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Thursday, April 30, 2015

रात उनको बात-बात पे

रात उनको बात-बात पे सौ-सौ दिये जवाब,
मुझको खुद अपनी ज़ात से ऐसा गुमाँ न था।

*ज़ात=व्यक्तित्व, स्वभाव

~ अल्ताफ़ हुसैन हाली


  Apr 29, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

चाँदनी...!



चाँदी की झीनी चादर-सी
फैली है वन पर चाँदनी,
चाँदी का झूठा पानी है
यह माह-पूस की चाँदनी ।

खेतों पर ओस-भरा कुहरा,
कुहरे पर भीगी चाँदनी,
आँखों में बादल-से आँसू,
हँसती है उन पर चाँदनी ।

दुख की दुनिया पर बुनती है
माया के सपने चाँदनी,
मीठी  मुसकान बिछाती है
भीगी पलकों पर चाँदनी ।

लोहे की हथकड़ियों-सा दुख,
सपनों-सी झूठी चाँदनी,
लोहे से दुख को काटे क्या
सपनों-सी मीठी चाँदनी ।

यह चाँद चुरा कर लाया है
सूरज से अपनी चाँदनी,
सूरज निकला, अब चाँद कहाँ ?
छिप गयी लाज से चाँदनी ।

दुख और कर्म का यह जीवन,
वह चार दिनों की चाँदनी,
यह कर्म-सूर्य की ज्योति अमर,
वह अन्धकार की चाँदनी ।

~ रामविलास शर्मा

  Apr 30, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh 

Tuesday, April 28, 2015

क्या काम मोहब्बत से ..

होगा किसी दीवार के साये के तले 'मीर',
क्या काम मोहब्बत से उस आरामतलब को

~ मीर

  Apr 28, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Monday, April 27, 2015

नशा शराब में होता तो...!

ये अपनी मस्ती है जिसने मचाई है हलचल
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल

~ आरिफ़ जलाली

  Apr 27, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ज़रा आहिस्ता बोल...!

 

ज़रा आहिस्ता बोल
आहिस्ता
धरती सहम जाएगी
ये धरती फूल और कलियों की सुंदर सज है नादाँ
गरज कर बोलने वालों से कलियाँ रूठ जाती हैं

ज़रा आहिस्ता चल
आहिस्ता
धरती माँ का हृदय है
इस हृदय में तेरे वास्ते भी प्यार है नादाँ
बुरा होता है जब धरती किसी से तंग आती है

तिरी आवाज़
जैसे बढ़ रहे हों जंग के शोले
तिरी चाल
आज ही गोया उठेंगे हश्र के फ़ित्ने
*हश्र=क़यामत; फ़ित्ने=बलवे

मगर नादान ये फूलों की धरती ग़ैर-फ़ानी है
कई जंगें हुईं लेकिन ज़मीं अब तक सुहानी है
*ग़ैर-फ़ानी=जिसका नाश न हो सके

~ सलाम मछलीशहरी

  Apr 27, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

इश्क़ की चोट का कुछ दिल पे असर

इश्क़ की चोट का कुछ दिल पे असर हो तो सही,
दर्द कम या हो ज़ियादा हो, मगर हो तो सही !

~ जलाल लखनवी

  Apr 25, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, April 25, 2015

मेरी कसम न जाइये!


बहुत दिनों की बात है
फिजा को याद भी नहीं
ये बात आज की नहीं
बहुत दिनों की बात है

शबाब पे बहार थी
फिजा भी खुशगवार थी
ना जाने क्यूं मचल पड़ा
मैं अपने घर से चल पड़ा
किसी ने मुझको रोककर
बड़ी अदा से टोककर
कहा के लौट आइये
मेरी कसम न जाइये

पर मुझे खबर न थी
माहौल पे नज़र न थी
न जाने क्यूं मचल पड़ा
मैं अपने घर से चल पड़ा
ख़याल था के पा गया
उसे जो मुझसे दूर थी
मगर मेरी ज़रूर थी

और इक हसीन शाम को
मैं चल पड़ा सलाम को

गली का रंग देखकर
नयी तरंग देखकर
मुझे बड़ी ख़ुशी हुई
मैं कुछ इसी ख़ुशी में था
किसी ने झाँककर कहा
पराये घर से जाइए
मेरी कसम न आइये

वही हसीन शाम है
बहार जिसका नाम है
चला हूँ घर को छोड़कर
न जाने जाऊँगा किधर
कोई नहीं जो रोककर
कोई नहीं जो टोक कर
कहे के लौट आइये
मेरी कसम न जाइये

~ सलाम मछली शहरी


  Apr 25, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, April 23, 2015

लक्ष्य ढूंढ़ते हैं वे जिनको...!





लक्ष्य ढूंढ़ते हैं वे जिनको
वर्तमान से प्यार नहीं है
इस पल की गरिमा पर जिनका
थोड़ा भी अधिकार नहीं है

इस क्षण की गोलाई देखो
आसमान पर लुढ़क रही है
नारंगी तरुणाई देखो
दूर क्षितिज पर बिखर रही है
पक्ष ढूंढते हैं वे जिनको
जीवन ये स्वीकार नहीं हैं

नाप नाप के पीने वालों
जीवन का अपमान न करना
पल पल लेखा जोखा वालों
गणित पे यूँ अभिमान न करना
नपे तुले वे ही हैं जिनकी
बाहों में संसार नहीं है

ज़िंदा डूबे डूबे रहते
मृत शरीर तैरा करते हैं
उथले उथले छप छप करते
गोताखोर सुखी रहते हैं
स्वप्न वही जो नींद उडा दे
वरना उसमे धार नहीं है

कहाँ पहुँचने की जल्दी है
नृत्य भरो इस खालीपन में
किसे दिखाना तुम ही हो बस
गीत रचो इस घायल मन में
पी लो बरस रहा है अमृत
ये सावन लाचार नहीं है

कहीं तुम्हारी चिंताओं की
गठरी पूँजी ना बन जाए
कहीं तुम्हारे माथे का बल
शकल का हिस्सा न बन जाए
जिस मन में उत्सव होता है
वहाँ कभी भी हार नहीं है

लक्ष्य ढूंढ़ते हैं वे जिनको
वर्तमान से प्यार नहीं है

~ प्रसून जोशी


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Tuesday, April 21, 2015

तितलियाँ !!


हरी घास पर खरगोश
खरगोश की आँख में नींद
नींद में स्वप्न
चाँद का
चाँद में क्या ?

चाँद में चरखा
चरखे में पोनी
पोनी में कतती
चाँदनी
चाँदनी में क्या ?

चाँदनी में पेड़
पेड़ पर चिड़िया
चिड़िया की चोंच में
सन्देसा ऋतु का
ऋतु में क्या ?

ऋतु में फूल
फूल पर तितलियाँ

हरी पीली लाल बैंजनी
रंग-बिरंगी तितलियाँ
तितलियाँ
जैसे स्वप्न पंखदार
जैसे बहुरंगी आग के टुकड़े
उड़ते हुए

तितलियाँ आती हैं घरों में
बिना आवाज, बेखटके
जवान होती लडकी के बदन पर
बैठती हैं उड़ जाती हैं कि
'छू लिया'
प्रेम होगा अब तुझे किसी से

तितलियाँ ही तितलियाँ
तितलियों पर आँखें
लड़की की
लड़की की आँखों में क्या ?

तितलियाँ !!

~ राजेश जोशी

  Apr 21, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, April 19, 2015

बीत चली है रात



अब  क्या देखें राह तुम्हारी
बीत चली है रात
छोड़ो
छोड़ो ग़म की बात

थम गये आँसू
थक गईं अँखियाँ
गुज़र गई बरसात
बीत चली है रात

कब से आस
लगी दर्शन की
कोई न जाने बात
बीत चली है रात

तुम आओ तो
मन में उतरे
फूलों की बारात
बीत चली है रात

अब  क्या देखें राह तुम्हारी
बीत चली है रात

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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Friday, April 17, 2015

जब तुझ को तमन्ना मेरी थी

जब तुझ को तमन्ना मेरी थी तब मुझ को तमन्ना तेरी थी
अब तुझ को तमन्ना ग़ैर की है तो तेरी तमन्ना कौन करे

~ मुईन अहसन जज़्बी

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सर दर्द क्या है !



सर दर्द क्या है !

मुझे इच्छा थी
तुम्हारे इन हाथों का स्पर्श
कुछ और मिले

और
इन आँखों के
करुण प्रकाश में
नहाता रहूँ

और
साँसों की अधीरता भी
कानों सुनूँ

बिलकुल यही इच्छा थी
सर दर्द क्या है !

~ त्रिलोचन

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Thursday, April 16, 2015

अज़ाब दे कर हमें जो खुश हैं

अज़ाब दे कर हमें जो खुश हैं
अज़ाब वो भी उठा रहे हैं,
कि वो भी अंदर से जल रहे हैं
जो सारी दुनिया जला रहे हैं ।

*अज़ाब=यातना

~ यूनुस हमदम

  Apr 16, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, April 15, 2015

गुस्सा





उसने हैरानी से मुझे देखा
'मैं तो मज़ाक कर रहा था
तुम इतनी नाराज़ क्यों हो गयीं ?'

मैं उसे कैसे बताती
यह गुस्सा आज और अभी का नहीं
इसमें बहुत सा पुराना गुस्सा भी शामिल है
एक सन तिरासी का एक तिरानवे का
एक दो हज़ार दो का
और एक यह आज का

~ ममता कालिया

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Tuesday, April 14, 2015

तुझे खो कर भी तुझे पाऊँ




तुझे खो कर भी तुझे पाऊँ जहाँ तक देखूँ ,
हुस्न-ऐ-याज्दान से तुझे हुस्न-ऐ-बुतां तक देखूँ |
*हुस्न-ऐ-याज्दान=ईश्वरीय सुंदरता; हुस्न-ऐ-बुतां=बुतों की सुंदरता

तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था,
मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशाँ तक देखूँ|

सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हजारों बातें ,
मैं तेरा हुस्न, तेरे हुस्न-ऐ-बयान तक देखूँ |

वक़्त ने जेहन में धुंधला दिए तेरे खद्दा-ओ-खाल,
यूं तो मैं टूटते तारों का धुंआ तक देखूँ |
*खद्दा-ओ-खाल=रूप

दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता,
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ |

एक हकीक़त सही फिरदौस में हूरों का वजूद,
हुस्न-ऐ-इंसान से निपट लूँ तो वहाँ तक देखूँ !!
*फिरदौस=स्वर्ग

~
अहमद नदीम क़ासमी

  Apr 14, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Monday, April 13, 2015

कोई धोखा न खा जाए


कोई धोखा न खा जाए मेरी तरह
ऐसे खुल के न सबसे मिला कीजिये

~ ख़ुमार बाराबंकवी


  Apr 13, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, April 12, 2015

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए



कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए ।

जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।

खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए ।

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ।

लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।

ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए ।

~ दुष्यंत कुमार

   Apr 13, 2015 | e-kavya.blogspot.com
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शर्म, दहशत, झिझक, परेशानी

शर्म, दहशत, झिझक, परेशानी
नाज़ से काम क्यों नहीं लेतीं

आप, वो, जी, मगर यह सब क्या है
तुम मेरा नाम क्यों नहीं लेतीं

~जौन एलिया

   Apr 12, 2015 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, April 10, 2015

तुम्हे हरदम बस मेरी कमी होगी



गुलशन की बहारों में, रंगीन नज़ारों में
जब तुम मुझे ढून्ढोगे, आखों में नमी होगी
महसूस तुम्हे हरदम बस मेरी कमी होगी

आकाश पे जब तारे, संगीत सुनाएँगे
बीते हुए लम्हों को, आखों में सजाएँगे
तन्हाई के शोलों से, जब आग लगी होगी
महसूस तुम्हे हरदम, फिर मेरी कमी होगी

सावन की हवाओं का, जब शोर सुनोगे तुम
बिखरे हुए माज़ी के औराक़ चुनोगे तुम
माहौल के चेहरे पर धूल जमी होगी
महसूस तुम्हे हरदम, फिर मेरी कमी होगी
*माज़ी=बीता हुआ; औराक़=किताब के पन्ने

जब नाम मेरा लोगे, तुम काँप रहे होंगे
आँसू भरे दामन से मूँह ढांप रहे होगे
गमगीन घटाओं की जब छाँव घनी होगी
महसूस तुम्हे हरदम, फिर मेरी कमी होगी

~ यूनुस हमदम


   Apr 10, 2015 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, April 8, 2015

जब भी यह दिल उदास होता है




जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है

होंठ चुपचाप बोलते हों जब
साँस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आँखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में साँस जलती हो

आँख में तैरती हैं तसवीरें
तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए
आईना देखता है जब मुझको
एक मासूम सा सवाल लिए

कोई वादा नहीं किया लेकिन
क्यों तेरा इंतज़ार रहता है
बेवजह जब क़रार मिल जाए
दिल बड़ा बेक़रार रहता है

जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है

~ गुलज़ार



   Apr 8, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh 


Mohd.Rafi & Sharda. Film Seema (1971)
Music: Shankar-Jaikishan.
https://www.youtube.com/watch?v=IB7BR5ZIDFw

इस नहीं का कोई इलाज नहीं

इस नहीं का कोई इलाज नहीं
रोज़ कहते हैं आप आज नहीं।

~ दाग़ 'देहलवी'

  Apr 8, 2015 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

उसी अदा से उसी बाँकपन के साथ

उसी अदा से उसी बाँकपन के साथ आओ।
फिर एक बार उसी अंजुमन के साथ आओ।
हम अपने एक दिल -ए बेख़ता के साथ आएँ।
तुम अपने महशरे दारो रसन के साथ आओ।

*अंजुमन=सभा; बेख़ता=अपराधहीन; महशरे=प्रलय; दारो रसन=सूली और रस्सी

~ मख़्दूम मोहिउद्दीन
  Apr 7, 2015 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

कम से कम इतवार के दिन तो

कम से कम इतवार के दिन तो अपने घर पे रहा करो
बिना बताए आ जाते हैं कभी-कभी मेहमान वग़ैरह

~ देवमणि पाण्डेय


  Apr 4, 2015 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

पानी पानी कर गई मुझको

पानी पानी कर गई मुझको क़लंदर की ये बात
तू झुका जब ग़ैर के आगे, न मन तेरा न तन

~ इक़बाल

  Apr 3, 2015 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

एयादत को मेरी आकर वो


एयादत को मेरी आकर वो ये ताकीद करते हैं
तुझे हम मार डालेंगे नहीं तो जल्दी अच्छा हो

* एयादत=तिमारदारी; ताकीद=जोर देकर या कई बार कही जाने वाली बात

~'नामालूम'

 Dec 4, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

वन्दे मातरम्।



वन्दे मातरम्।
वन्दे मातरम्।
सुजलां सुफलां मलय़ज-शीतलाम्,
शस्य-श्यामलां मातरम्।
वन्दे मातरम् ।

शुभ्र-ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्,
सुखदां वरदां मातरम् ।
वन्दे मातरम् ।
वन्दे मातरम्।

~ बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय

हिन्दी अनुवाद
 
अरविन्द घोष ने 'आनन्दमठ' में वर्णित गीत 'वन्दे मातरम्' का अंग्रेजी गद्य और पद्य में अनुवाद किया। महर्षि अरविन्द द्वारा किए गये अंग्रेजी गद्य-अनुवाद का हिन्दी-अनुवाद इस प्रकार है:

मैं आपके सामने नतमस्तक होता हूँ। ओ माता!
पानी से सींची, फलों से भरी,
दक्षिण की वायु के साथ शान्त,
कटाई की फसलों के साथ गहरी,
माता!
उसकी रातें चाँदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं,
उसकी जमीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुन्दर ढकी हुई है,
हँसी की मिठास, वाणी की मिठास,
माता! वरदान देने वाली, आनन्द देने वाली।
  Aug 15, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh


https://www.youtube.com/watch?v=NjfxTxPBzlY

बदनाम रहे बटमार मगर

गोपाल सिंह नेपाली
जन्म : 1913 में बिहार के चंपारन जिले के बेतिया नामक स्थान में।

कार्यक्षेत्र : गोपाल सिंह नेपाली हिंदी के छायावादोत्तर काल के कवियों में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। 1944 से 1963 तक मृत्यु पर्यंत वे बंबई में फ़िल्म जगत से जुड़े रहे। उन्होंने एक फ़िल्म का निर्माण भी किया। वे पत्रकार भी थे और उन्होंने कम से कम चार हिंदी पत्र-पत्रिकाओं रतलाम टाइम्स, चित्रपट, सुधा और योगी का संपादन किया। 

प्रमुख रचनाएँ :
काव्य संग्रह : उमंग, पंछी, रागिनी तथा नीलिमा, पंचमी, सावन, कल्पना, आंचल, नवीन, रिमझिम और हमारी राष्ट्र वाणी।

निधन : 1963 में

बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

दो दिन के रैन बसेरे की,
हर चीज़ चुराई जाती है
दीपक तो अपना जलता है,
पर रात पराई होती है
गलियों से नैन चुरा लाए
तस्वीर किसी के मुखड़े की
रह गए खुले भर रात नयन, दिल तो दिलदारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

शबनम-सा बचपन उतरा था,
तारों की गुमसुम गलियों में
थी प्रीति-रीति की समझ नहीं,
तो प्यार मिला था छलियों से
बचपन का संग जब छूटा तो
नयनों से मिले सजल नयना
नादान नये दो नयनों को, नित नये बजारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

हर शाम गगन में चिपका दी,
तारों के अक्षर की पाती
किसने लिक्खी, किसको लिक्खी,
देखी तो पढ़ी नहीं जाती
कहते हैं यह तो किस्मत है
धरती के रहनेवालों की
पर मेरी किस्मत को तो इन, ठंडे अंगारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

अब जाना कितना अंतर है,
नज़रों के झुकने-झुकने में
हो जाती है कितनी दूरी,
थोड़ा-सी रुकने-रुकने में
मुझ पर जग की जो नज़र झुकी
वह ढाल बनी मेरे आगे
मैंने जब नज़र झुकाई तो, फिर मुझे हज़ारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को नौ लाख सितारों ने लूटा

~ गोपाल सिंह नेपाली

  Jan 9, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

कल कहाँ किसने कहा

"कल""कल"

कल कहाँ किसने कहा
देखा सुना है
फिर भी मैं कल के लिए
जीता रहा हूँ।

आज को भूले शंका सोच
भय से कांपता
कल के सपने संजोता रहा हूँ।

फिर भी न पाया कल को
और
कल के स्वप्न को
जो कुछ था मेरे हाथ
आज
वही है आधार मेरा
कल के सपने संजोना
है निराधार मेरा

यदि सीख पाऊँ
मैं जीना आज
आज के लिए
तो कल का
स्वप्न साकार होगा
जीवन मरण का भेद
निस्सार होगा
जो कल था वही है आज
जो आज है वही कल होगा
मैं कल कल नदी के नाद
सा बहता रहा हूँ।

~  रणजीत कुमार मुरारका

  Dec 26, 2011| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

सो न सका कल याद तुम्हारी आई

रमानाथ अवस्थी 
(1926-2002) का जन्म फतेहपुर, उत्तरप्रदेश में हुआ। इन्होंने आकाशवाणी में प्रोडयूसर के रूप में वर्षों काम किया। 'सुमन- सौरभ, 'आग और पराग, 'राख और शहनाई तथा 'बंद न करना द्वार इनकी मुख्य काव्य-कृतियां हैं। ये लोकप्रिय और मधुर गीतकार हैं। इन्हें उत्तरप्रदेश सरकार ने पुरस्कृत किया है।

सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात

मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई
ज़हर भरी जादूगरनी-सी मुझको लगी जुन्हाई
मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई
दूर कहीं दो आँखें भर-भर आई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात

गगन बीच रुक तनिक चन्द्रमा लगा मुझे समझाने
मनचाहा मन पा लेना है खेल नहीं दीवाने
और उसी क्षण टूटा नभ से एक नखत अनजाने
देख जिसे तबियत मेरी घबराई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात

रात लगी कहने सो जाओ देखो कोई सपना
जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना
यहाँ तुम्हारा क्या, कोई भी नहीं किसी का अपना
समझ अकेला मौत मुझे ललचाई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात

मुझे सुलाने की कोशिश में जागे अनगिन तारे
लेकिन बाज़ी जीत गया मैं वे सबके सब हारे
जाते-जाते चाँद कह गया मुझसे बड़े सकारे
एक कली मुरझाने को मुसकाई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात

 ~ रमानाथ अवस्थी

  Dec 20, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh


(1926-2002) का जन्म फतेहपुर, उत्तरप्रदेश में हुआ। इन्होंने आकाशवाणी में प्रोडयूसर के रूप में वर्षों काम   किया। 'सुमन- सौरभ, 'आग और पराग, 'राख और शहनाई तथा 'बंद न करना द्वार इनकी मुख्य काव्य-कृतियां हैं। ये लोकप्रिय और मधुर गीतकार हैं। इन्हें उत्तरप्रदेश सरकार ने पुरस्कृत किया है।

कल और आज

आले अहमद सुरूर 
(९ सितंबर १९११) 
उर्दू के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। उनका जन्म बदायूँ में हुआ। पहला कविता संग्रह 'सल सबिल' १९३५ में प्रकाशित हुआ। नए और पुराने चिराग, तनक़ीद क्या है, अदब और नज़रिया, (आलोचनात्मक निबंध) ख़्वाब बाकी है (आत्मकथा) आदि रचनाओं के रचयिता आले अहमद को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी, साहित्य अकादमी, इक़बाल पुरस्कार तथा पद्म भूषण (१९९१) से सम्मानित किया जा चुका है।

वो भी क्या लोग थे आसान थी राहें जिनकी
बन्द आँखें किये इक सिम्त चले जाते थे
अक़्ल-ओ-दिल ख़्वाब-ओ-हक़ीक़त की न उल्झन न ख़लिश
मुख़्तलिफ़ जलवे निगाहों को न बहलाते थे

इश्क़ सादा भी था बेख़ुद भी जुनूँपेशा भी
हुस्न को अपनी अदाओं पे हिजाब आता था
फूल खिलते थे तो फूलों में नशा होता था
रात ढलती थी तो शीशों पे शबाब आता था

चाँदनी कैफ़असर रूहअफ़्ज़ा होती थी
अब्र आता था तो बदमस्त भी हो जाते थे
दिन में शोरिश भी हुआ करती थी हहंगामे भी
रात की गोद में मूँह ढाँप के सो जाते थे

नर्म रौ वक़्त के धारे पे सफ़ीने थे रवाँ
साहिल-ओ-बह्र के आईन न बदलते थे कभी
नाख़ुदाओं पे भरोसा था मुक़द्दर पे यक़ीं
चादर-ए-आब से तूफ़ान न उबलते थे कभी

हम के तूफ़ानों के पाले भी सताये भी हैं
बर्क़-ओ-बाराँ में वो ही शम्में जलायें कैसे
ये जो आतिशकदा दुनिया में भड़क उट्ठा है
आँसुओं से उसे हर बार बुझायें कैसे

कर दिया बर्क़-ओ-बुख़ारात ने महशर बर्पा
अपने दफ़्तर में लिताफ़त के सिवा कुछ भी नहीं
घिर गये वक़्त की बेरहम कशाकश में मगर
पास तहज़ीब की दौलत के सिवा कुछ भी नहीं

ये अंधेरा ये तलातुम ये हवाओं का ख़रोश
इस में तारों की सुबुक नर्म ज़िया क्या करती
तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त से कड़वा हुआ आशिक़ का मिज़ाज
निगाह-ए-यार की मासूम अदा क्या करती

सफ़र आसान था तो मन्ज़िल भी बड़ी रौशन थी
आज किस दर्जा पुरअसरार हैं राहें अपनी
कितनी परछाइयाँ आती हैं तजल्ली बन कर
कितने जल्वों से उलझती हैं निगाहें अपनी

~  आले अहमद सुरूर

  Dec 17, 2012| e-kavya.blogspot.com
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पाँवों के नीचे कोई ज़मीन नहीं

चित्र में बायें  राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, दुष्यन्त कुमार

तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई ज़मीन नहीं ,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं |

मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं |

तेरी जुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं |

तुम्हीं से प्यार जताएँ तुम्हीं को खा जायें ,
अदीब यों तो सियासी है पर कमीन नहीं |

तुझे क़सम है खुदी को बहुत हलाक न कर ,
तू इस मशीन का पुर्ज़ा है ,तू मशीन नहीं |

बहुत मशहूर हैं आयें जरुर आप यहाँ
ये मुल्क देखने के लायक़ तो है ,हसीन नहीं |

ज़रा सा तौर -तरीकों में हेर -फेर करो ,
तुम्हारे हाथ में कालर हो आस्तीन नहीं |

~ दुष्यंत कुमार

  Dec 12, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मैं जिसे ओढ़ता -बिछाता हूँ

चित्र में बायें  राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, दुष्यन्त कुमार

मैं जिसे ओढ़ता -बिछाता हूँ,
वो गज़ल आपको सुनाता हूँ |

एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ |

तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल -सा थरथराता हूँ |

हर तरफ़ एतराज़ होता है,
मैं अगर रोशनी में आता हूँ |

एक बाजू उखड़ गया जब से,
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ |

मैं तुझे भूलने की कोशिश में,
आज कितने करीब पाता हूँ |

कौन ये फासला निभाएगा,
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ |

~ दुष्यंत कुमार

  Dec 12, 2012| e-kavya.blogspot.com
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चारु चंद्र की चंचल किरणें

मैथिलीशरण गुप्त (१८८५ - १९६४) खड़ी बोली के प्रथम महत्वपूर्ण कवि हैं।

पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो पंचवटी से लेकर जयद्रथ वध, यशोधरा और साकेत तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। साकेत उनकी रचना का सवोर्च्च शिखर है।

अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे और आने वाली सदियों में नए कवियों के लिए प्रेरणा का स्रोत होंगे।
चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥

पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर वीर निर्भीकमना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥

किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!

मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥

कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-

क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!

है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।

सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥

तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,
वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।
अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।
किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!

और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,
व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।
कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;
पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!

~ मैथिलीशरण गुप्त

  Dec 10, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh


(१८८५ - १९६४) खड़ी बोली के प्रथम महत्वपूर्ण कवि हैं। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो पंचवटी से लेकर जयद्रथ वध, यशोधरा और साकेत तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। साकेत उनकी रचना का सवोर्च्च शिखर है। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे और आने वाली सदियों में नए कवियों के लिए प्रेरणा का स्रोत होंगे।

क्यों प्यार किया

Geetkar Shailendra (30 अगस्त, 1923 - 14 दिसम्बर, 1966)
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३० अगस्त 1923 में रावलपिंडी में पैदा हुआ. पिताजी फ़ौज में थे. रहने वाले हैं बिहार के. पिता के रिटायर होने पर मथुरा में रहे, वहीं शिक्षा पायी. हमारे घर में भी उर्दू और फ़ारसी का रिवाज था लेकिन मेरी रुचि घर से कुछ भिन्न ही रही. हाईस्कूल से ही राष्ट्रीय ख़याल थे. सन 1942 में बंबई रेलवे में इंजीनियरिंग सीखने आया. अगस्त आंदोलन में जेल गया. कविता का शौक़ बना रहा. अगस्त सन् 1947 में श्री राज कपूर एक कवि सम्मेलन में मुझे पढ़ते देखकर प्रभाविर हुए. मुझे फ़िल्म 'आग' में लिखने के लिए कहा किन्तु मुझे फ़िल्मी लोगों से घृणा थी. सन् 1948 में शादी के बाद कम आमदनी से घर चलाना मुश्किल हो गया. इसलिए श्री राज कपूर के पास गया. उन्होंने तुरन्त अपने चित्र 'बरसात' में लिखने का अवसर दिया. गीत चले, फिर क्या था, तबसे अभी तक आप लोगों की कृपा से बराबर व्यस्त हूँ.
<BR>
मेरा विचार है कि इससे ज़्यादा लिखूँ तो परिचय संक्षिप्त न रहकर दीर्घ हो जायेगा.
<BR>
ये आत्म परिचय शैलेन्द्र ने 18 जनवरी 1957 को लिखा था, अपने मित्र विश्वेश्वर को लिखे एक ख़त में.

जिसने छूकर मन का सितार,
कर झंकृत अनुपम प्रीत-गीत,
ख़ुद तोड़ दिया हर एक तार,
मैंने उससे क्यों प्यार किया ?

बरसा जीवन में ज्योतिधार,
जिसने बिखेर कर विविध रंग,
फिर ढाल दिया घन अंधकार,
मैंने उससे क्यों प्यार किया ?

मन को देकर निधियां हज़ार,
फिर छीन लिया जिसने सब कुछ,
कर दिया हीन चिर निराधार,
मैंने उससे क्यों प्यार किया ?

जिसने पहनाकर प्रेमहार,
बैठा मन के सिंहासन पर,
फिर स्वयं दिया सहसा उतार,
मैंने उससे क्यों प्यार किया ?

~ शैलेन्द्र (1946 में रचित)

  Dec 3, 2012| e-kavya.blogspot.com
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३० अगस्त 1923 (14 दिसम्बर, 1966) में रावलपिंडी में पैदा हुआ. पिताजी फ़ौज में थे. रहने वाले हैं बिहार के. पिता के रिटायर होने पर मथुरा में रहे, वहीं शिक्षा पायी. हमारे घर में भी उर्दू और फ़ारसी का रिवाज था लेकिन मेरी रुचि घर से कुछ भिन्न ही रही. हाईस्कूल से ही राष्ट्रीय ख़याल थे. सन 1942 में बंबई रेलवे में इंजीनियरिंग सीखने आया. अगस्त आंदोलन में जेल गया. कविता का शौक़ बना रहा. अगस्त सन् 1947 में श्री राज कपूर एक कवि सम्मेलन में मुझे पढ़ते देखकर प्रभाविर हुए. मुझे फ़िल्म 'आग' में लिखने के लिए कहा किन्तु मुझे फ़िल्मी लोगों से घृणा थी. सन् 1948 में शादी के बाद कम आमदनी से घर चलाना मुश्किल हो गया. इसलिए श्री राज कपूर के पास गया. उन्होंने तुरन्त अपने चित्र 'बरसात' में लिखने का अवसर दिया. गीत चले, फिर क्या था, तबसे अभी तक आप लोगों की कृपा से बराबर व्यस्त हूँ. 
मेरा विचार है कि इससे ज़्यादा लिखूँ तो परिचय संक्षिप्त न रहकर दीर्घ हो जायेगा. 

ये आत्म परिचय शैलेन्द्र ने 18 जनवरी 1957 को लिखा था, अपने मित्र विश्वेश्वर को लिखे एक ख़त में.

इबादत करते हैं जन्नत की तमन्ना में

‘जोश’ मलीहाबादी
05 दिसंबर 1898 - 22 फ़रवरी 1982
 
प्रसिद्ध उर्दू शायर ‘जोश’ मलीहाबादी को उनकी बग़ावत पसंद नज्मों के कारण अंग्रेजों के ज़माने में शायरे इन्कलाब की उपाधि दी गई और लोग उन्हें पढ़ते हुए जेल भेजे जाते थे। उनमें अभिव्यक्ति की उद्भुत शक्ति थी। वे अल्फाज़ में आग भर सकते थे और दिलों में आग लगा सकते थे। बाद में पाकिस्तान चले जाने के कारण उनका विरोध भी हुआ लेकिन उनकी रचनाएँ कभी नहीं भुलाई जा सकेंगी।
इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत[1] है

जो डर के नार-ए-दोज़ख़[2] से ख़ुदा का नाम लेते हैं
इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है

मगर जब शुक्र-ए-ने'मत में जबीं झुकती है बन्दे की
वो सच्ची बन्दगी है इक शरीफ़ाना इत'अत[3] है

कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्दा[4] हो जा
ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा[5] हो जा

उठा लेती हैं लहरें तहनशीं[6] होता है जब कोई
उभरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना[7] हो जा

1. व्यापार
2. जहन्नुम की आग
3. समर्पण
4. किसी के लक्ष्य की तरफ ध्यान न दे
5. खुदा का भक्त
6. पानी में डूबता
7. मौत के गहरे समुन्दर में डूब

~  जोश मलीहाबादी

  Nov 24, 2012| e-kavya.blogspot.com
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जोश’ मलीहाबादी 05 दिसंबर 1898 - 22 फ़रवरी 1982 प्रसिद्ध उर्दू शायर ‘जोश’ मलीहाबादी को उनकी बग़ावत पसंद नज्मों के कारण अंग्रेजों के ज़माने में शायरे इन्कलाब की उपाधि दी गई और लोग उन्हें पढ़ते हुए जेल भेजे जाते थे। उनमें अभिव्यक्ति की उद्भुत शक्ति थी। वे अल्फाज़ में आग भर सकते थे और दिलों में आग लगा सकते थे। बाद में पाकिस्तान चले जाने के कारण उनका विरोध भी हुआ लेकिन उनकी रचनाएँ कभी नहीं भुलाई जा सकेंगी।

नियति

तसलीमा नसरीन (बांग्ला:তসলিমা নাসরিন) एक बांग्लादेशी लेखिका हैं जो नारीवाद से संबंधित विषयों पर अपनी प्रगतिशील विचारों के लिये चर्चित और विवादित रही हैं। बांग्लादेश में उनपर जारी फ़तवे की वजह से आजकल वे कोलकाता में निर्वासन की ज़िंदगी बिता रही हैं। हालांकि कोलकाता में विरोध के बाद उन्हें कुछ समय के लिये दिल्ली और उसके बाद फिर स्वीडन में भी समय बिताना पड़ा है लेकिन इसके बाद जनवरी २०१० में वे भारत लौट आईं। उन्होंने भारत में स्थाई नागरिकता के लिये आवेदन किया है लेकिन भारत सरकार की ओर से उस पर अब तक कोई निर्णय नहीं हो पाया है।

स्त्री के स्वाभिमान और अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए तसलीमा नसरीन ने बहुत कुछ खोया। अपना भरापूरा परिवार, दाम्पत्य, नौकरी सब दांव पर लगा दिया। उसकी पराकाष्ठा थी देश निकाला।

किताब: 'निर्वासित बाहर-भीतर' (तसलीमा की जीवनी)
नोट:  तसलीमा के शब्‍‍दों में, 'निर्वासित बाहर-भीतर' काव्‍‍य संग्रह में संकलित सभी कविताएं उस दौर में लिखी गई थीं, जब रूद्र से मेरा रिश्‍‍ता, बस, टूटने- टूटने को था । 'नियति' कविता भी, रूद्र की किसी हरकत पर ही लिखी गई थी ।

हर रात मेरे बिस्‍‍तर पर आकर लेट जाता है, एक नपुंसक मर्द !
आंखें
अधर
चिबुक
पागलों की तरह चूमते-चूमते,
अपनी दोनों मुट्‍ठियों में भर लेता है-स्‍‍तन!
मुंह में भरकर चूसता रहता है ।
मारे प्‍‍सास के जाग उठता है, मेरा रोम-रोम
मांगते हुए सागर भर पानी, छटपटाता रहता है ।
बालों के अरण्‍‍य में अपनी बेचैन उंगलियां,
उंगलियों की दाह
मुझमें सिर से पांव तक अंगार भरकर,
खेलता है उछालने-लपकने का खेल!
उन पलों में मेरी आधी-अधूरी देह
उस मर्द का तन-बदन कर डालती है चकनाचूर,
मांगते हुए  नदी भर पानी, छटपटाता रहता है ।
सिरहाने पूस की पूर्णिमा !
रात बैठी रहती है जगी-जगी
उसकी गोद में सिर रखकर,
करके मुझे उत्‍‍तप्‍‍त,
बनाकर मुझे अंगार
नपुंसक-नामर्द सो जाता है बेसुध!
उन पलों में मेरी समूची देह में जगी-जगी प्‍‍यास,
उस सोए हुए मर्द की मुर्दा देह छूकर,
मांगते हुए बून्द भर पानी, रोती रहती है ।

~  तसलीमा नसरीन

  Nov 18, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh


तसलीमा नसरीन (बांग्ला:তসলিমা নাসরিন) एक बांग्लादेशी लेखिका हैं जो नारीवाद से संबंधित विषयों पर अपनी प्रगतिशील विचारों के लिये चर्चित और विवादित रही हैं। बांग्लादेश में उनपर जारी फ़तवे की वजह से आजकल वे कोलकाता में निर्वासन की ज़िंदगी बिता रही हैं। हालांकि कोलकाता में विरोध के बाद उन्हें कुछ समय के लिये दिल्ली और उसके बाद फिर स्वीडन में भी समय बिताना पड़ा है लेकिन इसके बाद जनवरी २०१० में वे भारत लौट आईं। उन्होंने भारत में स्थाई नागरिकता के लिये आवेदन किया है लेकिन भारत सरकार की ओर से उस पर अब तक कोई निर्णय नहीं हो पाया है। स्त्री के स्वाभिमान और अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए तसलीमा नसरीन ने बहुत कुछ खोया। अपना भरापूरा परिवार, दाम्पत्य, नौकरी सब दांव पर लगा दिया। उसकी पराकाष्ठा थी देश निकाला।

तल्‍ख नजारे गांवों में।

Vigyan Vrat
जन्म 17 जुलाई 1943 को मेरठ के टेरा गांव में।
दुष्यन्त के बाद हिन्दी गज़ल में जो महत्वपूर्ण नाम उभर कर आये उनमे विज्ञान व्रत का नाम बड़े आदर से लिया जाता है| जगजीत सिंह जैसे नामचीन गायक ने विज्ञान व्रत की गज़लों को अपना रेशमी स्वर दिया है| 
1966 में आगरा विश्व विद्यालय से फाईन आर्ट्स में स्नातकोत्तर उपाधि
कृतियाँ:
बाहर धूप खड़ी है ,चुप कि आवाज ,जैसे कोई लूटेगा ,तब तक हूँ ,महत्वपूर्ण गज़ल संग्रह हैं खिड़की भर आकाश इनके दोहों का संकलन है |

तल्‍ख नजारे गांवों में।
रोज हमारे गांवों में।

अक्‍सर लाशें मिलती हैं
नहर किनारे गांवों में।

गलियों को धमकाते हैं
सब चौबारें गांवों में।

हर मौसम भिखमंगा सा
हाथ पसारे गांवों में।

रैन बसेरा करते हैं
चांद सितारे गांवों में।

ताबीरें शहरों में हैं
सपने सारे गांवों में।

~  विज्ञान व्रत

  Nov 18, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

दिल भी वो है, धडकन भी वो।

Vigyan Vrat
जन्म 17 जुलाई 1943 को मेरठ के टेरा गांव में।
दुष्यन्त के बाद हिन्दी गज़ल में जो महत्वपूर्ण नाम उभर कर आये उनमे विज्ञान व्रत का नाम बड़े आदर से लिया जाता है| जगजीत सिंह जैसे नामचीन गायक ने विज्ञान व्रत की गज़लों को अपना रेशमी स्वर दिया है| 
1966 में आगरा विश्व विद्यालय से फाईन आर्ट्स में स्नातकोत्तर उपाधि
कृतियाँ:
बाहर धूप खड़ी है ,चुप कि आवाज ,जैसे कोई लूटेगा ,तब तक हूँ ,महत्वपूर्ण गज़ल संग्रह हैं खिड़की भर आकाश इनके दोहों का संकलन है |

दिल भी वो है, धडकन भी वो।
चेहरा भी वो, दरपन भी वो।

जीवन तो वो पहले भी था
अब जीवन का दर्शन भी वो।

आजादी की परिभाषा भी
जनम जनम का बंधन भी वो।

बिंदी की खामोशी भी है
खन खन करता कंगन भी वो।

प्रश्‍नों का हल लगता भी है
और जटिल सी उलझन भी वो।

~  विज्ञान व्रत

  Nov 18, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मजूदरी के पैसे हो तुम

 Vigyan Vrat
जन्म 17 जुलाई 1943 को मेरठ के टेरा गांव में।
दुष्यन्त के बाद हिन्दी गज़ल में जो महत्वपूर्ण नाम उभर कर आये उनमे विज्ञान व्रत का नाम बड़े आदर से लिया जाता है| जगजीत सिंह जैसे नामचीन गायक ने विज्ञान व्रत की गज़लों को अपना रेशमी स्वर दिया है| 
1966 में आगरा विश्व विद्यालय से फाईन आर्ट्स में स्नातकोत्तर उपाधि
कृतियाँ:
बाहर धूप खड़ी है ,चुप कि आवाज ,जैसे कोई लूटेगा ,तब तक हूँ ,महत्वपूर्ण गज़ल संग्रह हैं खिड़की भर आकाश इनके दोहों का संकलन है |

और सुनाओ कैसे हो तुम।
अब तक पहले जैसे हो तुम।

अच्‍छा अब ये तो बतलाओ
कैसे अपने जैसे हो तुम।

यार सुनो घबराते क्‍यूं हो
क्‍या कुछ ऐसे वैसे हो तुम।

क्‍या अब अपने साथ नहीं हो
तो फिर जैसे तैसे हो तुम।

ऐशपरस्‍ती। तुमसे। तौबा।
मजूदरी के पैसे हो तुम।

~  विज्ञान व्रत

  Nov 18, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!

Mahadevi Verma

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल;
प्रियतम का पथ आलोकित कर!

सौरभ फैला विपुल धूप बन, मृदुल मोम-सा घुल रे मृदु तन,
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित, तेरे जीवन का अणु गल-गल!
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!

सारे शीतल कोमल नूतन, माँग रहे तुझसे ज्वाला-कण;
विश्वशलभ सिर धुन कहता मैं हाय न जल पाया तुझमें मिल!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक, स्नेहहीन नित कितने दीपक;
जलमय सागर का उर जलता, विद्युत ले घिरता है बादल!
विहँस-विहँस मेरे दीपक जल!

द्रुम के अंग हरित कोमलतम, ज्वाला को करते हृदयंगम;
वसुधा के जड़ अंतर में भी, बंदी है तापों की हलचल!
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!

मेरे निश्वासों से दुततर, सुभग न तू बुझने का भय कर,
मैं अँचल की ओट किए हूँ, अपनी मृदु पलकों से चंचल!
सहज-सहज मेरे दीपक जल!

सीमा ही लघुता का बंधन, है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन,
मैं दृग के अक्षय कोशों से तुझमें भरती हूँ आँसू-जल!
सजल-सजल मेरे दीपक जल!

तम असीम तेरा प्रकाश चिर, खेलेंगे नव खेल निरंतर,
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा अमिट चित्र अंकित करता चल!
सरल-सरल मेरे दीपक जल!

तू जल जल होता जितना क्षय, वह समीप आता छलनामय,
मधुर मिलन में मिट जाना तू उसकी उज्जवल स्मित में घुल-खिल!
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!

~  महादेवी वर्मा

  Nov 11, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं


 Krishan Bihari 'Noor'

ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं|

इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं|

ज़िन्दगी! मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं

सच घटे या बड़े तो सच न रहे
झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं|

ज़िन्दगी! अब बता कहाँ जाएँ
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं

जिसके कारण फ़साद होते हैं
उसका कोई अता-पता ही नहीं

धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून
अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं

कैसे अवतार कैसे पैग़म्बर
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं

उसका मिल जाना क्या न मिलना क्या
ख्वाब-दर-ख्वाब कुछ मज़ा ही नहीं

जड़ दो चांदी में चाहे सोने में
आईना झूठ बोलता ही नहीं|

अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है
‘नूर’ संसार से गया ही नहीं

~ कृष्ण बिहारी 'नूर'

  Nov 8, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मेरे नदीम मेरे हमसफर, उदास न हो

Sahir Ludhiyanvi (1921- 1980)
मेरे नदीम मेरे हमसफर, उदास न हो।
कठिन सही तेरी मंज़िल, मगर उदास न हो।

कदम कदम पे चट्टानें खड़ी रहें, लेकिन
जो चल निकलते हैं दरिया तो फिर नहीं रुकते।
हवाएँ कितना भी टकराएँ आंधियाँ बनकर,
मगर घटाओं के परछम कभी नहीं झुकते।
मेरे नदीम मेरे हमसफर .....

हर एक तलाश के रास्ते में मुश्किलें हैं, मगर
हर एक तलाश मुरादों के रंग लाती है।
हज़ारों चांद सितारों का खून होता है
तब एक सुबह फिज़ाओं पे मुस्कुराती है।
मेरे नदीम मेरे हमसफर ....

जो अपने खून को पानी बना नहीं सकते
वो ज़िन्दगी में नया रंग ला नहीं सकते।
जो रास्ते के अन्धेरों से हार जाते हैं
वो मंज़िलों के उजालों को पा नहीं सकते।

मेरे नदीम मेरे हमसफर, उदास न हो।
कठिन सही तेरी मंज़िल, मगर उदास न हो।

~ साहिर लुधियानवी

  Nov 4, 2012| e-kavya.blogspot.com
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'लज्जा' परिच्छेद' ( कामायनी)

Jai Shankar Prasad

यह आज समझ तो पाई हूँ मैं दुर्बलता में नारी हूँ,
अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सबसे हारी हूँ।

पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है?

सर्वस्व-समर्पण करने की विश्वास-महा-तरु-छाया में,
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती हैं माया में?

छायापथ में तारक-द्युति सी झिलमिल करने की मधु-लीला,
अभिनय करती क्यों इस मन में कोमल निरीहता श्रम-शीला?

निस्संबल होकर तिरती हूँ इस मानस की गहराई में,
चाहती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुघराई में।

नारी जीवन की चित्र यही क्या? विकल रंग भर देती हो,
अस्फुट रेखा की सीमा में आकार कला को देती हो।

रुकती हूँ और ठहरती हूँ पर सोच-विचार न कर सकती,
पगली-सी कोई अंतर में बैठी जैसे अनुदित बकती।

मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूँ,
भुजलता फँसा कर नर-तरु से झूले-सी झोंके खाती हूँ।

इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है,
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ, इतना ही सरल झलकता है।

"क्या कहती हो ठहरो नारी! संकल्प-अश्रु जल से अपने -
तुम दान कर चुकी पहले ही जीवन के सोने-से सपने।

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास-रजत-नग पगतल में,
पीयूष-स्रोत बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।

देवों की विजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा,
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा।

आँसू से भींगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा -
तुमको अपनी स्मित रेखा से यह संधिपत्र लिखना होगा।"

~  जयशंकर प्रसाद

  Nov 2, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, April 7, 2015

अगर प्‍यार में और कुछ नहीं (भावानुवाद)

Rabindra Nath Tagore

अगर प्‍यार में और कुछ नहीं
केवल दर्द है फिर क्‍यों है यह प्‍यार ?
कैसी मूर्खता है यह
कि चूंकि हमने उसे अपना दिल दे दिया
इसलिए उसके दिल पर
दावा बनता है,हमारा भी
रक्‍त में जलती ईच्‍छाओं और आंखों में
चमकते पागलपन के साथ
मरूथलों का यह बारंबार चक्‍कर क्‍योंकर ?

दुनिया में और कोई आकर्षण नहीं उसके लिए
उसकी तरह मन का मालिक कौन है;
वसंत की मीठी हवाएं उसके लिए हैं;
फूल, पंक्षियों का कलरव सबकुछ
उसके लिए है
पर प्‍यार आता है
अपनी सर्वगासी छायाओं के साथ
पूरी दुनिया का सर्वनाश करता
जीवन और यौवन पर ग्रहण लगाता

फिर भी न जाने क्‍यों हमें
अस्तित्‍व को निगलते इस कोहरे की
तलाश रहती है

~  रवीन्द्रनाथ ठाकुर


  Oct 31, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

कनुप्रिया: आम्र-बौर का गीत - 2

डॉ. धर्मवीर भारती

25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद में जन्मे डॉ. भारती ने 1956 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पीएचडी की। बाद के वर्ष उनके साहित्यिक जीवन के सबसे रचनात्मक वर्ष रहे। वह इस दौरान ‘अभ्युदय’ और ‘संगम’ के उप-संपादक रहे। ‘धर्मयुग’ में प्रधान संपादक रहने के दौरान डॉ. भारती ने 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध की रिपोर्ताज भी की।

डॉ. भारती की पुस्तक ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ लघुकथाओं को पाठकों के बीच रखने की एक अलहदा शैली का नमूना मानी जाती है। ‘अंधायुग’ भी डॉ. भारती की सर्वाधिक चर्चित कृतियों में से एक है। इसे इब्राहिम अल्काजी, एम के. रैना, रतन थियम और अरविंद गौर जैसे दिग्गज रंगकर्मी नाटक के रूप में पेश कर चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘मुर्दों का गाँव’, ‘स्वर्ग और पृथ्वी’, ‘चाँद और टूटे हुए लोग’ और ‘बंद गली का आखिरी मकान’ जैसी पुस्तकें भी लिखीं।
डॉ. भारती की पुस्तक ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ लघुकथाओं को पाठकों के बीच रखने की एक अलहदा शैली का नमूना मानी जाती है। ‘अंधायुग’ भी डॉ. भारती की सर्वाधिक चर्चित कृतियों में से एक है। इसे इब्राहिम अल्काजी, एम के. रैना, रतन थियम और अरविंद गौर जैसे दिग्गज रंगकर्मी नाटक के रूप में पेश कर चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘मुर्दों का गाँव’, ‘स्वर्ग और पृथ्वी’, ‘चाँद और टूटे हुए लोग’ और ‘बंद गली का आखिरी मकान’ जैसी पुस्तकें भी लिखीं।


पर मेरे प्राण
यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही
बावली लड़की हूँ न जो – कदम्ब के नीचे बैठ कर
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँव को
महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हो
तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हूँ
अपनी दोनों बाँहों में अपने धुटने कस
मुँह फेर कर निश्चल बैठ जाती हूँ
पर शाम को जब घर आती हूँ तो
निभॄत एकान्त में दीपक के मन्द आलोक में
अपनी उन्हीं चरणों को
अपलक निहारती हूँ
बावली-सी उनहें बार-बार प्यार करती हूँ
जल्दी-जल्दी में अधबनी महावर की रेखाओं को
चारों ओर देख कर धीमे-से
चूम लेती हूँ।
रात गहरा आयी है
और तुम चले गये हो
और मैं कितनी देर तक बाँह से
उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ
जिस पर टिक कर तुम मेरी प्रतीक्षा करते हो
और मैं लौट रही हूँ,
हताश, और निष्फल
और ये आम के बौर के कण-कण
मेरे पाँव मे बुरी तरह साल रहे हैं।
पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे
कि देर ही में सही
पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी
और माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखरे
ये मंजरी-कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो
इसी लिए न कि इतना लम्बा रास्ता
कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है
और काँटों और काँकरियों से
मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गये हैं!
यह कैसे बताऊँ तुम्हें
कि चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी
जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं
तुम्हारी मर्म-पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती
तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती
तो मेरे साँवरे -
लाज मन की भी होती है
एक अज्ञात भय,
अपरिचित संशय,
आग्रह भरा गोपन,
और सुख के क्षण
में भी घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी -
फिर भी उसे चीर कर
देर में ही आऊँगी प्राण,
तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी
चन्दन-बाहों में भर कर बेसुध नहीं कर दोगे?

~ धर्मवीर भारती

  Oct 25, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

कनुप्रिया: आम्र-बौर का गीत - 1

डॉ. धर्मवीर भारती

25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद में जन्मे डॉ. भारती ने 1956 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पीएचडी की। बाद के वर्ष उनके साहित्यिक जीवन के सबसे रचनात्मक वर्ष रहे। वह इस दौरान ‘अभ्युदय’ और ‘संगम’ के उप-संपादक रहे। ‘धर्मयुग’ में प्रधान संपादक रहने के दौरान डॉ. भारती ने 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध की रिपोर्ताज भी की।

डॉ. भारती की पुस्तक ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ लघुकथाओं को पाठकों के बीच रखने की एक अलहदा शैली का नमूना मानी जाती है। ‘अंधायुग’ भी डॉ. भारती की सर्वाधिक चर्चित कृतियों में से एक है। इसे इब्राहिम अल्काजी, एम के. रैना, रतन थियम और अरविंद गौर जैसे दिग्गज रंगकर्मी नाटक के रूप में पेश कर चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘मुर्दों का गाँव’, ‘स्वर्ग और पृथ्वी’, ‘चाँद और टूटे हुए लोग’ और ‘बंद गली का आखिरी मकान’ जैसी पुस्तकें भी लिखीं।
डॉ. धर्मवीर भारती 25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद में जन्मे डॉ. भारती ने 1956 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पीएचडी की। बाद के वर्ष उनके साहित्यिक जीवन के सबसे रचनात्मक वर्ष रहे। वह इस दौरान ‘अभ्युदय’ और ‘संगम’ के उप-संपादक रहे। ‘धर्मयुग’ में प्रधान संपादक रहने के दौरान डॉ. भारती ने 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध की रिपोर्ताज भी की। डॉ. भारती की पुस्तक ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ लघुकथाओं को पाठकों के बीच रखने की एक अलहदा शैली का नमूना मानी जाती है। ‘अंधायुग’ भी डॉ. भारती की सर्वाधिक चर्चित कृतियों में से एक है। इसे इब्राहिम अल्काजी, एम के. रैना, रतन थियम और अरविंद गौर जैसे दिग्गज रंगकर्मी नाटक के रूप में पेश कर चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘मुर्दों का गाँव’, ‘स्वर्ग और पृथ्वी’, ‘चाँद और टूटे हुए लोग’ और ‘बंद गली का आखिरी मकान’ जैसी पुस्तकें भी लिखीं।

यह जो मैं कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में
बिलकुल जड़ और निस्पन्द हो जाती हूँ
इस का मर्म तुम समझते क्यों नहीं मेरे साँवरे!
तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्य्मयी लीला की एकान्त संगिनी मैं
इन क्षणों में अकस्मात
तुम से पृथक नहीं हो जाती हूँ मेरे प्राण,
तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज
सिर्फ जिस्म की नहीं होती
मन की भी होती है
एक मधुर भय
एक अनजाना संशय,
एक आग्रह भरा गोपन,
एक निर्व्याख्या वेदना, उदासी,
जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी अभिभूत कर लेती है।
भय, संशय, गोपन, उदासी
ये सभी ढीठ, चंचल, सरचढ़ी सहेलियों की तरह
मुझे घेर लेती हैं,
और मैं कितना चाह कर भी तुम्हारे पास ठीक उसी समय
नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे
अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर कर तुम बुलाते हो!
उस दिन तुम उस बौर लदे आम की
झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशी से टेरते रहे
ढलते सूरज की उदास काँपती किरणें
तुम्हारे माथे मे मोरपंखों
से बेबस विदा माँगने लगीं -
मैं नहीं आयी
गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से
मुँह उठाये देखती रहीं और फिर
धीरे-धीरे नन्दगाँव की पगडण्डी पर
बिना तुम्हारे अपने-आप मुड़ गयीं -
मैं नहीं आयी
यमुना के घाट पर
मछुओं ने अपनी नावें बाँध दीं
और कन्धों पर पतवारें रख चले गये -
मैं नहीं आयी
तुम ने वंशी होठों से हटा ली थी
और उदास, मौन, तुम आम्र-वृक्ष की जड़ों से टिक कर बैठ गये थे
और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे
मैं नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी
तुम अन्त में उठे
एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुम ने तोड़ा
और धीरे-धीरे चल दिये
अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे
पर जानते हो तुम्हारे अनजान में ही तुम्हारी उँगलियाँ क्या कर रही थीं!
वे उस आम्र मंजरी को चूर-चूर कर
श्यामल वनघासों में बिछी उस माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखेर रही थीं …..
यह तुमने क्या किया प्रिय!
क्या अपने अनजाने में ही
उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी उजली पवित्र माँग भर रहे थे साँवरे?
पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर
इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त हो कर
माथे पर पल्ला डाल कर
झुक कर तुम्हारी चरणधूलि ले कर
तुम्हें प्रणाम करने -
नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी!

~ धर्मवीर भारती

  Oct 25, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

गए मौसम का डर बांधे हुए है

मनीष शुक्ल 
वैसवारे की माटी [उन्नाव के आसपास का इलाका]में खिले फूलों की खुशबू या उसकी शाश्वत  महक हिंदी साहित्य में अपनी गरिमा और ताज़गी के साथ आज भी मौजूद है |
मनीष शुक्ल का जन्म 24 जून  1971को  पुरवा ,जिला उन्नाव में हुआ था |उच्च शिक्षा लखनऊ विश्व विद्यालय से संपन्न हुई |लखनऊ विश्व विद्यालय से इन्होनें मानव शास्त्र विषय से स्नातकोत्तर उपाधि हासिल किया

गए  मौसम का   डर बांधे  हुए है
परिंदा  अब  भी  पर बांधे  हुए है

बुलाती  हैं   चमकती   शाह   राहें
मगर  कच्ची  डगर  बांधे  हुए  है

मुहब्बत की कशिश भी क्या कशिश है
समंदर  को  क़मर  बांधे  हुए  है

बिखर  जाता कभी का मैं खला में.
दुआओं  का  असर  बांधे  हुए  है

चला  जाऊं  जुनूं  के  जंगलों में
ये  रिश्तों  का  नगर  बांधे हुए है

हक़ीक़त का  पता  कैसे  चलेगा?
नज़ारा  ही  नज़र  बांधे  हुए  है

गए  लम्हों की इक ज़ंजीर या रब
मिरे  शाम ओ  सहर बांधे  हुए है
 
~ मनीष शुक्ल

  Oct 25, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आख़िरी कोशिश भी कर के देखते

मनीष शुक्ल 
वैसवारे की माटी [उन्नाव के आसपास का इलाका]में खिले फूलों की खुशबू या उसकी शाश्वत  महक हिंदी साहित्य में अपनी गरिमा और ताज़गी के साथ आज भी मौजूद है |
मनीष शुक्ल का जन्म 24 जून  1971को  पुरवा ,जिला उन्नाव में हुआ था |उच्च शिक्षा लखनऊ विश्व विद्यालय से संपन्न हुई |लखनऊ विश्व विद्यालय से इन्होनें मानव शास्त्र विषय से स्नातकोत्तर उपाधि हासिल किया

आख़िरी  कोशिश  भी   कर के  देखते
फिर  उसी   दर से  गुज़र  के  देखते

गुफ़्तगू  का  कोई  तो  मिलता  सिरा
फिर   उसे   नाराज़  कर  के   देखते

काश  जुड़   जाता  वो  टूटा   आईना
हम भी कुछ दिन बन संवर के देखते

रास्ते  को  ही  ठिकाना  कर   लिया
कब  तलक  हम ख़्वाब घर के देखते

काश  मिल जाता  कहीं  साहिल कोई
हम  भी  कश्ती से  उतर  के  देखते

हो  गया   तारी   संवरने   का  नशा
वरना  ख्वाहिश  थी  बिखर के  देखते

दर्द  ही गर  हासिल ए हस्ती  है तो
दर्द  की  हद  से   गुज़र  के   देखते
 
~ मनीष शुक्ल

  Oct 25, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh