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Saturday, November 18, 2017

जनम के सिरजे हुए दुख

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जनम के सिरजे हुए दुख
उम्र बन-बनकर कटेंगे
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

कुआँ अँधा बिना पानी
घूमती यादें पुरानी
प्यास का होना वसंती
तितलियों से छेड़खानी
झरे फूलों से पहाड़े
गंध के कब तक रटेंगे?
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

चढ़ गये सारे नसेड़ी
वक़्त की मीनार टेढ़ी
'गिर रही है- गिर रही है'
हवाओं ने तान छेड़ी
मचेगी भगदड़ कि कितने स्वप्न
लाशों से पटेंगे
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

परिंदे फिर चमन में
खेत बागों में कि वन में
चहचहायेंगे
नदी बहती रहेगी उसी धुन में
चप्पुओं के स्वर लहर बनकर
कछारों तक उठेंगे
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

~ दिनेश सिंह


  Nov 18, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, November 17, 2017

यार को मैं ने मुझे यार ने


यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर ताला'-ए-बेदार ने सोने न दिया
*ताला'-ए-बेदार=जागा हुआ नसीब

ख़ाक पर संग-ए-दर-ए-यार ने सोने न दिया
धूप में साया-ए-दीवार ने सोने न दिया
*संग-ए-दर-ए-यार=यार की दहलीज़ का पत्थर;

शाम से वस्ल की शब आँख न झपकी ता-सुब्ह
शादी-ए-दौलत-ए-दीदार ने सोने न दिया
*शादी-ए-दौलत-ए-दीदार=तेखने की खुशी की दौलत

एक शब बुलबुल-ए-बेताब के जागे न नसीब
पहलु-ए-गुल में कभी ख़ार ने सोने न दिया

जब लगी आँख कराहा ये कि बद-ख़्वाब किया
नींद भर कर दिल-ए-बीमार ने सोने न दिया

दर्द-ए-सर शाम से उस ज़ुल्फ़ के सौदे में रहा
सुब्ह तक मुझ को शब-ए-तार ने सोने न दिया
*शब-ए-तार=काली रात

रात भर कीं दिल-ए-बेताब ने बातें मुझ से
रंज ओ मेहनत के गिरफ़्तार ने सोने न दिया

सैल-ए-गिर्या से मिरी नींद उड़ी मर्दुम की
फ़िक्र-ए-बाम-ओ-दर-ओ-दीवार ने सोने न दिया
*सैल-ए-गिर्या=रोने से आयी बाढ़; मर्दुम=लोग

बाग़-ए-आलम में रहीं ख़्वाब की मुश्ताक़ आँखें
गर्मी-ए-आतिश-ए-गुलज़ार ने सोने न दिया
*बाग़-ए-आलम=दुनिया के बग़ीचे; मुश्ताक़=इच्छुक; गर्मी-ए-आतिश-ए-गुलज़ार=बाग़ीचे के आग की गर्मी

सच है ग़म-ख़्वारी-ए-बीमार अज़ाब-ए-जाँ है
ता-दम-ए-मर्ग दिल-ए-ज़ार ने सोने न दिया
*ग़म-ख़्वारी-ए-बीमार=बीमार से हमदर्दी; अज़ाब-ए-जाँ=कष्ट; ता-दम-ए-मर्ग=आख़िरी समय तक

तकिया तक पहलू में उस गुल ने न रक्खा 'आतिश'
ग़ैर को साथ कभी यार ने सोने न दिया

~ हैदर अली आतिश

  Nov 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, November 12, 2017

देखो, चली जाए न यों ढलकर



देखो,
चली जाए न यों ढलकर।

थमाओ हाथ, बाहर घास ने
कालीन डाला है,
किरन ने कुनकुने जलसे
अभी तो मुँह उजाला है,
हवाएँ यों निकल जाएँ न
हम दो बात तो कर लें,
खिली है ऋतु सुहानी
आँजुरी में, फूल कुछ भर लें।
लताओं से विटप की,
अनकही बातें सुनें चलकर!

पुलकते तट, उठी लहरें
सिमट कर बाँह में सोई,
कमल-दल फूल कर महके
मछलियाँ डूब कर खोई,
लिखी अभिसार की गाथा
कपोती ने मुँडेली पर,
मदिर मधुमास लेकर
घर गई सरसों- हथेली पर।
महकता है कहीं महुआ
किसी, कचनार में घुलकर।

उलझती ऊन सुलझा कर
नया स्वेटर बनाओ तुम,
बिखरते गीत के
खोए हुए-फिर बंध जोड़े हम,
बहुत दिन हो गए हैं
डूब कर जीना नहीं जाना,
कभी तुमने कभी हमने
कोई मौसम नहीं माना।
बहे फिर प्यार की इस
उष्णता में कुहरिका गलकर!

~ यतीन्द्र राही


  Nov 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, November 11, 2017

बना हूँ मैं आज तेरा मेहमाँ

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बना हूँ मैं आज तेरा मेहमाँ कोई अदू को ख़बर न कर दे
उठा के वो तेरी अंजुमन से कहीं मुझे दर-ब-दर न कर दे
*अदू=दुश्मन

ये वस्ल की रात है ख़ुदारा नक़ाब चेहरे से मत हटाओ
तुम्हारे चेहरे का ये उजाला सहर से पहले सहर न कर दे
*ख़ुदारा=ईश्वर के लिये; सहर=सवेरा

क़सम जिसे ज़ब्त-ए-ग़म की दे कर उठा दिया अपने दर से तू ने
कहीं वो दीवाना उम्र अपनी बग़ैर तेरे बसर न कर दे
*ज़ब्त-ए-ग़म=सहनशीलता

बड़े मज़े से मैं पी रहा हूँ मिरी तरफ़ तुम अभी न देखो
मुझे ये डर है नज़र तुम्हारी शराब को बे-असर न कर दे

सताया जिस को हमेशा तू ने सदा अकेला जो छुप के रोया
वो दिल-जला अपने आँसुओं से तुम्हारा दामन भी तर न कर दे

'क़तील' ये वस्ल के ज़माने हसीन भी हैं तवील भी हैं
मगर लगा है ये, दिल को धड़का इन्हें कोई मुख़्तसर न कर दे
*तवील=लम्बे; मुख्तसर=संक्षिप्त

~ क़तील शिफ़ाई


  Nov 11, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

पहले इस में इक अदा थी

पहले इस में इक अदा थी नाज़ था अंदाज़ था
रूठना अब तो तिरी आदत में शामिल हो गया

~ आग़ा शाएर क़ज़लबाश

  Nov 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, November 10, 2017

मेरे पाँव तुम्हारी गति हो


मेरे पाँव तुम्हारी गति हो
फिर चाहे जो भी परिणति हो

*परिणति= किसी प्रकार के परिवर्तन के कारण बननेवाला नया रूप

कोई चलता कोई थमता
दुनिया तो सडकों का मेला
जैसे कोई खेल रहा हो
सीढ़ी और साँप का खेला
मेरे दाँव तुम्हारी मति हो
फिर चाहे जय हो या क्षति हो

पल-पल दिखते पल-पल ओझल
सारे सफर पडावों के छल
जैसे धूप तले मरुथल में
हर प्यासे के हिस्से मृगजल
मेरे नयन तुम्हारी द्युति हो
फिर कोई आकृति अनुकृति हो

*आकृति=स्वरूप; अनुकृति= किसी वस्तु की हूबहू नक़ल

क्या राजाघर क्या जलसाघर
मैं अपनी लागी का चाकर
जैसे भटका हुआ पुजारी
ढूँढ रहा अपना पूजाघर
मेरे प्राण तुम्हारी रति हो
फिर कैसी भी सुरति-निरति हो
*सुरति=युगल का वह प्रेम जो शारीरिक सम्बंध की तृप्ति से उत्पन्न होता है; निरति= आसक्ति

ये सन्नाटे ये कोलाहल
कविता जन्मे साँकल-साँकल
जैसे दावानल में हँस दे
कोई पहली-पहली कोंपल
मेरे शब्द तुम्हारी श्रुति हो
यह मेरी अन्तिम प्रतिश्रुति हो

*श्रुति=सुनने की क्रिया; प्रतिश्रुति=प्रतिध्वनि

~ तारा प्रकाश जोशी


  Nov 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मिरे वहम-ओ-गुमाँ से


मिरे वहम-ओ-गुमाँ से भी ज़ियादा टूट जाता है
ये दिल अपनी हदों में रह के इतना टूट जाता है
*सनक और काल्पनिक

मैं रोऊँ तो दर-ओ-दीवार मुझ पर हँसने लगते हैं
हँसूँ तो मेरे अंदर जाने क्या क्या टूट जाता है
*दर=दरवाज़ा

मैं जिस लम्हे की ख़्वाहिश में सफ़र करता हूँ सदियों का
कहीं पाँव-तले आ कर वो लम्हा टूट जाता है

मिरे ख़्वाबों की बस्ती से जनाज़े उठते जाते हैं
मिरी आँखें जिसे छू लें वो सपना टूट जाता है

न जाने कितनी मुद्दत से है दिल में ये अमल जारी
ज़रा सी ठेस लगती है ज़रा सा टूट जाता है
*अमल=काम

दिल-ए-नादाँ हमारी तो नुमू ही ना-मुकम्मल थी
तो हैरत क्या जो बनते ही इरादा टूट जाता है
*नुमू=बढ़त; ना-मुकम्मल=अधूरी

मुक़द्दर में मिरे 'सागर' शिकस्त-ओ-रेख़्त इतनी है
मैं जिस को अपना कह दूँ वो सितारा टूट जाता है
*शिकस्त-ओ-रेख़्त=बनना और बिगड़ना

~ सलीम साग़र

  Nov 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, November 5, 2017

इतना दूर मुझे मत कर दो

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इतना दूर मुझे मत कर दो
लौटूँ तो पहचान न पाओ।

तन की दूरी दूरी मन की
अग्नि से इच्छा अग्नि शमन की
ध्वनियों की व्याकुलता से ही
उभरी हैं ध्वनियाँ निर्जन की
इतना मान नहीं रखना मन
लोगों से सम्मान न पाओ।

स्वयं से बढ़ के स्वयं से छोटा
सागर बनना बनना लोटा
सपनों ने विस्तार दिए हैं
सपनों ने ही हमें कचोटा
इतना ज्ञान न अर्जित करना
ख़ुद को ही तुम छान न पाओ।

गोद में सुख है गोद में दुख है
गोद का अपना भी एक रुख है
निर्भर करता सफ़र इसी पर
आमुख क्या है क्या सम्मुख है
इतना ऊँचा भी मत होना
नमी ओस की जान न पाओ।

~ देवेन्द्र आर्य


  Nov 5, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आपसी बातों को अख़बार न

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आपसी बातों को अख़बार नहीं होने दिया
हम ने ये कमरा हवा-दार नहीं होने दिया

बद-गुमानी को किया चाय पिला कर रुख़्सत
नाश्ते का भी तलबगार नहीं होने दिया
*बद-गुमानी= शंका, सन्देह

दिल के ज़ख़्मों की ख़बर होने न दी अश्कों को
ग़म का आँखों से सरोकार नहीं होने दिया

सख़्त लफ़्ज़ों में भी देती है मज़ा बात उस की
उस ने लहजे को दिल-आज़ार नहीं होने दिया
*दिल-आज़ार=दिल दुखाने वाला

रख दिए होंटों पे उँगली की तरह होंट उस ने
एक शिकवा भी नुमूदार नहीं होने दिया
*नुमूदार=अंकुरित, उगने देना

उस ने नादान हो, कह कर हमें उकसाया था
उम्र भर उस को समझदार नहीं होने दिया

चाहतें पाईं हैं 'मन्नान' वफ़ाओं के तुफ़ैल
जज़्बा-ए-इश्क़ को अय्यार नहीं होने दिया
*तुफ़ैल= बीच बिचाव; अय्यार=चालाक

~ मन्नान बिजनोरी


  Nov 4, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तुम कनक किरन के अंतराल में

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तुम कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों ?

नत मस्तक गर्व वहन करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मौन बने रहते हो क्यो?

अधरों के मधुर कगारों में
कल कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु सरिता सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली
अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते हो क्यों?

~ जयशंकर प्रसाद


  Nov 3, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh