा उपनाम-सा हो गया है

~ नेहा नरुका


  Apr 27, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, April 22, 2018

पता नहीं वो कौन था

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पता नहीं वो कौन था
जो मेरे हाथ
मोगरे की डाल पँख मोर का थमा के चल दिया

पता नहीं वो कौन था
हवा के झोंके की तरह जो आया और गुज़र गया
नज़र को रंग दिल को निकहतों के दुख से भर गया

मैं कौन हूँ
गुज़रने वाला कौन था
ये फूल पँख क्या हैं क्यूँ मिले
ये सोचते ही सोचते तमाम रंग एक रंग में उतरते गए
......स्याह रंग
तमाम निकहतें इधर उधर बिखर गईं
.........ख़लाओं में

यक़ीन है..... नहीं नहीं गुमान है
वो कोई मेरा दुश्मन-ए-क़दीम था
दिखा के जो सराब मेरी प्यास और बढ़ा गया
मैं बे-हिसाब आरज़ूओं का शिकार
इंतिहा-ए-शौक़ में फ़रेब उस का खा गया

गुमान.... नहीं नहीं यक़ीन है
वो कोई मेरा दोस्त था
जो दो घड़ी के वास्ते ही क्यूँ न हो
नज़र को रंग दिल को निकहतों से भर गया
पता नहीं किधर गया

मैं इस को ढूँढता हुआ
तमाम काएनात में
उधर उधर बिखर गया

*निकहत=ख़ुशबू; ख़ला=शून्य; क़दीम=पुराना; सराब=मृग-तृष्णा

~ बशर नवाज़


  Apr 22, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, April 21, 2018

कोई क्यूँ किसी का लुभाए दिल

कोई क्यूँ किसी का लुभाए दिल
कोई क्या किसी से लगाए दिल
वो जो बेचते थे दवा-ए-दिल
वो दुकान अपनी बढ़ा गए

~ बहादुर शाह ज़फ़र



  Apr 20, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Monday, April 16, 2018

हुस्न पर दस्तरस की बात न कर

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हुस्न पर दस्तरस की बात न कर
ये हवस है हवस की बात न कर
*दस्तरस=पहुँच

पूछ अगले बरस में क्या होगा
मुझ से पिछले बरस की बात न कर

ये बता हाल क्या है लाखों का
मुझ से दो चार दस की बात न कर

ये बता क़ाफ़िले पे क्या गुज़री
महज़ बाँग-ए-जरस की बात न कर
*बाँग=(आवाज़ देना); जरस=घंटी

इश्क़-ए-जान आफ़रीं का हाल सुना
हुस्न-ए-ईसा नफ़स की बात न कर
*इश्क़-ए-जान=शारीरिक; आफ़रीं=प्रशंसा; नफ़स=आत्मा

ये बता 'अर्श' सोज़ है कितना
साज़ पर दस्तरस की बात न कर
*सोज़=जोश, उत्साह; साज़=सम्बंध; दस्तरस=पहुँच

~ अर्श मलसियानी


  Apr 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

शिव-लिंग

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ऐसा क्या किया था शिव तुमने
रची थी कौन-सी लीला,
जो इतना विख्यात हो गया तुम्हारा लिंग
माताएँ बेटों के यश, धन व पुत्रादि के लिए
पतिव्रताएँ पति की लम्बी उम्र के लिए
अच्छे घर-वर के लिए कुवाँरियाँ
पूजती है तुम्हारे लिंग को,

दूध-दही-गुड़-फल-मेवा वगैरह
अर्पित होता है तुम्हारे लिंग पर
रोली, चन्दन, महावर से
आड़ी-तिरछी लकीरें काढ़कर,
सजाया जाता है उसे
फिर ढोक देकर बारम्बार
गाती हैं आरती
उच्चारती हैं एक सौ आठ नाम

तुम्हारे लिंग को दूध से धोकर
माथे पर लगाती है टीका
जीभ पर रखकर
बड़े स्वाद से स्वीकार करती हैं
लिंग पर चढ़े हुए प्रसाद को

वे नहीं जानती कि यह
पार्वती की योनि में स्थित
तुम्हारा लिंग है,
वे इसे भगवान समझती हैं,
अवतारी मानती हैं,
तुम्हारा लिंग गर्व से इठलाता
समाया रहता है पार्वती-योनि में,
और उससे बहता रहता है
दूध, दही और नैवेद्य...
जिसे लाँघना निषेध है
इसलिए वे औरतें
करतीं हैं आधी परिक्रमा

वे नहीं सोच पातीं
कि यदि लिंग का अर्थ
स्त्रीलिंग या पुल्लिंग दोनों है
तो इसका नाम पार्वती-लिंग क्यों नहीं?
और यदि लिंग केवल पुरूषांग है
तो फिर इसे पार्वती-योनि भी
क्यों न कहा जाए?

लिंगपूजकों ने
चूँकि नहीं पढ़ा ‘कुमारसम्भव’
और पढ़ा तो ‘कामसूत्र’ भी नहीं होगा,
सच जानते ही कितना हैं?
हालाँकि पढ़े-लिखे हैं

कुछ ने पढ़ी है केवल स्त्री-सुबोधिनी
वे अगर पढ़ते और जान पाते
कि कैसे धर्म, समाज और सत्ता
मिलकर दमन करते हैं योनि का,

अगर कहीं वेद-पुराण और इतिहास के
महान मोटे ग्रन्थों की सच्चाई!
औरत समझ जाए
तो फिर वे पूछ सकती हैं
सम्भोग के इस शास्त्रीय प्रतीक के--
स्त्री-पुरूष के समरस होने की मुद्रा के--
दो नाम नहीं हो सकते थे क्या?
वे पढ़ लेंगी
तो निश्चित ही पूछेंगी,
कि इस दृश्य को गढ़ने वाले
कलाकारों की जीभ
क्या पितृसमर्पित सम्राटों ने कटवा दी थी
क्या बदले में भेंट कर दी गईं थीं
लाखों अशर्फियाँ,
कि गूंगे हो गए शिल्पकार
और बता नहीं पाए
कि सम्भोग के इस प्रतीक में
एक और सहयोगी है
जिसे पार्वती-योनि कहते हैं।

~ नेहा नरुका


  Apr 15, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

उन के लहजे में वो कुछ लोच

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उन के लहजे में वो कुछ लोच वो झंकार वो रस
एक बे-क़स्द तरन्नुम के सिवा कुछ भी न था
*बे-क़स्द=प्रयाह-हीन; तरन्नुम=गीत जैसा

काँपते होंटों में उलझे हुए मुबहम फ़िक़रे
वो भी अंदाज़-ए-तकल्लुम के सिवा कुछ भी न था
*मुबहम=अस्पष्ट; फिक़रे=वाक्य; अंदाज़-ए-तकल्लुम=बात करने का तरीका

सैकड़ों टीसें नज़र आती थीं जिस में मुझ को
वो भी इक सादा तबस्सुम के सिवा कुछ भी न था
*तबस्सुम=मुस्कुराहट

सर्द ओ ताबिंदा सी पेशानी वो मचले हुए अश्क
दिन में नूर-ए-माह-ओ-अंजुम के सिवा कुछ भी न था
*सर्द=निर्जीव; ताबिंदा=चमकते हुए; नूर-ए-माह-ओ-अंजुम=चाँद और सितारों की रौशनी

तुंद आहों के दबाने में वो सीने का उभार
एक यूँ ही से तलातुम के सिवा कुछ भी न था
*तुंद=तेज; तलातुम=लहर

मैं ने जो देखा था, जो सोचा था, जो समझा था
हाए 'जज़्बी' वो तवहहुम के सिवा कुछ भी न था
*तवह्हुम=अंध-विश्वास

~ मुईन अहसन जज़्बी


  Apr 14, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, April 13, 2018

दुनिया की महफ़िलों से उक्ता गया हूँ

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दुनिया की महफ़िलों से उक्ता गया हूँ या रब
क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो
शोरिश से भागता हूँ दिल ढूँडता है मेरा
ऐसा सुकूत जिस पर तक़रीर भी फ़िदा हो
*अंजुमन=महफ़िल; शोरिश=शोर; सुकूत=शांति

मरता हूँ ख़ामुशी पर ये आरज़ू है मेरी
दामन में कोह के इक छोटा सा झोंपड़ा हो
आज़ाद फ़िक्र से हूँ उज़्लत में दिन गुज़ारूँ
दुनिया के ग़म का दिल से काँटा निकल गया हो
*कोह=पहाड़; उज़्लत=अकेलापन

लज़्ज़त सरोद की हो चिड़ियों के चहचहों में
चश्मे की शोरिशों में बाजा सा बज रहा हो
गुल की कली चटक कर पैग़ाम दे किसी का
साग़र ज़रा सा गोया मुझ को जहाँ-नुमा हो
*लज़्ज़त=आनंद; जहाँ-नुमा=विहंगम दृश्य

हो हाथ का सिरहाना सब्ज़े का हो बिछौना
शरमाए जिस से जल्वत ख़ल्वत में वो अदा हो
मानूस इस क़दर हो सूरत से मेरी बुलबुल
नन्हे से दिल में उस के खटका न कुछ मिरा हो
*सब्ज़े=हरियाली; जल्वत=दिखावट; ख़ल्वत=एकांत

सफ़ बाँधे दोनों जानिब बूटे हरे हरे हों
नद्दी का साफ़ पानी तस्वीर ले रहा हो
हो दिल-फ़रेब ऐसा कोहसार का नज़ारा
पानी भी मौज बन कर उठ उठ के देखता हो
*सफ़=कतार; कोहसार=पर्वतों की श्रंखला

आग़ोश में ज़मीं की सोया हुआ हो सब्ज़ा
फिर फिर के झाड़ियों में पानी चमक रहा हो
पानी को छू रही हो झुक झुक के गुल की टहनी
जैसे हसीन कोई आईना देखता हो
*सब्ज़ा=हरियाली

मेहंदी लगाए सूरज जब शाम की दुल्हन को
सुर्ख़ी लिए सुनहरी हर फूल की क़बा हो
रातों को चलने वाले रह जाएँ थक के जिस दम
उम्मीद उन की मेरा टूटा हुआ दिया हो
*क़बा=पहनावा;

बिजली चमक के उन को कुटिया मिरी दिखा दे
जब आसमाँ पे हर सू बादल घिरा हुआ हो
पिछले पहर की कोयल वो सुब्ह की मोअज़्ज़िन
मैं उस का हम-नवा हूँ वो मेरी हम-नवा हो
*मोअज़्ज़िन=प्रार्थना के लिये आवाज़ देने वाली; हम-नवा=साथ देने वाला

कानों पे हो न मेरे दैर ओ हरम का एहसाँ
रौज़न ही झोंपड़ी का मुझ को सहर-नुमा हो
फूलों को आए जिस दम शबनम वज़ू कराने
रोना मिरा वज़ू हो नाला मिरी दुआ हो
*दैर, हरम=मंदिर मस्जिद; रौज़न=छोटी खिड़की; सहर-नुमाँ=जादुई

इस ख़ामुशी में जाएँ इतने बुलंद नाले
तारों के क़ाफ़िले को मेरी सदा दिरा हो
हर दर्दमंद दिल को रोना मिरा रुला दे
बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे
*नाले=पुकार; सदा=आवाज़; दिरा=ज्ञात

~ अल्लामा इक़बाल


  Apr 13, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, April 8, 2018

तुझ को मालूम नहीं


तुझ को मालूम नहीं तुझ को भला क्या मालूम

तेरे चेहरे के ये सादा से अछूते से नुक़ूश
मेरी तख़्ईल को क्या रंग अता करते हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें तिरी आँखें तिरे आरिज़ तिरे होंट
कैसी अन-जानी सी मासूम ख़ता करते हैं

*नुक़ूश=चिन्ह; तख़्ईल=कल्पना; आरिज़=गाल

तेरे क़ामत का लचकता हुआ मग़रूर तनाव
जैसे फूलों से लदी शाख़ हवा में लहराए
वो छलकते हुए साग़र सी जवानी वो बदन
जैसे शो'ला सा निगाहों में लपक कर रह जाए

*क़ामत=क़द; मग़रूर=घमंडी

ख़ल्वत-ए-बज़्म हो या जल्वत-ए-तन्हाई हो
तेरा पैकर मिरी नज़रों में उभर आता है
कोई साअ'त हो कोई फ़िक्र हो कोई माहौल
मुझ को हर सम्त तिरा हुस्न नज़र आता है

*ख़ल्वत=एकांत; जल्वत=कोई रूप; पैकर=आकार; सा'अत=क्षण; सिम्त=तरफ

चलते चलते जो क़दम आप ठिठक जाते हैं
सोचता हूँ कि कहीं तू ने पुकारा तो नहीं
गुम सी हो जाती हैं नज़रें तो ख़याल आता है
इस में पिन्हाँ तिरी आँखों का इशारा तो नहीं

*पिन्हाँ=छुपा हुआ

धूप में साया भी होता है गुरेज़ाँ जिस दम
तेरी ज़ुल्फ़ें मिरे शानों पे बिखर जाती हैं
झुक के जब सर किसी पत्थर पे टिका देता हूँ
तेरी बाहें मिरी गर्दन में उतर आती हैं

*गुरेज़ाँ=पलायन; शाने=कंधों

आँख लगती है तो दिल को ये गुमाँ होता है
सर-ए-बालीं कोई बैठा है बड़े प्यार के साथ
मेरे बिखरे हुए उलझे हुए बालों में कोई
उँगलियाँ फेरता जाता है बड़े प्यार के साथ

*सर-ए-बालीं=छत पर

जाने क्यूँ तुझ से दिल-ए-ज़ार को इतनी है लगन
कैसी कैसी न तमन्नाओं की तम्हीद है तू
दिन में तू इक शब-ए-महताब है मेरी ख़ातिर
सर्द रातों में मिरे वास्ते ख़ुर्शीद है तू

*व्यथित हृदय; शब-ए-महताब=चाँदनी रात; ख़ुर्शीद=सूरज

अपनी दीवानगी-ए-शौक़ पे हँसता भी हूँ मैं
और फिर अपने ख़यालात में खो जाता हूँ
तुझ को अपनाने की हिम्मत है न खो देने का ज़र्फ़
कभी हँसते कभी रोते हुए सो जाता हूँ मैं
किस को मालूम मिरे ख़्वाबों की ताबीर है क्या
कौन जाने कि मिरे ग़म की हक़ीक़त क्या है

*ज़र्फ=सामर्थ्य; ख़्वाबों की ताबीर=सपनों का अर्थ

मैं समझ भी लूँ अगर इस को मोहब्बत का जुनूँ
तुझ को मालूम नहीं तुझ को न होगा मालूम

~ हिमायत अली शाएर

  Apr 8, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, April 7, 2018

अंजलि के फूल

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अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
आये आवेश फिरे जाते हैं।

चरण-ध्वनि पास-दूर कहीं नहीं
साधें आराधनीय रही नहीं
उठने, उठ पड़ने की बात रही
साँसों से गीत बे-अनुपात रही

बागों में पंखनियाँ झूल रहीं
कुछ अपना, कुछ सपना भूल रहीं
फूल-फूल धूल लिये मुँह बाँधे
किसको अनुहार रही चुप साधे

दौड़ के विहार उठो अमित रंग
तू ही `श्रीरंग' कि मत कर विलम्ब
बँधी-सी पलकें मुँह खोल उठीं
कितना रोका कि मौन बोल उठीं

आहों का रथ माना भारी है
चाहों में क्षुद्रता कुँआरी है
आओ तुम अभिनव उल्लास भरे
नेह भरे, ज्वार भरे, प्यास भरे

अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
आये आवेश फिरे जाते हैं।।

~ माखनलाल चतुर्वेदी


  Apr 7, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, April 4, 2018

अदा आई जफ़ा आई

अदा आई जफ़ा आई ग़ुरूर आया हिजाब आया
हज़ारों आफ़तें ले कर हसीनों पर शबाब आया

*जफ़ा=अत्याचार, ज़ुल्म; हिजाब= लज्जा

~ नूह नारवी


  Apr 2, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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ख़त के आख़िर में सभी

ख़त के आख़िर में सभी यूँ ही रक़म करते हैं,
उस ने रस्मन ही लिखा होगा तुम्हारा अपना

‍~ निदा फ़ाज़ली


  Apr 1, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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