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Sunday, April 23, 2017

है मन का तीर्थ बहुत गहरा



है मन का तीर्थ बहुत गहरा।
हंसना‚ गाना‚ होना उदास‚
ये मापक हैं न कभी मन की गहराई के।
इनके नीचे‚ ....नीचे‚ ........नीचे‚
है कुछ ऐसा‚
जो हरदम भटका करता है।

हंसते हंसते‚ बातें करते‚ एक बहुत उदास
थकी सी जो निश्वास‚
निकल ही जाती है‚
मन की भोली गौरैया को
जो कसे हुए है भारी भयावना अजगर‚
ये सांस उसी की आती है‚
है जिसमें यह विश्वास
नहीं हूं मैं वह कुछ।
ये तो चिंताओं पीड़ाओं के अंधड़ हैं।
जो हर वसंत को पतझड़ करने आते हैं।
मन के इनसे कुछ गहरे रिश्ते नाते हैं।
पर इनसे हट कर‚ बच कर कुछ
इक स्वच्छ सरोवर भी है मन में अनजाना‚
जिस तक जाना कुछ मुश्किल है।
जब किसी पुनीता वेला में कोई यात्री
संवेदन का पाथेय संभाले आता है
इस मन के पुण्य सरोवर पर‚
दो चार सीढ़ियां
और उतर कर‚
और उतर कर‚
मन तड़ाग पर छाए अजगर‚ अंधड़ को
केवल अपनी लकुटी के बल पर
जीत या कि मोहित कर के‚
बढ़ जाता है इस मन के मान सरोवर तक‚
मन का जादूई तड़ाग
तुरत कमलों से भर भर जाता है‚
ऐसे ही पुलक क्षणों में
कोई अपना सा हो जाता है।
है मन का तीर्थ बहुत गहरा।

∼ डॉ. वीरबाला भावसार

  Apr 23, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

सुबह का झरना, हमेशा हंसने वाली औरतें

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सुबह का झरना, हमेशा हंसने वाली औरतें
झूटपुटे की नदियां, ख़ामोश गहरी औरतें

संतुलित कर देती हैं ये सर्द मौसम का मिज़ाज
बर्फ़ के टीलों पे चढ़ती धूप जैसी औरतें

सब्ज़ नारंगी सुनहरी खट्टी मीठी लड़कियां
भारी ज़िस्मों वाली टपके आम जैसी औरतें

सड़कों बाज़ारों मकानों दफ्तरों में रात दिन
लाल पीली सब्ज़ नीली, जलती बुझती औरतें

शहर में एक बाग़ है और बाग़ में तालाब है
तैरती हैं उसमें सातों रंग वाली औरतें

सैकड़ों ऎसी दुकानें हैं जहाँ मिल जायेंगी
धात की, पत्थर की, शीशे की, रबर की औरतें

इनके अन्दर पक रहा है वक़्त का ज्वालामुखी
किन पहाड़ों को ढके हैं बर्फ़ जैसी औरतें

सब्ज़ सोने के पहाड़ों पर क़तार अन्दर क़तार
सर से सर जोड़े खड़ी हैं लाम्बी लाम्बी औरतें

इक ग़ज़ल में सैकड़ों अफ़साने नज़्में और गीत
इस सराय में छुपी है कैसी कैसी औरतें

वाकई दोनों बहुत मज़्लूम हैं नक़्क़ाद और
माँ कहे जाने की हसरत में सुलगती औरतें
*मज़्लूम=पीड़ित; नक़्क़ाद=आलोचक


~ बशीर बद्र


  Apr 22, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तुम इतने समीप आओगे



तुम इतने समीप आओगे
मैने कभी नहीं सोचा था।

तुम यों आए पास कि जैसे
उतरे शशि जल-भरे ताल में
या फिर तीतरपाखी बादल
बरसे धरती पर अकाल में
तुम घन बनकर छा जाओगे
मैने कभी नहीं सोचा था।

यह जो हरी दूब है
धरती से चिपके रहने की आदी
मिली न इसके सपनों को भी
नभ में उड़ने की आजादी
इसकी नींद उड़ा जाओगे
मैने कभी नहीं सोचा था।

जिसके लिए मयूर नाचता
जिसके लिए कूकता कोयल
वन-वन फिरता रहा जनम भर
मन-हिरना जिससे हो घायल
उसे बाँध तुम दुलराओगे
मैने कभी नहीं सोचा था।

मैने कभी नहीं सोचा था
इतना मादक है जीवन भी
खिंचकर दूर तलक आए हैं
धन से ऋण भी,ऋण से धन भी
तुम साँसों में बस जाओगे
मैने कभी नहीं सोचा था।

~ बुद्धिनाथ मिश्र


  Apr 21, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तुम आए हो तुम्हें भी आज़मा कर

तुम आए हो तुम्हें भी आज़मा कर देख लेता हूँ,
तुम्हारे साथ भी कुछ दूर जा कर देख लेता हूँ।

~ अहमद मुश्ताक़

  Apr 20, 2017| e-kavya.blogspot.com
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कैसे बचाऊँगा तुम्हारा प्रेमपत्र

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प्रेत आएगा
किताब से निकाल ले जायेगा प्रेमपत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खायेगा।

चोर आयेगा तो प्रेमपत्र ही चुरायेगा
जुआरी प्रेमपत्र ही दाँव लगाएगा
ऋषि आयेंगे तो दान में माँगेंगे प्रेमपत्र।

बारिश आयेगी तो प्रेमपत्र ही गलाएगी
आग आयेगी तो जलाएगी प्रेमपत्र
बंदिशें प्रेमपत्र पर ही लगाई जाएँगी।

साँप आएगा तो डसेगा प्रेमपत्र
झींगुर आयेंगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र
कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे।

प्रलय के दिनों में सप्तर्षि मछली और मनु
सब वेद बचायेंगे
कोई नहीं बचायेगा प्रेमपत्र।

कोई रोम बचायेगा कोई मदीना
कोई चाँदी बचायेगा कोई सोना।

मै निपट अकेला कैसे बचाऊँगा तुम्हारा प्रेमपत्र?

~‍ बद्री नारायण


  Apr 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मैं मिट्टी का दीपक

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मैं मिट्टी का दीपक, मैं ही हूँ उस में जलने का तेल,
मैं ही हूँ दीपक की बत्ती, कैसा है यह विधि का खेल!
तुम हो दीप-शिखा, मेरे उर का अमृत पी जाती हो-
जला-जला कर मुझ को ही अपनी तुम दीप्ति बढ़ाती हो।

तुम हो प्रलय-हिलोर, तुम्हीं हो घोर प्रभंजन झंझावात,
तुम ही हो आलोक-स्तम्भ, कर देती हो आलोकित रात।
मैं छोटी-सी तरिणी-सा तेरी लपेट में बहता हूँ-
फिर भी पथ-दर्शन की आशा से चोटें सब सहता हूँ।

~ अज्ञेय


  Apr 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

पत्ते झड़ते हर कोई देखे लेकिन

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पत्ते झड़ते हर कोई देखे लेकिन चर्चा कौन करे
रुत बदली तो कितनी बदली ये अंदाज़ा कौन करे

मन में जिसके खोट भरा है झूठ-कपट से नाता है
उनसे हमको न्याय मिलेगा ऐसी आशा कौन करे

सीधी अँगुली घी निकलेगा,आज तलक देखा न सुना
झूठे दावे करनेवालो, तुमसे झगड़ा कौन करे

बोल रहे इतिहास के पन्ने सीधी-सच्ची एक ही बात
धरती डाँवा-डोल हो जब कानून कि परवा कौन करे

ये चेहरे हैं इंसानों के कुछ तो अर्थ है ख़ामोशी का
सुनने वाले बहरे हैं बेकार का शिकवा कौन करे

अब हम भी हथियार उठाएँ भोलेपन में ख़ैर नहीं
राजमहल में डाकू बैठे उनसे रक्षा कौन करे

'रहबर' वह समय आ पहुँचा जब मरने वाले जीते हैं
ऐसे में क्या मौत से डरना, जीवन आशा कौन करे

~ हंसराज रहबर


  Apr 16, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

विचार लो कि मर्त्य हो न

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 विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिये,
नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।

सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा,
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में
सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

‍~ मैथिलीशरण गुप्त


  Apr 14, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मुझे नवम्बर की धूप की तरह मत चाहो

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मुझे नवम्बर की धूप की तरह मत चाहो
कि इस में डूबो तो तमाज़त में नहा जाओ
और इस से अलग हो तो
ठंडक को पोर पोर में उतरता देखो 


मुझे सावन के बादल की तरह चाहो 
कि उस का साया बहुत गहरा
नस नस में प्यास बुझाने वाला
मगर उस का वजूद पल में हवा
पल में पानी का ढेर 


मुझे शाम की शफ़क़ की तरह मत चाहो
कि आसमान के क़ुर्मुज़ी रंगों की तरह
मेरे गाल सुर्ख़
मगर लम्हा-भर बाद
हिज्र में नहा कर, रात सी मैली मैली 


मुझे चलती हवा की तरह मत चाहो
कि जिस के क़याम से दम घुटता है
और जिस की तेज़-रवी क़दम उखेड़ देती है 


मुझे ठहरे पानी की तरह मत चाहो
कि मैं इस में कँवल बन के नहीं रह सकती हूँ 


मुझे बस इतना चाहो
कि मुझ में चाहे जाने की ख़्वाहिश जाग उठे!

*तमाज़त=तीव्र गर्मी; शफ़क़=सूर्यास्त की 
लालिमा; क़ुर्मुज़ी=किरमिजी - लाल रंग; क़याम=रुकना

~ किश्वर नाहीद


  Apr 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ

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मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।

थपकियों से आज झंझा
के भले ही दीप मेरा
बुझ रहा है, और पथ में,
जा रहा छाये अँधेरा ।

पर न है परवाह कुछ भी,
और कुछ भी ग़म नहीं है
ज्योति दीपक को, तिमिर को,
पथ की पहचान दी है ।
मैं लुटा सर्वस्व-संचित
पूर्ण भी हूँ, रिक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।

अग्नि-कण को फूँक कर,
ज्वाला बुझाई जा रही है
अश्रु दे दॄग में, जलन,
उर की मिटाई जा रही है ।

इस सुलभ वरदान को मैं,
क्यों नहीं अभिशाप समझूँ ?
मैं न क्यों इस सजल घन से,
है बरसता ताप समझूँ ?
मैं मरूँ क्या, मैं जिऊँ क्या,
शुष्क भी हूँ, सिक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।

मैं तुम्हारे प्राण के यदि,
अंक में तो क्या हुआ रे ?
है मनोरम कमल बसता
पंक में तो क्या हुआ रे ?
मैं तुम्हारे जाल में पड़
बद्ध भी हूँ, मुक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।

*तिक्त=कड़ुआ

~ श्यामनन्दन किशोर


  Apr 11, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

कोठे उजाड़, खिड़कियाँ चुप,

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कोठे उजाड़, खिड़कियाँ चुप, रास्ते उदास,
जाते ही उनके कुछ न रहा ज़िंदगी के पास।

दो पल बरस के अब्र ने दरिया का रुख़ किया,
तपती ज़मीं से पहरों निकलती रही भड़ास।

मिट्टी की सोंध जाते हुये साथ ले उड़ी,
डाली का लोच, पात की सब्ज़ी, कली की वास।

अश्कों से किसको प्यार है, आहों से किसको उन्स,
लेकिन ये दिल के जिसको खुशी आ सकी न रास।
*उन्स=प्रेम

हुशियार, ऐ नवेदे-अज़ल लुट न जाइयो,
फिरता है कोई आठ पहर, दिल के आस पास।
*नवेदे-अज़ल=मीत की पुकार

आँसू हो, मय हो, ज़हर हो, आबे-हयात हो,
जुज़ ख़ूने-आरज़ू, न मुझे ज़िंदगी की प्यास।
*आबे-हयात=अमृत जल; जुज़=सिवा

जैसे कभी तअल्लुके-ख़ातिर नहीं रहा,
यूँ रूठ कर चली गई शुहरत हर एक आस।
*तअल्लुके-ख़ातिर=दिली लगाव

~ शुहरत बुखारी


  Apr 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मैं हूँ अपराधी किस प्रकार

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मैं हूँ अपराधी किस प्रकार?

सुन कर प्राणों के प्रेम–गीत,
निज कंपित अधरों से सभीत।
मैंने पूछा था एक बार,
है कितना मुझसे तुम्हें प्यार?
मैं हूँ अपराधी किस प्रकार?

हो गये विश्व के नयन लाल,
कंप गया धरातल भी विशाल।
अधरों में मधु – प्रेमोपहार,
कर लिया स्पर्श था एक बार।
मैं हूँ अपराधी किस प्रकार?

कर उठे गगन में मेघ धोष,
जग ने भी मुझको दिया दोष।
सपने में केवल एक बार,
कर ली थी मैंने आँख चार।
मैं हूँ अपराधी किस प्रकार?

~ ठाकुर गोपालशरण सिंह


  Apr 9, 2017| e-kavya.blogspot.com
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गुलों की तरह हम ने ज़िंदगी को

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गुलों की तरह हम ने ज़िंदगी को इस कदर जाना,
किसी कि ज़ुल्फ़ में इक रात सोना और बिखर जाना।

अगर ऐसे गए तो ज़िंदगी पर हर्फ़ आयेगा,
हवाओं से लिपटना तितलियों को चूम कर जाना।
*हर्फ़=लांछन

धुनक के रख दिया था बादलों को जिन परिंदों ने
उन्हें किसने सिखाया अपने साये से भी डर जाना

कहाँ तक ये दिया बीमार कमरे कि फ़िज़ां बदले
कभी तुम एक मुट्ठी धुप इन ताकों में भर जाना

इसी में आफिअत है घर में अपने चैन से बैठो
किसी की स्मित जाना हो तो रस्ते में उतर जाना।
*आफिअत=कुशल-मंगल, ख़ैरियत; स्मित=अस्तित्व

~ बशीर बद्र


  Apr 8, 2017| e-kavya.blogspot.com
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वो जो हम में तुम में क़रार था

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वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
वही यानी वअ'दा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो

वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे बेशतर वो करम कि था मिरे हाल पर
मुझे सब है याद ज़रा ज़रा तुम्हें याद हो कि न याद हो
*बेशतर=अधिकतर

वो नए गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतें
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो

कभी बैठे सब में जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तुगू
वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो कि न याद हो
*बरमला=खुले-आम

हुए इत्तिफ़ाक़ से गर बहम तो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिला-ए-मलामत-ए-अक़रिबा तुम्हें याद हो कि न याद हो
*बहम=मिलकर; दम=पल; मलामत=निंदा; अक़रिबा=रिश्तेदार

कोई बात ऐसी अगर हुई कि तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो कि न याद हो

कभी हम में तुम में भी चाह थी कभी हम से तुम से भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आश्ना तुम्हें याद हो कि न याद हो

सुनो ज़िक्र है कई साल का कि किया इक आप ने वअ'दा था
सो निबाहने का तो ज़िक्र क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो

कहा मैं ने बात वो कोठे की मिरे दिल से साफ़ उतर गई
तो कहा कि जाने मिरी बला तुम्हें याद हो कि न याद हो

वो बिगड़ना वस्ल की रात का वो न मानना किसी बात का
वो नहीं नहीं की हर आन अदा तुम्हें याद हो कि न याद हो

जिसे आप गिनते थे आश्ना जिसे आप कहते थे बा-वफ़ा
मैं वही हूँ 'मोमिन'-ए-मुब्तला तुम्हें याद हो कि न याद हो
*मुब्तिला=आसक्त

~ मोमिन ख़ाँ मोमिन


  Apr 7, 2017| e-kavya.blogspot.com
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चिलचिलाती धूप में सावन कहाँ से

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चिलचिलाती धूप में सावन कहाँ से आ गया
आप की आँखों में अपनापन कहाँ से आ गया।

जब वो रोया फूट कर मोती बरसने लग गये
पास एक निर्धन के इतना धन कहाँ से आ गया।

दूसरों के ऐब गिनवाने का जिसको शौक था
आज उसके हाथ में दरपन कहाँ से आ गया।

मैं कभी गुज़रा नहीं दुनियाँ तेरे बाज़ार से
मेरे बच्चों के लिये राशन कहाँ से आ गया।

पेट से घुटने सटाकर सो गया फुटपाथ पर
पूछो दीवाते को योगआसन कहाँ से आ गया।

कोई बोरा तक बिछाने को नहीं है जिसके पास
उसके कदमों में ये सिंहासन कहाँ से आ गया।

मैंने तो मत्थे को रगड़ा था तेरी दहलीज पर
मेरी पेशानी पे ये चंदन कहाँ से आ गया।

कैसे दुनियाँ को बताएँ बंद आँखों का कमाल
मूंदते ही आँख वो फौरन कहाँ से आ गया।

∼ बुद्धिसेन शर्मा
  Apr 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, April 5, 2017

ये हम गुनहगार औरतें हैं

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ये हम गुनहगार औरतें हैं
जो अहल-ए-जुब्बा की तमकनत से न रोब खाएँ
न जान बेचें
न सर झुकाएँ
न हाथ जोड़ें
*अहल-ए-जुब्बा=एक तरह की पोशाक; तमकनत=रोब

ये हम गुनहगार औरतें हैं
कि जिन के जिस्मों की फ़स्ल बेचें जो लोग
वो सरफ़राज़ ठहरें
नियाबत-ए-इम्तियाज़ ठहरें
वो दावर-ए-अहल-ए-साज़ ठहरें
*सरफ़राज़=प्रतिष्ठित; दावर-ए-अहल-ए-साज़=संगीत वाद्य में निपुण

ये हम गुनहगार औरतें हैं
कि सच का परचम उठा के निकलें
तो झूट से शाहराहें अटी मिले हैं
हर एक दहलीज़ पे सज़ाओं की दास्तानें रखी मिले हैं
जो बोल सकती थीं वो ज़बानें कटी मिले हैं
*शाहराहें=हाइ-वे

ये हम गुनहगार औरतें हैं
कि अब तआक़ुब में रात भी आए
तो ये आँखें नहीं बुझेंगी
कि अब जो दीवार गिर चुकी है
उसे उठाने की ज़िद न करना!
*तआक़ुब=पीछा करना

ये हम गुनहगार औरतें हैं
जो अहल-ए-जुब्बा की तमकनत से न रोब खाएँ
न जान बेचें
न सर झुकाएँ न हाथ जोड़ें!

‍~ किश्वर नाहीद


It is we sinful women
who are not awed by the grandeur of those who wear gowns
who don't sell our lives
who don't bow our heads
who don't fold our hands together.

It is we sinful women
while those who sell the harvests of our bodies
become exalted
become distinguished
become the just princes of the material world.
It is we sinful women
who come out raising the banner of truth
up against barricades of lies on the highways
who find stories of persecution piled on each threshold
who find that tongues which could speak have been severed.

It is we sinful women.
Now, even if the night gives chase
these eyes shall not be put out.
For the wall which has been razed
don't insist now on raising it again.

It is we sinful women
who are not awed by the grandeur of those who wear gowns
who don't sell our bodies
who don't bow our heads
who don't fold our hands together.

 ~ Translation: Rukhsana Ahmed


  Apr 5, 2017| e-kavya.blogspot.com
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अब भी इक उम्र पे जीने का

अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
ज़िंदगी छोड़ दे पीछा मिरा, मैं बाज़ आया

~ शाद अज़ीमाबादी


  Apr 4, 2017| e-kavya.blogspot.com
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हम भुलाते रहे, याद आती रही।


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हम भुलाते रहे, याद आती रही।

प्राण सुलगे तो जैसे धुआँ छा गया
नैन भींगे ज्यों प्यासा कुआँ पा गया
रोते-रोते कोई बात याद आ गई
अश्रु बहते रहे, मुस्कराती रही।

साँझ की डाल पर सुगबुगाती हवा
फिर मुझे दृष्टि भरकर किसी ने छुआ
घूमकर देखती हूँ तो कोई नहीं
मेरी परछाईं मुझको चिढ़ाती रही।

एक तस्वीर है, एक है आईना
जब भी होता किसी से मेरा सामना
मैं समझ ही न पाती कि मैं कौन हूँ
शक्ल यों उलझनों को बढ़ाती रही।

आँख रह-रह कर मेरी डबडबाती रही।
हम भुलाते रहे, याद आती रही।

~ प्रभा ठाकुर


  Apr 4, 2017| e-kavya.blogspot.com
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वर्षा से धुल कर निखर

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वर्षा से धुल कर निखर उठा नीला-नीला
फिर हरे-हरे खेतों पर छाया आसमान,
उजली कुँआर की धूप अकेली पड़ी हार में,
लौटे इस बेला सब अपने घर किसान।

पागुर करती छाहीं में,
कुछ गम्भीर अध-खुली आँखों से,
बैठी गायें करती विचार,
सूनेपन का मधु-गीत आम की डाली में,
गाती जातीं भिन्न कर ममाखियाँ लगातार।

भरे रहे मकाई ज्वार बाजरे के दाने,
चुगती चिड़ियाँ पेड़ों पर बैठीं झूल-झूल,
पीले कनेर के फूल सुनहले फूले पीले,
लाल-लाल झाड़ी कनेर की, लाल फूल।

बिकसी फूटें, पकती कचेलियाँ बेलों में,
ढो ले आती ठंडी बयार सोंधी सुगन्ध,
अन्तस्तल में फिर पैठ खोलती मनोभवन के,
वर्ष-वर्ष से सुधि के भूले द्वार बन्द।

तब वर्षों के उस पार दीखता, खेल रहा वह,
खेल-खेल में मिटा चुका है जिसे काल,
बीते वर्षों का मैं, जिसको है ढँके हुए
गाढ़े वर्षों की छायाओं का तन्तु-जाल।

देखती उसे तब अपलक आँखें, रह जाती

~ रामविलास शर्मा


  Apr 3, 2017| e-kavya.blogspot.com
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चाँदनी रात है जवानी पर

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चाँदनी रात है जवानी पर
दस्त-ए-गर्दूं में साग़र-ए-महताब
नूर बन बन के छन रही है शराब
साक़ी-ए-आसमाँ पियाला-ब-दस्त
मैं शराब-ए-सुरूर से सरमस्त
फ़िक्र-ए-दोज़ख़ न ज़िक्र-ए-जन्नत है
मैं हूँ और तेरी प्यारी सूरत है
रस-भरे होंट मद-भरी आँखें!

कौन फ़र्दा पे ए'तिबार करे
कौन जन्नत का इंतिज़ार करे
जाने कब मौत का पयाम आए
ये मसर्रत भी हम से छिन जाए
दामन-ए-अक़्ल चाक होने दे
आज ये क़िस्सा पाक होने दे

ग़म को ना-पाएदार कर दें हम
मौत को शर्मसार कर दें हम
लब से लब यूँ मिलें कि खो जाएँ
जज़्ब इक दूसरे में हो जाएँ
मैं रहूँ और न तू रहे बाक़ी!
किस क़दर दिल-नशीं हैं लब तेरे

बादा-ए-अहमरीं हैं लब तेरे
तेरे होंटों का रस नहीं है ये
आब-ए-कौसर है अंग्बीं है ये
शहद के घूँट पी रहा हूँ मैं
आज की रात जी रहा हूँ मैं
आज की रात फिर न आएगी!

~ हफ़ीज़ होशियारपुरी



  Apr 2, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आ गया मधुमास लेकर

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आ गया मधुमास लेकर
फूल मुस्काते
गूँजते हैं गीत के स्वर
भ्रमर हैं गाते
याद आई फिर तुम्हारी
तुम नहीं आए

फूल कलियों ने सजाया
फिर से उपवन को
झील के जल पर
गगन के रूप का जादू
लहरों पे है डोलता
किरण के रंग का जादू
याद आई फिर तुम्हारी
तुम नहीं आए

फिर हृदय के वृक्ष पर
कुछ फूल खिल आए
मिलन के सपनों ने
अपने पंख फैलाए
याद आई फिर तुम्हारी
तुम नहीं आए

याद करती हैं ये लहरें
पास आ आ कर
लौट जाती हैं व्यथित
तुमको नहीं पाकर
गगन में उड़ते पखेरू
घर को लौटे हैं
याद आई फिर तुम्हारी
तुम नहीं आए

हृदय के तारों पर लगा
कोई गीत है बजने
जागकर सोते से
सपने हैं लगे सजने
याद आई फिर तुम्हारी
तुम नहीं आए

इक अजानी प्यास मन में
कसमसाई है
हवा में ख़ुशबू है कोई तैरती आई
कोई सन्देशा तुम्हारा
साथ है लाई
याद आई फिर तुम्हारी
तुम नहीं आए

~ कुसुम सिन्हा


  Apr 1, 2017| e-kavya.blogspot.com
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शाएर साहब इस बस्ती में

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 शाएर साहब इस बस्ती में किसको गीत सुनाते हो,
सायों के सुनसान शहर में किसका दिल गरमाते हो।

सोने चाँदी की दुनिया में प्यार की क़ीमत क्या होगी,
दिल का खोटा सिक्का लेकर किस बाज़ार में जाते हो।

जलता सूरज तपती धरती ऊँची - नीची राहगुज़र,
अपने साए-साए चलकर पग-पग ठोकर खाते हो।

उड़ते बगुलो के पीछे क्यों दौड़ रहे हो रुक जाओ,
इस आबाद -ख़राबे में क्यों अपनी जान गँवाते हो।

तनहा- तन्हा, खोए- खोए, चुप-चुप रहने से हासिल,
कोने -कोने रो लेते हो दिल की आग बुझाते हो।

जिनपर तुमको नाज़ था वो भी बिक ग्ए दो कौड़ी के मोल,
अब भी वक़्त का रुख पहचानों वक़्त से क्यों टकराते हो।

ऐसे रौशन सूरज से तो रात के तारे ही अच्छे,
साथ न दे जो अँधियारे में क्यों उनके गुन गाते हो।

~ हिमायत अली शाएर


  Mar 31, 2017| e-kavya.blogspot.com
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गुलशन न रहा, गुलचीं न रहा

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गुलशन न रहा, गुलचीं न रहा, रह गई कहानी फूलों की,
महमह करती-सी वीरानी आख़िरी निशानी फूलों की।

जब थे बहार पर, तब भी क्या हँस-हँस न टँगे थे काँटों पर ?
हों क़त्ल मज़ार सजाने को, यह क्या कुर्बानी फूलों की।

क्यों आग आशियाँ में लगती, बागबाँ संगदिल होता क्यों ?
काँटॆ भी दास्ताँ बुलबुल की सुनते जो ज़ुबानी फूलों की।

गुंचों की हँसी का क्या रोना जो इक लम्हे का तसव्वुर था;
है याद सरापा आरज़ू-सी वह अह्देजवानी फूलों की।

जीने की दुआएँ क्यों माँगीं ? सौंगंध गंध की खाई क्यों ?
मरहूम तमन्नाएँ तड़पीं फ़ानी तूफ़ानी फूलों की।

केसर की क्यारियाँ लहक उठीं, लो, दहक उठे टेसू के वन
आतिशी बगूले मधु-ऋतु में, यह क्या नादानी फूलों की।

रंगीन फ़िज़ाओं की ख़ातिर हम हर दरख़्त सुलगाएँगे,
यह तो बुलबुल से बगावत है गुमराह गुमानी फूलों की।

'सर चढ़े बुतों के'- बहुत हुआ; इंसाँ ने इरादे बदल दिए;
वह कहता : दिल हो पत्थर का, जो हो पेशानी फूलों की।

थे गुनहगार, चुप थे जब तक, काँटे, सुइयाँ, सब सहते थे;
मुँह खोल हुए बदनाम बहुत, हर शै बेमानी फूलों की।

सौ बार परेवे उड़ा चुके, इस चमन्ज़ार में यार, कभी-
ख़ुदकिशी बुलबुलों की देखी, गर्दिश रमज़ानी फूलों की?

~ जानकीवल्लभ शास्त्री


  Mar 30, 2017| e-kavya.blogspot.com
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सहमा-सहमा सा इक साया

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सहमा-सहमा सा इक साया, महकी-महकी सी इक चाप,
पिछली रात मेरे आँगन में आ पहुँचे वो अपने-आप।

ज़िक्र करें वो और किसी का बीच में आये मेरा नाम,
उनके होटों पर है अब तक मेरे प्यार की गहरी छाप।

अँधियारों की दीवारों को फाँद के चाँद कहाँ पहुँचा,
जहाँ पिया का आना मुश्किल और पलक झपकाना पाप।

बात करें तो रख देते हैं हैं लोग ज़ुबाँ पर अंगारे,
झूठ है मेरा कहना तो फिर सच ख़ुद बोलके देख लें आप।

ऊँघने वालों की आँखों में काँटा बनकर नीँद चुभे,
प्यारे साथी इस महफ़िल में कोई ऐसा राग अलाप।

जो भी देखे नफ़रत से मुँह फेर के आगे बढ़ जाये,
ये जीवन है या रस्ते में पड़ा हुआ बालक बिन बाप।

गली-गली आवारा अब तू मारा-मारा फिरे क़तील,
कहते हैं इक देवी की आँखों ने उसको दिया शराप।

~ क़तील शिफ़ाई

  Mar 29, 2017| e-kavya.blogspot.com
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फागुनी ठंडी हवा में काँपते तरु–पात


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फागुनी ठंडी हवा में काँपते तरु–पात
गंध की मदिरा पिये है बादलों की रात

शाम से ही आज बूँदों का जमा है रंग
नम हुए हैं खेत में पकती फ़सल के अंग
समय से पहले हुए सुनसान–से बाज़ार
मुँद गये है आज कुछ जल्दी घरों के द्वार

मैं अकेला पास कोई भी नहीं है है मीत
मौन बैठा सुन रहा हूँ दूर का संगीत
गा रहे हैं फाग शायद दूर कुछ मजदूर
आज खुश वे भी कि जिनकी देह थक कर चूर

सब सुखी हैं सिर्फ मेरी ही भरी है आँख
वज्र से टकरा गई है मन–विहग की पाँख
मैं जिसे अपना कहूँ कोई नहीं है आज
ज़िंदगी के दीप के सर पर तिमिर का ताज

व्यर्थ अर्पित कर रहा हूँ आँसुओं के हार
मेघ मेरा दूत बनने को नहीं तैयार
घुट रहा है प्राण में मेरा मिलन संदेश
मौत धर कर आ गई काली घटा का वेष

देह जीती है अकेली प्राण से हो दूर
कौन है इन्सान से बढ़ कर यहाँ मज़बूर
प्यार की दुनियाँ हुई कुछ इस तरह बर्बाद
बन गई है जिन्दगी बीते दिनों की याद

यों बिताता हूँ किसी की याद में हर रात
ज्यों अँधेरे में करे काई दिये की बात
बूँद स्याही की लिखेगी क्या हृदय हा हाल
लेखनी में बँध नहीं सकता कभी भूचाल

∼ रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’


  Mar 28, 2017| e-kavya.blogspot.com
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जाने तू कैसे लिखता है

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जाने तू कैसे लिखता है

चेहरे पर न भंगिमाएँ हैं
वाणी में न अदा है कोई
आँखें भी तो खुली खुली हैं
नहीं ख्वाब में खोई खोई
किसी ओर से किसी तरह भी
यार, न तू लेखक दिखता है

चाल ढाल भी मामूली है
रहन सहन भी है देहाती
नहीं घूमता महफिल महफिल
ताने नज़र फुलाए छाती
बिना नहीं तू फिर भी, तेरा
लिखा हुआ कैसे बिकता है

लोगों में ही गुम होकर
लोगों सा ही हँसता जाता है
कोई नहीं राह में कहता--
वह देखो लेखक जाता है
घर हो या बाज़ार किसी का
ध्यान नहीं तुझपर टिकता है

नहीं हाथ में ग्लास सुरा का
नहीं बहकती फेनिल भाषा
और न रह रह कर सिगार का
उठता हुआ धुआँ बल खाता
तेरा दिन चुपके चुपके
भट्ठी में रोटी सा सिंकता है।

जाने तू कैसे लिखता है

~ राम दरश मिश्र


  Mar 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मोक्ष मार्ग के पथिक बनो तो

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मोक्ष मार्ग के पथिक बनो तो
मेरी बातें सुनो ध्यान से,
जीवन–दर्शन प्राप्त किया है
मैने अपने आत्मज्ञान से।

लख चेोरासी योेनि धर कर
मानव की यह पाई काया,
फिर क्यों व्रत, उपवास करूँ मैं
इसका समाधान ना पाया।

इसलिए मैं कभी भूलकर
व्रत के पास नहीं जाता हूँ,
जिस दिन एकादश होती है
उस दिन और अधिक खाता हूँ।

क्योंकि ब्रह्म है घट के पट में
उसे तुष्ट करना ही होगा,
यह काया प्रभु का मंदिर है
उसे पुष्ट करना ही होगा।

गंगा–यमुना और त्रिवेणी
में क्यों व्यर्थ लगाते गोते,
इस वैज्ञाानिक युग मे भी
गंगाजल से पापों को धोते?

मैं अपनी कोमल काया को
किचिंत कष्ट नहीं देता हूँ,
पाप इकट्टे हो जाते तब
ड्राईक्लीन करवा लेता हूँ!

∼ काका हाथरसी


  Mar 26, 2017| e-kavya.blogspot.com
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ख़ुदा के वास्ते अब बे-रुख़ी से

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ख़ुदा के वास्ते अब बे-रुख़ी से काम न ले,
तड़प के फिर कोई दामन को तेरे थाम न ले।

बस एक सज्दा-ए-शुकराना पा-ए-नाज़ुक पर,
ये मै-कदा है यहाँ पर ख़ुदा का नाम न ले।
*सज्दा-ए-शुकराना=प्रार्थना कर के शुक्रिया करना; पा=पैर

ज़माने भर में हैं चर्चे मिरी तबाही के,
मैं डर रहा हूँ कहीं कोई तेरा नाम न ले।

मिटा दो शौक़ से मुझ को मगर कहीं तुम से,
ज़माना मेरी तबाही का इंतिक़ाम न ले।

जिसे तू देख ले इक बार मस्त नज़रों से,
वो उम्र भर कभी हाथों में अपने जाम न ले।

रखूँ उमीद-ए-करम उस से अब मैं क्या 'साहिर',
कि जब नज़र से भी ज़ालिम मिरा सलाम न ले।
*कृपा की उम्मीद

~ साहिर भोपाली


  Mar 25, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आह वेदना मिली विदाई

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आह वेदना मिली विदाई

निज शरीर की ठठरी लेकर
उपहारों की गठरी लेकर
पहुँचा जब मैं द्वार तुम्हारे
सपनोंकी सुषमा उर धारे
मिले तुम्हारे पूज्य पिताजी
मुझको कस कर डांट बतायी
आह वेदना मिली विदाई

प्राची में ऊषा मुसकायी
तुमसे मिलने की सुधि आयी
निकला घर से मैं मस्ताना
मिला राह में नाई काना
पड़ा पाँव के नीचे केला
बची टूटते आज कलाई
आह वेदना मिली विदाई

चला तुम्हारे घर से जैसे
मिले राह में मुझको भैंसे
किया आक्रमण सबने सत्वर
मानों मैं भूसे का गट्ठर
गिरा गटर में प्रिये आज
जीवनपर अपने थी बन आयी
आह वेदना मिली विदाई

अब तो दया करो कुछ बाले
नहीं संभलता हृदय संभाले
शान्ति नहीं मिलती है दो क्षण
है कीटाणु प्रेम का भीषण
'लव' का मलहम शीघ्र लगाओ
कुछ तो समझो पीर पराई
आह वेदना मिली विदाई

~ बेढब बनारसी

(बेढब जी के अनुसार, इस कविता का 'आह वेदना ..' जय शंकर प्रसाद जी 

की कविता से ज़्यादा कुछ लेना देना नहीं है।)

  Mar 24, 2017| e-kavya.blogspot.com
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ज़र्रे का राज़ मेहर को

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ज़र्रे का राज़ मेहर को समझाना चाहिए,
छोटी सी कोई बात हो लड़ जाना चाहिए।
*ज़र्रे==छोटा सा अंश; मेहर==मोहब्बत

ख़्वाबों की एक नाव समुंदर में डाल के,
तूफ़ाँ की मौज मौज से टकराना चाहिए।
*मौज=लहर

हर बात में जो ज़हर के नश्तर लगाए हैं,
ऐसे ही दिल-जलों से तो याराना चाहिए।

क्या ज़िंदगी से बढ़ के जहन्नम नहीं कोई,
ये सच है फिर तो आग में जल जाना चाहिए।

दुनिया वो शाहराह है बचना मुहाल है,
पगडंडियों को ढूँढ के अपनाना चाहिए।
*शाहराह==हाइवे, बड़ी सड़क

नज़्में वो हों कि चीख़ पड़ें सारे अहल-ए-फ़न,
नींदें उड़ा दे सब की वो अफ़्साना चाहिए।
*अहल-ए-फ़न=कलाकार; अफ़्साना=कहानी

बहरों को तोड़ तोड़ के नाले में डाल दो,
बस दिल की लय में फ़िक्र को ढल जाना चाहिए।

ये कहकशाँ भी टूट के हो मिस्रओं में जज़्ब,
ज़ेहन-ए-रसा को इतना तो उलझाना चाहिए।
*कहकशाँ=आकाश गंगा; मिस्रओं=शेर की पंक्तियाँ; ज़ेहन-ए-रसा=सोचने वाला दिमाग

हम 'यूलिसीस' बन के बहुत जी चुके मगर,
यारो 'हुसैन' बन के भी मर जाना चाहिए।
*यूलिसीस=ग्रीक राजा जिसने ट्राय की लड़ाई लड़ी थी(लैटिन -ओडिसिस); हुसैन=हुसैन इब्न अली

~ बाक़र मेहदी


  Mar 22, 2017| e-kavya.blogspot.com
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औरतें अजीब होतीं है



लोग सच कहते हैं -
औरतें अजीब होतीं है
रात भर सोती नहीं पूरा
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं है
नींद की स्याही में
उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं।
टटोलती रहतीं है
दरवाजों की कुंडिया
बच्चों की चादर, पति का मन
और जब जागती सुबह
तो पूरा नहीं जागती।
नींद में ही भागतीं है
हवा की तरह घूमतीं,
घर बाहर...
टिफिन में रोज़ रखतीं
नयी कविताएँ
गमलों में रोज बो देती आशाऐ
पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर ही
सब के करीब होतीं हैं
औरतें सच में अजीब होतीं हैं ।

कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध...
कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं
बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब।
बचपन में खोई गुडिया,
जवानी में खोए पलाश,
मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती...
सहेलियों से लिए
दिये चुकाए हिसाब
बच्चों के मोजे,पेन्सिल किताब
खोलती बंद करती खिड़कियाँ
क्या कर रही हो ?सो गयीं क्या ?
खाती रहती झिङकियाँ
न शौक से जीती है ,
न ठीक से मरती है
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती है
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

कितनी बार देखी है...मेकअप लगाये,
चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी,
वो ब्यूटीशियन, वो भाभी, वो दीदी...
चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर
और कभी दिख ही जाती है
कॉरीडोर में, जल्दी जल्दी चलती,
नाखूनों से सूखा आटा झाडते,
सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल आई वो लेडी डॉक्टर
दिन अक्सर गुजरता है शहादत में
रात फिर से सलीब होती है...
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं उम्र भर
हथेलियों में तितलियां संजोतीं हैं
और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं
फिजाएं सचमुच खिलखिलातीं हैं
तो ये सूखे कपड़ों, अचार ,पापड़
बच्चों और सब दुनिया को भीगने से
बचाने को दौड़ जातीं हैं...
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं है ।
अनगिनत खाईयों को
अनगिनत पुलो से पाट देतीं है.
ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों जंगलों में
नदी की तरह बहती
कोंपल की तरह फूटती
जिन्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या?
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

एक एक बूँद जोड़ कर
पूरी नदी बन जाती
पर समंदर न हो पाती
आँगन में बिखरा पड़ा
किरची किरची चाँद
उठा कर जोड़ लेतीं
शाम को क्षितिज के माथे से टपकते
सुर्ख़ सूरज को उँगली से पोंछ लेतीं
कौन कर सकता था
भला ऐक औरत के सिवा
फर्क़ है, अच्छे बुरे में ये बताने के लिये,
अदन के बाग का फल
खाती हैं, फिर खिलाती हैं
हव्वा, आदम का अच्छा नसीब होती हैं
लेकिन फिर भी,
कितनी अजीब होतीं हैं
औरतें बेहद अजीब होतीं हैं।

~ ज्योत्स्ना मिश्रा


  Mar 21, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

शगुफ़्तगी का लताफ़त का

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शगुफ़्तगी का लताफ़त का शाहकार हो तुम
फ़क़त बहार नहीं हासिल-ए-बहार हो तुम
जो एक फूल में है क़ैद वो गुलिस्ताँ हो
जो इक कली में है पिन्हाँ वो लाला-ज़ार हो तुम
*शगुफ़्तगी=प्रसन्नचित्त; लताफ़त=कोमलता; शाहकार=श्रेष्ट कृति
हासिल-ए-बहार==वसंत; पिन्हाँ=छुपा हुआ; लाला-ज़ार=गुलाब का बागीचा

हलावातों की तमन्ना, मलाहतों की मुराद
ग़ुरूर कलियों का फूलों का इंकिसार हो तुम
जिसे तरंग में फ़ितरत ने गुनगुनाया है
वो भैरवीं हो, वो दीपक हो वो मल्हार हो तुम
*हलावात=मिठास; मलाहत=सुंदरता; इंकिसार=नम्रता

तुम्हारे जिस्म में ख़्वाबीदा हैं हज़ारों राग
निगाह छेड़ती है जिस को वो सितार हो तुम
जिसे उठा न सकी जुस्तुजू वो मोती हो
जिसे न गूँध सकी आरज़ू वो हार हो तुम

जिसे न बूझ सका इश्क़ वो पहेली हो
जिसे समझ न सका प्यार भी वो प्यार हो तुम
ख़ुदा करे किसी दामन में जज़्ब हो न सकें
ये मेरे अश्क-ए-हसीं जिन से आश्कार हो तुम
*आश्कार=व्यक्त

~ कैफ़ी आज़मी


  Mar 20, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

दरख़्तों से जुदा होते हुए

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दरख़्तों से जुदा होते हुए पत्ते अगर बोलें,
तो जाने कितने भूले-बिसरे अफ़्सानों के दर खोलें।

इकट्ठे बैठ कर बातें न फिर शायद मयस्सर हों,
चलो इन आख़िरी लम्हों में जी भर कर हँसें बोलें।

हवा में बस गई है फिर किसी के जिस्म की ख़ुशबू,
ख़यालों के परिंदे फिर कहीं उड़ने को पर तौलें।

जहाँ थे मुत्तफ़िक़ सब अपने बेगाने डुबोने को,
उसी साहिल पे आज अपनी अना की सीपियाँ रोलें।
*मुत्तफ़िक़=सहमति; अना=अहं; रोलें ==निखारें, चमकायें

भँवर ने जिन को ला फेंका था इस बे-रहम साहिल पर,
हवाएँ आज फिर उन कश्तियों के बादबाँ खोलें ।
*बादबाँ=पानी के जहाज़ का पाल या पर्दा, पोतपत

न कोई रोकने वाला न कोई टोकने वाला,
अकेले आइने के सामने हँस लें कभी रो लें।

~ ख़ालिद शरीफ़


  Mar 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

बाँह फैलाए खड़े

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बाँह फैलाए खड़े,
निरुपाय, तट के वृक्ष हम
ओ नदी! दो चार पल, ठहरो हमारे पास भी ।

चाँद को छाती लगा
फिर सो गया नीलाभ जल
जागता मन के अंधेरों में
घिरा निर्जन महल
और इस निर्जन महल के
एक सूने कक्ष हम
ओ भटकते जुगनुओ! उतरो हमारे पास भी ।

मोह में आकाश के
हम जुड़ न पाए नीड़ से
ले न पाए हम प्रशंसा-पत्र
कोई भीड़ से
अश्रु की उजड़ी सभा के,
अनसुने अध्यक्ष हम
ओ कमल की पंखुरी! बिखरो हमारे पास भी ।

लेखनी को हम बनाए
गीतवंती बाँसुरी
ढूंढते परमाणुओं की
धुंध में अलकापुरी
अग्नि-घाटी में भटकते,
एक शापित यक्ष हम
ओ जलद-केशी प्रिये! सँवरो हमारे पास भी ।

~ किशन सरोज


  Mar 18, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

कुछ मिले काँटे मगर उपवन मिला

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कुछ मिले काँटे मगर उपवन मिला,
क्या यही कम है कि यह जीवन मिला।

घोर रातें अश्रु बन कर बह गईं,
स्वप्न की अट्टालिकायें ढह गईं,
खोजता बुनता बिखरते तंतु पर,
प्राप्त निधियाँ अनदिखी ही रह गईं,
भूल जाता मन कदाचित सत्य यह,
आग से तप कर निखर कंचन मिला।
क्या यही कम है कि यह जीवन मिला।

यदि न पायी प्रीति तो सब व्यर्थ है,
मीत का ही प्यार जीवन अर्थ है,
मोह-बंधन में पड़ा मन सोचता कब
बंधनों का मूल भी निज अर्थ है,
सुख कभी मिलता कहीं क्या अन्य से?
स्वर्ग तो अपने हृदय-आँगन मिला।
क्या यही कम है कि यह जीवन मिला।

वचन दे देना सरल पर कठिन पथ,
पाँव उठ जाते, नहीं निभती शपथ,
धार प्रायः मुड़ गई अवरोध से,
कुछ कथायें रह गईं यूँ ही अकथ,
श्वास फिर भी चल रही विश्वास से,
रात्रि को ही भोर-आलिंगन मिला।
क्या यही कम है कि यह जीवन मिला।

~ मानोशी


  Mar 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
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जब तुम्हीं अनजान बन कर रह गए

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जब तुम्हीं अनजान बन कर रह गए‚
विश्व की पहचान लेकर क्या करूं?

जब न तुम से स्नेह के दो कण मिले‚
व्यथा कहने के लिये दो क्षण मिले।
जब तुम्हीं ने की सतत अवहेलना‚
विश्व का सम्मान लेकर क्या करूं?
जब तुम्हीं अनजान बन कर रह गए‚
विश्व की पहचान लेकर क्या करूं?

एक आशा एक ही अरमान था‚
बस तुम्हीं पर हृदय को अभिमान था।
पर न जब तुम ही हमें अपना सके‚
व्यर्थ यह अभिमान लेकर क्या करूं?
जब तुम्हीं अनजान बन कर रह गए‚
विश्व की पहचान लेकर क्या करूं?

दूं तुम्हें कैसे जलन अपनी दिखा‚
दूं तुम्हें कैसे लगन अपनी दिखा।
जो स्वरित हो कर न कुछ भी कह सकें‚
मैं भला वे गान लेकर क्या करूं?
जब तुम्हीं अनजान बन कर रह गए‚
विश्व की पहचान लेकर क्या करूं?

शलभ का था प्रश्न दीपक से यही‚
मीन ने यह बात दीपक से कही।
हो विलग तुम से न जो फिर भी मिटें‚
मै भला वे प्राण लेकर क्या करूं?
जब तुम्हीं अनजान बन कर रह गए‚
विश्व की पहचान लेकर क्या करूं?

अर्चना निष्प्राण की कब तक करूं‚
कामना वरदान की कब तक करूं।
जो बना युग युग पहेली सा रहे‚
मौन वह भगवान लेकर क्या करूं?
जब तुम्हीं अनजान बन कर रह गए‚
विश्व की पहचान लेकर क्या करूं?

~ शांति सिंहल


  Mar 16, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मेरे उस ओर आग है

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मेरे उस ओर आग है,
मेरे इस ओर आग है,
मेरे भीतर आग है,
मेरे बाहर आग है,
इस आग का अर्थ जानते हो?

क्या तपन, क्या दहन,
क्या ज्योति, क्या जलन,
क्या जठराग्नि-कामाग्नि,
नहीं! नहीं!!
ये अर्थ हैं कोष के, कोषकारों के
जीवन की पाठशाला के नहीं।

जैसे जीवन,
वैसे ही आग का अर्थ है,
संघर्ष,
संघर्ष- अंधकार की शक्तियों से
संघर्ष अपने स्वयं के अहम् से
संघर्ष- जहाँ हम नहीं हैं वहीं बार-बार दिखाने से
कर सकोगे क्या संघर्ष ?
पा सकोगे मुक्ति, माया के मोहजाल से?

पा सकोगे तो आलोक बिखेरेंगी ज्वालाएँ
नहीं कर सके तो
लपलपाती लपटें-ज्वालामुखियों की
रुद्ररूपां हुंकारती लहरें सातों सागरों की,
लील जाएँगी आदमी
और
आदमीयत के वजूद को
शेष रह जाएगा, बस वह
जो स्वयं नहीं जानता कि
वह है, या नहीं है।

हम
हम प्रतिभा के वरद पुत्र
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम दिन भर करते ब्लात्कार
देते उपदेश ब्रह्मचर्य का
हर संध्या को।

हम प्रतिभा के वरद पुत्र
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम दिन भर करते पोषण
जातिवाद का,
निर्विकार निरपेक्ष भाव से
करते उद्घाटन
सम्मेलन का
विरोध में वर्भेगद के
हर संध्या को।

हम प्रतिभा के वरद पुत्र
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम जनता के चाकर सेवक
हमें है अधिकार
अपने बुत पुजवाने का
मरने पर
बनवाने का समाधि
पाने को श्रद्धा जनता की।

हम जनता के चाकर
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
जनता भूखी मरती है
मरने दो
बंगलों में बैठ हमें
राजसी भोजन करने दो, राजभोग चखने दो
जिससे आने पर अवसर
हम छोड़ कर चावल
खा सकें केक, मुर्ग-मुसल्लम।

हम नेताओं के वंशज
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम प्रतिपल भजते
रघुपति राघव राजा राम,
होते हैं जिसके अर्थ,
'चोरी हिंसा तेरे नाम'।

~ विष्णु प्रभाकर


  Mar 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
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ये जो क़ौल-ओ-क़रार है क्या है

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ये जो क़ौल-ओ-क़रार है क्या है,
शक़ है या ऐतबार है क्या है।
*क़ौल=वचन; क़रार=वादा

ये जो उठता है दिल में रह रह कर,
अब्र है या ग़ुबार है क्या है।
*अब्=बादल

ज़ेर-ए-लब इक झलक तबस्सुम की,
बर्क़ है या शरार है क्या है।
*ज़ेर-ए-लब=फुसफुसाना; तबस्सुम=मुस्कान; बर्क़=बिजली; शरार=चिंगारी

कोई दिल का मक़ाम समझाओ,
घर है या रहगुज़ार है क्या है।
*रहगुज़ार=रास्ता

ना खुला ये के सामना तेरा,
दीद है इंतज़ार है क्या है।
*दीद=दर्शन, सामना

~ फ़िराक़ गोरखपुरी


  Mar 14, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मोहन संग खेलन चली होरी

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खेलन चली होरी गोरी मोहन संग ।
कोई लचकत कोई हचकत आवे
कोई आवत अंग मोड़ी ।
कोई सखी नाचत, कोई ताल बजावत
कोई सखी गावत होरी ।

मोहन संग खेलन चली होरी, गोरी ।
सास ननद के चोरा-चोरी,
अबहीं उमर की थोड़ी ।

कोई सखी रंग घोल-घोल के
मोहन अंग डाली बिरजवा की छोरी ।
मोहन संग खेलन चली होरी, गोरी ।
का के मुख पर तिलक बिराजे,
का के मुख पर रोड़ी ।
गोरी के मुख पर तिलक विराजे,
सवरों के मुख पर रोड़ी ।

मोहन संग खेलन चली होरी, गोरी ।
कहत रसूल मोहन बड़ा रसिया
खिलत रंग बनाई ।
भर पिचकारी जोबन पर मारे
भींजत सब अंग साड़ी ।
हंसत मुख मोड़ी ।

मोहन संग खेलन चली होरी, गोरी ।

~ रसूल


  Mar 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
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साजन! होली आई है!

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साजन! होली आई है!
सुख से हँसना
जी भर गाना
मस्ती से मन को बहलाना
पर्व हो गया आज-
साजन! होली आई है!
हँसाने हमको आई है!

साजन! होली आई है!
इसी बहाने
क्षण भर गा लें
दुखमय जीवन को बहला लें
ले मस्ती की आग-
साजन! होली आई है!
जलाने जग को आई है!

साजन! होली आई है!
रंग उड़ाती
मधु बरसाती
कण-कण में यौवन बिखराती,
ऋतु वसंत का राज-
लेकर होली आई है!
जिलाने हमको आई है!

साजन! होली आई है!
खूनी और बर्बर
लड़कर-मरकर-
मधकर नर-शोणित का सागर
पा न सका है आज-
सुधा वह हमने पाई है!
साजन! होली आई है!

साजन! होली आई है!
यौवन की जय!
जीवन की लय!
गूँज रहा है मोहक मधुमय
उड़ते रंग-गुलाल
मस्ती जग में छाई है
साजन! होली आई है!

~ फणीश्वर नाथ रेणु


  Mar 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
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