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Sunday, December 30, 2018

कुछ तुम ने कहा

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कुछ तुम ने कहा
कुछ मैं ने कहा
और बढ़ते बढ़ते बात बढ़ी
दिल ऊब गया
दिल डूब गया
और गहरी काली रात बढ़ी

तुम अपने घर
मैं अपने घर
सारे दरवाज़े बंद किए
बैठे हैं कड़वे घूँट पिए
ओढ़े हैं ग़ुस्से की चादर

कुछ तुम सोचो
कुछ मैं सोचूँ
क्यूँ ऊँची हैं ये दीवारें
कब तक हम इन पर सर मारें
कब तक ये अँधेरे रहने हैं
कीना के ये घेरे रहने हैं
चलो अपने दरवाज़े खोलें
और घर के बाहर आएँ हम
दिल ठहरे जहाँ हैं बरसों से
वो इक नुक्कड़ है नफ़रत का
कब तक इस नुक्कड़ पर ठहरें
अब इस के आगे जाएँ हम

बस थोड़ी दूर इक दरिया है
जहाँ एक उजाला बहता है
वाँ लहरों लहरों हैं किरनें
और किरनों किरनों हैं लहरें
इन किरनों में
इन लहरों में
हम दिल को ख़ूब नहाने दें
सीनों में जो इक पत्थर है
उस पत्थर को घुल जाने दें
दिल के इक कोने में भी छुपी
गर थोड़ी सी भी नफ़रत है
इस नफ़रत को धुल जाने दें
दोनों की तरफ़ से जिस दिन भी
इज़हार नदामत का होगा
तब जश्न मोहब्बत का होगा

*कीना=द्वेष; नदामत=लज्जा, पश्चाताप;

~ जावेद अख़्तर


 Dec 30, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 29, 2018

तुझ को चाँद नहीं कह सकता

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तुझ को चाँद नहीं कह सकता
क्यूँकि ये चाँद तो इस धरती के चार तरफ़ नाचा करता है
मैं अलबत्ता दीवाना हूँ
तेरे गिर्द फिरा करता हूँ
जैसे ज़मीं के गिर्द ये चाँद और सूरज के गिर्द अपनी ज़मीं नाचा करती है
लेकिन मैं भी चाँद नहीं हूँ
मैं बादल का इक टुकड़ा हूँ
जिस को तेरी क़ुर्बत की किरनों ने उठा कर ज़ुल्फ़ों जैसी नर्म हवा को सौंप दिया है
लेकिन बादल की क़िस्मत क्या
तेरे फ़िराक़ की गर्मी मुझ को पिघला कर फिर आँसू के इक क़तरे में तब्दील करेगी

*क़ुर्बत=नज़दीकी; फ़िराक़=विछोह

तुझ को चराग़ नहीं कह सकता
क्यूँकि चराग़ तो शाम-ए-ग़रीबाँ के सहरा में सुब्ह-ए-वतन का नक़्श-ए-क़दम है
मुझ में इतना नूर कहाँ है
मैं तो इक दरयूज़ा-गर हूँ
सूरज चाँद सितारों के दरवाज़ों पर दस्तक देता हूँ
एक किरन दो
एक दहकता अंगारों दो
कभी कभी मिल जाता है
और कभी ये दरयूज़ा-गर ख़ाली हाथ चला आता है

*शाम-ए-ग़रीबाँ=ग्रसित शाम; नक़्श-ए-क़दम=क़दमों के निशान; दरयूज़ा-गर=भिखारी

मैं तो एक दरयूज़ा-गर हूँ
कलियों के दरवाज़ों पर दस्तक देता हूँ
इक चुटकी भर रंग और उसे ख़ुश्बू दे
लफ़्ज़ों का कश्कोल लिए फिरता रहता हूँ
कभी कभी कुछ मिल जाता है
और कभी ये दरयूज़ा-गर चाक-गरेबाँ फूलों को ख़ुद अपने गरेबाँ का इक टुकड़ा दे आता है!

*कश्कोल=(भीख का) कटोरा; चाक-गरेबाँ=फटे हाल

तुझ को ख़्वाब नहीं कह सकता
ख़्वाबों का क्या
ख़िज़ाँ-रसीदा पत्ती के मानिंद हवा की ठेस से भी टूटा करते हैं
लेकिन मैं भी ख़्वाब नहीं हूँ
ख़्वाब तो वो है जिस को कोई देख रहा हो
मैं इक दीद हूँ
इक गीता हूँ
इक इंजील हूँ इक क़ुरआँ हूँ
राहगुज़र पर पड़ा हुआ हूँ
सूद ओ ज़ियाँ की इस दुनिया में किसे भला इतनी फ़ुर्सत है
मुझे उठा कर जो ये देखे
मुझ में आख़िर क्या लिक्खा है

*ख़िज़ाँ-रसीदा-पतझड़ की मारी हुई; दीद=दर्शन; इंजील=बाइबल; क़ुरआँ=क़ुरान; सूद ओ ज़ियाँ=नफ़ा नुकसान

तुझ को राज़ नहीं कह सकता
राज़ तो अक्सर खुल जाते हैं
लेकिन मैं भी राज़ नहीं हूँ
मैं इक ग़मगीं आईना हूँ
मेरी नज़्मों का हर मिस्रा इस आईने का जौहर है
आईने में झाँक कर लोग अपने को देख रहे हैं
आईने को किस ने देखा

तू ही बतला तेरे लिए मैं लाऊँ कहाँ से अब तश्बीहें
जिस तश्बीह को छूता हूँ वो झिझक के पीछे हट जाती है
कह उठती है
मैं नाक़िस हूँ
जान-ए-तमन्ना
तेरा शाएर तेरे क़सीदे की तश्बीब की वादी ही में आवारा है

*तश्बीहें=उपमाएँ; नाक़िस=अपूर्ण; क़सीदे=तारीफ़ में लिखे हुए गीत

~ राही मासूम रज़ा


 Dec 29, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 28, 2018

मिज़ा-ए-ख़ार पे किस तरह भला

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मिज़ा-ए-ख़ार पे किस तरह भला पाए क़रार
आरिज़-ए-गुल पे न जब क़तरा-ए-शबनम ठहरे
हादसा है कि दर आई ये मसर्रत की किरन
वर्ना इस दिल पे थे तारीकी-ए-ग़म के पहरे

*मिज़ा-ए-ख़ार=काटों की पलकें; आरिज़-ए-गुल=फूल जैसे गाल; मसर्रत=ख़ुशी; दर=दरवाज़े पर; तारीक़ी-ए-ग़म=ग़मों के अंधेरे

दर्द-ए-महरूमी-ए-जावेद हमारी क़िस्मत
राहत-ए-वस्ल-ओ-मुलाक़ात के दर बंद रहे
साल-हा-साल रिवायात के ज़िंदानों में
कितने बिफरे हुए जज़्बात नज़र-बंद रहे

*दर्द-ए-महरूमी-ए-जावेद=कभी ख़त्म न होने वाले दुर्भाग्य का दर्द; राहत-ए-वस्ल-ओ-मुलाक़ात=मुलाक़ात और मिलन की राहत; रिवायात=रिवाज़ों; ज़िंदानों=क़ैद ख़ाना

सिम-सिम-ए-सीम से खुल जाते हैं उक़दों के पहाड़
जगमगा उठते हैं फूलों के दिए सहरा में
ग़ाज़ा-ए-ज़र से है रुख़्सार-ए-तमद्दुन का निखार
दिल तो इक जिंस-ए-फ़रोमाया है इस दुनिया में

*सिम-सिम-ए-सीम=चाँदी के जादू से; उक़दों=गूढ़ रहस्य; ग़ाज़ा-ज़र=सोने के पाउडर; रुख़्सार-ए-तमद्दुन=सभ्यता का गाल (चेहरा)

चढ़ते सूरज के परस्तार हैं दुनिया वाले
डूबते चाँद को बिन देखे गुज़र जाते हैं
कौन जूड़े में सजाता है भला धूल के फूल
शाख़ के ख़ार भी आँखों में जगह पाते हैं

*परस्तार=पूजने वाले

तू मिरी है कि यहाँ कोई नहीं था मेरा
मैं तिरा हूँ कि तुझे कोई भी अपना न सका
कितनी प्यारी है सुहानी है ये दुनिया जिस में
तू भी ठुकराई गई मुझ को भी ठुकराया गया

~ अहमद राही


 Dec 28, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Thursday, December 27, 2018

इन हाथों को तस्लीम करो

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इन हाथों की ताज़ीम करो
इन हाथों की तकरीम करो
दुनिया के चलाने वाले हैं
इन हाथों को तस्लीम करो
तारीख़ के और मशीनों के पहियों की रवानी इन से है
तहज़ीब की और तमद्दुन की भरपूर जवानी इन से है
दुनिया का फ़साना इन से है, इंसाँ की कहानी इन से है
इन हाथों की ताज़ीम करो
*ताज़ीम=सम्मान; तकरीम=आदर; तस्लीम=सत्कार; तमद्दुन=सभ्यता

सदियों से गुज़र कर आए हैं, ये नेक और बद को जानते हैं
ये दोस्त हैं सारे आलम के, पर दुश्मन को पहचानते हैं
ख़ुद शक्ति का अवतार हैं, ये कब ग़ैर की शक्ति मानते हैं
इन हाथों को ताज़ीम करो

एक ज़ख़्म हमारे हाथों के, ये फूल जो हैं गुल-दानों में
सूखे हुए प्यासे चुल्लू थे, जो जाम हैं अब मय-ख़ानों में
टूटी हुई सौ अंगड़ाइयों की मेहराबें हैं ऐवानों में
इन हाथों की ताज़ीम करो
*मेराबें=आर्च; ऐवान=महल

राहों की सुनहरी रौशनियाँ, बिजली के जो फैले दामन में
फ़ानूस हसीं ऐवानों के, जो रंग-ओ-नूर के ख़िर्मन में
ये हाथ हमारे जलते हैं, ये हाथ हमारे रौशन हैं
इन हाथों की ताज़ीम करो
*ख़िर्मन=फ़सल 


ख़ामोश हैं ये ख़ामोशी से, सो बरबत-ओ-चंग बनाते हैं
तारों में राग सुलाते हैं, तब्लों में बोल छुपाते हैं
जब साज़ में जुम्बिश होती है, तब हाथ हमारे गाते हैं
इन हाथों की ताज़ीम करो
*बरबत-ओ-चंग=एक वाद्य यंत्र

एजाज़ है ये इन हाथों का, रेशम को छुएँ तो आँचल है
पत्थर को छुएँ तो बुत कर दें, कालख को छुएँ तो काजल है
मिट्टी को छुएँ तो सोना है, चाँदी को छुएँ तो पायल है
इन हाथों की ताज़ीम करो
*एजाज़=चमत्कार

बहती हुई बिजली की लहरें, सिमटे हुए गंगा के धारे
धरती के मुक़द्दर के मालिक, मेहनत के उफ़ुक़ के सय्यारे
ये चारागरान-ए-दर्द-ए-जहाँ, सदियों से मगर ख़ुद बेचारे
इन हाथों की ताज़ीम करो
*उफ़ुक़=क्षितिज; सय्यारे=ग्रह; चारागरान-ए-दर्द-ए-जहाँ=दुनिया के दर्द का इलाज करने वाले

तख़्लीक़ ये सोज़-ए-मेहनत की, और फ़ितरत के शहकार भी हैं
मैदान-ए-अमल में लेकिन ख़ुद, ये ख़ालिक़ भी मेमार भी हैं
फूलों से भरी ये शाख़ भी हैं और चलती हुई तलवार भी हैं
इन हाथों की ताज़ीम करो
*तख़्लीक़=निर्माण; शहकार=श्रेष्ठ कृति; ख़ालिक़=कर्ता धर्ता; मेमार=बनाने वाला

ये हाथ न हूँ तो मोहमल सब, तहरीरें और तक़रीरें हैं
ये हाथ न हों तो बे-मअ'नी इंसानों की तक़रीरें हैं
सब हिकमत-ओ-दानिश इल्म-ओ-हुनर इन हाथों की तफ़्सीरें हैं
इन हाथों की ताज़ीम करो
*मोहमल=अर्थहीन; तहरीर=लिखावट; तक़रीर=बोलना

ये कितने सुबुक और नाज़ुक हैं, ये कितने सिडौल और अच्छे हैं
चालाकी में उस्ताद हैं ये और भोले-पन में बच्चे हैं
इस झूट की गंदी दुनिया में बस हाथ हमारे सच्चे हैं
इन हाथों की ताज़ीम करो

ये सरहद सरहद जुड़ते हैं और मुल्कों मुल्कों जाते हैं
बाँहों में बाँहें डालते हैं और दिल से दिल को मिलाते हैं
फिर ज़ुल्म-ओ-सितम के पैरों की ज़ंजीर-ए-गिराँ बन जाते हैं
इन हाथों की ताज़ीम करो

तामीर तो इन की फ़ितरत है, इक और नई तामीर सही
इक और नई तदबीर सही, इक और नई तक़दीर सही
इक शोख़ ओ हसीं ख़्वाब और सही इक शोख़ ओ हसीं ताबीर सही
इन हाथों की ताज़ीम करो
इन हाथों की तकरीम करो
दुनिया को चलाने वाले हैं
इन हाथों को तस्लीम करो

~ अली सरदार जाफ़री


 Dec 27, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, December 26, 2018

दिसम्बर का महीना

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दिसम्बर का महीना और दिल्ली की सर्दी
सितारों की झिलमिलाती झुरमुट से परे
आसमान के एक सुनसान गोशे में
पूनम का ठिठुरता हुआ कोई चाँद जैसे
बादलों में खाता है मुतवातिर हचकोले
हौले हौले
तन्हा मुसाफ़िर

और दूर तक कोहरे की चादर में लिपटी
बल खाती सड़कें
धुँद की ग़ुबार में खोया हुआ इंडिया गेट
ठण्ड में ठोकरें खाता मुसाफ़िर
ख़ुश नसीब है
बादलों में घुस जाता है चाँद

मेरी क्रिसमस की रौनक़ें फैली हैं तमाम
सितारों से रौशन सजे धजे बाज़ार
लज़ीज़ खानों की ख़ुशबुएँ जहाँ फैली हैं हर-सू
बाज़ार की गर्म फ़ज़ाओं में
मय की सरमस्ती में डूबा हुआ है पूरे शहर का शबाब
तन्हा मुसाफ़िर की
चंद रोज़ा मसाफ़त भी क्या शय है यारो!

हम-वतनों से दूर
अपनों से दूर
जमुना तट पर जैसे बिन माँझी के नाव
बोट क्लब के सर्द पानी में जैसे
तैरता रुकता हुआ कोई तन्हा हुबाब

तन्हा मुसाफ़िर सोचता है
कोई है जिस का वो हाथ थाम ले हौले हौले
कोई है जो उस के साथ कुछ दौर चले हौले हौले
धुँद में खोई हुई मंज़िलें
तवील सड़कें
और तन्हा मुसाफ़िर
जैसे पूनम का ठिठुरता हुआ कोई चाँद
बादलों में खाता है मुतवातिर हचकोले
हौले हौले

~ परवेज़ शहरयार


 Dec 26, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 23, 2018

ये धूप किनारा शाम ढले

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ये धूप किनारा शाम ढले
मिलते हैं दोनों वक़्त जहाँ
जो रात न दिन जो आज न कल
पल-भर को अमर पल भर में धुआँ
इस धूप किनारे पल-दो-पल
होंटों की लपक
बाँहों की छनक
ये मेल हमारा झूट न सच
क्यूँ रार करो क्यूँ दोश धरो
किस कारन झूटी बात करो
जब तेरी समुंदर आँखों में
इस शाम का सूरज डूबेगा
सुख सोएँगे घर दर वाले
और राही अपनी रह लेगा

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

 Dec 23, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 22, 2018

रौशनी डूब गई

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रौशनी डूब गई चाँद ने मुँह ढाँप लिया
अब कोई राह दिखाई नहीं देती मुझ को
मेरे एहसास में कोहराम मचा है लेकिन
कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती मुझ को

रात के हाथ ने किरनों का गला घूँट दिया
जैसे हो जाए ज़मीं-बोस शिवाला कोई
ये घटा-टोप अँधेरा ये घना सन्नाटा
अब कोई गीत है बाक़ी न उजाला कोई
*ज़मीं-बोस=ज़मीन को चूमता हुआ

जिस ने छुप-छुप के जलाया मिरी उम्मीदों को
वो सुलगती हुई ठंडक मिरे घर तक पहुँची
देखते देखते सैलाब-ए-हवस फैल गया
मौज-ए-पायाब उभर कर मिरे सर तक पहुँची
*सैलाब-ए-हवस=लालसा का ज्वार; मौज-ए-पायाब=नीची रहने वाली लहर

मिरे तारीक घरौंदे को उदासी दे कर
मुस्कुराते हैं दरीचों में इशारे क्या क्या
उफ़ ये उम्मीद का मदफ़न ये मोहब्बत का मज़ार
इस में देखे हैं तबाही के नज़ारे क्या क्या
*तारीक़=अंधेरे; दरीचों=खिड़कियाँ; मदफ़न=दफ़न करने की जगह

जिस ने आँखों में सितारे से कभी घोले थे
आज एहसास पे काजल सा बिखेरा उस ने
जिस ने ख़ुद आ के टटोला था मिरे सीने को
ले लिया ग़ैर के पहलू में बसेरा उस ने

वो तलव्वुन कि नहीं जिस का ठिकाना कोई
उस के अंदाज़-ए-कुहन आज नए तौर के हैं
वही बेबाक इशारे वही भड़के हुए गीत
कल मिरे हाथ बिके आज किसी और के हैं
*तलव्वुन=रंग बदलना; अंदाज़-ए-कुहन=पुराने अंदाज़

वो महकता सा चहकता सा उबलता सीना
उस की मीआद है दो रोज़ लिपटने के लिए
ज़ुल्फ़ बिखरी हुई बिखरी तो नहीं रह सकती
फैलता है कोई साया तो सिमटने के लिए
*मीआद=अवधि

~ क़तील शिफ़ाई


 Dec 22, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 21, 2018

शहर

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बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है
वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है
वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा
वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा
वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे
हैं उलझ गए जीने के सारे धागे

यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ
कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ
यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी
ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी
तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में
यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूँ
इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ

जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे
किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें

~ केदारनाथ सिंह


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Sunday, December 16, 2018

तेरे होंटों के फूलों की चाहत में हम

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तेरे होंटों के फूलों की चाहत में हम
दार की ख़ुश्क टहनी पे वारे गए
तेरे हाथों की शम्ओं की हसरत में हम
नीम-तारीक राहों में मारे गए

*दार=सूली; नीम-तारीक=आधी-अंधेरी

सूलियों पर हमारे लबों से परे
तेरे होंटों की लाली लपकती रही
तेरी ज़ुल्फ़ों की मस्ती बरसती रही
तेरे हाथों की चाँदी दमकती रही
जब घुली तेरी राहों में शाम-ए-सितम
हम चले आए लाए जहाँ तक क़दम
लब पे हर्फ़-ए-ग़ज़ल दिल में क़िंदील-ए-ग़म
अपना ग़म था गवाही तिरे हुस्न की
देख क़ाएम रहे इस गवाही पे हम
हम जो तारीक राहों पे मारे गए

*हर्फ़-ए-ग़ज़ल=गीतों के बोल; किंदील-ए-ग़म=दुख की शमा;

ना-रसाई अगर अपनी तक़दीर थी
तेरी उल्फ़त तो अपनी ही तदबीर थी
किस को शिकवा है गर शौक़ के सिलसिले
हिज्र की क़त्ल-गाहों से सब जा मिले
*ना-रसाई=असमर्थ; तदबीर=तरकीब, प्रयत्न

क़त्ल-गाहों से चुन कर हमारे अलम
और निकलेंगे उश्शाक़ के क़ाफ़िले
जिन की राह-ए-तलब से हमारे क़दम
मुख़्तसर कर चले दर्द के फ़ासले
कर चले जिन की ख़ातिर जहाँगीर हम
जाँ गँवा कर तिरी दिलबरी का भरम
हम जो तारीक राहों में मारे गए

*अलम=झंडे; उश्शाक़=आशिक़ (बहुवचन); राह-ए-तलब=दिल को बाए वो राह; मुख़्तसर=संक्षिप्त; जहाँगीर=दुनिया को जीतने वाला; तारीक-अंधेरी

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

 Dec 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 15, 2018

स्त्रियाँ

 
स्त्रियां
अक्सर कहीं नहीं जातीं,
साथ रहती हैं
पास रहती हैं
जब भी जाती हैं कहीं
तो आधी ही जाती हैं,
शेष घर मे ही रहती हैं।

लौटते ही
पूर्ण कर देती हैं घर
पूर्ण कर देती हैं हवा, माहौल, आसपड़ोस।

स्त्रियां जब भी जाती हैं
लौट लौट आती हैं।,
लौट आती स्त्रियां बेहद सुखद लगती हैं
सुंदर दिखती हैं
प्रिय लगती हैं।

स्त्रियां
जब चली जाती हैं दूर
जब लौट नहीं पातीं,
घर के प्रत्येक कोने में तब
चुप्पी होती है,
बर्तन बाल्टियां बिस्तर चादर नहाते नहीं
मकड़ियां छतों पर लटकती ऊंघती हैं
कान में मच्छर बजबजाते हैं
देहरी हर आने वालों के कदम सूंघती है।

स्त्रियां जब चली जाती हैं
ना लौटने के लिए,
रसोई टुकुर टुकुर देखती है
फ्रिज में पड़ा दूध मक्खन घी फल सब्जियां एक दूसरे से बतियाते नहीं
वाशिंग मशीन में ठूँस कर रख दिये गए कपड़े
गर्दन निकालते हैं बाहर
और फिर खुद ही दुबक-सिमट जाते हैँ मशीन के भीतर।

स्त्रियां जब चली जाती हैं
कि जाना ही सत्य है
तब ही बोध होता है
कि स्त्री कौन होती है
कि जरूरी क्यों होता है
घर मे स्त्री का बने रहना।

~ केदारनाथ सिंह

 Dec 15, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 14, 2018

कई सर-ज़मीनें सदा दे रही हैं

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कई सर-ज़मीनें सदा दे रही हैं कि आओ
कई शहर मेरे त'आक़ुब में हैं चीख़ते हैं न जाओ
कई घर लब-ए-हाल से कह रहे हैं
कि जब से गए हो
हमें एक वीरान तन्हाई ने डस लिया है
पलट आओ फिर हम को आबाद कर दो

वो सब घर
वो सब शहर.... सब सर-ज़मीनें
मोहब्बत की छोड़ी हुई रहगुज़र बन गई हैं
कभी मंज़िलें थीं मगर आज गर्द-ए-सफ़र बन गई हैं
मोहब्बत सफ़र है
मुसलसल सफ़र है
सो मैं तुझ से तेरी ही जानिब सफ़र कर रहा हूँ

*सदा=पुकार; त’आक़ुब=पीछा करना; रहगुज़र=रास्ता; गर्द-ए-सफ़र=रास्ते की धूल; मुसल्सल=न रुकने वाला

‍~ सलीम अहमद

 Dec 14, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 9, 2018

मैं तुम्हारी रूह की अंगड़ाइयों से

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मैं तुम्हारी रूह की अंगड़ाइयों से आश्ना हूँ
मैं तुम्हारी धड़कनों के ज़ेर-ओ-बम पहचानता हूँ
मैं तुम्हारी अँखड़ियों में नर्म लहरें जागती सी देखता हूँ
जैसे जादू जागता हो
तुम अमर हो तो लचकती टहनियों की मामता हो

तुम जवानी हो तबस्सुम हो मोहब्बत की लता हो
मैं तुम्हें पहचानता हूँ तुम मिरी पहली ख़ता हो
लहलहाती झूमती फुलवारियों की ताज़गी हो बे-अदाई की अदा हो
तेज़ मंडलाती अबाबीलों के नन्हे बाज़ुओं का हौसला हो
फूल हो और फूल के अंजाम से ना-आश्ना हो

डालियों पर फूलती हो झूलती हो देखती हो भूलती हो
हर नए फ़ानूस पे गिरती हुई परवानगी हो
और ख़ुद भी रौशनी हो
ज़िंदगी हो ज़िंदगी के गिर्द चक्कर काटती हो
मैं तुम्हें पहचानता हूँ तुम मोहब्बत चाहती हो
ख़ुद को देखो और भरी दुनिया को देखो और सोचो
और सोचो तुम कहाँ हो

*ज़ेर-ओ-बम=ऊँचाई और नीचाई; मामता=मातृत्व; अबाबील=छोटी चिड़िया;

~ महबूब ख़िज़ां


 Dec 09, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 8, 2018

मुलाक़ात’

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जो हो न सकी बात वो चेहरों से अयाँ थी
हालात का मातम था मुलाक़ात कहाँ थी
उस ने न ठहरने दिया पहरों मिरे दिल को
जो तेरी निगाहों में शिकायत मिरी जाँ थी
*अयाँ=स्पष्ट

घर में भी कहाँ चैन से सोए थे कभी हम
जो रात है ज़िंदाँ में वही रात वहाँ थी
यकसाँ हैं मिरी जान क़फ़स और नशेमन
इंसान की तौक़ीर यहाँ है न वहाँ थी
*ज़िंदाँ=कारागार; क़फ़स=पिंजरा; नशेमन=घोसला

शाहों से जो कुछ रब्त न क़ाएम हुआ अपना
आदत का भी कुछ जब्र था कुछ अपनी ज़बाँ थी
सय्याद ने यूँही तो क़फ़स में नहीं डाला
मशहूर गुलिस्ताँ में बहुत मेरी फ़ुग़ाँ थी
*शाहों=राजाओं; रब्त=सम्बंध; क़ाएम=स्थापित करना; जब्र=अत्याचार; फ़ुग़ाँ=फ़रियाद

तू एक हक़ीक़त है मिरी जाँ मिरी हमदम
जो थी मिरी ग़ज़लों में वो इक वहम-ओ-गुमाँ थी
महसूस किया मैं ने तिरे ग़म से ग़म-ए-दहर
वर्ना मिरे अशआर में ये बात कहाँ थी
*ग़म-ए-दहर=दुनिया के दुख; अशआर=शेर का बहु वचन

~ हबीब जालिब

‘मुलाक़ात’ नज़्म हबीब जालिब ने उन दिनों लिखी थी जब वो सरकार विरोधी आंदोलन में भाग लेने की वज़ह से जेल में बंद थे, और उनके परिवार को बहुत मुसीबतें उठानी पड़ रहीं थीं।


 Dec 08, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, December 7, 2018

मुझे अब डर नहीं लगता


किसी के दूर जाने से
तअ'ल्लुक़ टूट जाने से
किसी के मान जाने से
किसी के रूठ जाने से
मुझे अब डर नहीं लगता

किसी को आज़माने से
किसी के आज़माने से
किसी को याद रखने से
किसी को भूल जाने से
मुझे अब डर नहीं लगता

किसी को छोड़ देने से
किसी के छोड़ जाने से
ना शम्अ' को जलाने से
ना शम्अ' को बुझाने से
मुझे अब डर नहीं लगता

अकेले मुस्कुराने से
कभी आँसू बहाने से
ना इस सारे ज़माने से
हक़ीक़त से फ़साने से
मुझे अब डर नहीं लगता

किसी की ना-रसाई से
किसी की पारसाई से
किसी की बेवफ़ाई से
किसी दुख इंतिहाई से
मुझे अब डर नहीं लगता

ना तो इस पार रहने से
ना तो उस पार रहने से
ना अपनी ज़िंदगानी से
ना इक दिन मौत आने से
मुझे अब डर नहीं लगता

~ मोहसिन नक़वी


 Dec 07, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 2, 2018

काली, जगमगाती, निराली रातें

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काली, जगमगाती, निराली रातें
रस भरी, मदमाती रातें
रात की रानी ख़ुश्बू से भरी
तारों की मद्धम नूरानी छाँव में
हल्की ठंडी रातें
बैसाखी हवाओं
''सारंगी की लम्बी अलकसी सिसकियों''
प्यार के राज़ों से बोझल
कहानी रातें
कहाँ खो गईं हैं या-रब?

खो जाएँ
तो फिर खो जाएँ
लेकिन वो मन-मोहक घड़ियाँ
ख़ून में जैसे घुल सी गई हैं
वो लड़खड़ाते, अधूरे, ना-मुकम्मल जुमले
अब भी साफ़ सुनाई देते हैं
अब्रुओं, पलकों माथे की शिकनों के
बाँके तिरछे पल पल बदलते ज़ावीए
जो क्या क्या कुछ कहते थे
दिखाई देते हैं
वो नित-नई अनोखी बे-इंतिहा ख़ुशियाँ
मौजूद भी हैं ज़िंदा भी
लेकिन दर्द-ओ-अलम की मौजें बन कर
दिल के गोशे गोशे में फैल गई हैं
ये तो सुना है ज़हर कभी अमृत बन जाता है
लेकिन जब अमृत ख़ुद ज़हरीला हो जाए
फिर आख़िर कोई कैसे जिए?

~ सज्जाद ज़हीर


 Dec 02, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 1, 2018

आज भी कितनी अन-गिनत शमएँ

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आज भी कितनी अन-गिनत शमएँ
मेरे सीने में झिलमिलाती हैं
कितने आरिज़ की झलकियाँ अब तक
दिल में सीमीं वरक़ लुटाती हैं
*आरिज़=गाल; सीमीं=चाँदी; वरक़=पन्ने

कितने हीरा-तराश जिस्मों की
बिजलियाँ दिल में कौंद जाती हैं
कितनी तारों से ख़ुश-नुमा आँखें
मेरी आँखों में मुस्कुराती हैं
कितने होंटों की गुल-फ़िशाँ आँचें
मेरे होंटों में सनसनाती हैं
कितनी शब-ताब रेशमी ज़ुल्फ़ें
मेरे बाज़ू पे सरसराती हैं
*गुल-फिशाँ=फूलों की बुहार; शब-ताब=जुगुनू

कितनी ख़ुश-रंग मोतियों से भरी
बालियाँ दिल में टिमटिमाती हैं
कितनी गोरी कलाइयों की लवें
दिल के गोशों में जगमगाती हैं
कितनी रंगीं हथेलियाँ छुप कर
धीमे धीमे कँवल जलाती हैं
कितनी आँचल से फूटती किरनें
मेरे पहलू में रसमसाती हैं
*गोशों=कोनों

कितनी पायल की शोख़ झंकारें
दिल में चिंगारियाँ उड़ाती हैं
कितनी अंगड़ाइयाँ धनक बन कर
ख़ुद उभरती हैं टूट जाती हैं
कितनी गुल-पोश नक़्रई बाँहें
दिल को हल्क़े में ले के गाती हैं
आज भी कितनी अन-गिनत शमएँ
मेरे सीने में झिलमिलाती हैं
*धनक=इंद्रधनुष; गुलपोश=फूलों से सजी; नक़ई=चाँदी

अपने इस जल्वा-गर तसव्वुर की
जाँ-फ़ज़ा दिलकशी से ज़िंदा हूँ
इन ही बीते जवान लम्हों की
शोख़-ताबिंदगी से ज़िंदा हूँ
यही यादों की रौशनी तो है
आज जिस रौशनी से ज़िंदा हूँ
आओ मैं तुम से ए'तिराफ़ करूँ
मैं इसी शाइरी से ज़िंदा हूँ
*जल्वा-गर=रौशन; जाँ-फ़ज़ाँ=ज़िंदगी बढ़ाने वाला; शोख़-ताबिंदगी=शरारती चका चौंध; ए’तिराफ़=स्वीकार करना

~ जाँ निसार अख़्तर


 Dec 01, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 30, 2018

तेरा चेहरा सादा काग़ज़

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तेरा चेहरा सादा काग़ज़
है तअस्सुर कोरा कोरा
दाग़ है कोई न कोई नक़्श है!
क्यूँ ये खिड़की बंद है?

*तअस्सुर=भाव, मुद्रा; नक़्स=चिन्ह

आ तुझे अपने लबों से चूम कर
तेरे चेहरे को बना दूँ एक अच्छी सी बयाज़
ताकि इस पर हरी घड़ी बनते रहें मिटते रहें
तेरे अंदर घूमते फिरते हुए
ना-शुनीदा और ना-गुफ़्ता हुरूफ़

*बयाज़=कविता लिखने की पुस्तिका; ना-शुनीदा=अन-सुने; ना-गुफ़्ता=अन-कहे; हुरूफ़=शब्द

आ ये खिड़की खोल दूँ
ताकि तेरा अंदरूँ
(तेरी पलकों की चिक़ों तक ही सही) बाहर तो आए
सादा काग़ज़ पर कोई तहरीर हो
चौखटे में कोई तो तस्वीर हो

*तहरीर=लिखावट

वर्ना ये बन जाएगा अख़बार
कारोबार-ए-ईन-ओ-आँ का इश्तिहार
वक़्त के तलवों से क़तरा क़तरा ख़ूँ
तेरे चेहरे पर टपकता जाएगा जम जाएगा
ना-शुनीदा और ना-गुफ़्ता हुरूफ़
गड्ड-मडा जाएँगे हो जाएँगे जम्बल-अप' बहम

*ईन-ओ-आँ=इनका और उनका; जम्बल-उप (jumple-up)=बेतरतीब; बहम=आपस में

बंद खिड़की के पटों पर शोख़ लड़के
कुछ का कुछ लिखते रहेंगे

~ अमीक़ हनफ़ी


 Nov 30, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 24, 2018

क़तरा क़तरा टपक रहा है लहू

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क़तरा क़तरा टपक रहा है लहू
लम्हा लम्हा पिघल रही है हयात
मेरे ज़ानू पे रख के सर अपना
रो रही है उदास तन्हाई
कितना गहरा है दर्द का रिश्ता
कितना ताज़ा है ज़ख्म-ए-रुस्वाई
हसरतों के दरीदा दामन में
जाने कब से छुपाए बैठा हूँ
दिल की महरूमियों का सरमाया
टूटे-फूटे शराब के साग़र
मोम-बत्ती के अध-जले टुकड़े
कुछ तराशे शिकस्ता नज़्मों के
उलझी उलझी उदास तहरीरें
गर्द-आलूद चंद तस्वीरें
मेरे कमरे में और कुछ भी नहीं
मेरे कमरे में और कुछ भी नहीं

*ज़ानू=घुटना; रुसवाई=बे-इज़्ज़ती; दरीदा=फटेहाल; महरूमियाँ=अभाव; शिकस्ता=(घसीट में लिखा हुआ), टूटा हुआ; गर्द-आलूद=धूल से भरी

वक़्त का झुर्रियों भरा चेहरा
काँपता है मिरी निगाहों में
खो गई है मुराद की मंज़िल
ग़म की ज़ुल्मत-फ़रोश राहों में
मेरे घर की पुरानी दीवारें
हर घड़ी देखती हैं ख़्वाब नए
पर मिरी रूह के ख़राबे में
कौन आएगा इतनी रात गए

*मुराद=इच्छा; ज़ुल्मत-फ़रोश=अत्याचारी; ख़राबे=बिगड़े हुए

ज़िंदगी मेहरबाँ नहीं तो फिर
मौत क्यूँ दर्द-आश्ना होगी
खटखटाया है किस ने दरवाज़ा
देखना सर-फिरी हवा होगी

~ प्रेम वरबारतोनी


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Friday, November 23, 2018

मेरे पास क्या कुछ नहीं है

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मेरे पास रातों की तारीकी* में
खिलने वाले फूल हैं
और बे-ख़्वाबी
दिनों की मुरझाई हुई रौशनी है
और बीनाई*
मेरे पास लौट जाने को एक माज़ी है
और याद...
मेरे पास मसरूफ़ियत की तमाम तर रंगा-रंगी है
और बे-मानवीयत
और इन सब से परे खुलने वाली आँख
मैं आसमाँ को ओढ़ कर चलता
और ज़मीन को बिछौना करता हूँ
जहाँ मैं हूँ
वहाँ अबदियत* अपनी गिरहें* खोलती है
जंगल झूमते हैं
बादल बरसते हैं
मोर नाचते हैं
मेरे सीने में एक समुंदर ने पनाह ले रक्खी है
मैं अपनी आग में जलता
अपनी बारिशों में नहाता हूँ
मेरी आवाज़ में
बहुत सी आवाज़ों ने घर कर रक्खा है
और मेरा लिबास
बहुत सी धज्जियों को जोड़ कर तय्यार किया गया है
मेरी आँखों में
एक गिरते हुए शहर का सारा मलबा है
और एक मुस्तक़िल इंतिज़ार
और आँसू
और इन आँसुओं से फूल खिलते हैं
तालाब बनते हैं
जिन में परिंदे नहाते हैं
हँसते और ख़्वाब देखते हैं
मेरे पास
दुनिया को सुनाने के लिए कुछ गीत हैं
और बताने के लिए कुछ बातें
मैं रद किए जाने की लज़्ज़त से आश्ना हूँ
और पज़ीराई* की दिल-नशीं मुस्कुराहट से
भरा रहता हूँ
मेरे पास
एक आशिक़ की वारफ़्तगी*
दर-गुज़र* और बे-नियाज़ी* है

तुम्हारी इस दुनिया में
मेरे पास क्या कुछ नहीं है
वक़्त और तुम पर इख़्तियार के सिवा?

*तारीकी=अंधेरा; अबदियत=नियमित रूप से; गिरहें=गाठें; मुस्तकिल=लगातार; पजीराई=स्वीकृति; वारफ़्तगी=अपनी ही धुन में; दर-गुज़र=क्षमा करना; बे-नियाज़ी=उपेक्षा का भाव

~ अबरार अहमद

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Thursday, November 22, 2018

बिखरे हुए से ख़्वाब

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ख़्वाब कुछ बिखरे हुए से ख़्वाब हैं
कुछ अधूरी ख़्वाहिशें
तिश्ना-लब आवारगी के रोज़-ओ-शब
एक सहरा चार सू बिखरा हुआ
और क़दमों से थकन लिपटी हुई
एक गहरी बे-यक़ीनी के नुक़ूश
जाने कब से दो दिलों पर सब्त हैं
रात है और वसवसों की यूरिशें

*तिश्ना-लब=प्यासे होंठ; रोज़-ओ-शब=दिन और रात; चार सू=हर तरफ; नुक़ूश=नक़्श बहुवचन; सब्त=अंकित; वसवसों=सनक, झक; यूरिश=हमला

ये अचानक
ताक़ पे जलते दिए को क्या हुआ
सुब्ह होने में तो ख़ासी देर है
आइने और अक्स में दूरी है क्यूँ
रूह प्यासी है अज़ल से
दरमियाँ ताख़ीर का इक दश्त है
ना-गहाँ फिर ना-गहाँ
ये वही दस्तक वही आहट तो है

*अक्स=साया; अजल=आदिकाल; ताख़ीर=देर; दश्त=जंगल; ना-गहाँ=अचानक

हाँ मगर इन दूरियों मजबूरियों के दरमियाँ
कौन आएगा चलो फिर भी चलें
शायद उस को याद आए कोई भूली-बिसरी बात
वो दरीचा बंद है तो क्या हुआ
चाँद है उस बाम पर जागा हुआ

*दरीचा=खिड़की, झरोखा; बाम=छत

~ ख़ालिद मोईन

 Nov 22, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, November 21, 2018

सोने वालो जागो

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सोने वालो जागो
जागो सोने वालो जागो
वक़्त के खोने वालो जागो

बाग़ में चिड़ियाँ बोल रही हैं
कलियाँ आँखें खोल रही हैं
फूल ख़ुशी से झूम रहे हैं
पत्तों का मुँह चूम रहे हैं
जाग उठे दरिया और नहरें
जाग उठीं मौजें और लहरें
नाव चलाने वाले जागे
पार लगाने वाले जागे
सारी दुनिया जाग रही है
काम की जानिब भाग रही है
लिखने पढ़ने वालो जागो
फूलने बढ़ने वालो जागो
वक़्त के खोने वालो जागो

मुँह धो-धा कर नाश्ता खाओ
बस्ता ले कर मदरसे जाओ
सुब्ह का सोना ख़ूब नहीं है
अच्छा ये उस्लूब नहीं है
जागो सोने वालो जागो
वक़्त के खोने वालो जागो

*उस्लूब=आचरण, व्यवहार

~ हफ़ीज़ जालंधरी


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Sunday, November 18, 2018

वापसी की तमन्ना

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मैं ने सोचा तुम्हें मुद्दत से नहीं देखा है
दिल बहुत दिन से है बेचैन चलूँ घर हो आऊँ

दूर से घर नज़र आया रौशन
सारी बस्ती में मिला एक मिरा घर बे-ख़्वाब
पास पहुँचा तो वो देखा जो निगाहों में मिरी घूम रहा है अब तक
रौशन कमरे के अंदर,
और दहलीज़ पे तुम।

*बे-ख़्वाब=व्याकुल;

सुन के शायद मिरी चाप
तुम निकल आई थीं बिजली की तरह
और वहीं रुक सी गई थीं!
देर तक।

पाँव दहलीज़ पे चौखट पे रखे दोनों हाथ
बाल बिखराए हुए शानों पर
रौशनी पुश्त पे हाले की तरह
साँस की आमद-ओ-शुद थी न कोई जुम्बिश-ए-जिस्म
जैसे तस्वीर लगी हो
जैसे आसन पे खड़ी हो देवी

*शानो=कंधों; पुश्त=पीठ, हाले=halo; आमद-ओ-शुद=अस्तित्व; जुम्बिश-ए-जिस्म=हरकत

मैं ने सोचा अभी तुम ने मुझे पहचाना नहीं
बस इसी सोच में ले कर तुम्हें अंदर आया
पास बिठला के किया यूँही किसी बात का ज़िक्र
तुम ने बातें तो बहुत कीं मगर उन बातों में
कोई वाबस्तगी-ए-दिल
कोई मानूस इशारा
लब पे इज़हार-ए-ख़ुशी
न कोई ग़म की लकीर
अरे कुछ भी तो न था

*वाबस्तगी-ए-दिल=घनिष्टता; मानूस=अनौपचारिक

न वो हँसना, न वो रोना, न शिकायत, न गिला
न वो रग़बत की कोई चीज़ पकाने का ख़याल
न दरी ला के बिछाना न वो आँगन की लिपाई की कोई बात
न निगाहों में ये एहसास कि हम तुम दोनों
हैं कोई बीस बरस से इक साथ
लाख कोशिश पे भी तुम ने मुझे पहचाना नहीं
मैं ने जाना तुम्हें मैं ने भी नहीं पहचाना
एक इशारे में ज़माना ही बदल जाता है
सिलसिला उन्स ओ रिफ़ाक़त का कोई आज भी है
पर ये है और कोई
जिस से बाँधा है नया रिश्ता-ए-ज़ीस्त

*रगबत=दिलचस्पी; उन्स ओ रिफ़ाक़त=लगाव या दोस्ताना; रिश्ता-ए-ज़ीस्त=जीवन का रिश्ता

मैं भी हूँ और कोई, जिस के साथ
तुम भी हँस-बोल के रह लेती हो
वो भी थी और कोई
जो वहीं रुक गई उस चौखट पर
जैसे तस्वीर लगी हो
जैसे आसन पे खड़ी हो देवी

~ हबीब तनवीर 

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Saturday, November 17, 2018

जोगन, नैन मिले अनमोल

 
जोगन, नैन मिले अनमोल,
ओस कनों से कोमल सपने
पलकों-पलकों तौल!
जोगन, नैन मिले अनमोल!

इन सपनों की बात निराली,
दिन-दिन होली, रात दिवाली।
इनसे माँग नदी-झरनों के
मीठे-मीठे बोल !
जोगन, नैन मिले अनमोल!

सपनों का क्या ठौर-ठिकाना,
जाने कब आना, कब जाना।
नयन झरोखों से तू अपनी
दुनिया में रस घोल,
जोगन, नैन मिले अनमोल।

~ शतदल

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Friday, November 16, 2018

अल्ताफ़-ओ-करम

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अल्ताफ़-ओ-करम ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब कुछ भी नहीं है
था पहले बहुत कुछ मगर अब कुछ भी नहीं है

*अल्ताफ़-ओ-करम=अनुग्रह व कृपा; ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब=तमक और रोष

बरसात हो सूरज से समुंदर से उगे आग
मुमकिन है हर इक बात अजब कुछ भी नहीं है

दिल है कि हवेली कोई सुनसान सी जिस में
ख़्वाहिश है न हसरत न तलब कुछ भी नहीं है

अब ज़ीस्त भी इक लम्हा-ए-साकित है कि जिस में
हंगामा-ए-दिन गर्मी-ए-शब कुछ भी नहीं है

*जीस्त=जीवन; लम्हा-ए-साकित=एक चुप्पी भरा पल; हंगामा-ए-दिन=रौनकों से भरा दिन; गर्मी-ए-शब=लिप्सा से भरी रातें

सब क़ुव्वत-ए-बाज़ू के करिश्मात हैं 'राही'
क्या चीज़ है ये नाम-ओ-नसब कुछ भी नहीं है

*कुव्वत-ए-बाज़ू=बाज़ुओं की ताकत; नाम-ओ-नसब=नाम और कुल


~ महबूब राही, 

   Nov 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, November 11, 2018

अक्स

https://moderndaycontemplative.files.wordpress.com/2014/09/nature___rivers_and_lakes_flowering_trees_near_the_water_041725_.jpg

दरख़्तों! मुंतज़िर हो!
पानियों में झाँकते क्या हो?
खड़े हो साकित-ओ-जामिद
ख़ुद अपने अक्स की हैरानियों में गुम
तको इक दूसरे का मुँह
रहो यूँ ईस्तादा
पानियों को क्या
यूं हीं बहते रहेंगे

*मुंतज़िर=आशावान; चुपचाप और स्थिर; अक्स=प्रतिबिम्ब, ईस्ताद=खड़े

अक्स जो झलकेगा
सतह-ए-आब बस आईना बन कर जगमगाएगी
हवा जो मौज में आई
तो बस लहरों से खेलेगी!
तुम्हारे डगमगाते अक्स को
कोई सँभाला तक नहीं देगा!
तुम्हारे अपने पत्ते तालियाँ पीटेंगे
सन-सन सनसनाहट से हवा की
काँपती शाख़ें
करेंगी क्या
कनार-ए-आबजू मह-रू
तका करता था घंटों महवियत से
इश्तियाक़-ए-दीद का आलम
हर इक पत्ते की आँखों में
तुम्हारा दिलरुबा मह-रू
वो अब लौटे भला कैसे
दरख़्तो भूल सकती है कहाँ

*सतह-ए-आब=पानी की सतह; कनार-ए-आबजू=झरने का किनारा; मह-रू=चाँद सी शक्ल

वो शक्ल
जिस को देख कर पानी की आँखें
इस तरह से जगमगाती थीं
कि उस को देखने
क़ौस-ए-क़ुज़ह के रंग
हँसते खिलखिलाते
आ गले लगते थे लहरों से!

*क़ौस-ए-क़ुज़ह=इंद्रधनुष

कई इक बार तुम ने भी
उसी की चाह में
झुक कर
हवा-ए-तेज़ में भी
बे-ख़तर
चूमी थी पेशानी इसी पानी की
जो मिल कर हवाओं से
जड़ों में भर रहा है नम!
उसे किस बात का है ग़म
गिरोगे मुँह के बल तो
क़हक़हा पानी का सुन लेना!
तुम्हें अपनी तहों में यूँ छुपाएगा
ख़बर तक भी नहीं होगी किसी को
तुम यहाँ पर थे
बहा ले जाएगा
अंजान से उन साहिलों तक
और
वहाँ उन साहिलों पर
ख़स-ओ-ख़ाशाक में ढल कर
तुम्हारी मुंतज़िर आँखें सलामत रह गईं तो
देख लोगे ख़ुद
वही मह-रू
पलट कर जो कभी आया नहीं था!

*ख़स-ओ-ख़ाशाक =घास तिनके

~ आरिफ़ा शहज़ाद

  Nov 11, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 9, 2018

उजाला

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मेरी हमदम, मिरे ख़्वाबों की सुनहरी ताबीर
मुस्कुरा दे कि मिरे घर में उजाला हो जाए
आँख मलते हुए उठ जाए किरन बिस्तर से
सुब्ह का वक़्त ज़रा और सुहाना हो जाए

*ताबीर=स्पष्टीकरण

मेरे निखरे हुए गीतों में तिरा जादू है
मैं ने मेयार-ए-तसव्वुर से बनाया है तुझे
मेरी परवीन-ए-तख़य्युल, मिरी नसरीन-ए-निगाह
मैं ने तक़्दीस के फूलों से सजाया है तुझे

*मेयार-ए-तसव्वुर=कल्पना का ऊँचा स्तर; परवीन-ए-तख़य्युल=काल्पनिक कुशलता; नसरीन=जंगली गुलाब

दूध की तरह कुँवारी थी ज़मिस्ताँ की वो रात
जब तिरे शबनमी आरिज़ ने दहकना सीखा
नींद के साए में हर फूल ने अंगड़ाई ली
नर्म कलियों ने तिरे दम से चटकना सीखा
ज़मिस्ता=सर्दी; आरिज़=गाल

मेरी तख़्ईल की झंकार को साकित पा कर!
चूड़ियाँ तेरी कलाई में खनक उठती थीं
उफ़ मिरी तिश्ना-लबी तिश्ना-लबी तिश्ना-लबी!
कच्ची कलियाँ तिरे होंटों की महक उठती थीं

*तख़ईल=कल्पना; साकित=चुप

वक़्त के दस्त-ए-गिराँ-बार से मायूस न हो
किस को मालूम है क्या होना है और क्या हो जाए
मेरी हमदम, मिरे ख़्वाबों की सुनहरी ताबीर
मुस्कुरा दे कि मिरे घर में उजाला हो जाए

*दस्त-ए-गिराँ-बार=बोझ, भारी हाथों

~ मुस्तफ़ा ज़ैदी

  Nov 9, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Thursday, November 8, 2018

दीवाली, दिलों का मिलन

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घर की क़िस्मत जगी घर में आए सजन
ऐसे महके बदन जैसे चंदन का बन
आज धरती पे है स्वर्ग का बाँकपन
अप्सराएँ न क्यूँ गाएँ मंगलाचरण

ज़िंदगी से है हैरान यमराज भी
आज हर दीप अँधेरे पे है ख़ंदा-ज़न
उन के क़दमों से फूल और फुल-वारियाँ
आगमन उन का मधुमास का आगमन
*ख़ंदा-ज़न=हँसी उड़ाता हुआ

उस को सब कुछ मिला जिस को वो मिल गए
वो हैं बे-आस की आस निर्धन के धन
है दीवाली का त्यौहार जितना शरीफ़
शहर की बिजलियाँ उतनी ही बद-चलन

उन से अच्छे तो माटी के कोरे दिए
जिन से दहलीज़ रौशन है आँगन चमन
कौड़ियाँ दाँव की चित पड़ें चाहे पट
जीत तो उस की है जिस की पड़ जाए बन

है दीवाली-मिलन में ज़रूरी 'नज़ीर'
हाथ मिलने से पहले दिलों का मिलन

~ नज़ीर बनारसी


  Nov 8, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 3, 2018

कुछ इतने धुँधले साए हैं

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मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँधले साए हैं

दो पाँव बने हरियाली पर
एक तितली बैठी डाली पर
कुछ जगमग जुगनू जंगल से
कुछ झूमते हाथी बादल से
ये एक कहानी नींद भरी
इक तख़्त पे बैठी एक परी
कुछ गिन गिन करते परवाने
दो नन्हे नन्हे दस्ताने
कुछ उड़ते रंगीं ग़ुबारे
बब्बू के दुपट्टे के तारे
ये चेहरा बन्नो बूढ़ी का
ये टुकड़ा माँ की चूड़ी का
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँधले साए हैं

अलसाई हुई रुत सावन की
कुछ सौंधी ख़ुश्बू आँगन की
कुछ टूटी रस्सी झूले की
इक चोट कसकती कूल्हे की
सुलगी सी अँगीठी जाड़ों में
इक चेहरा कितनी आड़ों में
कुछ चाँदनी रातें गर्मी की
इक लब पर बातें नरमी की
कुछ रूप हसीं काशानों का
कुछ रंग हरे मैदानों का
कुछ हार महकती कलियों के
कुछ नाम वतन की गलियों के
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँधले साए हैं

कुछ चाँद चमकते गालों के
कुछ भँवरे काले बालों के
कुछ नाज़ुक शिकनें आँचल की
कुछ नर्म लकीरें काजल की
इक खोई कड़ी अफ़्सानों की
दो आँखें रौशन-दानों की
इक सुर्ख़ दुलाई गोट लगी
क्या जाने कब की चोट लगी
इक छल्ला फीकी रंगत का
इक लॉकेट दिल की सूरत का
रूमाल कई रेशम से कढ़े
वो ख़त जो कभी मैं ने न पढ़े
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
में ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँधले साए हैं

कुछ उजड़ी माँगें शामों की
आवाज़ शिकस्ता जामों की
कुछ टुकड़े ख़ाली बोतल के
कुछ घुँघरू टूटी पायल के
कुछ बिखरे तिनके चिलमन के
कुछ पुर्ज़े अपने दामन के
ये तारे कुछ थर्राए हुए
ये गीत कभी के गाए हुए
कुछ शेर पुरानी ग़ज़लों के
उनवान अधूरी नज़्मों के
टूटी हुई इक अश्कों की लड़ी
इक ख़ुश्क क़लम इक बंद घड़ी
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँधले साए हैं

कुछ रिश्ते टूटे टूटे से
कुछ साथी छूटे छूटे से
कुछ बिगड़ी बिगड़ी तस्वीरें
कुछ धुँदली धुँदली तहरीरें
कुछ आँसू छलके छलके से
कुछ मोती ढलके ढलके से
कुछ नक़्श ये हैराँ हैराँ से
कुछ अक्स ये लर्ज़ां लर्ज़ां से
कुछ उजड़ी उजड़ी दुनिया में
कुछ भटकी भटकी आशाएँ
कुछ बिखरे बिखरे सपने हैं
ये ग़ैर नहीं सब अपने हैं
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँधले साए हैं

~ जाँ निसार अख़्तर


  Nov 3, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 2, 2018

जिन्हें हम दोस्त कहते हैं



वो कैसे लोग होते हैं जिन्हें हम दोस्त कहते हैं
न कोई ख़ून का रिश्ता न कोई साथ सदियों का
मगर एहसास अपनों सा वो अनजाने दिलाते हैं
वो कैसे लोग होते हैं जिन्हें हम दोस्त कहते हैं

ख़फ़ा जब ज़िंदगी हो तो वो आ के थाम लेते हैं
रुला देती है जब दुनिया तो आ कर मुस्कुराते हैं 

अकेले रास्ते पे जब मैं खो जाऊँ तो मिलते हैं
सफ़र मुश्किल हो कितना भी मगर वो साथ जाते हैं
वो कैसे लोग होते हैं जिन्हें हम दोस्त कहते हैं

नज़र के पास हों न हों मगर फिर भी तसल्ली है
वही मेहमान ख़्वाबों के जो दिल के पास रहते हैं
मुझे मसरूर करते हैं वो लम्हे आज भी 'इरफ़ान'
कि जिन में दोस्तों के साथ के पल याद आते हैं
वो कैसे लोग होते हैं जिन्हें हम दोस्त कहते हैं

~ इरफ़ान अहमद मीर


  Nov 2, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 28, 2018

एक दो पल तो ज़रा और रुको



एक दो पल तो ज़रा और रुको
ऐसी जल्दी भी भला क्या है चले जाना तुम
शाम महकी है अभी और न पलकों पे सितारे जागे
हम सर-ए-राह अचानक ही सही
मुद्दतों बा'द मिले हैं तो न मिलने की शिकायत कैसी

फ़ुर्सतें किस को मयस्सर हैं यहाँ
आओ दो-चार क़दम और ज़रा साथ चलें
शहर-ए-अफ़्सुर्दा के माथे पे बुझी शाम की राख
ज़र्द पत्तों में सिमटती देखें
फिर उसी ख़ाक-ब-दामाँ पल से
अपने गुज़रे हुए कल की ख़ुश-बू
लम्हा-ए-हाल में शामिल कर के
अपनी बे-ख़्वाब मसाफ़त का इज़ाला कर लें
अपने होने का यक़ीं
और न होने का तमाशा कर लें
आज की शाम सितारा कर लें

**सर-ए-राह=रास्ते पर; शहर-ए-अफ़्सुर्दा=उदास शहर; दामाँ=कोना; ज़र्द=पीली; लम्हा-ए-हाल=वर्तमान; मसाफ़त=यात्रा; इज़ाला=क्षतिपूर्ति

~ ख़ालिद मोईन


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Saturday, October 27, 2018

तुम से शिकायत क्या करूँ

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होता जो कोई दूसरा
करता गिला मैं दर्द का
तुम तो हो दिल का मुद्दआ'
तुम से शिकायत क्या करूँ

देखो है बुलबुल नाला-ज़न
कहती है अहवाल-ए-चमन
मैं चुप हूँ गो हूँ पुर-मेहन
तुम से शिकायत क्या करूँ

*नाला-जन=विलाप-अवस्था; अहवाल-ए-चमन=चमन की हालत;
पुर-मेहन=बहुत उदास

माना कि मैं बेहोश हूँ
पर होश है पुर-जोश हूँ
ये सोच कर ख़ामोश हूँ
तुम से शिकायत क्या करूँ

*पुर-जोश=भरपूर जोश में

तुम से तो उल्फ़त है मुझे
तुम से तो राहत है मुझे
तुम से तो मोहब्बत है मुझे
तुम से शिकायत क्या करूँ

~ बहज़ाद लखनवी


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Friday, October 26, 2018

इक शहंशाह ने बनवा के

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इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है
इस के साए में सदा प्यार के चर्चे होंगे
ख़त्म जो हो न सकेगी वो कहानी दी है

ताज वो शम्अ है उल्फ़त के सनम-ख़ाने की
जिस के परवानों में मुफ़्लिस भी हैं ज़रदार भी हैं
संग-ए-मरमर में समाए हुए ख़्वाबों की क़सम
मरहले प्यार के आसाँ भी हैं दुश्वार भी हैं
दिल को इक जोश इरादों को जवानी दी है
*मुफ़्लिस=ग़रीब; अरदार=दौलमंद; मरहले= ठिकाने

ताज इक ज़िंदा तसव्वुर है किसी शाएर का
उस का अफ़्साना हक़ीक़त के सिवा कुछ भी नहीं
इस के आग़ोश में आ कर ये गुमाँ होता है
ज़िंदगी जैसे मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं
ताज ने प्यार की मौजों को रवानी दी है
*तसव्वुर=कल्पना;

ये हसीं रात ये महकी हुई पुर-नूर फ़ज़ा
हो इजाज़त तो ये दिल इश्क़ का इज़हार करे
इश्क़ इंसान को इंसान बना देता है
किस की हिम्मत है मोहब्बत से जो इंकार करे
आज तक़दीर ने ये रात सुहानी दी है
*पुर-नूर=रौशन; फ़ज़ा=वातावरण

इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है

~ शकील बदायूँनी

  Oct 26, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 21, 2018

ज़वाल पर थी बहार की रुत

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ज़वाल पर थी बहार की रुत
ख़िज़ाँ का मौसम उरूज पर था
उदासियाँ थीं हर एक शय पर
चमन से शादाबियाँ ख़फ़ा थीं
उन ही दिनों में थी मैं भी तन्हा
उदासी मुझ को भी डस रही थी
वो गिरते पत्तों की सूखी आहट
ये सहरा सहरा बिखरती हालत
हमी को मेरी कुचल रही थी
मैं लम्हा लम्हा सुलग रही थी
*जवाल=उतार; उरूज=चोटी; शादाब=ख़ुशी; सहरा=जंगल

मुझे ये इरफ़ान हो गया था
हक़ीक़त अपनी भी खुल रही थी
कि ज़ात अपनी है यूँ ही फ़ानी
जो एक झटका ख़िज़ाँ का आए
तो ज़िंदगी का शजर भी इस पुल
ख़मोश-ओ-तन्हा खड़ा मिलेगा
मिज़ाज और ख़ुश-रवी के पत्ते
दिलों में लोगों के मिस्ल-ए-सहरा
फिरेंगे मारे ये याद बन कर
कुछ ही दिनों तक
*इरफ़ान=ज्ञान; ज़ात=अस्तित्व; फ़ानी=नश्वर; शजर=पेड़;मिस्ल-ए-सहरा=जंगल जैसे

मगर मुक़द्दर है उन का फ़ानी
के लाख पत्ते ये शोर कर लें
मिज़ाज में सर-कशी भी रख लें
या गिर्या कर लें उदास हो लें
तो फ़र्क़ उसे ये बस पड़ेगा
ज़मीन उन को समेट लेगी
ज़रा सी फिर ये जगह भी देगी
करिश्मा क़ुदरत का है ये ऐसा
उरूज पर है ज़वाल अपना
हर एक को है पलट के जाना
*सर-कशी=विद्रोह; गिर्या=रोना-धोना;

~ असरा रिज़वी


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Saturday, October 20, 2018

उफ़ुक़ के उस तरफ़ कहते हैं

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उफ़ुक़ के उस तरफ़ कहते हैं इक रंगीन वादी है
वहाँ रंगीनियाँ कोहसार के दामन में सोती हैं
गुलों की निकहतें हर चार-सू आवारा होती हैं
वहाँ नग़्मे सबा की नर्म-रौ मौजों में बहते हैं
वहाँ आब-ए-रवाँ में मस्तियों के रक़्स रहते हैं

*उफ़ुक़=क्षितिज; कोहसार-पर्वतों; निकहत=ख़ुशबू; सू=दिशा; आब-ए-रवाँ=बहता पानी; रक़्स-नृत्य

वहाँ है एक दुनिया-ए-तरन्नुम आबशारों में
वहाँ तक़्सीम होता है तबस्सुम लाला-ज़ारों में
सुनहरी चाँद की किरनें वहाँ रातों को आती हैं
वहाँ परियाँ मोहब्बत के बे-ख़ौफ़ गीत गाती हैं

*आबशारों=झरने; तक़्सीम=बँटता; लाला-ज़ारों=फूलों के बाग़

वहाँ के रहने वालों को गुनह करना नहीं आता
ज़लील ओ मुब्तज़िल जज़्बात से डरना नहीं आता
वहाँ अहल-ए-मोहब्बत का न कोई नाम धरता है
वहाँ अहल-ए-मोहब्बत पर न कोई रश्क करता है

*ज़लील=अपमानित; मुब्तज़िल=अशिष्ट, अहल-ए-मोहब्बत=प्रेम के लोग; रश्क-ईर्ष्या

मोहब्बत करने वालों को वहाँ रुस्वा नहीं करते
मोहब्बत करने वालों का वहाँ चर्चा नहीं करते
हम अक्सर सोचते हैं तंग आ कर कहीं चल दें
मिरी जाँ! ऐ मिरे ख़्वाबों की दुनिया चल वहीं चल दें
*रुस्वा=अपमानित

उफ़ुक़ के उस तरफ़ कहते हैं इक रंगीन वादी है

~ नज़ीर मिर्ज़ा बर्लास

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Sunday, October 14, 2018

कोई हसरत भी नहीं

 
कोई हसरत भी नहीं कोई तमन्ना भी नहीं
दिल वो आँसू जो किसी आँख से छलका भी नहीं

रूठ कर बैठ गई हिम्मत-ए-दुश्वार-पसंद
राह में अब कोई जलता हुआ सहरा भी नहीं

आगे कुछ लोग हमें देख के हँस देते थे
अब ये आलम है कोई देखने वाला भी नहीं

दर्द वो आग कि बुझती नहीं जलती भी नहीं
याद वो ज़ख़्म कि भरता नहीं रिसता भी नहीं

बादबाँ खोल के बैठे हैं सफ़ीनों वाले
पार उतरने के लिए हल्का सा झोंका भी नहीं

~ अहमद राही

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