Disable Copy Text

Tuesday, December 29, 2020

कब कहा मैं ने कि तुम चाहने वालों में रहो


कब कहा मैं ने कि तुम चाहने वालों में रहो
तुम ग़ज़ल हो तो ग़ज़ल बन के ख़यालों में रहो

हुस्न ऐसा है तुम्हारा कि नहीं जिस का जवाब
इस लिए जान-ए-वफ़ा तुम तो सवालों में रहो

छुप गया चाँद अँधेरा है भरी महफ़िल में
तुम मिरे दिल में उतर जाओ उजालों में रहो

अपनी ख़ुश्बू को फ़ज़ाओं में बिखर जाने दो
फूल बन जाओ महकते हुए बालों में रहो

आने जाने की कहीं तुम को ज़रूरत क्या है
शहर-ए-ख़ूबाँ में रहो मस्त ग़ज़ालों में रहो

उम्र-भर के लिए हो जाओ किसी के 'अख़्तर'
इश्क़ ऐसा करो दुनिया की मिसालों में रहो

~ अख़्तर आज़ाद

Dec 29, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Friday, December 25, 2020

इस ज़मीं पर प्यार का इक घर


मस्जिद-ओ-मंदिर का यूँ झगड़ा मिटाना चाहिए
इस ज़मीं पर प्यार का इक घर बनाना चाहिए

मज़हबों में क्या लिखा है ये बताना चाहिए
उस को गीता और उसे क़ुरआँ पढ़ाना चाहिए

वो दीवाली हो के बैसाखी हो क्रिसमस हो के ईद
मुल्क की हर क़ौम को मिल कर मनाना चाहिए

दोस्तो इस से बड़ी कोई इबादत ही नहीं
आदमी को आदमी के काम आना चाहिए

कौन से मज़हब में लिक्खा है कि नफ़रत धर्म है
मिल के इस दुनिया से नफ़रत को मिटाना चाहिए

चाहते है जो कई टुकड़ों में इस को बाँटना
ऐसे ग़द्दारों से भारत को बचाना चाहिए

~ अख़्तर आज़ाद

Dec 25, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Thursday, December 24, 2020

उनसे प्रीत करूँ, पछताऊँ


उनसे प्रीत करूँ, पछताऊँ!

सोन महल लोहे का पहरा,
चारों ओर समुन्दर गहरा,
पन्थ हेरते धीरज हारूँ
उन तक पहुँच न पाऊँ।
प्रीत करूँ, पछताऊँ!

इन्द्र धनुष सपने सतरंगी
छलिया पाहुन छिन के संगी,
नेह लगे की पीर पुतरियन
जागूँ, चैन गवाऊँ।
प्रीत करूँ, पछताऊँ!

दिपे चनरमा नभ दर्पन में
छाया तैरे पारद मन में,
पास न मानूँ, दूर न जानूँ
कैसे अंक जुड़ाऊँ?
प्रीत करूँ, पछताऊँ!
उनसे प्रीत करूँ, पछताऊँ!
 

~ रवीन्द्र भ्रमर

Dec 24, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Wednesday, December 23, 2020

सरकती जाए है रुख़ से


सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता

जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
हया यक-लख़्त आई और शबाब आहिस्ता आहिस्ता
*हया=शर्म; यक-लख़्त=अचानक

शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता
*शब-ए-फ़ुर्क़त=विरह की रात

सवाल-ए-वस्ल पर उन को अदू का ख़ौफ़ है इतना
दबे होंटों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता
*सवाल-ए-वस्ल=मिलन का प्रश्न

वो बेदर्दी से सर काटें 'अमीर' और मैं कहूँ उन से
हुज़ूर आहिस्ता आहिस्ता जनाब आहिस्ता आहिस्ता

~ अमीर मीनाई

Dec 23, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Monday, December 21, 2020

तिरी तिरछी नज़र का तीर है

तिरी तिरछी नज़र का तीर है मुश्किल से निकलेगा
दिल उस के साथ निकलेगा अगर ये दिल से निकलेगा

शब-ए-ग़म में भी मेरी सख़्त-जानी को न मौत आई
तिरा काम ऐ अजल अब ख़ंजर-ए-क़ातिल से निकलेगा
*सख़्त-जानी=कर्मठ जान

निगाह-ए-शौक़ मेरा मुद्दआ तू उन को समझा दे
मिरे मुँह से तो हर्फ़-ए-आरज़ू मुश्किल से निकलेगा
*निगाह-ए-शौक़=देखने की तमन्ना;

कहाँ तक कुछ न कहिए अब तो नौबत जान तक पहुँची
तकल्लुफ़-बर-तरफ़ ऐ ज़ब्त नाला दिल से निकलेगा
*तकल्लुफ़-बर-तरफ़=औपचारिकता, एक तरफ; ज़ब्त=संयम; नाला=पुकार;

तसव्वुर क्या तिरा आया क़यामत आ गई दिल में
कि अब हर वलवला बाहर मज़ार-ए-दिल से निकलेगा
*तसव्वुर=कल्पना; वलवला=आवेश

न आएँगे वो तब भी दिल निकल ही जाएगा 'फ़ानी'
मगर मुश्किल से निकलेगा बड़ी मुश्किल से निकलेगा

~ फ़ानी बदायुनी

Dec 20, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Friday, December 18, 2020

आँसू मिरी आँखों से टपक जाए


आँसू मिरी आँखों से टपक जाए तो क्या हो
तूफ़ाँ कोई फिर आ के धमक जाए तो क्या हो

बस इस लिए रहबर पे नहीं मुझ को भरोसा
बुद्धू है वो ख़ुद राह भटक जाए तो क्या हो
*रहबर-राह दिखाने वाला

अच्छी ये तसव्वुर की नहीं दस्त-दराज़ी
अंगिया कहीं इस बुत की मसक जाए तो क्या हो
*तसव्वुर=ख़याल; दस्त-दराज़ी=हाथ बढ़ाना

वाइज़ ये गुलिस्ताँ ये बहारें ये घटाएँ
साग़र कोई ऐसे में खनक जाए तो क्या हो
*वाइज़=उपदेश देने वाला

ये चाह-कनी मेरे लिए बानी-ए-बेदाद
तू ख़ुद इसी कोइयाँ में लुढ़क जाए तो क्या हो
*चाह-कनी=कुँआ खोदना; बानी-ए-बेदाद=ज़ुल्म शुरू करने वाला

ग़ुर्बत से मिरी सुब्ह ओ मसा खेलने वाले
तेरा भी दिवाला जो खिसक जाए तो क्या हो
*ग़ुर्बत= गरीबी; मसा=शाम

ये बार-ए-अमानत तू उठाता तो है लेकिन
नाज़ुक है कमर तेरी लचक जाए तो क्या हो
*बार-ए-अमानत=धरोहर की ज़िम्मेदारी

रुक रुक के ज़रा हाथ बढ़ा ख़्वान-ए-करम पर
लुक़्मा कोई जल्दी में अटक जाए तो क्या हो
*ख़्वान-ए-करम=ईनाम; लुक़्मा=निवाला

मैं क़ैद हूँ पर आह-ए-रसा क़ैद नहीं है
वो जेल की दीवार तड़क जाए तो क्या हो
*आह-ए-रसा=गंतव्य पर पहुँचने का भाव

ऐ साक़ी-ए-गुलफ़ाम ज़रा सोच ले ये भी
कुल्हड़ तिरी हस्ती का छलक जाए तो क्या हो
*साक़ी-ए-गुलफ़ाम=फूलों के रंग की मदिरा प्रदान करने वाली

जल्लाद से ऐ 'शौक़' मैं ये पूछ रहा हूँ
तू भी यूँ ही फाँसी पे लटक जाए तो क्या हो

~ शौक़ बहराइची

Dec 18, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

 

Thursday, December 17, 2020

आते ही तू ने घर के फिर

आते ही तू ने घर के फिर जाने की सुनाई
रह जाऊँ सुन न क्यूँकर ये तो बुरी सुनाई

मजनूँ ओ कोहकन के सुनते थे यार क़िस्से
जब तक कहानी हम ने अपनी न थी सुनाई
*कोहकन=फ़रहाद का दूसरा नाम

शिकवा किया जो हम ने गाली का आज उस से
शिकवे के साथ उस ने इक और भी सुनाई

कुछ कह रहा है नासेह क्या जाने क्या कहेगा
देता नहीं मुझे तो ऐ बे-ख़ुदी सुनाई
*नासेह=नसीहत देने वाला

कहने न पाए उस से सारी हक़ीक़त इक दिन
आधी कभी सुनाई आधी कभी सुनाई

सूरत दिखाए अपनी देखें वो किस तरह से
आवाज़ भी न हम को जिस ने कभी सुनाई

क़ीमत में जिंस-ए-दिल की माँगा जो 'ज़ौक़' बोसा
क्या क्या न उस ने हम को खोटी-खरी सुनाई
*जिंस-ए-दिल=दिल जैसी चीज़

~ शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

Dec 17, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Wednesday, December 16, 2020

कैसा सुनसान है दश्त-ए-आवारगी


कैसा सुनसान है दश्त-ए-आवारगी
हर तरफ़ धूप है हर तरफ़ तिश्नगी
कैसी बे-जान है मय-कदे की फ़ज़ा
जिस्म की सनसनी रूह की ख़स्तगी
इस दो-राहे पे खोए गए हौसले
इस अंधेरे में गुम हो गई ज़िंदगी
*तिश्नगी=प्यास;  ख़स्तगी=शिथिलता

ऐ ग़म-ए-आरज़ू मैं बहुत थक गया
मुझ को दे दे वही मेरी अपनी गली
छोटा-मोटा मगर ख़ूब-सूरत सा घर
घर के आँगन में ख़ुश्बू सी फैली हुई
मुँह धुलाती सवेरे की पहली किरन
साएबाँ पर अमर-बेल महकी हुई
खिड़कियों पर हवाओं की अटखेलियाँ
रौज़न-ए-दर से छनती हुई रौशनी
शाम को हल्का हल्का उठता धुआँ
पास चूल्हे के बैठी हुई लक्छमी
*साएबाँ=छज्जा; रौज़न-ए-दर=दरवाज़े की दरार

इक अँगीठी में कोयले दहकते हुए
बर्तनों की सुहानी मधुर रागनी
रस-भरे गीत मासूम से क़हक़हे
रात को छत पे छिटकी हुई चाँदनी
सुब्ह को अपने स्कूल जाते हुए
मेरे नन्हे के चेहरे पे इक ताज़गी
रिश्ते-नाते मुलाक़ातें मेहमानियाँ
दावतें जश्न त्यौहार शादी ग़मी

जी में है अपनी आज़ादियाँ बेच कर
आज ले लूँ ये पाबंदियों की ख़ुशी

~ ख़लील-उर-रहमान आज़मी 

Dec 16, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Friday, December 11, 2020

ख़ल्क़ कहती है जिसे दिल

 

ख़ल्क़ कहती है जिसे दिल तिरे दीवाने का
एक गोशा है ये दुनिया इसी वीराने का
*ख़ल्क़=लोग; गोशा=कोना

इक मुअ'म्मा है समझने का न समझाने का
ज़िंदगी काहे को है ख़्वाब है दीवाने का
*मुअ'म्मा=पहेली

हुस्न है ज़ात मिरी इश्क़ सिफ़त है मेरी
हूँ तो मैं शम्अ मगर भेस है परवाने का
*ज़ात=अस्तित्व; सिफ़त=ख़ूबी

का'बे को दिल की ज़ियारत के लिए जाता हूँ
आस्ताना है हरम मेरे सनम-ख़ाने का
*ज़ियारत=तीर्थ यात्रा; आस्ताना=दहलीज़; सनम-ख़ाना=मंदिर

ज़िंदगी भी तो पशेमाँ है यहाँ ला के मुझे
ढूँडती है कोई हीला मिरे मर जाने का
*पशेमाँ=शर्मिंदा; हीला=तरक़ीब

तुम ने देखा है कभी घर को बदलते हुए रंग
आओ देखो न तमाशा मिरे ग़म-ख़ाने का

हम ने छानी हैं बहुत दैर ओ हरम की गलियाँ
कहीं पाया न ठिकाना तिरे दीवाने का
*दैर - ओ हरम=मंदिर मस्जिद

किस की आँखें दम-ए-आख़िर मुझे याद आई हैं
दिल मुरक़्क़ा' है छलकते हुए पैमाने का
*मुरक़्क़ा=अल्बम

कहते हैं क्या ही मज़े का है फ़साना 'फ़ानी'
आप की जान से दूर आप के मर जाने का

हर नफ़स उम्र-ए-गुज़िश्ता की है मय्यत 'फ़ानी'
ज़िंदगी नाम है मर मर के जिए जाने का
*नफ़स=आत्मा; उम्र-ए-गुज़िश्ता=गुज़रे जीवन की; मय्यत=शवयात्रा

~ फ़ानी बदायूनी

Dec 11, 2020| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Monday, December 7, 2020

धीरे धीरे गिर रही थीं

 

धीरे धीरे गिर रही थीं नख़्ल-ए-शब से चाँदनी की पत्तियाँ
बहते बहते अब्र का टुकड़ा कहीं से आ गया था दरमियाँ
मिलते मिलते रह गई थीं मख़मलीं सब्ज़े पे दो परछाइयाँ
जिस तरह सपने के झूले से कोई अंधे कुएँ में जा गिरे 


*नख़्ल-ए-शब=रात के पेड़; अब्र=बादल; सब्ज़े=हरियाली

ना-गहाँ कजला गए थे शर्मगीं आँखों के नूरानी दिए
जिस तरह शोर-ए-जरस से कोई वामाँदा मुसाफ़िर चौंक उठे
यक-ब-यक घबरा के वो निकली थी मेरे बाज़ुओं की क़ैद से
अब सुलगते रह गए थे, छिन गया था जाम भी
और मेरी बेबसी पर हँस पड़ी थी चाँदनी 


*ना-गहाँ=अचानक; कजला=कुम्हला; शोर-ए-जरस=घंटी की आवाज़; वामाँदा=थका हुआ

आज तक एहसास की चिलमन से उलझा है ये मुबहम सा सवाल
उस ने आख़िर क्यूँ बुना था बहकी नज़रों से हसीं चाहत का जाल
 *चिलमन=परदा; मुबहम=धुँधला


~ शकेब जलाली

Dec 08, 2020| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Sunday, December 6, 2020

दिन अम्न-ओ-आश्ती का

 

दिन अम्न-ओ-आश्ती का मनाएँगे अगले साल
रूठे दिलों को फिर से मिलाएँगे अगले साल
*अम्न-ओ-आश्ती=शांति और मैत्री

बारूद पर जो पैसे हुए ख़र्च इस बरस
इफ़्लास-ओ-भूक इन से मिटाएँगे अगले साल

हर शख़्स जिस को देख के समझे है मेरा घर
कुछ इस तरह से घर को सजाएँगे अगले साल

जो हो गया सो हो गया आओ करें ये अहद
अपने तमाम वा'दे निभाएँगे अगले साल

तुम उस से गर मिलोगे तो हम तुम से क्यों मिलें
ऐसे तमाम झगड़े मिटाएँगे अगले साल

ख़ाकी कफ़न पहन के जो सरहद पे जा बसे
है ये दुआ वो लौट के आएँगे अगले साल

इक बार और देख लें जी भर के उस तरफ़
हम अपनी ख़्वाहिशों को सुलाएँगे अगले साल

चंद और ज़ावियों से पढ़ेंगे अभी उन्हें
ख़त तेरे यार सारे जलाएँगे अगले साल

इस साल तो हैं ज़ख़्म हरे यादों के 'अदील'
कोशिश ये है कि तुझ को भुलाएँगे अगले साल


~ अदील ज़ैदी

Dec 07, 2020| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 


Friday, December 4, 2020

अजब समाँ है


अजब समाँ है
मैं बंद आँखों से तक रही हूँ
ख़ुमार-ए-शब में गुलाब-रुत की रफ़ाक़तों से महक रही हूँ
वो नर्म ख़ुशबू की तरह दिल में उतर रहा है
में क़ुर्ब-ए-जाँ की लताफ़तों से बहक रही हूँ
ये चाहतों की हसीन बारिश का मो'जिज़ा है
कि मेरी पोरें सुलग रही हैं
मैं क़तरा क़तरा पिघल रही हूँ
मैं रंग-ओ-ख़ुशबू का लम्स पा कर
वफ़ा के पैकर में ढल रही हूँ

न मैं ज़मीं पर
न आसमाँ में
वो ऐसा जादू जगा रहा है
गुलाबी बारिश सुनहरे सपनों के सारे मतलब वो धीरे धीरे सुझा रहा है
मुझे वो मुझ से चुरा रहा है

*ख़ुमार-ए-शब=रात का नशा; रफ़ाक़त=साथ; क़ुर्ब-ए-जाँ=जीवन का सामीप्य; लताफ़त=आनंद; मो’जिज़ा=चमत्कार; लम्स=स्पर्श; पैकर=आकार (शरीर)

~ नाज़ बट

Dec 04, 2020| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh