Disable Copy Text

Friday, May 29, 2015

न जी भर के देखा न कुछ बात की



न जी भर के देखा न कुछ बात की,
बड़ी आरज़ू थी, मुलाक़ात की ।

उजालों की परियाँ नहाने लगीं,
नदी गुनगुनाई, ख़यालात की ।

मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई,
ज़ुबाँ सब समझते हैं, जज़्बात की ।

मुक़द्दर मिरी चश्म-ए-पुरआब का,
बरसती हुई रात, बरसात की।
*चश्म-ए-पुरआब=आँसू भरी आँखें

कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं,
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की ।

~ बशीर बद्र


  May 29, 2013 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

क्यूँ बढ़ाते हो इख़्तिलात

क्यूँ बढ़ाते हो इख़्तिलात बहुत
हम को ताक़त नहीं जुदाई की।

*इख़्तिलात = दोस्ती, यारान, आपस में मिल जाना

~ अल्ताफ़ हुसैन हाली


  May 28, 2015 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, May 27, 2015

किसी से कोई भी उम्मीद रखना

किसी से कोई भी उम्मीद रखना छोड़ कर देखो
तो ये रिश्ते निभाना किस क़दर आसान हो जाये

~ वसीम बरेलवी

  May 27, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Monday, May 25, 2015

वो थका हुआ मेरी बाहों में ज़रा सो गया



वो थका हुआ मेरी बाहों में ज़रा सो गया था तो क्या हुआ
अभी मैं ने देखा है चाँद भी किसी शाख़-ए-गुल पे झुका हुआ

जिसे ले गई है अभी हवा वो वरक़ था दिल की किताब का
कहीं आँसुओं से मिटा हुआ कहीं आँसुओं से लिखा हुआ

कई मील रेत को काट कर कोई मौज फूल खिला गई
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है नदी के पास खड़ा हुआ

मुझे हादसों ने सजा सजा के बहुत हसीन बना दिया
मेरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो मेहन्दियों से रचा हुआ

वही ख़त के जिस पे जगह जगह दो महकते होंठों के चाँद थे
किसी भूले-बिसरे से ताक़ पर तह-ए-गर्द होगा दबा हुआ

वही शहर है वही रास्ते वही घर है और वही लान भी
मगर उस दरीचे से पूछना वो दरख़त अनार का क्या हुआ

मेरे साथ जुगनू है हमसफ़र मगर इस शरर की बिसात क्या
ये चराग़ कोई चराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ

~ बशीर बद्र


  May 25, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, May 23, 2015

प्यार का मौसम शुभे हर रोज़...



सेज पर साधें बिछा लो,
आँख में सपने सजा लो
प्यार का मौसम शुभे हर रोज़ तो आता नहीं है।

यह हवा यह रात, यह
एकाँत, यह रिमझिम घटाएँ,
यूँ बरसती हैं कि पंडित-
मौलवी पथ भूल जाएँ,
बिजलियों से माँग भर लो
बादलों से संधि कर लो
उम्र-भर आकाश में पानी ठहर पाता नहीं है।
प्यार का मौसम शुभे हर रोज़ तो आता नहीं है।।

दूध-सी साड़ी पहन तुम
सामने ऐसे खड़ी हो,
जिल्द में साकेत की
कामायनी जैसे मढ़ी हो,
लाज का वल्कल उतारो
प्यार का कँगन उजारो,
'कनुप्रिया' पढ़ता न वह, 'गीतांजलि' गाता नहीं है।
प्यार का मौसम शुभे हर रोज़ तो आता नहीं है।।

हो गए सब दिन हवन, तब
रात यह आई मिलन की
उम्र कर डाली धुआँ जब
तब उठी डोली जलन की,
मत लजाओ पास आओ
ख़ुशबूओं में डूब जाओ,
कौन है चढ़ती उमर जो केश गुथवाता नहीं है।
प्यार का मौसम शुभे हर रोज़ तो आता नहीं है।।


है अमर वह क्षण कि जिस क्षण
ध्यान सब जतकर भुवन का,
मन सुने संवाद तन का,
तन करे अनुवाद मन का,
चाँदनी का फाग खेलो,
गोद में सब आग ले लो,
रोज़ ही मेहमान घर का द्वार खटकाता नहीं है।
प्यार का मौसम शुभे हर रोज़ तो आता नहीं है।।

वक़्त तो उस चोर नौकर की
तरह से है सयाना,
जो मचाता शोर ख़ुद ही
लूट कर घर का ख़ज़ाना,
व़क्त पर पहरा बिठाओ
रात जागो औ' जगाओ,
प्यार सो जाता जहाँ भगवान सो जाता वहीं है।
प्यार का मौसम शुभे हर रोज़ तो आता नहीं है।।

~ गोपाल दास 'नीरज'

   May 23, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

Thursday, May 21, 2015

तू है राधा अपने कृष्ण की



तू है राधा अपने कृष्ण की
तिरा कोई भी होता नाम
मुरली तिरे भीतर बजती
किस वन करती विश्राम

या कोई सिंहासन विराजती
तुझे खोज ही लेते श्याम
जिस संग भी फेरे डालती
संजोग में थे घनश्याम

क्या मोल तू मन का माँगती
बिकना था तुझे बेदाम
बंसी की मधुर तानों से
बसना था ये सूना धाम

तिरा रंग भी कौन सा अपना
मोहन का भी एक ही काम
गिरधर आके भी गए और
मन माला है वही नाम

जोगन का पता भी क्या हो
कब सुबह हुई कब शाम

~ परवीन शाकिर

  May 21, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

धुँद में डूबी सारी फ़ज़ा थी


धुँद में डूबी सारी फ़ज़ा थी उस के बाल भी गीले थे
जिस की आँखें झीलों जैसी जिस के होंट रसीले थे

जिस को खो कर ख़ाक हुए हम आज उसे भी देखा तो
हँसती आँखें अफ़्सुर्दा थीं होंट भी नीले नीले थे
*अफ़्सुर्दा=उदास

जिन को छू कर कितने 'ज़ैदी' अपनी जान गँवा बैठे
मेरे अहद की शहनाज़ों के जिस्म बड़े ज़हरीले थे
*ज़ैदी-=मुस्तफ़ा ज़ैदी - मशहूर शायर;अहद=समय, युग; शहनाज़ों=संगीत स्वर

आख़िर आख़िर ऐसा हुआ कि तेरा नाम भी भूल गए
अव्वल अव्वल इश्क़ में जानाँ हम कितने जोशीले थे

आँखें बुझा के ख़ुद को भुला के आज 'शनास' मैं आया हूँ
तल्ख़ थीं लहजों की बरसातें रंग भी कड़वे-कसीले थे

~ फ़हीम शनास काज़मी


  May 20, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

अब रहीम मुसकिल परी,

अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ।

~ रहीम (अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना)

  May 18, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, May 17, 2015

सिर्फ अश्क-ओ-तबस्सुम में

सिर्फ अश्क-ओ-तबस्सुम में उलझे रहे,
हमने देखा नहीं ज़िन्दगी की तरफ |

~ अहसान दानिश

  May 17, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, May 16, 2015

गो ज़रा सी बात पर बरसों के



गो ज़रा सी बात पर बरसों के याराने गए
लेकिन इतना तो हुआ कुछ लोग पहचाने गए

मैं इसे शोहरत कहूँ या अपनी रूसवाई कहूँ
मुझ से पहले उस गली में मेरे अफ़साने गए

वहशतें कुछ इस तरह अपना मुक़द्दर बन गईं
हम जहाँ पहुँचे हमारे साथ वीराने गए
*वहशतें=पागलपन

यूँ तो मेरी रग-ए-जाँ से भी थे नज़दीक-तर
आँसुओं की धुँध में लेकिन न पहचाने गए
*रग-ए-जाँ=गले की नस; नज़दीक-तर=करीबी

अब भी उन यादों की ख़ुश-बू जे़हन में महफ़ूज है
बार-हा हम जिन से गुलज़ारों को महकाने गए
*महफ़ूज=सुरक्षित; बार-हा=बार बार

क्या क़यामत है के 'ख़ातिर' कुश्ता-ए-शब थे भी हम
सुब्ह भी आई तो मुजरिम हम ही गर्दाने गए
*कुश्ता-ए-शब=क़त्ल के लिए चुने गये ; गर्दाने=कबूलना

~ ख़ातिर ग़ज़नवी


  May 16, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh 

एक छाप रंगों की

एक छाप रंगों की, एक छाप ध्वनि की
एक सुख स्मृति का - एक व्यथा मन की

~ अज्ञेय

  May 15, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh 

दिल वो नगर नहीं कि

दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे सुनो हो, ये बस्ती उजाड़कर

~ मीर तक़ी 'मीर'

  May 14, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh 

Thursday, May 14, 2015

तो खाना बनाया...!



जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हिरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ़ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूँथा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले
भीतर की कलियों का रस मिलाया
लेकिन आख़िर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज़

आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर खाना बनाया
फिर बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया
फिर बेडौल होकर

वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ़ एक आलू एक प्याज़ से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ़ अपने सब्र से
दुखती कमर में, चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफ़ान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
फिर वात्सल्य में भरकर
उन्होंने उमगकर खाना बनाया

आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया
बीस आदमियों का खाना बनवाया
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण
पेश करते हुए खाना बनवाया
कई बार आँखें दिखाकर
कई बार लात लगाकर
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर
आप चीखे - उफ़, इतना नमक
और भूल गए उन आँसुओं को
जो ज़मीन पर गिराने से पहले
गिरते रहे तश्तरियों में, कटोरियों में

कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुज़र गया
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए
खा लिया गया था खाना
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली
उस अतिथि का शुक्रिया
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही
हाथ में कौर लेते ही तारीफ़ की

वे क्लर्क हुईं, अफ़सर हुईं
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी
अब वे धकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ
उनके गले से, पीठ से
उनके अन्धेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं
'यह रोटी लो, यह गरम है'

उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पडा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया
उनके तलुओं में जमा हो गया है खून
झुकाने लगी है रीढ़
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गठिया
उन्होंने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है l

~ कुमार अंबुज


  May 14, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh 

Wednesday, May 13, 2015

मेरी ज़िन्दगी पे न मुस्कुरा...

मेरी ज़िन्दगी पे न मुस्कुरा मुझे ज़िन्दगी का अलम नहीं
जिसे तेरे ग़म से हो वास्ता वो ख़िज़ां बहार से कम नहीं

*अलम=दुख; खिज़ा=पतझर

~ शकील बँदायूनी


  May 13, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh 

Tuesday, May 12, 2015

इसी शहर में कई साल से

इसी शहर में कई साल से मिरे कुछ क़रीबी अज़ीज़ हैं
उन्हें मेरी कोई ख़बर नहीं मुझे उनका कोई पता नहीं

~ बशीर बद्र


  May 10, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Thursday, May 7, 2015

अब मिरे शाने से लग कर ..,



अब मिरे शाने(कंधे) से लग कर किस लिए रोती हो तुम!
याद है तुम ने कहा था 
“जब निगाहों में चमक हो 
लफ़्ज़ जज़्बों(भावों) के असर से काँपते हों, और
तनफ़्फ़ुस(साँस) इस तरह उलझें कि जिस्मों की थकन ख़ुश्बू बने,
तो वो घड़ी अहद-ए-वफ़ा(वफ़ा के वादा) की साअत-ए-नायाब(बेहतरीन क्षण) है
वो जो चुपके से बिछड़ जाते हैं लम्हें हैं मसाफ़त(यात्रा)
जिन की ख़ातिर पाँव पर पहरे बिठाती है
निगाहें धुंध के पर्दों में उनको ढूँढती हैं
और समाअत(सुन सकना) उन की मीठी नर्म आहट के लिए
दामन बिछाती है”

और वो लम्हा भी तुमको याद होगा
जब हवाएँ सर्द थीं, और शाम के मैले कफ़न पर हाथ रख कर
तुम ने लफ़्जों और तअल्लुक के नए मअ’नी बताए थे, कहा था
“हर घड़ी अपनी जगह पर साअत-ए-नायाब(बेहतरीन क्षण) है
हासिल-ए-उम्र–ए-गुरेजाँ(गुज़री उम्र से हासिल हुआ) एक भी लम्हा नहीं
लफ़्ज़ धोका हैं कि उन का काम इबलाग़-ए-मआनी(सूचित करने) के अलावा कुछ नहीं
वक़्त मअ’नी है जो हर लहज़ा नए चेहरे बदलता है
जाने वाला वक़्त साया है
की जब तक जिस्म है ये आदमी के साथ चलता है
याद मिस्ल-ए-नुत्क़(संवाद) पागल है कि इस के लफ़्ज़ मअ’नी से तही(खाली) हैं
ये जिसे तुम ग़म अज़िय्यत(तकलीफ) दर्द आँसू
दुख वगैरह कह रहे हो
एक लम्हाती तअस्सुर(दिखावा) है, तुम्हारा वहम है
तुम को मेरा मशविरा है, भूल जाओ तुम से अब तक
जो भी कुछ मैंने कहा है”
अब मिरे शाने से लग कर किस लिए रोती हो तुम!

~ अमजद इस्लाम अमजद

   May 07, 2015| e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

तुम मुख़ातिब भी हो

तुम मुख़ातिब भी हो, करीब भी हो
तुमको देखेँ कि तुमसे बात करें ।

*मुख़ातिब=जिससे कुछ कहा जाय, संबोध्य।

~ फ़िराक़

  May 5, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मुलायम गर्म समझौते की चादर



मुलायम गर्म समझौते की चादर!
ये चादर मैंने बरसों में बुनी है,
कहीं भी सच के गुल-बूटे नहीं हैं,
किसी भी झूठ का टांका नहीं है।

इसी से मैं भी तन ढंक लूंगी अपना,
इसी से तुम भी आसूदा रहोगे!
न ख़ुश होगे, न पज़मुर्दा रहोगे।
*आसूदा=तृप्त, आश्वस्त; पज़मुर्दा=मुरझाया हुआ

इसी को तान कर बन जायेगा घर,
बिछा लेंगे तो खिल उठेगा आंगन,
उठा लेंगे तो गिर जायेगी चिलमन।

~ ज़हरा निगाह


  May 4, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

गर दिल यही है मीर

तड़पै है जब कि सीने में उछले हैं दो-दो हाथ
गर दिल यही है मीर तो आराम हो चुका

~ 'मीर'

  May 3, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, May 2, 2015

चलो फिर से मुस्कराएं...!




चलो फिर से मुस्कराएं
चलो फिर से दिल जलाएं

जो गुजर गई हैं रातें
उन्हें फिर जगा के लाएं
जो बिसर गई हैं बातें
उन्हें याद में बुलाएं
चलो फिर से दिल लगाएं
चलो फिर से दिल लगाएं
चलो फिर से मुस्कुराएं

किसी शह-नशीं पे झलकी
वो धनक किसी क़बा की
किसी रंग में कसमसाई
वो कसक किसी अदा की
कोई हर्फ़े-बे-मुरव्वत
किसी कुंजे-लब से फूटा
वो छनक के शीशा-ए-दिल
तहे-बाम फिर से टूटा
**शह-नशीं=बैठने का उच्च स्थान; क़बा- अंगरखा
हर्फ़े-बे-मुरव्वत=निष्ठुर शब्द; तहे-बाम=छत के नीचे

ये मिलन की, नामिलन की
ये लगन की और जलन की
जो सही हैं वारदातें
जो गुजर गई अहिं रातें
जो बिसर गई है बातें

कोई इनकी धुन बनाएं
कोई इनका गीत गाएं
चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल जलाएं

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

  May 2, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

जंगल जैसा सूना सूना

जंगल जैसा सूना सूना हर एक रस्ता लगता है
महफिल सारी तन्हा तन्हा तुझ बिन ये सब होये है

~ अबू आरिफ़

  May 1, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh