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Thursday, October 28, 2021

तू आया तो द्वार भिड़े थे


तू आया तो द्वार भिड़े थे दीप बुझा था आँगन का
सुध बिसराने वाले मुझ को होश कहाँ था तन मन का

जाने किन ज़ुल्फ़ों की घटाएँ छाई हैं मेरी नज़रों में
रोते रोते भीग चला इस साल भी आँचल सावन का

थोड़ी देर में थक जाएँगे नील-कमल सी रेन के पाँव
थोड़ी देर में थम जाएगा राग नदी के झाँझन का

फिर भी मेरी बाँहों की ख़ुशबू हर डाल पे लचकेगी
हर तारा हीरा सा लगेगा मुझ को मेरे कंगन का

तुम आओ तो घर के सारे दीप जला दूँ लेकिन आज
मेरा जलता दिल ही अकेला दीप है मेरे आँगन का

 ‍~ अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

 Oct1 29, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

 

Wednesday, October 20, 2021

जो न मिल सके वो ही बेवफा

  

जो ना मिल सके वो ही बेवफा, ये बड़ी अजीब सी बात है
जो चला गया मुझे छोड़ कर, वो ही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा

जो किसी नज़र से अता हुई, वही रोशनी है ख़याल में
जो किसी नज़र से अता हुई, वही रोशनी है ख़याल में
वो ना आ सके रहु हूंतज़ार, ये खलिश कहा थे वे साल में
मेरी जूसतुजू को खबर नही, ना वो दिन रहे ना वो रात है
जो चला गया मुझे छोड़ कर, वो ही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा

करे प्यार लब पे गीला ना हो, ये किसी किसी का नसीब है
करे प्यार लब पे गीला ना हो, ये किसी किसी का नसीब है
ये करम है उसका जफ़ा नही, वो जुदा भी रह के करीब है
वोही आँख है मेरे रूबरू, उसी हाथ में मेरा हाथ है
जो चला गया मुझे छोड़ कर, वो ही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा

मेरा नाम तक जो ना ले सका, जो मुझे क़रार ना दे सका
मेरा नाम तक जो ना ले सका, जो मुझे क़रार ना दे सका
जिसे इकतियार तो था मगर, मुझे अपना प्यार ना दे सका
वोही शख़्श मेरी तलाश हैं, वोही दर्द मेरी हयात हैं
जो चला गया मुझे छोड़ कर, वो ही आज तक मेरे साथ हैं
जो न मिल सके वो ही बेवफा

~ ख़्वाजा परवेज़

Oct1 20, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Monday, October 18, 2021

रात यों कहने लगा मुझसे

 

  रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,

आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

रामधारी सिंह 'दिनकर'

 Oct18, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh