Disable Copy Text

Saturday, August 12, 2017

दर्द जब बाँधा, उभर आया

Image may contain: 1 person, standing

दर्द जब बाँधा, उभर आया,
गीत से पहले तुम्हारा नाम।

कुल-मुलाये छंद के पंछी
छा गयी जब धूप हल्की सी,
ओढ़ युग जो सो रही बातें
लग रहीं अब आज-कल की-सी,
याद टूटे स्वप्न भर लाई
जो किये थे वक़्त ने नीलाम।

खोल दी खिड़की हवाओं ने
उम्र सी पाई व्यवधाओं ने,
व्योम भर अपनत्व दर्शाया
बाँह में भर भर दिशाओं ने,
चार मोती बो गई दृग में
रात से पहले निगोड़ी शाम।

चल रही है ज़िंदगी पथ पर
पीठ पर लादे हुये पतझर,
क्या कब दीप बुझ जाये
औ निगल जाये अंधेरा, स्वर,
कामना इतनी कि पा जाऊँ
स्वर्ग से पहले तुम्हारा धाम।

~ रमेश रंजक


 Aug 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मैं तेरे पिंजरे का तोता

Image may contain: 1 person, smiling, sitting and outdoor

मैं तेरे पिंजरे का तोता
तू मेरे पिंजरे की मैना,
यह बात किसी से मत कहना।

मैं तेरी आंखों में बंदी
तू मेरी आंखों में प्रतिक्षण
मैं चलता तेरी सांस–सांस
तू मेरे मानस की धड़कन
मैं तेरे तन का रत्नहार
तू मेरे जीवन का गहना,
यह बात किसी से मत कहना।

हम युगल पखेरू हंस लेंगे
कुछ रो लेंगे कुछ गा लेंगे
हम बिना बात रूठेंगे भी
फिर हंस कर तभी मना लेंगे
अंतर में उगते भावों के
जलजात किसी से मत कहना,
यह बात किसी से मत कहना।

क्या कहा! कि मैं तो कह दूंगी!
कह देगी तो पछताएगी
पगली इस सारी दुनियां में
बिन बात सताई जाएगी
पीकर प्रिये अपने नयनों की बरसात
विहंसती ही रहना,
यह बात किसी से मत कहना।

हम युगों युगों के दो साथी
अब अलग अलग होने आए
कहना होगा तुम हो पत्थर
पर मेरे लोचन भर आए
पगली इस जग के अतल–सिंधु मे
अलग अलग हमको बहना
यह बात किसी से मत कहना।

~ देवराज दिनेश


 Aug 11, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

यूँ भी तिरा एहसान है

Image may contain: 1 person, selfie and closeup

यूँ भी तिरा एहसान है आने के लिए आ
ऐ दोस्त किसी रोज़ न जाने के लिए आ

हर-चंद नहीं शौक़ को यारा-ए-तमाशा
ख़ुद को न सही मुझ को दिखाने के लिए आ
*हर-चंद=यद्यपि; यारा-ए-तमाशा=कुछ देखने का हौसला

ये उम्र, ये बरसात, ये भीगी हुइ रातें
इन रातों को अफ़्साना बनाने के लिए आ
*अफ़्साना=कहानी

जैसे तुझे आते हैं न आने के बहाने
ऐसे ही बहाने से न जाने के लिए आ

माना कि मोहब्बत का छुपाना है मोहब्बत
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ

तक़दीर भी मजबूर है, तदबीर भी मजबूर
इन कोहना अक़ीदे को मिटाने के लिए आ
*तदबीर=उपाय; कोहना=पुराना; अक़ीदे=विश्वास

आरिज़ पे शफ़क़, दामन-ए-मिज़्गाँ में सितारे
यूँ इश्क़ की तौक़ीर बढ़ाने के लिए आ
आरिज़=गाल; शफ़क़=लाली; दामन-ए-मिज़्गाँ=आँख की पुतलियों का निकीला किनारा

'तालिब' को ये क्या इल्म, करम है कि सितम है
जाने के लिए रूठ, मनाने के लिए आ
*इल्म=जानकारी; करम=कृपा; सितम=ज़ुल्म

~ तालिब बाग़पती


 Aug 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आज भोर में दूर क्षितिज पर

Image may contain: 1 person, outdoor 

आज भोर में दूर क्षितिज पर
शीतल-शान्त मन्त्र-मुग्ध सा
चेहरा देख पूर्ण चन्द्र का
एक भाव उठा

क्या उसने मनमीत पा लिया
या फिर प्रीति की रीति समझ ली?
या देख सभी को दुखी जगत् में
आस-त्रास का मर्म पा लिया

क्या यह एक क्षणिक तृप्ति है
या कष्ट क्लेश पर अनन्त विजय
क्या नहीं रहा भय किसी सूर्य का
किसी ग्रहण या किसी श्राप का?

देर रात्रि फिर सपने में
आ कर कुछ बोला चन्दा ने
चल अब उठ यह छोड़ बिछौने
यहाँ नहीं कोई तेरे अपने

उठ कर जब ऊपर आएगा
नभ भी नीचे रह जाएगा
अपने अन्दर सब प्रश्नों के
उत्तर भी तू पा जाएगा

~ आनन्द प्रकाश माहेश्वरी


 Aug 9, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ये ऐश-ओ-तरब के मतवाले

 
ये ऐश-ओ-तरब के मतवाले
बे-कार की बातें करते हैं
पायल के ग़मों का इल्म नहीं
झंकार की बातें करते हैं

नाहक़ है हवस के बंदों को
नज़्ज़ारा-ए-फ़ितरत का दावा
आँखों में नहीं है बेताबी
दीदार की बातें करते हैं

कहते हैं उन्हीं को दुश्मन-ए-दिल
है नाम उन्हीं का नासेह भी
वो लोग जो रह कर साहिल पर
मंजधार की बातें करते हैं

पहुँचे हैं जो अपनी मंज़िल पर
उन को तो नहीं कुछ नाज़-ए-सफ़र
चलने का जिन्हें मक़्दूर नहीं
रफ़्तार की बातें करते हैं
*मक़्दूर=ताक़त, सामर्थ्य

~ शकील बदायूँनी


  Aug 8, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तू चिंगारी बनकर उड़ री

Image may contain: 2 people

तू चिंगारी बनकर उड़ री, जाग-जाग मैं ज्वाल बनूँ,
तू बन जा हहराती गँगा, मैं झेलम बेहाल बनूँ,
आज बसन्ती चोला तेरा, मैं भी सज लूँ लाल बनूँ,
तू भगिनी बन क्रान्ति कराली, मैं भाई विकराल बनूँ,
यहाँ न कोई राधारानी, वृन्दावन, बंशीवाला,
तू आँगन की ज्योति बहन री, मैं घर का पहरे वाला ।

बहन प्रेम का पुतला हूँ मैं, तू ममता की गोद बनी,
मेरा जीवन क्रीड़ा-कौतुक तू प्रत्यक्ष प्रमोद भरी,
मैं भाई फूलों में भूला, मेरी बहन विनोद बनी,
भाई की गति, मति भगिनी की दोनों मंगल-मोद बनी
यह अपराध कलंक सुशीले, सारे फूल जला देना ।
जननी की जंजीर बज रही, चल तबियत बहला देना ।

भाई एक लहर बन आया, बहन नदी की धारा है,
संगम है, गँगा उमड़ी है, डूबा कूल-किनारा है,
यह उन्माद, बहन को अपना भाई एक सहारा है,
यह अलमस्ती, एक बहन ही भाई का ध्रुवतारा है,
पागल घडी, बहन-भाई है, वह आज़ाद तराना है ।
मुसीबतों से, बलिदानों से, पत्थर को समझाना है ।

~ गोपाल सिंह नेपाली


  Aug 7, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, August 6, 2017

चाँद गोरी के घर बारात ले


चाँद गोरी के घर बारात ले के आ
गोरी ओट में खड़ी है सौगात ले के आ
जो कभी ना बोली गई वो बात ले के आ
जो खिल चुके हों फूल से हालात ले के आ

जिसमें बेकली भी हो, जिसमें शोखियाँ भी हों
जिसमें झिलमिलाती रात की बेहोशियाँ भी हों
जिसमें घोंसला भी हो, तिनकों से बुना अभी
जिसके तिनके हों कि ऐसे जैसे टूटें ना कभी

हो जिसमें सरसराहटें, जिसमें खिलखिलाहटें
जिसमें सुगबुगाहटें, जिसमें कसमसाहटें
जिसमें ज़िन्दगी भी हो, जिसमें बन्दगी भी हो
जिसमें रूठना भी हो तो थोड़ी दिल्लगी भी हो

अनबुझी पहेली सी रात ले के आ
चाँद गोरी के घर बारात ले के आ

~ पीयूष मिश्रा


  Aug 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, August 5, 2017

बिछड़ गए तो फिर भी मिलेंगे





बिछड़ गए तो फिर भी मिलेंगे हम दोनों एक बार
या इस बसती दुनिया में या इसकी हदों से पार

लेकिन ग़म है तो बस इतना जब हम वहां मिलेंगे
एक दूसरे को हम कैसे तब पह्चान सकेंगे
यही सोचते अपनी जगह पर चुप चुप खड़े रहेंगे

इससे पहले भी हम दोनों कहीं ज़रूर मिले थे
यह पहचान के नए शगूफ़े पहले कहां खिले थे

या इस बसती दुनिया में या इसकी हदों से पार
बिछड़ गए हैं मिल कर दोनों पहले भी एक बार

~ मुनीर नियाज़ी

  Aug 5 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ज़ुल्फ़ घटा बन कर रह जाए

Image may contain: 1 person

ज़ुल्फ़ घटा बन कर रह जाए आँख कँवल हो जाए
शायद उन को पल भर सोचें और ग़ज़ल हो जाए

जिस दीपक को हाथ लगा दो जलें हज़ारों साल
जिस कुटिया में रात बिता दो ताज-महल हो जाए

कितनी यादें आ जाती हैं दस्तक दिए बग़ैर
अब ऐसी भी क्या वीरानी घर जंगल हो जाए

तुम आओ तो पँख लगा कर उड़ जाए ये शाम
मीलों लम्बी रात सिमट कर पल दो पल हो जाए

~ क़ैसर-उल जाफ़री


  Aug 4 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

द्वार खोलो दस्तकें हैं

Image may contain: 1 person

द्वार खोलो
दस्तकें हैं दे रहीं भीगी हवाएँ

अभी जो बौछार आई
लिख गई वह मेह-पाती
उधर देखो कौंध बिजुरी की
हुई आकाश-बाती

दमक में उसकी
छिपी हैं किसी बिछुड़न की व्यथाएँ

नागचंपा हँस रहा है
खूब जी भर वह नहाया
किसी मछुए ने उमगकर
रागबरखा अभी गाया

घाट पर बैठा
भिखारी दे रहा सबको दुआएँ

पाँत बगुलों की
अभी जो गई उड़कर
उसे दिखता दूर से
जलभरा पोखर

उसी पोखर में
नहाकर आईं हैं सारी दिशाएँ

~ कुमार रवींद्र


  Aug 2 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हमारे घर की दीवारों में

Image may contain: 1 person, closeup

हमारे घर की दीवारों में अनगिनत दरारें हैं
सुनिश्चित है कहीं बुनियाद में ग़लती हुई होगी ।

क़ुराने पाक, गीता, ग्रन्थ साहिब शीश धुनते हैं
हमारे भाव के अनुवाद में गलती हुई होगी ।
जो सब कुछ जल गया फिर राख से सीखें तो क्या सीखें,
हवा और आग के संवाद में ग़लती हुई होगी ।

हमारे पास सब कुछ है मगर दुर्भाग्य से हारे
कहीं अंदर से चिनगारी कहीं बाहर से अंगारे ।
गगन से बिजलियाँ कडकी धरा से ज़लज़ले आए
यही क्या कम हैं हम इतिहास से जीवित चले आए ।

हमारे अधबने इस नीड़ का नक्शा बताता है
कि कुछ प्रारंभ में कुछ बाद में ग़लती हुई होगी ।

~ उदयप्रताप सिंह


  Aug 1 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

सिर पर आग, पीठ पर पर्वत

Image may contain: 2 people, people smiling, closeup

सिर पर आग
पीठ पर पर्वत
पाँव में जूते काठ के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

यह तस्वीर
नई है भाई
आज़ादी के बाद की
जितनी क़ीमत
खेत की कल थी
उतनी क़ीमत
खाद की
सब
धोबी के कुत्ते निकले
घर के हुए न घाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

बिना रीढ़ के
लोग हैं शामिल
झूठी जै-जैकार में
गूँगों की
फ़रियाद खड़ी है
बहरों के दरबार में
खड़े-खड़े
हम रात काटते
खटमल
मालिक खाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

मुखिया
महतो और चौधरी
सब मौसमी दलाल हैं
आज
गाँव के यही महाजन
यही आज ख़ुशहाल हैं
रोज़
भात का रोना रोते
टुकड़े साले टाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

~ कैलाश गौतम


  Jul 31 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

वो लम्हा जो तुम्हारे साथ

Image may contain: 1 person, closeup



वो लम्हा जो तुम्हारे
साथ गुजरा था वो अच्छा था
वो लम्हा फिर से हम इक
बार जी पाते तो
अच्छा था

तुम्हें जब याद करते है
अश्क आँखों से झरते हैं
तुम इन अश्कों को गर
मोती बना लेते तो
अच्छा था

वही हैं चांद तारे
फूल कलियाँ सब नज़ारे है
तुम्हारी ही कमी है
इक जो तुम आते तो
अच्छा था

वो नग़मा प्यार का जो
हमने तुमने गुनगुनाया था
वो नग़मा फिर से हम
इक बार गा पाते तो
अच्छा था

दूर जाकर तो जैसे भूल
बैठे हो मुझे लेकिन
कभी आकर चमन दिल का
खिला जाते तो
अच्छा था

तुमको रूठे हुए भी एक
अरसा बीत गया है
तुम वो शिकवे सभी गर
भूल जो पाते तो
अच्छा था

~ कुसुम सिन्हा

  Jul 30 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मेरे साथ जुड़ी हैं कुछ मेरी ज़रूरतें

Image may contain: flower, plant, outdoor and nature



मेरे साथ जुड़ी हैं कुछ मेरी ज़रूरतें
उनमें एक तुम हो।

चाहूँ या न चाहूँ :
जब ज़रूरत हो तुम,
तो तुम हो मुझ में
और पूरे अन्त तक रहोगी।

इससे यह सिद्ध कहाँ होता कि
मैं भी तुम्हारे लिए
उसी तरह ज़रूरी।

देखो न!
आदमी को हवा चाहिए ज़िन्दा रहने को
पर हवा तो
आदमी की अपेक्षा नहीं करती,
वह अपने आप जीवित है।

डाली पर खिला था एक फूल,
छुआ तितली ने,
रस लेकर उड़ गई।
पर
फूल वह तितली मय हो चुका था।

झरी पँखुरी एक : तितली।
फिर दूसरी भी : तितली।
फिर सबकी सब : तितली।
छूँछें वृन्त पर बाक़ी
बची ख़ुश्की जो : तितली।

कोमलता
अंतिम क्षण तक
यह बताकर ही गई :
'मैं वहाँ भी हूँ,
जहाँ मेरी कोई ज़रूरत नहीं।'

~ अजित कुमार

  Jul 29 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

यंत्र

Image may contain: 3 people, people standing and closeup



ठोकर खाकर हमने,
जैसे ही यंत्र को उठाया,
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई,
कुछ घरघराया...

झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखा,
अब यंत्र से,
पत्नी की आवाज़ आई -
"मैं तो भर पाई...,
सड़क पर चलने तक का,
तरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनर,या सली़क़ा नहीं आता...
बीवी साथ है, यह तक भूल जाते हैं...
और भिखमंगे-नदीदों की तरह,
चीज़ें उठाते हैं,
इनसे, इनसे तो,
वो पूना वाला,
इंजीनियर ही ठीक था...
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता,
इस तरह राह चलते,
ठोकर तो न खाता"

हमने सोचा,
यंत्र ख़तरनाक है...!
और यह भी इत्तफ़ाक़ है,
कि हमको मिला है,
और मिलते ही,
पूना वाला गुल खिला है...

और भी देखते हैं,
क्या-क्या गुल खिलते हैं...?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं...

तो हमने एक दोस्त का,
दरवाज़ा खटखटाया...
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया...
दिमाग़ में होने लगी आहट,
कुछ शूं-शूं,
कुछ घरघराहट...
यंत्र से आवाज़ आई -
"अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,
गुलबदन को, नहीं लाया है"

प्रकट में बोला,
ओहो...!
कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है...!
और सब ठीक है...?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं...?
हमने कहा,
भा... भी... जी...
या छप्पनछुरी गुलबदन...?

वो बोला,
होश की दवा करो श्रीमन्‌,
क्या अण्ट-शण्ट बकते हो...
भाभीजी के लिए,
कैसे-कैसे शब्दों का,
प्रयोग करते हो...?

हमने सोचा,
कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से ही,
हट रहा है...
सो, फ़ैसला किया,
अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरी,
प्रतिक्रिया नहीं करेंगे...

लेकिन अनुभव हुए नए-नए,
एक आदर्शवादी दोस्त के घर गए...
स्वयं नहीं निकले...
वे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं,
मस्तक में भयंकर पीड़ा थी,
अभी-अभी सोए हैं...
यंत्र ने बताया,
"बिल्कुल नहीं सोए हैं,
न कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथ,
द्यूत-क्रीड़ा हो रही है..."

अगले दिन कॉलिज में,
बी. ए फ़ाइनल की क्लास में,
एक लड़की बैठी थी,
खिड़की के पास में...
लग रहा था,
हमारा लेक्चर नहीं सुन रही है,
अपने मन में,
कुछ और-ही-और,
गुन रही है...
तो यंत्र को ऑन कर,
हमने जो देखा,
खिंच गई हृदय पर,
हर्ष की रेखा...
यंत्र से आवाज़ आई,
"सर जी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तो,
कितने स्मार्ट होते...!"

एक सहपाठी,
जो कॉपी पर उसका,
चित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथ,
पिकनिक मना रहा था...
हमने सोचा,
फ़्रायड ने सारी बातें,
ठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी में,
सेक्स के अलावा कुछ नहीं है...

कुछ बातें तो,
इतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने में,
भाषाएं बौनी हैं...

एक बार होटल में,
बेयरा पांच रुपये बीस पैसे,
वापस लाया,
पांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डाले,
यंत्र से आवाज़ आई,
"चले आते हैं,
मनहूस, कंजर कहीं के, साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले..."
हमने सोचा,
ग़नीमत है,
कुछ महाविशेषण और नहीं निकाले...

ख़ैर साहब...!,
इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं...
कभी ज़हर तो कभी,
अमृत के घूंट पिलाए हैं...
वह जो लिपस्टिक और पाउडर में,
पुती हुई लड़की है,
हमें मालूम है,
उसके घर में कितनी कड़की है...!
और वह जो पनवाड़ी है,
यंत्र ने बता दिया,
कि हमारे पान में,
उसकी बीवी की झूठी सुपारी है...

एक दिन कवि सम्मेलन मंच पर भी,
अपना यंत्र लाए थे,
हमें सब पता था, कौन-कौन कवि,
क्या-क्या करके आए थे
ऊपर से वाह-वाह, दिल में कराह,
अगला हूट हो जाए, पूरी चाह
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,
कुछ के सिरों में सिर्फ,
संयोजक का लिफ़ाफ़ा था

ख़ैर साहब,
इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया,
और मेरे काव्य-पाठ के दौरान,
कई कवि मित्र,
एक साथ सोच रहे थे,
अरे, यह तो जम गया...!

~ अशोक चक्रधर

  Jul 28 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

पल भर हो भले प्रहर भर हो

Image may contain: 2 people, people smiling

पल भर हो भले प्रहर भर हो
चाहे संबंध उमर भर हो
केवल इतनी सी शर्त मीत
हम मिलकर बेईमान ना हो़
जग जो चाहे सो कहे बिम्ब
आईने मे़ बदनाम ना हों।

गत क्या था क्या होगा आगत
मत अन्धकार का कर स्वागत
क्या पता कौन दिन दस्तक दे
सांकल खटकाये अभ्यागत
हम अपनी धरती पर जिये़
यक्ष गन्दर्बों के मेहमान ना हो।

कोई मिल जाता अनायास
लगता प्राणो़ के बहुत पास
फिर वही एक दिन खो जाता
सुधियो़ को दे अज्ञातवास
हम वर्तमान मे़ जिये भूत
या भावी के अनुमान ना हो़।

जगती की कैसी बिडम्वना
इतिहास नही होती घटना
छाया प्रतीत हो जाती है
विश्वास बदल होता सपना
स्वीकारे़ क्षण की अवधि
अनागत सपनो़ के अनुमान ना हो।
पल भर हो भले प्रहर भर हो

~ आत्म प्रकाश शुक्ल


  Jul 27 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

अपनी सफलता खोज लूँगा!

Image may contain: 1 person, dancing and outdoor

तुम मुझे दुख-दर्द की सारी विकलता सौंप देना,
मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा!

मैं सफ़र में चल पड़ा हूँ,
दूर जाऊँगा समझ लो।
व्यर्थ है आवाज़ देना,
आ न पाऊँगा समझ लो।
जोगियों से मन लगाना,
छोड़ दो मुझको बुलाना।
राह में दुश्वारियाँ हो. . . मैं सरलता खोज लूँगा,
मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा!

एक रचनाकार हूँ,
निर्माण करने में लगा हूँ।
मैं व्यथा का सोलहों-
सिंगार करने में लगा हूँ।
यह कठिन है काम लेकिन,
श्रम अथक अविराम लेकिन।
इस थकन में ही सृजन की मैं सबलता खोज लूँगा।
मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा!

फूल की पंखुड़ियों पर,
चैन से तुम सो न पाए।
जग तुम्हारा हो गया पर,
तुम किसी के हो न पाए।
तुम अधर की प्यास दे दो,
या सुलगती आस दे दो।
मैं हृदय की फाँस में अपनी तरलता खोज लूँगा,
मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा!

रात काली है मगर यह,
और गहरी हो न जाए।
फिर तुम्हारी चेतनायें,
शून्य होकर खो न जाए।
इसलिए मैं फिर खड़ा हूँ,
स्याह रातों से लड़ा हूँ।
मैं तिमिर में ही कहीं, सूरज निकलता खोज लूँगा।
मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा!

~ अजय पाठक


  Jul 26 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, August 4, 2017

यही ललक है, युगों-युगों से,

Image may contain: 1 person, smiling

यही ललक है, युगों-युगों से, एक झलक मैं उनकी पाऊं,
भवबंधन कट जाएं सारे, मुक्त गगन से, मैं मिल जाऊं।

पलक झपक न जाए कहीं ये, जब साजन का आना हो,
खनक न जाए कहीं ये पायल, छुप-छुपकर जब जाना हो,
प्रेम अगन में मगन है मनवा, किन छंदों में हाल सुनाऊं,
यही ललक है, युगों-युगों से, एक झलक मैं उनकी पाऊं,
भवबंधन कट जाएं सारे, मुक्त गगन से, मैं मिल जाऊं।

सदियों से जो बर्फ जमी है, मन कहता है पिघलेगी,
प्रेम की गंगा कभी बंधी है, चीर हिमालय निकलेगी,
लगन मेरी है जनम-जनम की, इक पल में क्या हाल सुनाऊं,
यही ललक है, युगों-युगों से, एक झलक मैं उनकी पाऊं,
भवबंधन कट जाएं सारे, मुक्त गगन से, मैं मिल जाऊं।

छलक न जाए कहीं गगरिया, जब आएं वो मेरी नगरिया,
ठिठक न जाएं कहीं कदम ये, भूल न जाएं कहीं डगरिया,
नयन बंद हों इससे पहिले, मैं भी उनसे नयन मिलाऊं,
यही ललक है, युगों-युगों से, एक झलक मैं उनकी पाऊं,
भवबंधन कट जाएं सारे, मुक्त गगन से, मैं मिल जाऊं।

~ कैलाश यादव 'सनातन'


  Jul 25 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

शमन के अंतिम चरण में

Image may contain: night and fire

शमन के अंतिम चरण में थरथराती आस क्यों हो
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो

शांत हो जलती कभी तो संग स्पंदन के थिरकती
रात की स्याही से अपने रूप को रंग कर निखरती
देह जल कर भस्म हो उस ताप में, पर मन नहाये
अश्रु-जल की बूँद से वह पूर्ण सागर तक समाये

त्याग अंतर का अहं, हो पूर्ण अर्पण, प्यार वो हो
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो

अंग अंग सोना बना है गहन पीड़ा में संवर कर
प्रज्ज्वलित है मन किसी आनंद अजाने से निखर कर
प्रियतमा बैठी बनी जो, प्रेम बंधन कठिन छूटे
तृषित मन की कामना है मधु की हर बूँद लूटे

मधुर उज्वल इस दिवस की राह में कोई शाम क्यों हो?
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो

है अचेतन मन, मगर हर क्षण में उसी का ध्यान भी है
रोष है उर में मगर विश्वास का स्थान भी है
देह के सब बंधनों को तोड़ कर कोई अलक्षित
आस की इक सूक्ष्म रेखा बाँधती होकर तरंगित

पास हो या दूर हो उस साँस पर अधिकार वो हो
दीप को अपने शिखा पर प्राण का विश्वास तो हो

~ मानोशी


  Jul 24 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

संबंधों के महल

Image may contain: 1 person



संबंधों के महल
प्‍यार के किस्‍से ही बाकी
बेरौनक-सी चुप्‍पी
ठिठके हिस्‍से ही बाकी

यदा-कदा दीवारें ही
इसकी रो लेती हैं
धूल पलस्‍तर पर की
आँसू से धो लेती हैं
विस्‍तृत गलियारे घर
उजड़े हिस्‍से ही बाकी

पसरे सन्‍नाटों का छाया
राज अकंटक है
चहल-पहल को ओसारे ने
समझा झंझट है
आवाजाही, पंगत बैठक
किस्‍से ही बाकी

शिखर विवश है मुँह पर अपने
ताला डाल रखा
अनियंत्रित झंझाड़-झाड़
छाती में पाल रखा
बूढ़ी काया औलादों के
घिस्‍से ही बाकी

~ राजा अवस्थी

  Jul 23 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

वक़्त अब बीत गया, बादल भी

Image may contain: 1 person, smiling, closeup

वक़्त अब बीत गया, बादल भी
क्या उदास रंग ले आये
देखिए कुछ हुई है आहट-सी
कौन है, तुम? चलो भले आये।

अजनबी लौट चुके द्वारे से
दर्द फिर लौटकर चले आये,
क्या अजब है पुकारिए जितना
अजनबी कौन भला आता है
एक है दर्द वही अपना है
लौट हर बार चला आता है।

अनखिले गीत सब उसी के हैं
अनकही बात भी उसी की है
अन-उगे दिन सब उसी के हैं
अन-हुई रात भी उसी की है
जीत पहले-पहल मिली थी जो
आखिरी मात भी उसी की है।

एक-सा स्वाद छोड़ जाती है
ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी
लोग आये गये बराबर हैं
शाम गहरा गयी, उदासी भी।

~ धर्मवीर भारती


  Jul 22 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

बुरा ज़माना, बुरा ज़माना

Image may contain: 1 person, sitting and beard

बुरा ज़माना, बुरा ज़माना, बुरा ज़माना
लेकिन मुझे ज़माने से कुछ भी तो शिकवा,
नहीं, नहीं है दुख कि क्यों हुआ मेरा आना
ऐसे युग में जिसमें ऐसी ही बही हवा।

गंध हो गई मानव की मानव को दुस्सह ।
शिकवा मुझ को है ज़रूर लेकिन वह तुम से,
तुम से जो मनुष्य होकर भी गुम-सुम से
पड़े कोसते हो बस अपने युग को रह-रह।

कोसेगा तुम को अतीत, कोसेगा भावी
वर्तमान के मेधा ! बड़े भाग से तुम को,
मानव-जय का अंतिम युद्ध मिला है चमको
ओ सहस्र जन-पद-निर्मित चिर-पथ के दावी।

तोड़ अद्रि का वक्ष क्षुद्र तृण ने ललकारा
बद्ध गर्भ के अर्भक ने है तुम्हें पुकारा।

~ नामवर सिंह


  Jul 21 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

अगर मैंने किसी के होंठ पाटल

Image may contain: 1 person, closeup

अगर मैंने किसी के होंठ पाटल कभी चूमे
अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे
कली सा तन, किरन सा मन, शिथिल सतरंगिया आँचल
उसी में खिल पड़े यदि भूल से कुछ ओठ के पाटल।

न हो यह वासना तो जिंदगी की माप कैसे हो,
नसों का रेशमी तूफान मुझको पाप कैसे हो।

किसी की साँस में बुन दूँ अगर अंगूर की परतें
प्रणय में निभ नहीं पातीं कभी इस तौर की शर्तें,
यहाँ तो हर कदम पर स्वर्ग की पगडंडियाँ घूमीं
अगर मैंने किसी की मदभरी अंगड़ाइयाँ चूमीं।

महज इस से किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो,
मझ इस से किसी का स्वर्ग मुझ पर श्राप कैसे हो।

‍~ धर्मवीर भारती


  Jul 20 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

दिल चुरा कर न हमको

Image may contain: 1 person, smiling, closeup



दिल चुरा कर न हमको बुलाया करो
गुनगुना कर न गम को सुलाया करो,

दो दिलों के मिलन का यहाँ है चलन
खुद न आया करो तो बुलाया करो,
रंग भी गुल शमा के बदलने लगे
तुम हमीं को न कस्में खिलाया करो,

सर झुकाया गगन ने धरा मिल गई
तुम न पलकें सुबह तक झुकाया करो,
सिंधु के पार को चाँद जाँचा करे
तुम न पायल अकेली बजाया करो,

मन्दिरों में तरसते उमर बिक गई
सर झुकाते झुकाते कमर झुक गई,
घूम तारे रहे रात की नाव में
आज है रतजगा प्यार के गाँव में

दो दिलों का मिलन है यहाँ का चलन
खुद न आया करो तो बुलाया करो,
नाचता प्यार है हुस्न की छाँव में
हाथ देकर न उँगली छुड़ाया करो

‍‍~ गोपाल सिंह नेपाली

  Jul 19 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई


Image may contain: 1 person, closeup

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!

भूलती-सी जवानी नई हो उठी,
भूलती-सी कहानी नई हो उठी,
जिस दिवस प्राण में नेह बंसी बजी,
बालपन की रवानी नई हो उठी।
किन्तु रसहीन सारे बरस रसभरे
हो गए जब तुम्हारी छटा भा गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।

घनों में मधुर स्वर्ण-रेखा मिली,
नयन ने नयन रूप देखा, मिली-
पुतलियों में डुबा कर नज़र की कलम
नेह के पृष्ठ को चित्र-लेखा मिली;
बीतते-से दिवस लौटकर आ गए
बालपन ले जवानी संभल आ गई।

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।

तुम मिले तो प्रणय पर छटा छा गई,
चुंबनों, सावंली-सी घटा छा गई,
एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण
पर गगन से उतर चंचला आ गई।

प्राण का दान दे, दान में प्राण ले
अर्चना की अमर चाँदनी छा गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।

‍~ माखनलाल चतुर्वेदी


  Jul 18 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

दोनों ओर प्रेम पलता है


Image may contain: 2 people

दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है,
हा दीपक भी जलता है!

सीस हिलाकर दीपक कहता
बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?
पर पतंग पड़ कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या?
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

कहता है पतंग मन मारे--
’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?
शरण किसे छलता है?’
दोनों ओर प्रेम पलता है।

दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।

जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहीं, परिणाम निरखती।
मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।


~ मैथिलीशरण गुप्त

  Jul 17 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

होगा, जो भी होगा साला

Image may contain: 1 person, standing and outdoor

होगा, जो भी होगा साला
देखा जाएगा।
क्या कर लेगा ऊपर वाला
देखा जाएगा।

डर जीवन की पहली और अन्तिम कठिनाई है
मौत को लेकर सौदेबाज़ी होती आई है
करो कलेजा कड़ा
आँख में आँखें डाल कहो
यह लो अपनी कण्ठी माला, देखा जाएगा।

पुल के नीचे एक किनारे दुबकी पड़ी नदी
दुनिया, दुनिया वालों से रहती है कटी-कटी
सपने सावन के अन्धों की भीड़ हो गए हैं
अन्धों से भी कहीं उजाला देखा जाएगा ?

मरना सच है, जानके भी
किसने जीना छोड़ा
सच की राह में अपना टुच्चापन ही है रोड़ा
केवल ख़तरा-ख़तरा चिल्लाने से बेहतर है

मार लें हम होठों पर ताला
देखा जाएगा।

~ देवेन्द्र आर्य

  Jul 16 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आँख क्या कह रही है, सुनो

Image may contain: 1 person, smiling, child, closeup and outdoor

आँख क्या कह रही है, सुनो-
अश्रु को एक दर्पण न दो।
और चाहे मुझे दान दो
एक टूटा हुआ मन न दो।

तुम जोड़ो शृंखला की कड़ी
धूप का यह घड़ी पर्व है
हर किरन को चरागाह की
रागिनी पर बडा गर्व है
जो कभी है घटित हो चुका
जो अतल में कहीं सो चुका
देवता को सृजन-द्वार पर
स्वप्न का वह विसर्जन न दो

एक गरिमा भरो गीत में
सृष्टि हो जाए महिमामयी
नेह की बाँह पर सिर धरो
आज के ये निमिष निर्णयी
आंचलिक प्यास हो जो, कहो
साथ आओ, उमड़ कर बहो
ज़िन्दगी की नयन-कोर में
डबडबाया समर्पण न दो।

जो दिवस सूर्य से दीप्त हो
चंद्रमा का नहीं वश वहाँ
जिस गगन पर मढ़ी धूप हो
व्यर्थ होती अमावस वहाँ
गीत है जो, सुनो, झूम लो
सिर्फ मुखड़ा पढ़ो, चूम लो
तैरने दो समय की नदी
डूबने का निमंत्रण न दो।

~ वीरेंद्र मिश्र


  Jul 15 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हम भी गुज़र गए

Image may contain: 1 person, smiling, flower, plant and outdoor



हम भी गुज़र गए यहाँ कुछ पल गुज़ार के,
रातें थीं क़र्ज़ की यहाँ दिन थे उधार के।

जैसे पुराना हार था रिश्ता तिरा मिरा,
अच्छा किया जो रख दिया तू ने उतार के।

दिल में हज़ार दर्द हों आँसू छुपा के रख,
कोई तो कारोबार हो बिन इश्तिहार के।

क्या जाने अब भी दर्द को क्यूँ है मिरी तलाश,
टुकड़े भी अब कहाँ बचे इस के शिकार के।

शायद ज़बाँ पे क़र्ज़ था हम ने चुका दिया,
ख़ामोश हो गए हैं तुझे हम पुकार के।

ऐसे सुलग उठा तिरी यादों से दिल मिरा,
जैसे धधक उठें कहीं जंगल चिनार के।

~ अजय पांडेय सहाब

  Jul 14 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

शाम का बहता हुआ दरिया

Image may contain: one or more people, people standing, sky, outdoor and nature


शाम का बहता हुआ दरिया कहाँ ठहरा!
साँवली पलकें नशीली नींद में जैसे झुकें
चाँदनी से भरी भारी बदलियाँ हैं,
ख़ाब में गीत पेंग लेते हैं
प्रेम की गुइयाँ झुलाती हैं उन्हें :
– उस तरह का गीत, वैसी नींद, वैसी शाम-सा है
वह सलोना जिस्म।

उसकी अधखुली अँगड़ाइयाँ हैं
कमल के लिपटे हुए दल
कसें भीनी गंध में बेहोश भौंरे को।

वह सुबह की चोट है हर पंखुड़ी पर।

रात की तारों भरी शबनम
कहाँ डूबी है!

नर्म कलियों के
पर झटकते हैं हवा की ठंड को।

तितलियाँ गोया चमन की फ़िज़ा में नश्तर लगाती हैं।

– एक पल है यह समाँ
जागे हुए उस जिस्म का!

जहाँ शामें डूब कर फिर सुबह बनती हैं
एक-एक –
और दरिया राग बनते हैं – कमल
फ़ानूस – रातें मोतियों की डाल –
दिन में
साड़ियों के से नमूने चमन में उड़ते छबीले; वहाँ
गुनगुनाता भी सजीला जिस्म वह –
जागता भी
मौन सोता भी, न जाने
एक दुनिया की
उमीद-सा,
किस तरह!

~ शमशेर बहादुर सिंह

  Jul 13 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आओ दूर गगन में उड़ चलें

Image may contain: one or more people, people standing, sky, twilight, nature and outdoor

आओ दूर गगन में उड़ चलें,
उड़ चलें
आओ दूर गगन में हम चलें

सूरज की अगन
प्यार की तपन
कहीं तो होगा
चांद-तारों का मिलन

आओ चिड़िया से पूछें
क्यों करती है अविरल कौतूहल
क्या नहीं व्योम से मिला कभी
उसको विरहा का कुछ प्रतिफल

अरे सखी! रुक देख उधर
कोई जाता है वेग किधर
छोटा-सा तिनका लगता है गया बिफर
हो विलग पहुँचा अपनी टहनी से ऊपर
जा पूछो क्यों है अब इतना अधर

आओ मेघा से पूछें
क्यों भीगा है उसका तन
क्या किसी तरंग ने फिर से
दो पाट किया है उसका मन
यह अश्रु है या हर्ष बूंद
जो बरसा धरा पर ऑंख मूंद

नहीं-नहीं, तो चल फिर नभ से मिल
जहाँ करते अगिनत तारे झिलमिल
उस दुनिया में हम भी हों शामिल
फिर देखें धरा को हो कर निश्चल
वो ख़ुद भी है प्यासी अविरल
पाने को नभ का अपना-सा ऑंचल
हाँ, नभ का छोटा-सा ऑंचल

~‍ आनन्द प्रकाश माहेश्वरी


  Jul 12 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हवा, पानी और धूप

Image may contain: one or more people, ocean, sky, cloud, outdoor, nature and water

हवा, पानी और धूप
हवा
या पानी
चाहे जैसे भी फैलें
धूप की ही तरह
घुलते नहीं किसी भी सम्भावना में
बस धीरे से हो जाते हैं शामिल
घटनाओं में बारातियों की तरह
न धूप में सामर्थ्य है
हवा बनने की
न हवा में ताक़त है पानी बनने की
और चाहे जितना लहरा ले
चमक ले धूप में
पानी नहीं बन सकता धूप
कुछ और बनना है
केवल भटकना
सही तो है यही
कि रहे वह वही जो है
और बदलने की बजाय
अपने को बनाता रहे
समय के दुहराव में
क्रमशः बेहतर
हवा चले तो गुनगुनाती हुई
धूप पसरे तो उम्मीदें जगाती हुई
और पानी की धार मन को गुदगुदाती हुई

~ उपेन्द्र कुमार


  Jul 11 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तेरे वादों पे अब इस तरह

Image may contain: 1 person, outdoor and closeup



तेरे वादों पे अब इस तरह गुज़र करना है,
काग़ज़ी नाव है दरिया में सफ़र करना है।

और कब तक तुम्हें इस दिल में बसाकर रक्खूँ,
हसरतो आओ तुम्हें शह्र-बदर करना है।

तेरे चेहरे पे अभी से हैं थकन के आसार,
ज़िंदगी तुझ्को तो सदियों का सफ़र करना है।

भाई की ज़िद है उठे सेह्न में ऊंची दीवार,
मेरा ये अज़्म है दीवार में दर करना है।
*अज़्म=प्रण

पहले हमसाए के हक़ में ही दुआ माँगूँगा,
यूँ मुझे पैदा दुआओं में असर करना है।

तरबियत तुमको इस अंदाज़ से दी है बच्चो,
ज़िंदगी कोहे-मसाईल है जो सर करना है।
*तरबियत=प्सीख; कोहे-मसाईल=मुश्किलों का पहाड़; सर=जीतना

अब तो बस अपनी ही इस्लाह करूँगा ‘राशिद’,
लाख दुश्वार हो यह काम मगर करना है।
*इस्लाह=परामर्श

~ बिरजीस राशिद आरफ़ी

  Jul 10 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मुक्तक - तुक्तक

मुक्तक - तुक्तक

तीन गुण हैं विशेष कागज़ के फूल में
एक तो वे उगते नहीं हैं कभी धूल में
दूजे झड़ते नहीं
काँटे गड़ते नहीं
तीजे, आप चाहें उन्हें लगा लें बबूल में
~ * ~

बारह बजे मिलीं जब घड़ी की दो सुइयाँ
छोटी बोली बड़ी से, 'सुनो तो मेरी गुइयाँ
कहाँ चली मुझे छोड़ ?'
बड़ी बोली भौं सिकोड़,
'आलसी का साथ कौन देगा, अरी टुइयाँ '
~ * ~


मोती ने दिए थे एक साथ सात पिल्ले
दो थे तन्दुरुस्त और दो थे मरगिल्ले
एक चितकबरा था
और एक झबरा था
सातवें की पूँछ पे थे लाल-लाल बिल्ले !
~ * ~


रास्ते में मिला जब अरोड़ा को रोड़ा
थाम के लगाम झट रोक दिया घोड़ा
उठाया जो कोड़ा
घोड़ा ने झिंझोड़ा
थोड़ा हँस छोड़ा, घोड़ा अरोड़ा ने मोड़ा !
~ * ~


टालीगंज रहते थे फूलचन्द छावड़ा
फूलों का था शौक लिये फिरते थे फावड़ा
बीज कुछ पूने के
आए थे नमूने के
माली बुलाने गए पैदल ही हावड़ा !

~ भारत भूषण अग्रवाल

  Jul 9 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

वाणी की दीनता

Image may contain: 1 person, text



वाणी की दीनता 
अपनी मैं चीन्हता,
कहने में अर्थ नहीं
कहना पर व्यर्थ नहीं,
मिलती है कहने में
एक तल्लीनताl

वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हताl

आस-पास भूलता हूँ
जग भर में झूलता हूँ,
सिन्धु के किनारे, कंकर
जैसे शिशु बीनताl
कंकर निराले नीले
लाल सतरंगी पीले,
शिशु की सजावट अपनी
शिशु की प्रवीनता l
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता l

भीतर की आहट भर
सजती है सजावट पर,
नित्य नया कंकर क्रम
क्रम की नवीनता l
वाणी को बुनने में
कंकर के चुनने में,
कोई उत्कर्ष नहीं
कोई नहीं हीनताl
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हताl

केवल स्वभाव है
चुनने का चाव है,
जीने की क्षमता है
मरने की क्षीणताl

वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हताl

~ भवानीप्रसाद मिश्र

  Jul 8 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

समय सफ़ेद करता है

Image may contain: 1 person

समय सफ़ेद करता है
तुम्हारी एक लट ...

तुम्हारी हथेली में लगी हुई मेंहदी को
खीच कर
उससे रंगता है तुम्हारे केश

समय तुम्हारे सर में
भरता है
समुद्र-उफ़न उठने वाला अधकपारी का दर्द
की तुम्हारा अधशीश
दक्षिण गोलार्ध हो पृथ्वी का
खनिज-समृद्ध होते हुए भी दरिद्र और संतापग्रस्त

समय,लेकिन
नीहारिका को निहारती लड़की की आँखें
नहीं मूंद पाता तुम्हारे भीतर
तुम,जो खुली क़लम लिए बैठी हो
औंजाते आँगन में
तुम,जिसकी छाती में
उतने शोकों ने बनाये बिल
जितनी ख़ुशियों ने सिरजे घोंसले


~ ज्ञानेन्द्रपति

  Jul 7 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh