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Saturday, November 30, 2019

मैं ज़िंदगी के अज़ाब लिक्खूँ

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मिरे ख़ुदाया
मैं ज़िंदगी के अज़ाब लिक्खूँ कि ख़्वाब लिक्खूँ
ये मेरा चेहरा ये मेरी आँखें
बुझे हुए से चराग़ जैसे
जो फिर से चलने के मुंतज़िर हों
*अज़ाब=तकलीफ़; मुंतज़िर=प्रतीक्षा करने वाला

वो चाँद-चेहरा सितारा-आँखें
वो मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
जिन्हों ने पैमाँ किए थे मुझ से
रफ़ाक़तों के मोहब्बतों के
कहा था मुझ से कि ऐ मुसाफ़िर रह-ए-वफ़ा के
जहाँ भी जाएगा हम भी आएँगे साथ तेरे
बनेंगे रातों में चाँदनी हम तो दिन में साए बिखेर देंगे
*पैमाँ=वादे; रफ़ाक़त=मित्रता; रह-ए-वफ़ा=वफ़ा की राह पर

वो चाँद-चेहरा सितारा-आँखें
वो मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
वो अपने पैमाँ रफ़ाक़तों के मोहब्बतों के
शिकस्त कर के
न जाने अब किस की रहगुज़र का मनारा-ए-रौशनी हुए हैं
मगर मुसाफ़िर को क्या ख़बर है
वो चाँद-चेहरा तो बुझ गया है
सितारा-आँखें तो सो गई हैं
वो ज़ुल्फ़ें बे-साया हो गई हैं
वो रौशनी और वो साए मिरी अता थे
सो मेरी राहों में आज भी हैं
कि मैं मुसाफ़िर रह-ए-वफ़ा का
*शिकस्त=हार कर; मनारा=मीनार; अता=उपहार

वो चाँद-चेहरा सितारा-आँखें
वो मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
हज़ारों चेहरों हज़ारों आँखों
हज़ारों ज़ुल्फ़ों का एक सैलाब-ए-तुंद ले कर
मिरे तआक़ुब में आ रहे हैं
*सैलाब-ए-तुंद=ज़ोर से आती हुई बाढ़; तआक़ुब=पीछे

हर एक चेहरा है चाँद-चेहरा
हैं सारी आँखें सितारा-आँखें
तमाम हैं
मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
मैं किस को चाहूँ मैं किस को चूमूँ
मैं किस के साए में बैठ जाऊँ
बचूँ कि तूफ़ाँ में डूब जाऊँ
न मेरा चेहरा न मेरी आँखें
मिरे ख़ुदाया
मैं ज़िंदगी के अज़ाब लिक्खूँ कि ख़्वाब लिक्खूँ

~ उबैदुल्लाह अलीम

 Nov 30, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Thursday, November 28, 2019

तिरे रुख़्सार से बे-तरह

तिरे रुख़्सार से बे-तरह लिपटी जाए है ज़ालिम,
जो कुछ कहिए तो बल खा उलझती है ज़ुल्फ़ बे-ढंगी।

~ शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

 Nov 28, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

जिससे पथ पर स्नेह मिला


जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही का धन्यवाद।

जीवन अस्थिर अनजाने ही
हो जाता पथ पर मेल कहीं
सीमित पग­डग, लम्बी मंजिल
तय कर लेना कुछ खेल नहीं
दाएं­ बाएं सुख दुख चलते
सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही का धन्यवाद।

सांसों पर अवलंबित काया
जब चलते­ चलते चूर हुई
दो स्नेह­ शब्द मिल गये, मिली
नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई
पथ के पहचाने छूट गये
पर साथ­साथ चल रही याद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही का धन्यवाद।

जो साथ न मेरा दे पाए
उनसे कब सूनी हुई डगर
मैं भी न चलूं यदि तो भी क्या
राही मर लेकिन राह अमर
इस पथ पर वे ही चलते हैं
जो चलने का पा गए स्वाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही का धन्यवाद।

कैसे चल पाता यदि न मिला
होता मुझको आकुल ­अंतर
कैसे चल पाता यदि मिलते
चिर तृप्ति अमरता पूर्ण प्रहर
आभारी हूं मैं उन सबका
दे गए व्यथा का जो प्रसाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही का धन्यवाद।

- शिवमंगल सिंह 'सुमन'


 Nov 28, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, November 23, 2019

तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

 
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू
हाथों में बस गई है साँसों में रच रही है
ख़्वाबों की वुसअ'तों में इक धूम मच रही है
जज़्बात के गुलिस्ताँ महका रही है हर सू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू
*वुसअ'त=क्षेत्र; हर सू=हर तरफ

तेरे ख़तों की मुझ पर क्या क्या इनायतें हैं
बे-मुद्दआ करम है बेजा शिकायतें हैं
अपने ही क़हक़हों पर बरसा रही है आँसू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

तेरी ज़बान बन कर अक्सर मुझे सुनाए
बातें बनी बनाई जुमले रटे-रटाए
मुझ पर भी कर चुकी है अपनी वफ़ा का जादू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

समझे हैं कुछ उसी ने आदाब चाहतों के
सब के लिए वही हैं अलक़ाब चाहतों के
सब के लिए बराबर फैला रही है बाज़ू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू
*अलक़ाब=उपाधियाँ

अपने सिवा किसी को मैं जानता नहीं था
सुनता था लाख बातें और मानता नहीं था
अब ख़ुद निकाल लाई बेगानगी के पहलू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

क्या जाने किस तरफ़ को चुपके से मुड़ चुकी है
गुलशन के पर लगा कर सहरा को उड़ चली है
रोका हज़ार मैं ने आई मगर न क़ाबू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

~ क़तील शिफ़ाई

 Nov 23, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, November 22, 2019

साथ अगर तुम हो तो फिर हम


 
साथ अगर तुम हो तो फिर हम
हँसते हँसते चलते चलते
दूर आकाश की हद तक जाएँ
काली काली सी दलदल से
तपता ताँबा फूट रहा हो

मकड़ी के जाले का फ़ीता
काट के हम उस बाग़ में जाएँ
जिस में कोई कभी न गया हो
कोकनार के फूल खिले हों
भँवरे उन को चूम रहे हों

पत्थर से पानी चलता हो
मैं पानी का चुल्लू भर कर
जब मारूँ चेहरे पे तुम्हारे
पहले तुम को साँस न आए
और फिर मेरे साथ लिपट कर
ऐसे छूटे धार हँसी की
जैसे चश्मा फूट रहा हो

~ ख़ुर्शीद रिज़वी

 Nov 23, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, November 19, 2019

दिल सोया हुआ था मुद्दत से

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दिल सोया हुआ था मुद्दत से ये कैसी बशारत जागी है
इस बार लहू में ख़्वाब नहीं ताबीर की लज़्ज़त जाती है
*बशारत=ख़ुशख़बरी; ताबीर=(ख़्वाब)सम्भावित अर्थ

इस बार नज़र के आँगन में जो फूल खिला ख़ुश-रंग लगा
इस बार बसारत के दिल में नादीदा बसीरत जागी है
*बसारत=दृष्टि; नादीदा=जो दिखा नहीं हो; बसीरत=दिल की नज़र

इक बाम-ए-सुख़न पर हम ने भी कुछ कहने की ख़्वाहिश की थी
इक उम्र के ब'अद हमारे लिए अब जा के समाअत जागी है
*बाम=छत; समाअत=सुनने की क्षमता

इक दस्त-ए-दुआ की नर्मी से इक चश्म-ए-तलब की सुर्ख़ी तक
अहवाल बराबर होने में इक नस्ल की वहशत जागी है
*दस्त-ए-दुआ=प्रार्थना के लिए उठे हाथ; चश्म-ए-तलब=जिसको नज़रें देखना चाहें; अहवाल=हालात;

ऐ त'अना-ज़नो दो चार बरस तुम बोल लिए अब देखते जाओ
शमशीर-ए-सुख़न किस हाथ में है किस ख़ून में हिद्दत जागी है
*हिद्दत=तीव्रता

~ अज़्म बहज़ाद


 Nov 19, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, November 9, 2019

सुबह का तारा

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वक़्त-ए-सहर, ख़ामोश धुँदलका नाच रहा है सेहन-ए-जहाँ में
ताबिंदा, पुर-नूर सितारे, जगमग जगमग करते करते
हार चुके हैं अपनी हिम्मत, डूब चुके हैं बहर-ए-फ़लक में
तारीकी के तूफ़ानों में अपनी कश्ती खेते खेते

*सहन-ए-जहाँ=आँगन; ताबिंदा=प्रकाशमान; बाहर-ए-फ़लक=आकाश के समुद्र; तारीकी=अँधेरा

लेकिन इक बा-हिम्मत तारा अब भी आँखें खोल रहा है
अब भी जहाँ को देख रहा है अपनी मस्ताना नज़रों से
जैसे किसी तालाब में लचके कोई शगुफ़्ता फूल कँवल का
जैसे बेले की शाख़ों में दूर से एक शगूफ़ा चमके

*बाँ-हिम्मत=साहसी; शगुफ़्ता=खिला हुआ; शगूफ़ा=कली

वक़्त-ए-सहर, ख़ामोश धुँदलका एक सितारा काँप रहा है
जैसे कोई बोसीदा कश्ती तूफ़ानों में डोल रही हो
कोई दिया रौशन हो जैसे क़ब्रिस्तान में ताक़-ए-लहद पर
जिस की लौ अंजाम के डर से घटती हो और थर्राती हो

*बोसीदा=फटे-हाल; लहद=क़ब्र

वक़्त-ए-सहर ख़ामोश धुँदलका एक सितारा काँप रहा है
रुख़ पर जिस के खेल रहा है अब भी तबस्सुम हल्का हल्का
वो आया इक नूर का धारा जल्वों की बूँदें बरसाता
जगमग जगमग करता करता डूब गया मासूम सितारा

~ रिफ़अत सरोश


 Nov 10, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, November 1, 2019

आज की बात नई बात नहीं

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आज की बात नई बात नहीं है ऐसी
जब कभी दिल से कोई गुज़रा है याद आई है
सिर्फ़ दिल ही ने नहीं गोद में ख़ामोशी की
प्यार की बात तो हर लम्हे ने दोहराई है

चुपके चुपके ही चटकने दो इशारों के गुलाब
धीमे धीमे ही सुलगने दो तक़ाज़ों के अलाव!
रफ़्ता रफ़्ता ही छलकने दो अदाओं की शराब
धीरे धीरे ही निगाहों के ख़ज़ाने बिखराओ

बात अच्छी हो तो सब याद किया करते हैं
काम सुलझा हो तो रह रह के ख़याल आता है
दर्द मीठा हो तो रुक रुक के कसक होती है
याद गहरी हो तो थम थम के क़रार आता है

दिल गुज़रगाह है आहिस्ता-ख़िरामी के लिए
तेज़-गामी को जो अपनाओ तो खो जाओगे
इक ज़रा देर ही पलकों को झपक लेने दो
इस क़दर ग़ौर से देखोगे तो सो जाओगे

~ ज़ेहरा निगाह


 Nov 1, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh