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Sunday, January 20, 2019

मैं तौबा क्या करूँ

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उफ़ वो रावी का किनारा वो घटा छाई हुई
शाम के दामन में सब्ज़े पर बहार आई हुई

वो शफ़क़ के बादलों में नील-गूँ सुर्ख़ी का रंग
और रावी की तलाई नुक़रई लहरों में जंग
*शफ़क़=शाम की लालिमा; नील-गूँ=नीला; नुक़रई=चाँदी की घंटियाँ

शह-दरे में आम के पेड़ों पे कोयल की पुकार
डालियों पर सब्ज़ पत्तों सुर्ख़ फूलों का निखार

वो गुलाबी अक्स में डूबी हुई चश्म-ए-हुबाब
और नशे में मस्त वो सरमस्त मौजों के रुबाब
*चश्म-ए-हुबाब=बुलबुले की आँख; रुबाब=संगीत वाद्य

वो हवा के सर्द झोंके शोख़ियाँ करते हुए
बिन पीए बा-मसत कर देने का दम भरते हुए

दूर से ज़ालिम पपीहे की सदा आती हुई
पय-ब-पय कम-बख़्त पी-पी कह कर उकसाती हुई
*पय-ब-पय=एक के बाद एक

और वो मैं ठंडी ठंडी रेत पर बैठा हुआ
दोनों हाथों से कलेजा थाम कर बैठा हुआ

शैख़-साहिब! सच तो ये है उन दिनों पीता था मैं
उन दिनों पीता था यानी जिन दिनों जीता था में

अब वो आलम ही कहाँ है मय पिए मुद्दत हुई
अब मैं तौबा क्या करूँ तौबा किए मुद्दत हुई

~ हफ़ीज़ जालंधरी

 Jan 20, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, January 19, 2019

जब छाई घटा लहराई धनक

 
 
जब छाई घटा लहराई धनक इक हुस्न-ए-मुकम्मल याद आया
उन हाथों की मेहंदी याद आई उन आँखों का काजल याद आया

*धनक=इंद्रधनुष; हुस्न-ए-मुकम्मल=सम्पूर्ण सुंदरता

सौ तरह से ख़ुद को बहला कर हम जिस को भुलाए बैठे थे
कल रात अचानक जाने क्यूँ वो हम को मुसलसल याद आया

तन्हाई के साए बज़्म में भी पहलू से जुदा जब हो न सके
जो उम्र किसी के साथ कटी उस उम्र का पल पल याद आया

जो ज़ीस्त के तपते सहरा पर भूले से कभी बरसा भी नहीं
हर मोड़ पे हर इक मंज़िल पर फिर क्यूँ वही बादल याद आया

*ज़ीस्त=जीवन

हम ज़ूद-फ़रामोशी के लिए बदनाम बहुत हैं फिर भी 'बशर'
जब जब भी चली मदमाती पवन उड़ता हुआ आँचल याद आया

*ज़ूद-फ़रामोशी=भुलक्कड-पन

~ बशर नवाज़


 Jan 19, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, January 18, 2019

तुम आयीं

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तुम आयीं
जैसे छीमियों में धीरे- धीरे
आता है रस
जैसे चलते - चलते एड़ी में
काँटा जाए धँस
तुम दिखीं
जैसे कोई बच्चा
सुन रहा हो कहानी
तुम हँसी
जैसे तट पर बजता हो पानी
तुम हिलीं
जैसे हिलती है पत्ती
जैसे लालटेन के शीशे में
काँपती हो बत्ती !
तुमने छुआ
जैसे धूप में धीरे- धीरे
उड़ता है भुआ

और अन्त में
जैसे हवा पकाती है गेहूँ के खेतों को
तुमने मुझे पकाया
और इस तरह
जैसे दाने अलगाये जाते है भूसे से
तुमने मुझे खुद से अलगाया ।

‍~ केदारनाथ सिंह

 Jan 18, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, January 13, 2019

बहुत दिनों बा'द


बहुत दिनों बा'द
तेरे ख़त के उदास लफ़्ज़ों ने
तेरी चाहत के ज़ाइक़ों की तमाम ख़ुश्बू
मिरी रगों में उंडेल दी है

बहुत दिनों बा'द
तेरी बातें
तिरी मुलाक़ात की धनक* से दहकती रातें
उजाड़ आँखों के प्यास पाताल की तहों में
विसाल-वा'दों* की चंद चिंगारियों को साँसों की आँच दे कर
शरीर शो'लों की सर-कशी* के तमाम तेवर
सिखा गई हैं
तिरे महकते महीन लफ़्ज़ों की आबशारें*
बहुत दिनों बा'द फिर से
मुझ को रुला गई हैं 
 
*धनक=इंद्रधनुष; विसाल-वा'दों=मिलन के वादे; सरकशी=उपद्रव; आबशारें=झरने;
 
बहुत दिनों बा'द
मैं ने सोचा तो याद आया
कि मेरे अंदर की राख के ढेर पर अभी तक
तिरे ज़माने लिखे हुए हैं
सभी फ़साने लिखे हुए हैं
बहुत दिनों बा'द
मैं ने सोचा तो याद आया
कि तेरी यादों की किर्चियाँ
मुझ से खो गई हैं
तिरे बदन की तमाम ख़ुश्बू
बिखर गई है
तिरे ज़माने की चाहतीं
सब निशानियाँ
सब शरारतें
सब हिकायतें सब शिकायतें जो कभी हुनर में
ख़याल थीं ख़्वाब हो गई हैं 

*
हिकायत=कहानी;
 
बहुत दिनों बा'द
मैं ने सोचा तो याद आया
कि मैं भी कितना बदल गया हूँ
बिछड़ के तुझ से
कई लकीरों में ढल गया हूँ
मैं अपने सिगरेट के बे-इरादा धुएँ की सूरत
हवा में तहलील हो गया हूँ
न ढूँढ मेरी वफ़ा के नक़्श-ए-क़दम के रेज़े
कि मैं तो तेरी तलाश के बे-कनार सहरा में
वहम के बे-अमाँ बगूलों के वार सह कर
उदास रह कर
न-जाने किस रह में खो गया हूँ
बिछड़ के तुझ से तिरी तरह क्या बताऊँ मैं भी
न जाने किस किस का हो गया हूँ 

*तहलील=घुल-मिल; बे-अमाँ=बेआसरा; बगूलों=बवंडर;
 
बहुत दिनों बा'द
मैं ने सोचा तो याद आया

~ मोहसिन नक़वी


 Jan 13, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, January 12, 2019

तुम फ़ज़ाएँ जगाओ

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बहुत देर है
बस के आने में
आओ
कहीं पास की लॉन पर बैठ जाएँ
चटख़्ता है मेरी भी रग रग में सूरज
बहुत देर से तुम भी चुप चुप खड़ी हो

न मैं तुम से वाक़िफ़
न तुम मुझ से वाक़िफ़
नई सारी बातें नए सारे क़िस्से
चमकते हुए लफ़्ज़ चमकते लहजे
फ़क़त चंद घड़ियाँ
फ़क़त चंद लम्हे

न मैं अपने दुख-दर्द की बात छेड़ूँ
न तुम अपने घर की कहानी सुनाओ
मैं मौसम बनूँ
तुम फ़ज़ाएँ जगाओ

~ निदा फ़ाज़ली


 Jan 12, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, January 11, 2019

हिंदी है भारत की बोली

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दो वर्तमान का सत्‍य सरल,
सुंदर भविष्‍य के सपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

यह दुखड़ों का जंजाल नहीं,
लाखों मुखड़ों की भाषा है
थी अमर शहीदों की आशा,
अब जिंदों की अभिलाषा है
मेवा है इसकी सेवा में,
नयनों को कभी न झंपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

क्‍यों काट रहे पर पंछी के,
पहुंची न अभी यह गांवों तक
क्‍यों रखते हो सीमित इसको
तुम सदियों से प्रस्‍तावों तक
औरों की भिक्षा से पहले,
तुम इसे सहारे अपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

श्रृंगार न होगा भाषण से
सत्‍कार न होगा शासन से
यह सरस्‍वती है जनता की
पूजो, उतरो सिंहासन से
इसे शांति में खिलने दो
संघर्ष-काल में तपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

जो युग-युग में रह गए अड़े
मत उन्‍हीं अक्षरों को काटो
यह जंगली झाड़ न, भाषा है,
मत हाथ पांव इसके छांटो
अपनी झोली से कुछ न लुटे
औरों का इसमें खपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो आपने आप पनपने दो

इसमें मस्‍ती पंजाबी की,
गुजराती की है कथा मधुर
रसधार देववाणी की है,
मंजुल बंगला की व्‍यथा मधुर
साहित्‍य फलेगा फूलेगा
पहले पीड़ा से कंपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो आपने आप पनपने दो

नादान नहीं थे हरिश्‍चंद्र,
मतिराम नहीं थे बुद्ध‍िहीन
जो कलम चला कर हिंदी में
रचना करते थे नित नवीन
इस भाषा में हर ‘मीरा’ को
मोहन की माल जपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

प्रतिभा हो तो कुछ सृष्‍ट‍ि करो
सदियों की बनी बिगाड़ो मत
कवि सूर बिहारी तुलसी का
यह बिरुवा नरम उखाड़ो मत
भंडार भरो, जनमन की
हर हलचल पुस्‍तक में छपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

मृदु भावों से हो हृदय भरा
तो गीत कलम से फूटेगा
जिसका घर सूना-सूना हो
वह अक्षर पर ही टूटेगा
अधिकार न छीनो मानस का
वाणी के लिए कलपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

बढ़ने दो इसे सदा आगे
हिंदी जनमत की गंगा है
यह माध्‍यम उस स्‍वाधीन देश का
जिसकी ध्‍वजा तिरंगा है
हों कान पवित्र इसी सुर में
इसमें ही हृदय तड़पने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

~ गोपाल सिंह नेपाली


 Jan 11, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, January 6, 2019

जादूगर

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जब मेरा जी चाहे मैं जादू के खेल दिखा सकता हूँ
आँधी बन कर चल सकता हूँ बादल बन कर छा सकता हूँ
हाथ के एक इशारे से पानी में आग लगा सकता हूँ
राख के ढेर से ताज़ा रंगों वाले फूल उगा सकता हूँ
इतने ऊँचे आसमान के तारे तोड़ के ला सकता हूँ

मेरी उम्र तो बस ऐसे ही खेल दिखाते गुज़री है
अपनी साँस के शोलों से गुलज़ार खिलाते गुज़री है
झूटी सच्ची बातों के बाज़ार सजाते गुज़री है
पत्थर की दीवारों को संगीत सुनाते गुज़री है
अपने दर्द को दुनिया की नज़रों से छुपाते गुज़री है

~ मुनीर नियाज़ी


 Jan 06, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, January 5, 2019

कहो इक दिन

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तुम्हारे हैं कहो इक दिन
कहो इक दिन
कि जो कुछ भी हमारे पास है सब कुछ तुम्हारा है
कहो इक दिन

जिसे तुम चाँद सा कहते हो वो चेहरा तुम्हारा था
सितारा सी जिन्हें कहते हो वो आँखें तुम्हारी हैं
जिन्हें तुम शाख़ सी कहते हो वो बाँहें तुम्हारी हैं
कबूतर तोलते हैं पर तो परवाज़ें तुम्हारी हैं
जिन्हें तुम फूल सी कहते हो वो बातें तुम्हारी हैं
क़यामत सी जिन्हें कहते हो रफ़्तारें तुम्हारी हैं
कहो इक दिन

कहो इक दिन
कि जो कुछ भी हमारे पास है सब कुछ तुम्हारा है
अगर सब कुछ ये मेरा है तो सब कुछ बख़्श दो इक दिन
वजूद अपना मुझे दे दो मोहब्बत बख़्श दो इक दिन
मिरे होंटों पे अपने होंट रख कर रूह मेरी खींच लो इक दिन

~ उबैदुल्लाह अलीम


 Jan 05, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, January 4, 2019

तुम याद मुझे आ जाते हो

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तुम याद मुझे आ जाते हो

जब सेहन-ए-चमन में कलियाँ खिल कर फूल की सूरत होती हैं
और अपनी महक से हर दिल में इक तुख़्म-ए-लताफ़त बोती हैं
जब मेंह की फुवारें पड़ती हैं जब ठंडी हवाएँ आती हैं
जब सेहन-ए-चमन से घबरा कर पी पी की सदाएँ आती हैं
तुम याद मुझे आ जाते हो

* सेहन-ए-चमन=आँगन के बग़ीचे में; तुख़्म-ए-लताफ़त=सुंदरता के बीज

जब चौदवीं शब का चाँद निकल कर दहर मुनव्वर करता है
जब कोई मोहब्बत का मारा कुछ ठंडी साँसें भरता है
जब चार निगाहें कर के कोई महव-ए-तबस्सुम होता है
जब कोई मोहब्बत का मारा उस कैफ़ में पड़ कर खोता है
तुम याद मुझे आ जाते हो

*दहर=दुनिया; मुनव्वर=रौशन; महव-ए-तबस्सुम=मुस्कान पर मिट जाना; क़ैफ़=नशा

जब रात की ज़ुल्मत घटती है जब सुब्ह का नूर उभरता है
जब कोयल कूकू करती है जब पंछी पी पी करता है
जब कोई किसी का हाथ पकड़ कर सैर को बाहर जाता है
जब कोई निगाह-ए-शौक़ के आगे रह रह कर घबराता है
तुम याद मुझे आ जाते हो

अफ़्लाक पे जब ये लाखों तारे जगमग जगमग करती हैं
जब तारे गिन गिन कर दिल वाले ठंडी साँसें भरते हैं
जब रात का बढ़ता है सन्नाटा चैन से दुनिया सोती है
तब आँख मिरी खुल जाती है और दिल की रग रग रोती है
तुम याद मुझे आ जाते हो

*अफ़्लाक=आसमान

जब बरखा की रुत आती है जब काली घटाएँ उठती हैं
जिस वक़्त कि रिंदों के दिल से हू-हक़ सदाएँ उठती हैं
जब रोता है बहज़ाद-ए-'हज़ीं' वो शाइ'र वो दीवाना सा
वो दिल वाला वो सौदाई वो दुनिया से बेगाना सा
तुम याद मुझे आ जाते हो

*रिंद=शराब पीने वाला; हू-हूक़=उजाड़; सदाएँ=आवाज़ें; सज़ीं=दुखी; सौदाई=पागल

~ बहज़ाद लखनवी


 Jan 04, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, January 1, 2019

नवीन वर्ष को स्वरूप दो नया

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नूतन वर्ष 2019 की शुभ कामनायें

खिली सहास एक-एक पंखुरी,
झड़ी उदास एक-एक पंखुरी,
दिनांत प्रात, प्रात सांझ में घुला,
इसी तरह व्यतीत वर्ष हो गया।

गया हुआ समय फिरा नहीं कभी,
गिरा हुआ सुमन उठा नहीं कभी,
गई निशा दिवस कपाट को खुला,
गिरा सुमन नवीन बीज बो गया।

सजे नया कुसुम नवीन डाल में,
सजे नया दिवस नवीन साल में,
सजे सगर्व काल कंठ-भाल में
नवीन वर्ष को स्वरूप दो नया।

~ हरिवंशराय बच्चन



 Jan 01, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh