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Saturday, July 27, 2019

अबकी अगर लौटा तो

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अबकी अगर लौटा तो
बृहत्तर लौटूँगा

चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बाँधे लोहे की पूँछें नहीं
जगह दूँगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूँगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से

अबकी अगर लौटा तो
मनुष्यतर लौटूँगा
घर से निकलते
सड़कों पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं

अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूँगा

अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूँगा

*बृहत्तर=किसी बड़े या विस्तृत की तुलना में और भी बड़ा या विशाल

~ कुँवर नारायण


 Jul 27, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, July 26, 2019

प्यार करते रहो

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सब कि सुनते रहो
प्यार करते रहो
और कुछ न कहो

चाहे बोलें न वो
लब को खोलें न वो
दिल अलग बात है
अपने लहजा में भी
प्यार घोलें न वो
अपना जो फ़र्ज़ है
इस तरह हो अदा
जैसे एक क़र्ज़ है
कोई जो कुछ कहे
उस कि सुनते रहो
प्यार करते रहो

और कुछ न कहो
बे-ख़याली में ही
लब जो खुल जाएँ तो
और ज़बाँ पर कभी
कोई सच आ गया
यूँ समझ लूँ कि फिर
सिलसिले जितने थे
दरमियाँ जो भी था
ख़्वाब देखे थे जो
सब बिखर जाएँगे
ऐसा करना नहीं
सब की सुनना मगर
तुम बिखरना नहीं
मसले सब के सब
हैं सफ़ेद-ओ-सियाह
मसअलों मैं कभी
रंग भरना नहीं
दिल में गर प्यार हो
लब पे इक़रार हो
प्यार ही प्यार बस
हर्फ़-ए-इज़हार हो
गर अना ये कहे
दिल न मिल पाएँगे
इस पे मत जाइए
खोटी हे ये अना
इस से कुछ न बना
दिल की बातें सुनो
फ़ासले से सहीह
प्यार करते रहो
और कुछ न कहो

रास्ता एक है
मुद्दआ' एक है
इक हमारी है क्या
सारी दुनिया का ही
सिलसिला एक है
एक आए थे हम
एक आए थे तुम
एक है ये सफ़र
भीड़ कितनी भी हो
अपनी अपनी जगह
हर कोई एक है
नाम हैं गो जुदा
पर ख़ुदा एक है
बस ख़ुदा की तरह
सब की सुनते रहो
प्यार करते रहो

और कुछ न कहो
कहने सुनने से तो
कुछ बदलता नहीं
रात जाती नहीं
दिन ठहरता नहीं
होने वाला है क्या
कुछ भी खुलता नहीं
वक़्त कम है बहुत
इतने कम वक़्त में
जिस क़दर कर सको
प्यार करते रहो
और कुछ न कहो

~ अदील ज़ैदी


 Jul 26, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, July 21, 2019

तुम्हारे लिए

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तुम्हारे लिए सँभाल कर रक्खा था
ज़मीन की कशिश से बाहर एक आसमान
एक घोड़े की पीठ
और एक सड़क जिस पर
धूप चमकीली
बारिश अलबेली होती है
एक मिसरा लिखा था तुम्हारे लिए
मन की मिट्टी में दबा कर रखी थी
तुम्हारे नाम की कोंपल
तुम्हारे लिए बचाई थी
लहू की लाली
रतजगे
अक़ीदों की शिकस्तगी
आग की लपटें एक हाथ में
एक में आब-ए-पाक
एक आँख शर्मीली
एक आँख बेबाक
कश्ती के तख़्ते
और शौक़ का मव्वाज दरिया
शहद दुनिया को बाँट दिया
बचा कर रखा अपना मोम
तुम उस की बाती होतीं
हम जलते सारी रात

तुम ने चुना
सोने का सिंदूर
चाँदी की चँगीरी
पलंग नक़्शीन
पुख़्ता छत
पक्की दीवारें
पक्का घड़ा
उथला कुआँ

पानी जैसा ठहर गईं तुम
हवा के जैसा बिखर गया मैं

~ ख़ुर्शीद अकरम

 Jul 21, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, July 20, 2019

रात मीठी चांदनी है

 
रात मीठी चांदनी है,
मौन की चादर तनी है।

एक चेहरा या कटोरा सोम मेरे हाथ में,
दो नयन या नखत वाले व्‍योम मेरे हाथ में,
प्रकृति कोई कामिनी है,
या चमकती नागिनी है।

रूप - सागर कब किसी की चाह में मैले हुए,
ये सुवासित केश मेरी बांह पर फैले हुए,
ज्‍योति में छाया बनी है,
देह से छाया घनी है।

वासना के ज्‍वार उठ-उठ चंद्रमा तक खिंच रहे,
ओंठ पाकर ओंठ मदिरा सागरों में सिंच रहे;
सृष्टि तुमसे मांगनी है,
क्‍योंकि यह जीवन ऋणी है।

वह मचलती-सी नजर उन्‍माद से नहला रही,
वह लिपटती बांह नस-नस आग से सहला रही,
प्‍यार से छाया सनी है,
गर्भ से छाया धनी है।

दामिनी की कसमसाहट से जलद जैसे चिटकता,
रौंदता हर अंग प्रतिपल फूटकर आवेग बहता।
एक मुझमें रागिनी है,
जो कि तुमसे जागनी है।

~ कुँवर नारायण

 Jul 20, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, July 14, 2019

ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर


ऐ इश्क़ न छेड़ आ आ के हमें, हम भूले हुओं को याद न कर
पहले ही बहुत नाशाद हैं हम, तू और हमें नाशाद न कर
क़िस्मत का सितम ही कम नहीं कुछ, ये ताज़ा सितम ईजाद न कर
यूँ ज़ुल्म न कर, बे-दाद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
*नाशाद=दु:खी; बेदाद=ज़ुल्म

जिस दिन से मिले हैं दोनों का, सब चैन गया आराम गया
चेहरों से बहार-ए-सुब्ह गई, आँखों से फ़रोग़-ए-शाम गया
हाथों से ख़ुशी का जाम छुटा, होंटों से हँसी का नाम गया
ग़मगीं न बना, नाशाद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
*फ़रोग़-ए-शाम=शाम की रौनक

हम रातों को उठ कर रोते हैं, रो रो के दुआएँ करते हैं
आँखों में तसव्वुर दिल में ख़लिश, सर धुनते हैं आहें भरते हैं
ऐ इश्क़ ये कैसा रोग लगा, जीते हैं न ज़ालिम मरते हैं
ये ज़ुल्म तू ऐ, जल्लाद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
*तसव्वुर=सपने; ख़लिश=फ़िक्र

ये रोग लगा है जब से हमें, रंजीदा हूँ मैं बीमार है वो
हर वक़्त तपिश हर वक़्त ख़लिश, बे-ख़्वाब हूँ मैं बेदार है वो
जीने पे इधर बेज़ार हूँ मैं, मरने पे उधर तयार है वो
और ज़ब्त कहे, फ़रियाद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
*रंजीदा=संतप्त; बेज़ार=थके हुए; ज़ब्त=आत्म नियंत्रण

जिस दिन से बँधा है ध्यान तिरा, घबराए हुए से रहते हैं
हर वक़्त तसव्वुर कर कर के, शरमाए हुए से रहते हैं
कुम्हलाए हुए फूलों की तरह, कुम्हलाए हुए से रहते हैं
पामाल न कर, बर्बाद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
*पामाल=परों से कुचलना

बेदर्द! ज़रा इंसाफ़ तो कर, इस उम्र में और मग़्मूम है वो
फूलों की तरह नाज़ुक है अभी, तारों की तरह मासूम है वो
ये हुस्न सितम! ये रंज ग़ज़ब! मजबूर हूँ मैं मज़लूम है वो
मज़लूम पे यूँ, बे-दाद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
*मग़्मूम=दु:खी; मज़लूम=उत्पीड़ित

ऐ इश्क़ ख़ुदारा देख कहीं, वो शोख़-ए-हज़ीं बद-नाम न हो
वो माह-लक़ा बद-नाम न हो, वो ज़ोहरा-जबीं बद-नाम न हो
नामूस का उस के पास रहे, वो पर्दा-नशीं बद-नाम न हो
उस पर्दा-नशीं, को याद न कर
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
*ख़ुदारा=ईश्वर के लिए; शोख़-ए-हज़ीं=हास्यास्पद दुख; माह-लक़ा=चंद्रमुखी; ज़ोहरा-जबीं=वीनस जैसे माथे वाली यानि कि सौंदर्य/प्रेम की देवी

~ अख़्तर शीरानी

 Jul 14, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, July 13, 2019

इस पे भूले हो कि हर दिल को


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इस पे भूले हो कि हर दिल को कुचल डाला है
इस पे भूले हो कि हर गुल को मसल डाला है
और हर गोशा-ए-गुलज़ार में सन्नाटा है
*गोशा-ए-गुलज़ार=बाग के कोने कोने

किसी सीने में मगर एक फ़ुग़ाँ तो होगी
आज वो कुछ न सही कल को जवाँ तो होगी
*फ़ुग़ाँ=आह, फ़रियाद

वो जवाँ हो के अगर शोला-ए-जव्वाला बनी
वो जवाँ हो के अगर आतिश-ए-सद-साला बनी
*शोला-ए-जव्वाला=नाचता हुआ शोला; आतिश-ए-स्द-साल=सौ साल तक जलने वाली आग

ख़ुद ही सोचो कि सितम-गारों पे क्या गुज़रेगी
*सितम-गार=अत्याचारी

‍~ अली सरदार जाफ़री

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Friday, July 12, 2019

तू अगर सैर को निकले तो

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तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए

सुरमई शाल का डाले हुए माथे पे सिरा
बाल खोले हुए संदल का लगाए टीका
यूँ जो हँसती हुई तू सुब्ह को आ जाए ज़रा
बाग़-ए-कश्मीर के फूलों को अचम्भा हो जाए
तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए

ले के अंगड़ाई जो तू घाट पे बदले पहलू
चलता फिरता नज़र आ जाए नदी पर जादू
झुक के मुँह अपना जो गंगा में ज़रा देख ले तू
निथरे पानी का मज़ा और भी मीठा हो जाए
तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए

सुब्ह के रंग ने बख़्शा है वो मुखड़ा तुझ को
शाम की छाँव ने सौंपा है वो जोड़ा तुझ को
कि कभी पास से देखे जो हिमाला तुझ को
इस तिरे क़द की क़सम और भी ऊँचा हो जाए
तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए

~ जोश मलीहाबादी

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 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, July 6, 2019

छा गई बरसात की पहली घटा

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छा गई बरसात की पहली घटा अब क्या करूँ
ख़ौफ़ था जिस का वो आ पहुँची बला अब क्या करूँ
हिज्र को बहला चली थी गर्म मौसम की सुमूम
ना-गहाँ चलने लगी ठंडी हवा अब क्या करूँ

*हिज्र=वियोग; सुमूम=लू जैसी हवा; ना-गहाँ=अचानक

आँख उठी ही थी कि अब्र-ए-लाला-गूँ की छाँव में
दर्द से कहने लगा कुछ झुटपुटा अब क्या करूँ
अश्क अभी थमने न पाए थे कि बेदर्दी के साथ
बूंदियों से बोस्ताँ बजने लगा अब क्या करूँ

*अब्र-ए-लाला-गूँ=लालिमा लिए हुए बादल; बोस्ताँ=ख़ुशी के बाग़

ज़ख़्म अब भरने न पाए थे कि बादल चर्ख़ पर
आ गया अंगड़ाइयाँ लेता हुआ अब क्या करूँ
आ चुकी थी नींद सी ग़म को कि मौसम ना-गहाँ
बहर-ओ-बर में करवटें लेने लगा अब क्या करूँ

*चर्ख़=आसमान; ना-गहाँ=अचानक; बहर-ओ-बर=ज़मीन और पानी

चर्ख़ की बे-रंगियों से सुस्त थी रफ़्तार-ए-ग़म
यक-ब-यक हर ज़र्रा गुलशन बन गया अब क्या करूँ
क़ुफ़्ल-ए-बाब-ए-शौक़ थीं माहौल की ख़ामोशियाँ
दफ़अतन काफ़िर पपीहा बोल उठा अब क्या करूँ

*क़ुफ़्ल-ए-बाब-ए-शौक़=प्रेमनगर का दरवाज़ा; दफ़अतन=अचानक

हिज्र का सीने में कुछ कम हो चला था पेच-ओ-ताब
बाल बिखराने लगी काली घटा अब क्या करूँ
आँख झपकाने लगी थी दिल में याद-ए-लहन-ए-याद
मोर की आने लगी बन से सदा अब क्या करूँ

*पेच-ओ-ताब=घुमाव; याद-ए-लहन-ए-याद=किसी चीज़ का बार बार याद आना

घट चला था ग़म की रंगीं बदलियों की आड़ से
उन का चेहरा सामने आने लगा अब क्या करूँ
आ रही हैं अब्र से उन की सदाएँ 'जोश' 'जोश'
ऐ ख़ुदा अब क्या करूँ बार-ए-ख़ुदा अब क्या करूँ

~ जोश मलीहाबादी


 Jul 6, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, July 5, 2019

इत्तिफ़ाक़

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हम सब
एक इत्तिफ़ाक़ के
मुख़्तलिफ़ नाम हैं
मज़हब
मुल्क
ज़बान
इसी इत्तिफ़ाक़ की अन-गिनत कड़ियाँ हैं
अगर पैदाइश से पहले
इन्तिख़ाब की इजाज़त होती
तो कोई लड़का (या लड़की)
अपने (माँ) बाप के घर में पैदा होना पसंद नहीं करता

*मुख़्तलिफ़=अलग अलग; इंतिख़ाब=चुना हुआ

~ निदा फ़ाज़ली


 Jul 5, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Thursday, July 4, 2019

ऐ वतन ऐ वतन हम तिरे पासबाँ

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ऐ वतन ऐ वतन हम तिरे पासबाँ
ऐ चमन ऐ चमन हम तिरे बाग़बाँ

चाँदनी धूप बादल बरसती घटा
हर नज़ारा हसीं हर अदा दिलरुबा
गुल-बदामाँ तिरी दिल-नशीं-दारियाँ
ऐ वतन ऐ वतन हम तिरे पासबाँ

तेरी तहज़ीब गुलदस्ता-ए-ज़िंदगी
तेरी तारीख़ आईना-ए-ज़िंदगी
हर वरक़ आदमियत की है दास्ताँ
ऐ वतन ऐ वतन हम तिरे पासबाँ

ख़ून-ए-दिल से सजाते रहे हम तुझे
रश्क-ए-जन्नत बनाते रहे हम तुझे
तुझ को हसरत से देखा किया आसमाँ
ऐ वतन ऐ वतन हम तिरे पासबाँ

*पासबाँ=संतर

~ रिफ़अत सरोश

 Jul 4, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh