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Wednesday, September 30, 2020

आँखों ने बस देखा भर था

 

आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया।

रंग पंखुरी, केसर टहनी, नस नस के सब ताने बाने,
उनमें कोमल फूल बना जो, भोली आँख उसे ही जाने,
मन ने सौरभ के वातायन से
असली रस भाँप लिया।
आँखों ने बस देखा भर था
मन ने उसको छाप लिया।

छवि की गरिमा से मंडित, उस तन की मानक ऊँचाई को,
स्नेह-राग से उद्वेलित उस मन की विह्वल तरुणाई को,
आँखों ने छूना भर चाहा,
मन ने पूरा नाप लिया।
आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया।

आँख पुजारी है, पूजा में भर अँजुरी नैवेद्य चढ़ाए,
वेणी गूँथे, रचे महावर, आभूषण ले अंग सजाए,
मन ने जीवन मंदिर में
उस प्रतिमा को ही थाप लिया।

आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया। 

~ रवीन्द्र भ्रमर

Sep 30, 2020| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Thursday, August 27, 2020

एक पुराने दुख ने पूछा


एक पुराने दुख ने पूछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो

उत्तर दिया चले मत आना मैने वो घर बदल दिया है।

जग ने मेरे सुख-पंछी के पाँखो मे पत्थर बाँधे है,
मेरी विपदाओं ने अपने पैरो मे पायल साधे है,
एक वेदना मुझसे बोली मैने अपनी आँख न खोली,
उत्तर दिया चले मत आना मैने  वो उर बदल दिया है।

वैरागिन बन जाएँ वासना बना सकेगी नहीं वियोगी,
साँसो से आगे जीने की हट कर बैठा मन का योगी,
एक पाप ने मुझे पुकारा, मैने केवल यही उचारा,
जो झुक जाए तुम्हारे आगे मैने वो सर बदल दिया है।

मन की पावनता पर बैठी है कमज़ोरी आँख लगाए,
देखें दर्पण के पानी से कैसे कोई प्यास बुझाए,
खंडित प्रतिमा बोली आओ मेरे साथ आज कुछ गाओ,
उत्तर दिया मौन हो जाओ मैने वो स्वर बदल दिया है।

एक पुराने दुख ने पूछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो,
उत्तर दिया चले मत आना मैने वो घर बदल दिया है।

~ शिशुपाल सिंह निर्धन

Aug 27, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh



Monday, August 24, 2020

तुमको अपनी नादानी पर

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

तुमको अपनी नादानी पर
जीवन भर पछताना होगा!

मैं तो मन को समझा लूंगा
यह सोच कि पूजा था पत्थर--
पर तुम अपने रूठे मन को
बोलो तो, क्या उत्तर दोगी ?
नत शिर चुप रह जाना होगा!
जीवन भर पछताना होगा!
*नत-शिर=विनीत हो कर

मुझको जीवन के शत संघर्षों में
रत रह कर लड़ना है ;
तुमको भविष्य की क्या चिन्ता,
केवल अतीत ही पढ़ना है!
बीता दुख दोहराना होगा!
जीवन भर पछताना होगा!

तुमको अपनी नादानी पर
जीवन भर पछताना होगा!

शैलेंद्र 

Aug 24, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh


Sunday, February 10, 2019

बौरे आमों पर बौराए



बौरे आमों पर बौराए
भौंर न आए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

माना अब आकाश खुला-सा और धुला-सा
फैला-फैला नीला-नीला,
बर्फ़ जली-सी, पीली-पीली दूब हरी फिर,
जिस पर खिलता फूल फबीला
तरु की निवारण डालों पर मूँगा, पन्‍ना
औ' दखिनहटे का झकझोरा,
बौरे आमों पर बौराए
भौंर न आए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

माना, गाना गानेवाली चि‍ड़ियाँ आईं,
सुन पड़ती कोकिल की बोली,
चली गई थी गर्म प्रदेशों में कुछ दिन को
जो, लौटी हंसों की टोली,
सजी-बजी बारात खड़ी है रंग-बिरंगी,
किंतु न दुल्‍हे के सिर जब तक
मंजरियों का मौर-मुकुट
कोई पहनाए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

डार-पात सब पीत पुष्‍पमय कर लेता
अमलतास को कौन छिपाए,
सेमल और पलाशों ने सिंदूर-पताके
नहीं गगन में क्‍यों फहराए?
छोड़ नगर की सँकड़ी गलियाँ, घर-दर, बाहर
आया, पर फूली सरसों से
मीलों लंबे खेत नहीं
दिखते पयराए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

प्रात: से संध्‍या तक पशुवत् मेहनत करके
चूर-चूर हो जाने पर भी,
एक बार भी तीन सैकड़े पैंसठ दिन में
पूरा पेट न खाने पर भी
मौसम की मदमस्‍त हवा पी जो हो उठते
हैं मतवाले, पागल, उनके
फाग-राग ने रातों रक्‍खा
नहीं जगाए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

बौरे आमों पर बौराए
भौंर न आए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

~ हरिवंशराय बच्चन


 Feb 10, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, September 7, 2018

तेरे घर के द्वार बहुत हैं


तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?
सब द्वारों पर भीड़ मची है,
कैसे भीतर जाऊं मैं?

द्वारपाल भय दिखलाते हैं,
कुछ ही जन जाने पाते हैं,
शेष सभी धक्के खाते हैं,
क्यों कर घुसने पाऊं मैं?

तेरी विभव कल्पना कर के,
उसके वर्णन से मन भर के,
भूल रहे हैं जन बाहर के
कैसे तुझे भुलाऊं मैं?

बीत चुकी है बेला सारी,
किंतु न आयी मेरी बारी,
करूँ कुटी की अब तैयारी,
वहीं बैठ गुन गाऊं मैं।

कुटी खोल भीतर जाता हूँ
तो वैसा ही रह जाता हूँ
तुझको यह कहते पाता हूँ-
‘अतिथि, कहो क्या लाउं मैं?

तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?

~ मैथिलीशरण गुप्त


  Sep 7, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, June 29, 2018

गया है जब से मन का मीत



अक्षर-अक्षर मौन हो गए, मौन हुआ संगीत
परदेसी के साथ गया है, जब से मन का मीत।

चलता है सूरज वैसे ही दुनिया भी चलती है
और तिरोहित होकर संध्या वैसे ही ढलती है
किंतु गहनतम निशा अकेली मन को ही छलती है
अधरों पर सजने लगता है, अनजाना-सा गीत।

डाल-डाल पर खिले सुमन को ॠतुओं ने घेरा है
अपने अंतर में पतझड़ का ही केवल डेरा है
स्मृतियों के ओर छोर तक उसका ही फेरा है
उधर खिला मधुबन हँसता है रोता इधर अगीत।

दूर गगन में उगे सितारे अपनों से लगते हैं
लिए किरण की आस भोर तक वह भी तो जगते हैं
अनबोले शब्दों की भाषा में सब कुछ कहते हैं
एक सुखद जो वर्तमान था, वह भी हुआ अतीत।

सपनों के झुरमुट में उतरा कालिख-सा अँधियारा
हमने उसको रात-रात भर खोजा उसे पुकारा
खड़ा रहा बनकर निर्मोही निरर्थक रहा इशारा
जलती-बुझती रही निशा भर अनुभव की परतीत

अक्षर-अक्षर मौन हो गए, मौन हुआ संगीत
परदेसी के साथ गया है, जब से मन का मीत।

~ अजय पाठक


  Jun 29, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, November 12, 2017

देखो, चली जाए न यों ढलकर



देखो,
चली जाए न यों ढलकर।

थमाओ हाथ, बाहर घास ने
कालीन डाला है,
किरन ने कुनकुने जलसे
अभी तो मुँह उजाला है,
हवाएँ यों निकल जाएँ न
हम दो बात तो कर लें,
खिली है ऋतु सुहानी
आँजुरी में, फूल कुछ भर लें।
लताओं से विटप की,
अनकही बातें सुनें चलकर!

पुलकते तट, उठी लहरें
सिमट कर बाँह में सोई,
कमल-दल फूल कर महके
मछलियाँ डूब कर खोई,
लिखी अभिसार की गाथा
कपोती ने मुँडेली पर,
मदिर मधुमास लेकर
घर गई सरसों- हथेली पर।
महकता है कहीं महुआ
किसी, कचनार में घुलकर।

उलझती ऊन सुलझा कर
नया स्वेटर बनाओ तुम,
बिखरते गीत के
खोए हुए-फिर बंध जोड़े हम,
बहुत दिन हो गए हैं
डूब कर जीना नहीं जाना,
कभी तुमने कभी हमने
कोई मौसम नहीं माना।
बहे फिर प्यार की इस
उष्णता में कुहरिका गलकर!

~ यतीन्द्र राही


  Nov 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, November 10, 2017

मेरे पाँव तुम्हारी गति हो


मेरे पाँव तुम्हारी गति हो
फिर चाहे जो भी परिणति हो

*परिणति= किसी प्रकार के परिवर्तन के कारण बननेवाला नया रूप

कोई चलता कोई थमता
दुनिया तो सडकों का मेला
जैसे कोई खेल रहा हो
सीढ़ी और साँप का खेला
मेरे दाँव तुम्हारी मति हो
फिर चाहे जय हो या क्षति हो

पल-पल दिखते पल-पल ओझल
सारे सफर पडावों के छल
जैसे धूप तले मरुथल में
हर प्यासे के हिस्से मृगजल
मेरे नयन तुम्हारी द्युति हो
फिर कोई आकृति अनुकृति हो

*आकृति=स्वरूप; अनुकृति= किसी वस्तु की हूबहू नक़ल

क्या राजाघर क्या जलसाघर
मैं अपनी लागी का चाकर
जैसे भटका हुआ पुजारी
ढूँढ रहा अपना पूजाघर
मेरे प्राण तुम्हारी रति हो
फिर कैसी भी सुरति-निरति हो
*सुरति=युगल का वह प्रेम जो शारीरिक सम्बंध की तृप्ति से उत्पन्न होता है; निरति= आसक्ति

ये सन्नाटे ये कोलाहल
कविता जन्मे साँकल-साँकल
जैसे दावानल में हँस दे
कोई पहली-पहली कोंपल
मेरे शब्द तुम्हारी श्रुति हो
यह मेरी अन्तिम प्रतिश्रुति हो

*श्रुति=सुनने की क्रिया; प्रतिश्रुति=प्रतिध्वनि

~ तारा प्रकाश जोशी


  Nov 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, August 6, 2017

चाँद गोरी के घर बारात ले


चाँद गोरी के घर बारात ले के आ
गोरी ओट में खड़ी है सौगात ले के आ
जो कभी ना बोली गई वो बात ले के आ
जो खिल चुके हों फूल से हालात ले के आ

जिसमें बेकली भी हो, जिसमें शोखियाँ भी हों
जिसमें झिलमिलाती रात की बेहोशियाँ भी हों
जिसमें घोंसला भी हो, तिनकों से बुना अभी
जिसके तिनके हों कि ऐसे जैसे टूटें ना कभी

हो जिसमें सरसराहटें, जिसमें खिलखिलाहटें
जिसमें सुगबुगाहटें, जिसमें कसमसाहटें
जिसमें ज़िन्दगी भी हो, जिसमें बन्दगी भी हो
जिसमें रूठना भी हो तो थोड़ी दिल्लगी भी हो

अनबुझी पहेली सी रात ले के आ
चाँद गोरी के घर बारात ले के आ

~ पीयूष मिश्रा


  Aug 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, November 11, 2015

जल गया है दीप तो ...


आंधियां चाहें उठाओ,
बिजलियां चाहें गिराओ,
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये,
वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये,
वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,
जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये,
उग रही लौ को न टोको,
ज्योति के रथ को न रोको,
यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,
धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,
दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,
देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह,
व्यर्थ है दीवार गढना,
लाख लाख किवाड़ जड़ना,
मृतिका के हांथ में अमरित मचलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

है जवानी तो हवा हर एक घूंघट खोलती है,
टोक दो तो आंधियों की बोलियों में बोलती है,
वह नहीं कानून जाने, वह नहीं प्रतिबन्ध माने,
वह पहाड़ों पर बदलियों सी उछलती डोलती है,
जाल चांदी का लपेटो,
खून का सौदा समेटो,
आदमी हर कैद से बाहर निकलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

वक़्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है,
बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है,
क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो,
हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है,
उस सुबह से सन्धि कर लो,
हर किरन की मांग भर लो,
है जगा इन्सान तो मौसम बदलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

~ गोपाल दास 'नीरज',


  Nov 11, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, February 27, 2015

मन तुम्हारा हो गया,





मन तुम्हारा हो गया,
तो हो गया !

एक तुम थे जो सदा से अर्चना के गीत थे,
एक हम थे जो सदा से धार के विपरीत थे,
ग्राम्य-स्वर कैसे कठिन आलाप नियमित साध पाता,
द्वार पर संकल्प के लखकर पराजय कंपकंपाता,
क्षीण सा स्वर खो गया, तो खो गया
मन तुम्हारा हो गया

तो हो गया !

लाख नाचे मोर सा मन लाख तन का सीप तरसे,
कौन जाने किस घड़ी तपती धरा पर मेघ बरसे,
अनसुने चाहे रहे तन के सजग शहरी बुलावे,
प्राण में उतरे मगर जब सृष्टि के आदिम छलावे,
बीज बादल बो गया, तो बो गया,
मन तुम्हारा हो गया
तो हो गया !

~ कुमार विश्वास
   Feb 26, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Saturday, January 24, 2015

आज बसंत की रात



आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!

धूप बिछाए फूल-बिछौना,
बगिय़ा पहने चांदी-सोना,
कलियां फेंके जादू-टोना,
महक उठे सब पात,
हवन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!

बौराई अंबवा की डाली,
गदराई गेहूं की बाली,
सरसों खड़ी बजाए ताली,
झूम रहे जल-पात,
शयन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

खिड़की खोल चंद्रमा झांके,
चुनरी खींच सितारे टांके,
मन करूं तो शोर मचाके,
कोयलिया अनखात,
गहन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

नींदिया बैरिन सुधि बिसराई,
सेज निगोड़ी करे ढिठाई,
तान मारे सौत जुन्हाई,
रह-रह प्राण पिरात,
चुभव की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

यह पीली चूनर, यह चादर,
यह सुंदर छवि, यह रस-गागर,
जनम-मरण की यह रज-कांवर,
सब भू की सौगा़त,
गगन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना। 



*कांवर=क (ब्रह्म, जीव)+अवर अर्थात ब्रह्म और जीव का मिलन यानी जीवत्व का त्याग करके ब्रह्मत्व की प्राप्ति

~ गोपालदास नीरज


   Jan 18, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Saturday, November 29, 2014

ओ! बासंती पवन

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जब भी अरमानों ने
पलकें खोली हैं.
जबरन घुस आया
कोई डर अनजाना.
फाग में आग की लपट
दिख रही गली गली
ओ! बासंती पवन झुलस
तुम मत जाना ।।

जाने कैसी हवा चली
नन्दन-वन में.
शीतलता सुगन्ध ग़ायब
है चन्दन में.
सुधा-कलश की संग्या
जिसको मिली हुई.

विष ही विष है व्याप्त
उसी अंतर्मन में

सहमी सहमी कली-
कली अब गुलशन में
माली का है सैय्यादों
से य़ाराना.
ओ! बासंती पवन
झुलस तुम मत जाना.
 

~ काशीनाथ, प्रयाग
 
   March 22, 2013 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Friday, November 28, 2014

अभी उफनती हुई नदी हो


अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ,
रहो किसी भी दशा-दिशा में,
तुम अपने बच्चों का प्यार हो माँ।

नरम सी बाहों में खुद झुलाया,
सुना के लोरी हमें सुलाया ,
जो नींद भर कर कभी न सोई,
जनम-जनम की जगार हो माँ।

भले ही कांटों भरी हों गलियाँ,
जो तुम मिलीं तो मिली हैं कलियाँ,
तुम्हारी ममतामयी अंगुलियाँ,
बता रहीं हैं बहार हो माँ।

किसी भी मौसम ने जब सताया,
उढ़ा के आँचल हमें बचाया,
हो सख्त जाड़े में धूप तुम ही
तपन में ठँढी फुहार हो माँ।

दिया जो तुमने वो तन लपेटे,
तुम्हारी बेटी, तुम्हारे बेटे,
सदा तुम्हारे ऋणी रहेंगे,
जनम-जनम का उधार हो माँ।

तुम्हारे दिल को बहुत दुखाया,
खुशी तनिक दी बहुत रुलाया,
मगर हमेशा ही प्यार पाया,
कठोर को भी उदार हो माँ।

बड़ों ने जो भी यहाँ कहा है,
‘कुंवर’ उसे कुछ यों कह रहा है,
ये सारी दुनिया है एक कहानी,
तुम इस कहानी का सार हो माँ।

~ कुँवर 'बेचैन’


   May 6, 2013 | e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

Sunday, November 23, 2014

कर दिए लो आज गंगा में


कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिन्त रहना

धुंध डूबी घाटियों के इंद्र-धनु तुम
छू गए नत भाल पर्वत हो गया मन
बूंद भर जल बन गया पूरा समंदर
पा तुम्हारा दुख तथागत हो गया मन
अश्रु जन्मा गीत कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिन्त रहना

दूर हूँ तुमसे न अब बातें उठेंगी
मैं स्वयं रंगीन दर्पण तोड़ आया
वह नगर, वह राजपथ, वे चौंक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र, तुम निश्चिंत रहना

लो विसर्जन आज बासंती छुअन का
साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन
गुँथ न पाए कनुप्रिया के कुंतलों में
उन अभागे मोरपंखों का विसर्जन
उस कथा का जो न हो पाई प्रकाशित
मर चुका है एक-एक चरित्र, तुम निश्चिंत रहना

~ किशन सरोज
 
Sept 29, 2013 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Friday, November 21, 2014

रात-रात भर जब आशा का


रात-रात भर जब आशा का दीप मचलता है
तम से क्या घबराना सूरज रोज निकलता है

कोई बादल कब तक रवि-रथ को भरमाएगा
ज्योति-कलश तो निश्चित ही आँगन में आएगा
द्वार बंद मत करो भोर रसवंती आयेगी
कभी न सतवंती किरणों का चलन बदलता है,
तम से क्या घबराना सूरज रोज निकलता है !

ठीक नहीं है यहाँ वेदना को देना वाणी
किसी अधर पर नहीं कामना कोई कल्याणी
चढ़ता है पूजा का जल भी ऐसे चरणों पर
जो तुलसी बनके अपने आँगन में पलता है,
तम से क्या घबराना सूरज रोज निकलता है !

भले हमें सम्मानजनक सम्बोधन नहीं मिले
हम हैं ऐसे सुमन कहीं गमलों में नहीं खिले
अपनी वाणी है उद्बोधन गीतों का उद्गम
एक गीत से पीड़ाओं का पर्वत गलता है,
तम से क्या घबराना सूरज रोज निकलता है !

मत दो तुम आवाज़ भीड़ के कान नहीं होते
क्योंकि भीड़ में सबके सब इंसान नहीं होते
मोती पाने के लालच में नीचे मत उतरो
प्रण-पालक त्रण तूफानों के सर पर चलता है,
तम से क्या घबराना सूरज रोज निकलता है !

रात कटेगी कहो कहानी राजा-रानी की
करो न चिंता जीवन-पथ में गहरे पानी की
हंसकर तपते रहो छावं का अर्थ समझने को
अश्रु बहाने से न कभी पाषाण पिघलता है,
तम से क्या घबराना सूरज रोज निकलता है !

~ शिशुपाल सिंह 'निर्धन'
 
Nov. 25, 2013 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh 

  

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे



नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम् ।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते ।।१।।

प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता
इमे सादरं त्वां नमामो वयम्
त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयं
शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये ।
अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिं
सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं
स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत् ।।२।।

समुत्कर्षनिःश्रेयसस्यैकमुग्रं
परं साधनं नाम वीरव्रतम्
तदन्तः स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा
हृदन्तः प्रजागर्तु तीव्रानिशम् ।
विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्
विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम् ।
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम् ।।३।।

भारत माता की जय ।।

हे परम वत्सला मातृभूमि! तुझको प्रणाम शत कोटि बार।
हे महा मंगला पुण्यभूमि ! तुझ पर न्योछावर तन हजार।।

हे हिन्दुभूमि भारत! तूने, सब सुख दे मुझको बड़ा किया;
तेरा ऋण इतना है कि चुका, सकता न जन्म ले एक बार।
हे सर्व शक्तिमय परमेश्वर! हम हिंदुराष्ट्र के सभी घटक,
तुझको सादर श्रद्धा समेत, कर रहे कोटिशः नमस्कार।।

तेरा ही है यह कार्य हम सभी, जिस निमित्त कटिबद्ध हुए;
वह पूर्ण हो सके ऐसा दे, हम सबको शुभ आशीर्वाद।
सम्पूर्ण विश्व के लिये जिसे, जीतना न सम्भव हो पाये;
ऐसी अजेय दे शक्ति कि जिससे, हम समर्थ हों सब प्रकार।।

दे ऐसा उत्तम शील कि जिसके, सम्मुख हो यह जग विनम्र;
दे ज्ञान जो कि कर सके सुगम, स्वीकृत कन्टक पथ दुर्निवार।
कल्याण और अभ्युदय का, एक ही उग्र साधन है जो;
वह मेरे इस अन्तर में हो, स्फुरित वीरव्रत एक बार।।

जो कभी न होवे क्षीण निरन्तर, और तीव्रतर हो ऐसी;
सम्पूर्ण ह्र्दय में जगे ध्येय, निष्ठा स्वराष्ट्र से बढे प्यार।
निज राष्ट्र-धर्म रक्षार्थ निरन्तर, बढ़े संगठित कार्य-शक्ति;
यह राष्ट्र परम वैभव पाये, ऐसा उपजे मन में विचार।।


हे मातृभूमि, तुम्हें प्रणाम! इस मातृभूमि ने हमें अपने बच्चों की तरह स्नेह और ममता दी है। इस हिन्दू भूमि पर सुखपूर्वक मैं बड़ा हुआ हूँ। यह भूमि महा मंगलमय और पुण्यभूमि है। इस भूमि की रक्षा के लिए मैं यह नश्वर शरीर मातृभूमि को अर्पण करते हुए इस भूमि को बार-बार प्रणाम करता हूँ।

हे सर्व शक्तिमान परमेश्वर, इस हिन्दू राष्ट्र के घटक के रूप में मैं तुमको सादर प्रणाम करता हूँ। आपके ही कार्य के लिए हम कटिबद्ध हुवे है। हमें इस कार्य को पूरा करने किये आशीर्वाद दे। हमें ऐसी शक्ति दीजिये कि हम इस पूरे विश्व को जीत सकें और ऐसी नम्रता दें कि पूरा विश्व हमारे सामने नतमस्तक हो सके। यह रास्ता काटों से भरा हुवा है, इस कार्य को हमने स्वयँ स्वीकार किया है और इसे सुगम कर काँटों रहित करेंगे।

ऐसा उच्च आध्यात्मिक सुख और ऐसी महान ऐहिक समृद्धि को प्राप्त करने का एकमात्र श्रेष्ट साधन उग्र वीरव्रत की भावना हमारे अन्दर सदेव जलती रहे। तीव्र और अखंड ध्येय निष्ठा की भावना हमारे अंतःकरण में जलती रहे। आपकी असीम कृपा से हमारी यह विजयशालिनी संघठित कार्यशक्ति हमारे धर्म का सरंक्षण कर इस राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाने में समर्थ हो।

भारत माता की जय।

Dec 14, 2013

Thursday, November 20, 2014

मैं फूलों को छूता भर हूँ



मैं फूलों को छूता भर हूँ
बस छूता भर हूँ
बहुत हुआ तो सूंघ लेता हूँ
बड़े आहिस्ते से
तोड़ने की इच्छा तो कभी नहीं हुई ।

मैं आकाश को देखता हूँ
बस देखता भर हूँ
बहुत हुआ तो खो जाता हुँ
बड़े आहिस्ते से
अंतरिक्ष युद्ध की इच्छा तो कभी नहीं हुई ।

मैं नदी को सुनता हूँ
बस सुनता भर हूँ
बहुत हुआ तो जल क्रीड़ा करता हूँ
बड़े आहिस्ते से
उनको बांधने की इच्छा तो कभी नहीं हुई ।

मैं लोगों को देखता हुँ
सुनता हूँ
छू भी लेता हूँ
यही महसूस होता है
वे लोग भाग रहे हैं
एक दूसरे को धकियाते हुए ।

उनके लिए
कोई फूल, आकाश या नदी
कोई मायने नहीं रखता
उनके पैरों तले
हर दिन कुचला जाता है
फूल, आकाश और नदी
ऐसे में
मैं जब तलाशता हूँ उन्हें
सिवा शून्य के कुछ भी तो नहीं मिलता ।

~ मोतीलाल, राउरकेला

   Jun 24, 2014

अहा बुद्धिमानो की बस्ती..!


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अहा बुद्धिमानो की बस्ती
या तो चुप्पी या तकरार -
कोने कोने भूत बियाने
सारा घर सन्नाटेदार

सूचीबद्ध हुई दिनचर्या
मजबूरी रेखांकित है
चौके से चूल्हे की अनबन
हर भांडा आतंकित है
किसी खास दिन खास वजह से
कागज़ पर लिखते हैं प्यार

यों तो इस भुतहा बाखर में
कोई आएगा ही क्यों
जिस धन से खुशबू गायब है
उसे चुराएगा ही क्यों
फिर भी ताला है, कुत्ता है
और गोरखा चौकीदार

अपना कद ऊँचा रखने में
झुक कर चलना छूट गया
विज्ञापन से जोड़ा रिश्ता
अपना-पन से टूट गया
इतनी चीजें जुड़ीं कि हम भी
चीजों में हो गए शुमार

~ महेश अनघ

  Jul 10, 2014

तुम्हारे नील झील-से नैन



तुम्हारे नील झील-से नैन
नीर निर्झर-से लहरे केश|

तुम्हारे तन का रेखाकार
वही कमनीय, कलामय हाथ
कि जिसने रुचिर तुम्हारा देश
रचा गिरि-ताल-माल के साथ,

करों में लतरों का लचकाव,
करतलों में फूलों का वास,
तुम्हारे नील झील-से नैन,
नीर निर्झर-से लहरे केश|

उधर झुकती अरुनारी साँझ,
इधर उठता पूनो का चाँद,
सरों, श्रॄंगों, झरनों पर फूट
पड़ा है किरनों का उन्माद,

तुम्हें अपनी बाहों में देख
नहीं कर पाता मैं अनुमान,
प्रकृति में तुम बिंबित चहुँ ओर
कि तुममें बिंबित प्रकृति अशेष।

तुम्हारे नील झील-से नैन,
नीर निर्झर-से लहरे केश|

~ हरिवंशराय बच्चन


   Jul 12, 2014