Disable Copy Text

Sunday, October 27, 2019

दीप से दीप जलें


सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।

लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ, कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे, नवीन दुकूलों में।।

गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
शकट चले जलयान चले, गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।

उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर
भवन-भवन तेरा मंदिर है, स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को, उज्ज्वल कर कल्याणी।।

वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है, तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।

युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत, दीप से दीप जलें।

~ माखनलाल चतुर्वेदी

 Oct 27, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, October 19, 2019

फूलों पे रक़्स और न बहारों पे रक़्स कर

Image may contain: one or more people, sky, ocean, shoes, twilight, outdoor and water

फूलों पे रक़्स और न बहारों पे रक़्स कर
गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद में ख़ारों पे रक़्स कर
हो कर जुमूद-ए-गुलशन-ए-जन्नत से बे-नियाज़
दोज़ख़ के बे-पनाह शरारों पे रक़्स कर

*रक़्स=नृत्य; गुलज़ार=चमन; हस्त-ओ-बूद=कल और आज; जुमूद=जमे हुए (निष्क्रिय); बे-नियाज़=उदासीन; शरारों=चिंगारी

शम-ए-सहर फुसून-ए-तबस्सुम, हयात-ए-गुल
फ़ितरत के इन अजीब नज़ारों पे रक़्स कर
तंज़ीम-ए-काएनात-ए-जुनूँ की हँसी उड़ा
उजड़े हुए चमन की बहारों पे रक़्स कर

*शम-ए-सहर=सुबह का दीप; फुसून-ए-तबस्सुम-मुस्कुराहट का जादू; हयात-ए-गुल=जिंदगी का फूल
तंज़ीम=नियम कानून; कायनात-ए-जुनूँ=प्रकृति का उन्माद

सहमी हुई सदा-ए-दिल-ए-ना-तवाँ न सुन
बहकी हुई नज़र के इशारों पर रक़्स कर
जो मर के जी रहे थे तुझे उन से क्या ग़रज़
तू अपने आशिक़ों के मज़ारों पे रक़्स कर
*सदा=आवाज़; ना-तवाँ=कमज़ोर

हर हर अदा हो रूह की गहराइयों में गुम
यूँ रंग-ओ-बू की राह-गुज़ारों पे रक़्स कर
तू अपनी धुन में मस्त है तुझ को बताए कौन
तेरी ज़मीं फ़लक है सितारों पर रक़्स कर
*राह-गुज़ारों=राही

इस तरह रक़्स कर कि सरापा असर हो तू
कोई नज़र उठाए तो पेश-ए-नज़र हो तू
*सरापा=सर से पाँव तक; पेश-ए-नज़र= का कारण

~ शकील बदायुनी


 Oct 19, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, October 18, 2019

सब माया है

Image may contain: 6 people, selfie and closeup


सब माया है, सब ढलती फिरती छाया है 
इस इश्क़ में हम ने जो खोया जो पाया है
जो तुम ने कहा है, 'फ़ैज़' ने जो फ़रमाया है
सब माया है

हाँ गाहे गाहे दीद की दौलत हाथ आई
या एक वो लज़्ज़त नाम है जिस का रुस्वाई
बस इस के सिवा तो जो भी सवाब कमाया है
सब माया है

इक नाम तो बाक़ी रहता है, गर जान नहीं
जब देख लिया इस सौदे में नुक़सान नहीं
तब शम्अ पे देने जान पतिंगा आया है
सब माया है

मालूम हमें सब क़ैस मियाँ का क़िस्सा भी
सब एक से हैं, ये राँझा भी ये 'इंशा' भी
फ़रहाद भी जो इक नहर सी खोद के लाया है
सब माया है

क्यूँ दर्द के नामे लिखते लिखते रात करो
जिस सात समुंदर पार की नार की बात करो
उस नार से कोई एक ने धोका खाया है?
सब माया है

जिस गोरी पर हम एक ग़ज़ल हर शाम लिखें
तुम जानते हो हम क्यूँकर उस का नाम लिखें
दिल उस की भी चौखट चूम के वापस आया है
सब माया है

वो लड़की भी जो चाँद-नगर की रानी थी
वो जिस की अल्हड़ आँखों में हैरानी थी
आज उस ने भी पैग़ाम यही भिजवाया है
सब माया है

जो लोग अभी तक नाम वफ़ा का लेते हैं
वो जान के धोके खाते, धोके देते हैं
हाँ ठोक-बजा कर हम ने हुक्म लगाया है
सब माया है

जब देख लिया हर शख़्स यहाँ हरजाई है
इस शहर से दूर इक कुटिया हम ने बनाई है
और उस कुटिया के माथे पर लिखवाया है
सब माया है

~ इब्न-ए-इंशा

 Oct 18, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Thursday, October 17, 2019

कभी साया है कभी धूप

Image may contain: 1 person, standing, grass, tree, outdoor, nature and closeup

कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
होता रहता है यूँ ही क़र्ज़ बराबर मेरा

टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझ में
डूब जाता है कभी मुझ में समुंदर मेरा

किसी सहरा में बिछड़ जाएँगे सब यार मिरे
किसी जंगल में भटक जाए गा लश्कर मेरा

*सहरा=बियाबान; लश्कर=काफिला

बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे
बे-वफ़ा हूँ तो हुआ नाम भी घर घर मेरा

*बा-वफ़ा=वफ़ादार

कितने हँसते हुए मौसम अभी आते लेकिन
एक ही धूप ने कुम्हला दिया मंज़र मेरा

*मंज़र=दृश्य

आख़िरी ज़ुरअ-ए-पुर-कैफ़ हो शायद बाक़ी
अब जो छलका तो छलक जाए गा साग़र मेरा

* ज़ुरअ-ए-पुर-कैफ़=नशे से भरपूर ख़ुराक

~ अतहर नफ़ीस


 Oct 17, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, October 13, 2019

अभी सर्दी पोरों की पहचान के मौसम में है

Image may contain: 1 person, closeup

अभी सर्दी पोरों की पहचान के मौसम में है

इस से पहले कि बर्फ़ मेरे दरवाज़े के आगे दीवार बन जाए
तुम क़हवे की प्याली से उठती महकती भाप की तरह
मेरी पहचान कर लो
मैं अभी तक सब्ज़ हूँ
मुँह-बंद इलायची की तरह

मैं ने आज तुम्हारी याद के कबूतर को
अपने ज़ेहन के काबुक से आज़ाद किया
तो मुझे अंदर की पतावर दिखाई दी
चाँद पूरा होने से पहले तुम ने मुझे छुआ
और बात पूरी होने से पहले
तुम ने बात ख़त्म कर दी

*काबुक=कबूतर का दड़बा; पतावर=पुआल, सूखी घास

जानकारी के भी कितने दुख होते हैं
बिन कहे ही तल्ख़ बात समझ में आ जाती है
अच्छी बात को दोहराने की सई
और बुरी बात को भुलाने की जिद्द-ओ-जोहद में
ज़िंदगी बीत जाती है
बर्फ़ की दीवार में
अब के मैं भी चुनवा दी जाऊँगी
कि मुझे आग से खेलता देख कर
दानिश-मंदों ने यही फ़ैसला किया है

*सई=प्रयत्न, हिम्मत; जिद्द-ओ-जहद=संघर्ष; दानिश-मंदों=शिक्षित समाज

मैं तुम्हारे पास लेटी हुई भी
फुलझड़ी की तरह सुलगती रहती हूँ
मैं तुम से दूर हूँ
तब भी तुम मेरी लपटों से सुलगते और झुलसते रहते हो
समुंदर सिर्फ़ चाँद का कहा मानता है
सर-ए-शाम जब सूरज और मेरी आँखें सुर्ख़ हों
तो मैं चाँद के बुलावे पे समुंदर का ख़रोश देखने चली जाती हूँ
और मेरे पैरों के नीचे से रेत निकल कर
मुझे बे-ज़मीन कर देती है
पैर बे-ज़मीन
और सर बे-आसमान

*ख़रोश-शोर, हाहाकार; सब्ज़=हरा

फाँसी पर लटके शख़्स की तरह हो के भी
यही समझती हो
कि मुँह-बंद इलायची की तरह अभी तक सब्ज़ हो

~ किश्वर नाहीद


 Oct 13, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, October 12, 2019

मैं आग भी था और प्यासा भी

 
मैं आग भी था और प्यासा भी
तू मोम थी और गंगा-जल भी
मैं लिपट लिपट कर
भड़क भड़क कर
प्यास बुझाती आँखों में बुझ जाता था

वो आँखें सपने वाली सी
सपना जिस में इक बस्ती थी
बस्ती का छोटा सा पुल था
सोए सोए दरिया के संग
पेड़ों का मीलों साया था
पुल के नीचे अक्सर घंटों
इक चाँद पिघलते देखा था

अब याद में पिघली आग भी है
आँखों में बहता पानी भी
मैं आग भी था और प्यासा भी

~ अबरारूल हसन

 Oct 12, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, October 11, 2019

सोच लो सोच लो जीने का ये अंदाज़

Image may contain: 1 person, standing and night


सोच लो सोच लो जीने का ये अंदाज़ नहीं
अपनी बाँहों का यही रंग नुमायाँ न करो
हुस्न ख़ुद ज़ीनत*-ए-महफ़िल है चराग़ाँ न करो
नीम-उर्यां* सा बदन और उभरते सीने
तंग और रेशमी मल्बूस* धड़कते सीने
तार जब टूट गए साज़ कोई साज़ नहीं
तुम तो औरत हो मगर जिंस-ए-गिराँ* बन न सकीं
*ज़ीनत=शोभा; नीम-उर्यां=अर्ध-नग्न ;मल्बूस=कपड़े; जिंस-ए-गिराँ=मँहगा सामान

और आँखों की ये गर्दिश ये छलकते हुए जाम
और कूल्हों की लचक मस्त चकोरों का ख़िराम*
शम्अ जो देर से जलती है न बुझने पाए
कारवाँ ज़ीस्त का इस तरह न लुटने पाए
तुम तो ख़ुद अपनी ही मंज़िल का निशाँ बन न सकीं
*ख़िराम=मस्त चाल;

रात कुछ भीग चली दूर सितारे टूटे
तुम तो औरत ही के जज़्बात को खो देती हो
तालियों की इसी नद्दी में डुबो देती हो
मुस्कुराहट सर-ए-बाज़ार बिका करती है
ज़िंदगी यास* से क़दमों पे झुका करती है
और सैलाब उमड़ता है सहारे टूटे
दूर हट जाओ निगाहें भी सुलग उट्ठी हैं
वर्ज़िशों की ये नुमाइश तू बहुत देख चुका
पिंडलियों की ये नुमाइश तू बहुत देख चुका
जाओ अब दूसरे हैवान यहाँ आएँगे
भेस बदले हुए इंसान यहाँ आएँगे
*यास=निराशा

देखती क्या हो ये बाँहें भी सुलग उट्ठी हैं
सोच लो सोच लो जीने का ये अंदाज़ नहीं

~ अख़्तर पयामी

 Oct 11, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, October 6, 2019

दिल के रू-ब-रू न रहे


सबा में मस्त-ख़िरामी गुलों में बू न रहे
तिरा ख़याल अगर दिल के रू-ब-रू न रहे
*सबा=सुबह की हवा; मस्त-ख़िरामी=नशीली चाल; रू-ब-रू=आमने सामने

तिरे बग़ैर हर इक आरज़ू अधूरी है
जो तू मिले तो मुझे कोई आरज़ू न रहे

है जुस्तुजू में तिरी इक जहाँ का दर्द-ओ-निशात
तो क्या अजब कि कोई और जुस्तुजू न रहे
*दर्द-ओ-निशात=दर्द और सुख

तिरी तलब से इबारत है सोज़-ओ-हयात
हो सर्द आतिश-ए-हस्ती जो दिल में तू न रहे
*सोज़-ओ-हयात=जीने की लालसा; आतिश-ए-हस्ती=अस्तित्व की आग

तू ज़ौक़-ए-कम-तलबी है तो आरज़ू का शबाब
है यूँ कि तू रहे और कोई जुस्तुजू न रहे
*ज़ौक़-ए-कम-तलबी=कम पा कर ख़ुश रहने की आदत

ख़ुदा करे न वो उफ़्ताद आ पड़े हम पर
कि जान-ओ-दिल रहें और तेरी आरज़ू न रहे
*उफ़्ताद=आपत्ति

तिरे ख़याल की मय दिल में यूँ उतारी है
कभी शराब से ख़ाली मिरा सुबू न रहे

वो दश्त-ए-दर्द सही तुम से वास्ता तो रहे
रहे ये साया-ए-गेसू-ए-मुश्क-बू न रहे
*दश्त-ए-दर्द=दर्द का सहरा(जंगल); साया-ए-गेसू-ए-मुश्क-बू=कस्तूरी ख़ुशबू वाली ज़ुल्फों का साया

नहीं क़रार की लज़्ज़त से आश्ना ये वजूद
वो ख़ाक मेरी नहीं है जो कू-ब-कू न रहे
*कू-ब-कू=हर इक कोने में

इस इल्तिहाब में कैसे ग़ज़ल-सरा हो कोई
कि साज़-ए-दिल न रहे ख़ू-ए-नग़्मा-जू न रहे
*इल्तिहाब=आग भड़कना; ग़ज़ल-सरा=ग़ज़ल लिखने/पढने वाला; ख़ू-ए-नग़्मा-जू=संगीत का चाहक

सफ़र तवील है इस उम्र-ए-शो'ला-सामाँ का
वो क्या करे जिसे जीने की आरज़ू न रहे
*तवील=लम्बा

~ साजिदा ज़ैदी

 Oct 06, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

ये पिछले इश्क़ की बातें हैं


ये पिछले इश्क़ की बातें हैं
जब आँख में ख़्वाब दमकते थे
जब दिलों में दाग़ चमकते थे
जब पलकें शहर के रस्तों में
अश्कों का नूर लुटाती थीं
जब साँसें उजले चेहरों की
तन मन में फूल सजाती थीं



जब चाँद की रिम-झिम किरनों से
सोचों में भँवर पड़ जाते थे
जब एक तलातुम रहता था
अपने बे-अंत ख़यालों में
हर अहद निभाने की क़स्में
ख़त ख़ून से लिखने की रस्में
जब आम थीं हम दिल वालों में

अब अपने फीके होंटों पर
कुछ जलते बुझते लफ़्ज़ों के
याक़ूत पिघलते रहते हैं
अब अपनी गुम-सुम आँखों में
कुछ धूल है बिखरी यादों की
कुछ गर्द-आलूद से मौसम हैं

अब धूप उगलती सोचों में
कुछ पैमाँ जलते रहते हैं
अब अपने वीराँ आँगन में
जितनी सुब्हों की चाँदी है
जितनी शामों का सोना है
उस को ख़ाकिस्तर होना है

अब ये बातें रहने दीजे
जिस उम्र में क़िस्से बनते थे
उस उम्र का ग़म सहने दीजे
अब अपनी उजड़ी आँखों में
जितनी रौशन सी रातें हैं
उस उम्र की सब सौग़ातें हैं
जिस उम्र के ख़्वाब ख़याल हुए
वो पिछली उम्र थी बीत गई
वो उम्र बिताए साल हुए

अब अपनी दीद के रस्ते में
कुछ रंग है गुज़रे लम्हों का
कुछ अश्कों की बारातें हैं
कुछ भूले-बिसरे चेहरे हैं
कुछ यादों की बरसातें हैं
ये पिछले इश्क़ की बातें हैं

~ मोहसिन नक़वी

 Oct 10, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, October 5, 2019

जंगलों का दस्तूर

No photo description available.


सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है 
सुना है शेर का जब पेट भर जाए तो वो हमला नहीं करता
दरख़्तों की घनी छाँव में जा कर लेट जाता है

हवा के तेज़ झोंके जब दरख़्तों को हिलाते हैं
तो मैना अपने बच्चे छोड़ कर
कव्वे के अंडों को परों से थाम लेती है

सुना है घोंसले से कोई बच्चा गिर पड़े तो सारा जंगल जाग जाता है
सुना है जब किसी नद्दी के पानी में
बए के घोंसले का गंदुमी रंग लरज़ता है
तो नद्दी की रुपहली मछलियाँ उस को पड़ोसन मान लेती हैं

*गंदुमी=गेहुँआ

कभी तूफ़ान आ जाए, कोई पुल टूट जाए तो
किसी लकड़ी के तख़्ते पर
गिलहरी, साँप, बकरी और चीता साथ होते हैं
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है

ख़ुदावंदा! जलील ओ मो'तबर! दाना ओ बीना! मुंसिफ़ ओ अकबर!
मिरे इस शहर में अब जंगलों ही का कोई क़ानून नाफ़िज़ कर!

*ख़ुदावंदा=ईश्वर;
*जलील=मोहतरम, मान्यवर; मो’तबर=भरोसेमंद;
*दाना=अक़्लमंद, सीखे हुए; बीना=दूरदृष्टि वाले
*मुंसिफ़=न्याय करने वाले; अकबर=महान
*नाफ़िज़=ज़ारी करना

~ ज़ेहरा निगाह

 Oct 05, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

कल शाम याद आया मुझे

Image may contain: cloud, sky, flower, tree, nature and outdoor


कल शाम याद आया मुझे!
ऐसे कि जैसे ख़्वाब था
कोने में आँगन के मिरे
गुल-चाँदनी का पेड़ था

मैं सारी सारी दोपहर
साए में उस के खेलती
फूलों को छू कर भागती
शाख़ों से मिल कर झूलती
इस के तने में बीसियों!
लोहे कि कीलें थीं जड़ी
कीलों को मत छूना कभी
ताकीद थी मुझ को यही!
ये राज़ मुझ पे फ़ाश था
इस पेड़ पर आसेब था!
इक मर्द-ए-कामिल ने मगर
ऐसा अमल उस पर किया
बाहर वो आ सकता नहीं!!
कीलों में उस को जड़ दिया
हाँ कोई कीलों को अगर
खींचेगा ऊपर की तरफ़!
आसेब भी छुट जाएगा
फूलों को भी खा जाएगा
पत्तों पे भी मँडलाएगा
फिर देखते ही देखते
ये घर का घर जल जाएगा

*आसेब=भूत प्रेत; मर्द-ए-कामिल=आदर्श पुरुष

इस सहन-ए-जिस्म-ओ-जाँ में भी
गुल चाँदनी का पेड़ है!
सब फूल मेरे साथ हैं
पत्ते मिरे हमराज़ हैं
इस पेड़ का साया मुझे!
अब भी बहुत महबूब है
इस के तने में आज तक
आसेब वो महसूर है
ये सोचती हूँ आज भी!
कीलों को गर छेड़ा कभी
आसेब भी छुट जाएगा
पत्तों से किया लेना उसे
फूलों से किया मतलब उसे
बस घर मिरा जल जाएगा
क्या घर मिरा जल जाएगा?

*सहन-ए-जिस्म-ओ-जाँ=तन मन के आँगन; आसेब=भूत-प्रेत; महसूर=घिरा हुआ

~ ज़ेहरा निगाह

 Oct 03, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh