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Tuesday, December 29, 2020

कब कहा मैं ने कि तुम चाहने वालों में रहो


कब कहा मैं ने कि तुम चाहने वालों में रहो
तुम ग़ज़ल हो तो ग़ज़ल बन के ख़यालों में रहो

हुस्न ऐसा है तुम्हारा कि नहीं जिस का जवाब
इस लिए जान-ए-वफ़ा तुम तो सवालों में रहो

छुप गया चाँद अँधेरा है भरी महफ़िल में
तुम मिरे दिल में उतर जाओ उजालों में रहो

अपनी ख़ुश्बू को फ़ज़ाओं में बिखर जाने दो
फूल बन जाओ महकते हुए बालों में रहो

आने जाने की कहीं तुम को ज़रूरत क्या है
शहर-ए-ख़ूबाँ में रहो मस्त ग़ज़ालों में रहो

उम्र-भर के लिए हो जाओ किसी के 'अख़्तर'
इश्क़ ऐसा करो दुनिया की मिसालों में रहो

~ अख़्तर आज़ाद

Dec 29, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 25, 2020

इस ज़मीं पर प्यार का इक घर


मस्जिद-ओ-मंदिर का यूँ झगड़ा मिटाना चाहिए
इस ज़मीं पर प्यार का इक घर बनाना चाहिए

मज़हबों में क्या लिखा है ये बताना चाहिए
उस को गीता और उसे क़ुरआँ पढ़ाना चाहिए

वो दीवाली हो के बैसाखी हो क्रिसमस हो के ईद
मुल्क की हर क़ौम को मिल कर मनाना चाहिए

दोस्तो इस से बड़ी कोई इबादत ही नहीं
आदमी को आदमी के काम आना चाहिए

कौन से मज़हब में लिक्खा है कि नफ़रत धर्म है
मिल के इस दुनिया से नफ़रत को मिटाना चाहिए

चाहते है जो कई टुकड़ों में इस को बाँटना
ऐसे ग़द्दारों से भारत को बचाना चाहिए

~ अख़्तर आज़ाद

Dec 25, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Thursday, December 24, 2020

उनसे प्रीत करूँ, पछताऊँ


उनसे प्रीत करूँ, पछताऊँ!

सोन महल लोहे का पहरा,
चारों ओर समुन्दर गहरा,
पन्थ हेरते धीरज हारूँ
उन तक पहुँच न पाऊँ।
प्रीत करूँ, पछताऊँ!

इन्द्र धनुष सपने सतरंगी
छलिया पाहुन छिन के संगी,
नेह लगे की पीर पुतरियन
जागूँ, चैन गवाऊँ।
प्रीत करूँ, पछताऊँ!

दिपे चनरमा नभ दर्पन में
छाया तैरे पारद मन में,
पास न मानूँ, दूर न जानूँ
कैसे अंक जुड़ाऊँ?
प्रीत करूँ, पछताऊँ!
उनसे प्रीत करूँ, पछताऊँ!
 

~ रवीन्द्र भ्रमर

Dec 24, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, December 23, 2020

सरकती जाए है रुख़ से


सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता

जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
हया यक-लख़्त आई और शबाब आहिस्ता आहिस्ता
*हया=शर्म; यक-लख़्त=अचानक

शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता
*शब-ए-फ़ुर्क़त=विरह की रात

सवाल-ए-वस्ल पर उन को अदू का ख़ौफ़ है इतना
दबे होंटों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता
*सवाल-ए-वस्ल=मिलन का प्रश्न

वो बेदर्दी से सर काटें 'अमीर' और मैं कहूँ उन से
हुज़ूर आहिस्ता आहिस्ता जनाब आहिस्ता आहिस्ता

~ अमीर मीनाई

Dec 23, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Monday, December 21, 2020

तिरी तिरछी नज़र का तीर है

तिरी तिरछी नज़र का तीर है मुश्किल से निकलेगा
दिल उस के साथ निकलेगा अगर ये दिल से निकलेगा

शब-ए-ग़म में भी मेरी सख़्त-जानी को न मौत आई
तिरा काम ऐ अजल अब ख़ंजर-ए-क़ातिल से निकलेगा
*सख़्त-जानी=कर्मठ जान

निगाह-ए-शौक़ मेरा मुद्दआ तू उन को समझा दे
मिरे मुँह से तो हर्फ़-ए-आरज़ू मुश्किल से निकलेगा
*निगाह-ए-शौक़=देखने की तमन्ना;

कहाँ तक कुछ न कहिए अब तो नौबत जान तक पहुँची
तकल्लुफ़-बर-तरफ़ ऐ ज़ब्त नाला दिल से निकलेगा
*तकल्लुफ़-बर-तरफ़=औपचारिकता, एक तरफ; ज़ब्त=संयम; नाला=पुकार;

तसव्वुर क्या तिरा आया क़यामत आ गई दिल में
कि अब हर वलवला बाहर मज़ार-ए-दिल से निकलेगा
*तसव्वुर=कल्पना; वलवला=आवेश

न आएँगे वो तब भी दिल निकल ही जाएगा 'फ़ानी'
मगर मुश्किल से निकलेगा बड़ी मुश्किल से निकलेगा

~ फ़ानी बदायुनी

Dec 20, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 18, 2020

आँसू मिरी आँखों से टपक जाए


आँसू मिरी आँखों से टपक जाए तो क्या हो
तूफ़ाँ कोई फिर आ के धमक जाए तो क्या हो

बस इस लिए रहबर पे नहीं मुझ को भरोसा
बुद्धू है वो ख़ुद राह भटक जाए तो क्या हो
*रहबर-राह दिखाने वाला

अच्छी ये तसव्वुर की नहीं दस्त-दराज़ी
अंगिया कहीं इस बुत की मसक जाए तो क्या हो
*तसव्वुर=ख़याल; दस्त-दराज़ी=हाथ बढ़ाना

वाइज़ ये गुलिस्ताँ ये बहारें ये घटाएँ
साग़र कोई ऐसे में खनक जाए तो क्या हो
*वाइज़=उपदेश देने वाला

ये चाह-कनी मेरे लिए बानी-ए-बेदाद
तू ख़ुद इसी कोइयाँ में लुढ़क जाए तो क्या हो
*चाह-कनी=कुँआ खोदना; बानी-ए-बेदाद=ज़ुल्म शुरू करने वाला

ग़ुर्बत से मिरी सुब्ह ओ मसा खेलने वाले
तेरा भी दिवाला जो खिसक जाए तो क्या हो
*ग़ुर्बत= गरीबी; मसा=शाम

ये बार-ए-अमानत तू उठाता तो है लेकिन
नाज़ुक है कमर तेरी लचक जाए तो क्या हो
*बार-ए-अमानत=धरोहर की ज़िम्मेदारी

रुक रुक के ज़रा हाथ बढ़ा ख़्वान-ए-करम पर
लुक़्मा कोई जल्दी में अटक जाए तो क्या हो
*ख़्वान-ए-करम=ईनाम; लुक़्मा=निवाला

मैं क़ैद हूँ पर आह-ए-रसा क़ैद नहीं है
वो जेल की दीवार तड़क जाए तो क्या हो
*आह-ए-रसा=गंतव्य पर पहुँचने का भाव

ऐ साक़ी-ए-गुलफ़ाम ज़रा सोच ले ये भी
कुल्हड़ तिरी हस्ती का छलक जाए तो क्या हो
*साक़ी-ए-गुलफ़ाम=फूलों के रंग की मदिरा प्रदान करने वाली

जल्लाद से ऐ 'शौक़' मैं ये पूछ रहा हूँ
तू भी यूँ ही फाँसी पे लटक जाए तो क्या हो

~ शौक़ बहराइची

Dec 18, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Thursday, December 17, 2020

आते ही तू ने घर के फिर

आते ही तू ने घर के फिर जाने की सुनाई
रह जाऊँ सुन न क्यूँकर ये तो बुरी सुनाई

मजनूँ ओ कोहकन के सुनते थे यार क़िस्से
जब तक कहानी हम ने अपनी न थी सुनाई
*कोहकन=फ़रहाद का दूसरा नाम

शिकवा किया जो हम ने गाली का आज उस से
शिकवे के साथ उस ने इक और भी सुनाई

कुछ कह रहा है नासेह क्या जाने क्या कहेगा
देता नहीं मुझे तो ऐ बे-ख़ुदी सुनाई
*नासेह=नसीहत देने वाला

कहने न पाए उस से सारी हक़ीक़त इक दिन
आधी कभी सुनाई आधी कभी सुनाई

सूरत दिखाए अपनी देखें वो किस तरह से
आवाज़ भी न हम को जिस ने कभी सुनाई

क़ीमत में जिंस-ए-दिल की माँगा जो 'ज़ौक़' बोसा
क्या क्या न उस ने हम को खोटी-खरी सुनाई
*जिंस-ए-दिल=दिल जैसी चीज़

~ शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

Dec 17, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, December 16, 2020

कैसा सुनसान है दश्त-ए-आवारगी


कैसा सुनसान है दश्त-ए-आवारगी
हर तरफ़ धूप है हर तरफ़ तिश्नगी
कैसी बे-जान है मय-कदे की फ़ज़ा
जिस्म की सनसनी रूह की ख़स्तगी
इस दो-राहे पे खोए गए हौसले
इस अंधेरे में गुम हो गई ज़िंदगी
*तिश्नगी=प्यास;  ख़स्तगी=शिथिलता

ऐ ग़म-ए-आरज़ू मैं बहुत थक गया
मुझ को दे दे वही मेरी अपनी गली
छोटा-मोटा मगर ख़ूब-सूरत सा घर
घर के आँगन में ख़ुश्बू सी फैली हुई
मुँह धुलाती सवेरे की पहली किरन
साएबाँ पर अमर-बेल महकी हुई
खिड़कियों पर हवाओं की अटखेलियाँ
रौज़न-ए-दर से छनती हुई रौशनी
शाम को हल्का हल्का उठता धुआँ
पास चूल्हे के बैठी हुई लक्छमी
*साएबाँ=छज्जा; रौज़न-ए-दर=दरवाज़े की दरार

इक अँगीठी में कोयले दहकते हुए
बर्तनों की सुहानी मधुर रागनी
रस-भरे गीत मासूम से क़हक़हे
रात को छत पे छिटकी हुई चाँदनी
सुब्ह को अपने स्कूल जाते हुए
मेरे नन्हे के चेहरे पे इक ताज़गी
रिश्ते-नाते मुलाक़ातें मेहमानियाँ
दावतें जश्न त्यौहार शादी ग़मी

जी में है अपनी आज़ादियाँ बेच कर
आज ले लूँ ये पाबंदियों की ख़ुशी

~ ख़लील-उर-रहमान आज़मी 

Dec 16, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 11, 2020

ख़ल्क़ कहती है जिसे दिल

 

ख़ल्क़ कहती है जिसे दिल तिरे दीवाने का
एक गोशा है ये दुनिया इसी वीराने का
*ख़ल्क़=लोग; गोशा=कोना

इक मुअ'म्मा है समझने का न समझाने का
ज़िंदगी काहे को है ख़्वाब है दीवाने का
*मुअ'म्मा=पहेली

हुस्न है ज़ात मिरी इश्क़ सिफ़त है मेरी
हूँ तो मैं शम्अ मगर भेस है परवाने का
*ज़ात=अस्तित्व; सिफ़त=ख़ूबी

का'बे को दिल की ज़ियारत के लिए जाता हूँ
आस्ताना है हरम मेरे सनम-ख़ाने का
*ज़ियारत=तीर्थ यात्रा; आस्ताना=दहलीज़; सनम-ख़ाना=मंदिर

ज़िंदगी भी तो पशेमाँ है यहाँ ला के मुझे
ढूँडती है कोई हीला मिरे मर जाने का
*पशेमाँ=शर्मिंदा; हीला=तरक़ीब

तुम ने देखा है कभी घर को बदलते हुए रंग
आओ देखो न तमाशा मिरे ग़म-ख़ाने का

हम ने छानी हैं बहुत दैर ओ हरम की गलियाँ
कहीं पाया न ठिकाना तिरे दीवाने का
*दैर - ओ हरम=मंदिर मस्जिद

किस की आँखें दम-ए-आख़िर मुझे याद आई हैं
दिल मुरक़्क़ा' है छलकते हुए पैमाने का
*मुरक़्क़ा=अल्बम

कहते हैं क्या ही मज़े का है फ़साना 'फ़ानी'
आप की जान से दूर आप के मर जाने का

हर नफ़स उम्र-ए-गुज़िश्ता की है मय्यत 'फ़ानी'
ज़िंदगी नाम है मर मर के जिए जाने का
*नफ़स=आत्मा; उम्र-ए-गुज़िश्ता=गुज़रे जीवन की; मय्यत=शवयात्रा

~ फ़ानी बदायूनी

Dec 11, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Monday, December 7, 2020

धीरे धीरे गिर रही थीं

 

धीरे धीरे गिर रही थीं नख़्ल-ए-शब से चाँदनी की पत्तियाँ
बहते बहते अब्र का टुकड़ा कहीं से आ गया था दरमियाँ
मिलते मिलते रह गई थीं मख़मलीं सब्ज़े पे दो परछाइयाँ
जिस तरह सपने के झूले से कोई अंधे कुएँ में जा गिरे 


*नख़्ल-ए-शब=रात के पेड़; अब्र=बादल; सब्ज़े=हरियाली

ना-गहाँ कजला गए थे शर्मगीं आँखों के नूरानी दिए
जिस तरह शोर-ए-जरस से कोई वामाँदा मुसाफ़िर चौंक उठे
यक-ब-यक घबरा के वो निकली थी मेरे बाज़ुओं की क़ैद से
अब सुलगते रह गए थे, छिन गया था जाम भी
और मेरी बेबसी पर हँस पड़ी थी चाँदनी 


*ना-गहाँ=अचानक; कजला=कुम्हला; शोर-ए-जरस=घंटी की आवाज़; वामाँदा=थका हुआ

आज तक एहसास की चिलमन से उलझा है ये मुबहम सा सवाल
उस ने आख़िर क्यूँ बुना था बहकी नज़रों से हसीं चाहत का जाल
 *चिलमन=परदा; मुबहम=धुँधला


~ शकेब जलाली

Dec 08, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 6, 2020

दिन अम्न-ओ-आश्ती का

 

दिन अम्न-ओ-आश्ती का मनाएँगे अगले साल
रूठे दिलों को फिर से मिलाएँगे अगले साल
*अम्न-ओ-आश्ती=शांति और मैत्री

बारूद पर जो पैसे हुए ख़र्च इस बरस
इफ़्लास-ओ-भूक इन से मिटाएँगे अगले साल

हर शख़्स जिस को देख के समझे है मेरा घर
कुछ इस तरह से घर को सजाएँगे अगले साल

जो हो गया सो हो गया आओ करें ये अहद
अपने तमाम वा'दे निभाएँगे अगले साल

तुम उस से गर मिलोगे तो हम तुम से क्यों मिलें
ऐसे तमाम झगड़े मिटाएँगे अगले साल

ख़ाकी कफ़न पहन के जो सरहद पे जा बसे
है ये दुआ वो लौट के आएँगे अगले साल

इक बार और देख लें जी भर के उस तरफ़
हम अपनी ख़्वाहिशों को सुलाएँगे अगले साल

चंद और ज़ावियों से पढ़ेंगे अभी उन्हें
ख़त तेरे यार सारे जलाएँगे अगले साल

इस साल तो हैं ज़ख़्म हरे यादों के 'अदील'
कोशिश ये है कि तुझ को भुलाएँगे अगले साल


~ अदील ज़ैदी

Dec 07, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 4, 2020

अजब समाँ है


अजब समाँ है
मैं बंद आँखों से तक रही हूँ
ख़ुमार-ए-शब में गुलाब-रुत की रफ़ाक़तों से महक रही हूँ
वो नर्म ख़ुशबू की तरह दिल में उतर रहा है
में क़ुर्ब-ए-जाँ की लताफ़तों से बहक रही हूँ
ये चाहतों की हसीन बारिश का मो'जिज़ा है
कि मेरी पोरें सुलग रही हैं
मैं क़तरा क़तरा पिघल रही हूँ
मैं रंग-ओ-ख़ुशबू का लम्स पा कर
वफ़ा के पैकर में ढल रही हूँ

न मैं ज़मीं पर
न आसमाँ में
वो ऐसा जादू जगा रहा है
गुलाबी बारिश सुनहरे सपनों के सारे मतलब वो धीरे धीरे सुझा रहा है
मुझे वो मुझ से चुरा रहा है

*ख़ुमार-ए-शब=रात का नशा; रफ़ाक़त=साथ; क़ुर्ब-ए-जाँ=जीवन का सामीप्य; लताफ़त=आनंद; मो’जिज़ा=चमत्कार; लम्स=स्पर्श; पैकर=आकार (शरीर)

~ नाज़ बट

Dec 04, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, November 29, 2020

बे-ख़बर होते होए भी



बे-ख़बर होते होए भी बा-ख़बर लगते हो तुम
दूर रह कर भी मुझे नज़दीक-तर लगते हो तुम
*बा-ख़बर=सचेत

क्यूँ न आऊँ सज सँवर कर मैं तुम्हारे सामने
ख़ुश-अदा लगते हो मुझ को ख़ुश-नज़र लगते हो तुम

तुम ने लम्स-ए-मो'तबर से बख़्श दी वो रौशनी
मुझ को मेरी आरज़ूओं की सहर लगते हो तुम
*लम्स-ए-मो'तर=भरोसेमंद स्पर्श

जिस के साए में अमाँ मिलती है मेरी ज़ीस्त को
मुझ को जलती धूप में ऐसा शजर लगते हो तुम
*अमाँ=सुरक्षा; ज़ीस्त=जीवन; शजर=पेड़

क्यूँ तुम्हारे साथ चलने पर न आमादा हो दिल
ख़ुश्बू-ए-एहसास मेरे हम-सफ़र लगते हो तुम

'नाज़' तुम पर नाज़ करती है मोहब्बत की क़सम
ज़िंदगी भर की दुआओं का असर लगते हो तुम

~ नाज़ बट

Nov 30, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 27, 2020

हमारे ख़्वाब सब ताबीर से


हमारे ख़्वाब सब ताबीर से बाहर निकल आए
वो अपने-आप कल तस्वीर से बाहर निकल आए

ये अहल-ए-होश तो घर से कभी बाहर नहीं निकले
मगर दीवाने हर ज़ंजीर से बाहर निकल आए
*अहल-ए-होश=होश में रहने वाले

कोई आवाज़ दे कर देख ले मुड़ कर न देखेंगे
मोहब्बत तेरे इक इक तीर से बाहर निकल आए

दर-ओ-दीवार भी घर के बहुत मायूस थे हम से
सो हम भी रात इस जागीर से बाहर निकल आए

बड़ी मुश्किल ज़मीनों में गुलाबी रंग भरना था
बहुत जल्दी बयाज़-ए-मीर से बाहर निकल आए
*बयाज़-ए-मीर=मीर की (हस्त लिखित) पुस्तक

~ हसीब सोज़

Nov 27, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, November 26, 2020

शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल की दवा

  

शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल की दवा मैं क्या करता
तिरे अलावा कोई दूसरा मैं क्या करता
*शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल=शीशे जैसा टूटा हुआ दिल

मैं ग़ोता-ज़न था तिरी याद के समुंदर में
लिबास उठा के कोई ले गया मैं क्या करता
*ग़ोता-ज़न=गोता अलगाने वाला

किसी के जाम की झूटी शराब क्यूँ पीता
तुम्हारे हुस्न की क़ातिल अदा मैं क्या करता

मैं जब चला मिरी मंज़िल भी चल पड़ी आगे
हमारा कम न हुआ फ़ासला मैं क्या करता

हर एक चीज़ अगर तेरे इख़्तियार में है
तो मैं ने होने दिया जो हुआ मैं क्या करता

हयात-ए-नौ के जज़ीरे पे रोकनी पड़ी नाव
मुख़ालिफ़त पे तुली थी हवा मैं क्या करता
*हयात-ए-नौ=नई ज़िंदगी; जज़ीरे=द्वीप; मुख़ालिफ़त=विरोध

मिरी सरिश्त में इंकार रख दिया तू ने
तो हुक्म मानता कैसे भला मैं क्या करता
*सरिश्त=स्वभाव

ये दिल तो एक ज़माने से इंतिज़ार में था
तू आ के बैठता फिर देखता मैं क्या करता

मिरा तो जो भी था सब कुछ तिरा दिया हुआ था
मिरे करीम तिरा शुक्रिया मैं क्या करता
*करीम=ईश्वर, कृपालु

~ हसन शाहनवाज़ ज़ैदी

Nov 26, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, November 24, 2020

वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात

 

वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम
क्या लुत्फ़ में गुज़रा है ग़रज़ रात का आलम

जाता हूँ जो मज्लिस में शब उस रश्क-ए-परी की
आता है नज़र मुझ को तिलिस्मात का आलम
*रश्क-ए-परी=परी से भी सुंदर

बरसों नहीं करता तू कभू बात किसू से
मुश्ताक़ ही रहता है तिरी बात का आलम
*मुश्ताक़=इच्छुक

कर मजलिस-ए-ख़ूबाँ में ज़रा सैर कि बाहम
होता है अजब उन के इशारात का आलम
*मजलिस-ए-ख़ूबाँ=सुंदर लोगों की बैठक;  बाहम=परस्पर

दिल उस का न लोटे कभी फूलों की सफ़ा पर
शबनम को दिखा दूँ जो तिरे गात का आलम
*सफ़ा=पवित्रता; गात=दाँव

हम लोग सिफ़ात उस की बयाँ करते हैं वर्ना
है वहम ओ ख़िरद से भी परे ज़ात का आलम
*सिफ़ात=तारीफ़(एं); ख़िरद-बिउद्धि; ज़ात=व्यक्तित्व

वो काली घटा और वो बिजली का चमकना
वो मेंह की बौछाड़ें वो बरसात का आलम

देखा जो शब-ए-हिज्र तो रोया मैं कि उस वक़्त
याद आया शब-ए-वस्ल के औक़ात का आलम
*शब-ए-हिज्र=विछोह की रात; शब-ए-वस्ल=मिलन की रात

हम 'मुसहफ़ी' क़ाने हैं ब-ख़ुश्क-ओ-तर-ए-गीती
है अपने तो नज़दीक मुसावात का आलम
*ब-ख़ुश्क-ओ-तर-ए-गीती=शुष्क और तर जीवन; मुसावात=बराबरी

~ मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

Nov 24, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 20, 2020

एक सितम और लाख अदाएँ

एक सितम और लाख अदाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
तिरछी निगाहें तंग क़बाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
*क़बाएँ=कपड़े

हिज्र में अपना और है आलम अब्र-ए-बहाराँ दीदा-ए-पुर-नम
ज़िद कि हमें वो आप बुलाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
*हिज्र=विछोह; आलम=हाल; अब्र-ए-बहाराँ=बरसात के बादल; दीदा-ए-पुर-नम=भीगी आँखें

अपनी अदा से आप झिजकना अपनी हवा से आप खटकना
चाल में लग़्ज़िश मुँह पे हयाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
*लग़्ज़िश=अपराध

हाथ में आड़ी तेग़ पकड़ना ताकि लगे भी ज़ख़्म तो ओछा
क़स्द कि फिर जी भर के सताएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
तेग़=तलवार; क़स्द=इरादा

काली घटाएँ बाग़ में झूले धानी दुपट्टे लट झटकाए
मुझ पे ये क़दग़न आप न आएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
क़दग़न=रोक, प्रतिबंध

पिछले पहर उठ उठ के नमाज़ें नाक रगड़नी सज्दों पे सज्दे
जो नहीं जाएज़ उस की दुआएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने

'शाद' न वो दीदार-परस्ती और न वो बे-नश्शा की मस्ती
तुझ को कहाँ से ढूँढ के लाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
*दीदार-परस्ती=दर्शनाभिलाषी; बे-नश्शा=बिना नशा किये

~ शाद अज़ीमाबादी

Nov 20, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, November 8, 2020

अपनी फ़ितरत की बुलंदी पे मुझे नाज़ है कब

 


अपनी फ़ितरत की बुलंदी पे मुझे नाज़ है कब

हाँ तिरी पस्त निगाही से गिला है मुझ को
तू गिरा देगी मुझे अपनी नज़र से वर्ना
तेरे क़दमों पे तो सज्दा भी रवा है मुझ को
*सज़्दा=सर झुकाना; रवा=मंज़ूर
 
तू ने हर आन बदलती हुई इस दुनिया में
मेरी पाइंदगी ए ग़म को तो देखा होता
कलियाँ बे ज़ार हैं शबनम के तलव्वुन से मगर
तू ने इस दीदा ए पुर नम को तो देखा होता
*पाइंदगी ए ग़म=हमेशा रहने वाला दुख; बेज़ार=उकताया; तलव्वुन=रंग बदलना; दीदा ए पुर नम=नम आँखें
 
हाए जलती हुई हसरत ये तिरी आँखों में
कहीं मिल जाए मोहब्बत का सहारा तुझ को
अपनी पस्ती का भी एहसास फिर इतना एहसास
कि नहीं मेरी मोहब्बत भी गवारा तुझ को

और ये ज़र्द से रुख़्सार ये अश्कों की क़तार
मुझ से बे ज़ार मिरी अर्ज़ ए वफ़ा से बे ज़ार
*ज़र्द=पीले; अर्ज़ ए वफ़ा =

~ मुईन अहसन जज़्बी

Nov 08, 2020| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

 

सो रहा था तो शोर बरपा था

 

सो रहा था तो शोर बरपा था
उठ के देखा तो मैं अकेला था

ख़ाक पर मेरे ख़्वाब बिखरे थे
और मैं रेज़ा रेज़ा चुनता था

चार जानिब वजूद की दीवार
अपनी आवाज़ मैं ही सुनता था

उम्र भर बूँद बूँद को तरसे
सामने घर के एक दरिया था

लब-ए-दरिया खड़े रहे दोनों
वो भी प्यासा था मैं भी प्यासा था

~ रज़ी तिर्मिज़ी

Nov 09, 2020| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Sunday, November 1, 2020

तिरी मदद का यहाँ तक हिसाब

 

तिरी मदद का यहाँ तक हिसाब देना पड़ा
चराग़ ले के मुझे आफ़्ताब देना पड़ा

हर एक हाथ में दो दो सिफ़ारशी ख़त थे
हर एक शख़्स को कोई ख़िताब देना पड़ा

तअ'ल्लुक़ात में कुछ तो दरार पड़नी थी
कई सवाल थे जिन का जवाब देना पड़ा

अब इस सज़ा से बड़ी और क्या सज़ा होगी
नए सिरे से पुराना हिसाब देना पड़ा

इस इंतिज़ाम से क्या कोई मुतमइन होता
किसी का हिस्सा किसी को जनाब देना पड़ा

~ हसीब सोज़

Nov 01, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, October 14, 2020

हर क़दम पर हम समझते थे

हर क़दम पर हम समझते थे कि मंज़िल आ गई
हर क़दम पर इक नई दरपेश मुश्किल आ गई
*दरपेश=उपस्थिति

या ख़ला पर हुक्मराँ या ख़ाक के अंदर निहाँ
ज़िंदगी डट कर अनासिर के मुक़ाबिल आ गई
*ख़ला=शून्य; हुक्मराँ=शाशक; निहाँ=छुपा; अनासिर=(पंच) तत्व

बढ़ रहा है दम-ब-दम सुब्ह-ए-हक़ीक़त का यक़ीं
हर नफ़स पर ये गुमाँ होता है मंज़िल आ गई

टूटते जाते हैं रिश्ते जोड़ता जाता हूँ मैं
एक मुश्किल कम हुई और एक मुश्किल आ गई

हाल-ए-दिल है कोई ख़्वाब-आवर फ़साना तो नहीं
नींद अभी से तुम को ऐ यारान-ए-महफ़िल आ गई
*ख़्वाब-आवर=सपनों वाली नींद

‍~ हफ़ीज़ होशियारपुरी 

Oct 14, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 11, 2020

रात के सुरमई अँधेरों में - तुम्हारी याद

 

रात के सुरमई अँधेरों में
साँस लेते हुए सवेरों में
आबजू के हसीं किनारों पर
ख़्वाब-आलूद रहगुज़ारों पर
*आबज़ू=नदी; ख़्वाब-आलूद=सपनों से मिश्रित

गुल्सितानों की सैर गाहों में
ज़िंदगी की हसीन राहों में
मय-ए-रंगीं का जाम उठाते वक़्त
रंज-ओ-ग़म की हँसी उड़ाते वक़्त

शादमानी में ग़म के तूफ़ाँ में
रौनक़-ए-शहर में बयाबाँ में
रक़्स करती हुई बहारों में
ख़ून-आशाम ख़ार-ज़ारों में
*शादमानी=ख़ुशी; रक़्स=नृत्य; ख़ून-आशाम=ख़ून से प्यासे; ख़ार-ज़ारों=कंटकी जगह

दोपहर हो कि नूर का तड़का
फ़स्ल-ए-गुल हो कि दौर पतझड़ का
सुब्ह के वक़्त शाम के हंगाम
बे-क़ुयूद-ए-मक़ाम बे-हंगाम
*हंगाम=जगहें; क़यूद=क़ैद (बहु-वचन)

दामन-ए-दिल को थाम लेती है
कितनी गुस्ताख़ है तुम्हारी याद

~ राजेन्द्र नाथ रहबर

Oct 11, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, October 9, 2020

सलामत रहें दिल में घर करने वाले

 

सलामत रहें दिल में घर करने वाले
इस उजड़े मकाँ में बसर करने वाले

गले पर छुरी क्यूँ नहीं फेर देते
असीरों को बे-बाल-ओ-पर करने वाले
*असीरों=क़ैदियों

अंधेरे उजाले कहीं तो मिलेंगे
वतन से हमें दर-ब-दर करने वाले

गरेबाँ में मुँह डाल कर ख़ुद तो देखें
बुराई पे मेरी नज़र करने वाले

इस आईना-ख़ाने में क्या सर उठाते
हक़ीक़त पर अपनी नज़र करने वाले
*आईना-ख़ाने=शीशे की घर

बहार-ए-दो-रोज़ा से दिल क्या बहलता
ख़बर कर चुके थे ख़बर करने वाले
*बहार-ए-दो-रोज़ा=दो दिनों की बहार

खड़े हैं दो-राहे पे दैर ओ हरम के
तिरी जुस्तुजू में सफ़र करने वाले
*दैर ओ हरम= मंदिर मस्जिद

सर-ए-शाम गुल हो गई शम-ए-बालीं
सलामत हैं अब तक सहर करने वाले
*शम-ए-बालीं=ऊँचाई पर जल रहा लैम्प

कुजा सेहन-ए-आलम कुजा कुंज-ए-मरक़द
बसर कर रहे हैं बसर करने वाले
*कुजा=झुकने वाले; सेहन-ए-आलम=दुनिया का आँगन; मरक़द=क़ब्र

'यगाना' वही फ़ातेह-ए-लखनऊ हैं
दिल-ए-संग-ओ-आहन में घर करने वाले
*फ़ातेह=जीतने वाला; दिल-ए-संग-ओ-आहन=पत्थर और लोहे के दिलों में

~ यगाना चंगेज़ी  

Oct 09, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, October 7, 2020

अँधेरा इतना नहीं है कि कुछ दिखाई न दे


अँधेरा इतना नहीं है कि कुछ दिखाई न दे
सुकूत ऐसा नहीं है जो कुछ सुनाई न दे
*सुकूत=सन्नाटा, खामोशी

जो सुनना चाहो तो बोल उट्ठेंगे अँधेरे भी
न सुनना चाहो तो दिल की सदा सुनाई न दे

जो देखना हो तो आईना-ख़ाना है ये सुकूत
हो आँख बंद तो इक नक़्श भी दिखाई न दे
*आईना-ख़ाना=शीशों से सुसज्जित घर की दीवारें

ये रूहें इस लिए चेहरों से ख़ुद को ढाँपे हैं
मिले ज़मीर तो इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई न दे
*ज़मीर=अंत:करण

कुछ ऐसे लोग भी तन्हा हुजूम में हैं छुपे
कि ज़िंदगी उन्हें पहचान कर दुहाई न दे

हूँ अपने-आप से भी अजनबी ज़माने के साथ
अब इतनी सख़्त सज़ा दिल की आश्नाई न दे

सभी के ज़ेहन हैं मक़रूज़ क्या क़दीम ओ जदीद
ख़ुद अपना नक़्द-ए-दिल-ओ-जां कहीं दिखाई न दे
*मक़रूज़=ऋणी; क़दीम=पुरातन; जदीद=नूतन; नक़्द-ए-दिल-ओ-जां

बहुत है फ़ुर्सत-ए-दीवानगी की हसरत भी
'वहीद' वक़्त गर इज़्न-ए-ग़ज़ल-सराई न दे
*इज़्न-ए-ग़ज़ल-सराई=ग़ज़ल पढ़ने का न्योता

~ वहीद अख़्तर

Oct 07, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, October 6, 2020

कल चमन था आज इक सहरा हुआ


कल चमन था आज इक सहरा हुआ
देखते ही देखते ये क्या हुआ

मुझ को बर्बादी का कोई ग़म नहीं
ग़म है बर्बादी का क्यूँ चर्चा हुआ

इक छोटा सा था मेरा आशियाँ
आज तिनके से अलग तिनका हुआ

सोचता हूँ अपने घर को देख कर
हो न हो ये है मेरा देखा हुआ

देखने वालों ने देखा है धुआँ
किस ने देखा दिल मिरा जलता हुआ

~ राजिंदर कृष्ण

 Oct 06, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 4, 2020

कुंज-ए-इज़्ज़त से उठो

 


कुंज-ए-इज़्ज़त से उठो सुब्ह-ए-बहाराँ देखो
दोस्तो नग़्मागरो रक़्स-ए-ग़ज़ालाँ देखो
*कुंज-ए-इज़्ज़त=अपने आप से बाहर; नग़्मागरो=गाने वाला; रक़्स-ए-ग़ज़ालाँ=हिरनों का नृत्य

मिट गया राह-गुज़ारों से हर इक नक़्श-ए-ख़िज़ाँ
वरक़-ए-गुल पे लिखे अब नए उनवाँ देखो
*राह-गुज़ारों=पथिक; नक़्श-ए-ख़िज़ाँ=पतझड़ के निशान

मुतरिबाँ बहर-ए-क़दम-बोसी-ए-शीरीं-सुख़नाँ
महफ़िल-ए-गुल में चलो जश्न-ए-बहाराँ देखो
*मुतरिबाँ=गाने, नाचने वाले; बहर-ए-क़दम-बोसी-ए-शीरीं-सुख़नाँ=मीठी ज़ुबान वाले के पैर चूमना


मुज़्दा फिर ख़ाक-ए-ख़िज़ाँ-रंग की क़िस्मत जागी
आ गया झूम के अब्र-ए-गुहर-अफ़्शाँ देखो
*मुज़्दा=ख़ुश ख़बर; ख़ाक-ए-ख़िज़ाँ-रंग=पतझड़ के रंग की धूल; अब्र-ए-गुहर-अफ़्शाँ=मोतियों की तरह चमकता बादल

हम-नवा हो के मिरे तुम भी ग़ज़ल-ख़्वाँ हो जाओ
जो लब-ए-जू-ए-रवाँ सर्व-ख़िरामाँ देखो
*हम-नवा=समर्थक; ग़ज़ल-ख़्वाँ=ग़ज़ल कहने वाला; लब-ए-जू-ए-रवाँ=बहती धारा का श्रोत; सर्व-ख़िरामाँ=वृक्ष के आकार का काँच का झाड़ जिसमें मोमबत्तियाँ जलती हैं

ये जुलूस-ए-गुल-ओ-रैहाँ है कहाँ नारा-ज़नाँ
उठ के दरवाज़े से बाहर तो मिरी जाँ देखो
*जुलूस-ए-गुल-ओ-रैहाँ=मीठी सुगंध वाले पौधे; नारा-ज़नाँ=नारेबाज़ी

~ रज़ी तिर्मिज़ी 

Oct 05, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, September 30, 2020

आँखों ने बस देखा भर था

 

आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया।

रंग पंखुरी, केसर टहनी, नस नस के सब ताने बाने,
उनमें कोमल फूल बना जो, भोली आँख उसे ही जाने,
मन ने सौरभ के वातायन से
असली रस भाँप लिया।
आँखों ने बस देखा भर था
मन ने उसको छाप लिया।

छवि की गरिमा से मंडित, उस तन की मानक ऊँचाई को,
स्नेह-राग से उद्वेलित उस मन की विह्वल तरुणाई को,
आँखों ने छूना भर चाहा,
मन ने पूरा नाप लिया।
आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया।

आँख पुजारी है, पूजा में भर अँजुरी नैवेद्य चढ़ाए,
वेणी गूँथे, रचे महावर, आभूषण ले अंग सजाए,
मन ने जीवन मंदिर में
उस प्रतिमा को ही थाप लिया।

आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया। 

~ रवीन्द्र भ्रमर

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Monday, September 28, 2020

न झटको ज़ुल्फ़ से पानी

 

न झटको ज़ुल्फ़ से पानी ये मोती टूट जाएँगे
तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा मगर दिल टूट जाएँगे

ये भीगी रात ये भीगा बदन ये हुस्न का आलम
ये सब अंदाज़ मिल कर दो जहाँ को लूट जाएँगे

ये नाज़ुक लब हैं या आपस में दो लिपटी हुई कलियाँ
ज़रा इन को अलग कर दो तरन्नुम फूट जाएँगे

हमारी जान ले लेगा ये नीची आँख का जादू
चलो अच्छा हुआ मर कर जहाँ से छूट जाएँगे

~ राजिंदर कृष्ण

Sep 28, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, September 27, 2020

श्यामल रंग

  

हज़ारों साल बीते
मिरी ज़रख़ेज़ (उपजाऊ) धरती के सिंघासन पर
बिराजे देवताओं के सरापे (रूप) साँवले थे
मगर उस वक़्त भी कुछ हुस्न का मेआ'र (स्तर) ऊँचा था
हिमाला की हसीं बेटी उन्हें भाई
बृन्दाबन की धरती पर
थिरकती नाचती राधा
बसी थी कृष्ण के दिल में
उन्हें भी हुस्न की मन-मोहनी मूरत पसंद आई
मगर उन को ख़ुदा होते हुए भी ये ख़बर कब थी
कि उन की आने वाली नस्ल पर उन का सरापा (सर से पाँव तक)
बहुत गहरा असर है छोड़ने वाला
हज़ारों साल बीते
मगर अब भी हमारी साँवली रंगत
तिरा वरदान हो गोया
हमारा हम-सफ़र भी किसी पारो
किसी राधा का अंधा ख़्वाब
आँखों में बसाए
लिए कश्कोल (भीख का कटोरा) हाथों में
फिरे बस्ती की गलियों में
हम अब किस ज़ो'म (घमंड) में पूजा की थाली में
दिए रख कर
तिरी चौखट पे आएँ
सर झुकाएँ
उतारें आरती तेरी
हमारे बख़्त (भाग्य) पर तेरा ये श्यामल रंग
इक आसेब (भूत-प्रेत) की सूरत मुसल्लत (लगातार) है
हम अब तो डर के मारे
आइनों से मुँह छुपाए फिर रहे हैं

~ कहकशाँ तबस्सुम

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Thursday, September 24, 2020

क्यूँ मिरी तल्ख़-नवाई से ख़फ़ा होते हो

क्यूँ मिरी तल्ख़-नवाई से ख़फ़ा होते हो
ज़हर ही मुझ को मिला ज़हर पिया है मैं ने
कोई इस दश्त-ए-जुनूँ में मिरी वहशत देखे
अपने ही चाक-ए-गरेबाँ को सिया है मैं ने
*तल्ख़-नवाई=कड़वा कहना; वहशत=डर; फटा दामन

दैर ओ काबा में जलाए मिरी वहशत ने चराग़
मेरी मेहराब-ए-तमन्ना में अँधेरा ही रहा
रुख़-ए-तारीख़ पे है मेरे लहू का ग़ाज़ा
फिर भी हालात की आँखों में खटकता ही रहा
मैं ने खींची है ये मय मैं ने ही ढाले हैं ये जाम
पर अज़ल से जो मैं प्यासा था तो प्यासा ही रहा
ये हसीं अतलस-ओ-कम-ख़्वाब बुने हैं मैं ने
मेरे हिस्से में मगर दूर का जल्वा ही रहा

*दैर=मंदिर, काबा=मक्का का पवित्र स्थान; गाज़ा=मुँह पर मलने का पाउडर; अज़ल=आदि; अतलस-ओ-कम-ख़्वाब=रेशमी और बूटेदार

मुझ पे अब तक न पड़ी मेरे मसीहा की नज़र
मेरे ख़्वाबों की ये बेचैन ज़ुलेखाएँ हैं
जिन को ताबीर का वो यूसुफ़-ए-कनआँ न मिला
मैं ने हर लहजा में लोगों से कही बात मगर
जो मिरी बात समझता वो सुख़न-दाँ न मिला
कुफ़्र ओ इस्लाम की ख़ल्वत में भी जल्वत में भी
कोई काफ़िर न मिला कोई मुसलमाँ न मिला

*तासीर=सपने का अर्थ; सुख़न-दाँ=कविता समझने वाला; कुफ़्र=अविश्वास; ख़ल्वत=एकांत; जल्वत=प्रकट

मेरे माथे का अरक़ ढलता है टक्सालों में
पर मिरी जेब मिरे हाथ से शर्माई है
कभी मैं बढ़ के थपक देता हूँ रुख़्सार-ए-हयात
ज़िंदगी बैठ के मुझ को कभी समझाती है
रात ढलती है तो सन्नाटे की पगडंडी पर
अपने ख़्वाबों के तसव्वुर से हया आती है
*अरक़=पसीना; रुख़्सार-ए-हयात=जीवन का पहलू; तसव्वुर=कल्पना

क्यूँ मिरी तल्ख़-नवाई से ख़फ़ा होते हो
मेरी आवाज़ को ये ज़हर दिया है किस ने

~ राही मासूम रज़ा

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Wednesday, September 23, 2020

बहुत दूर से एक आवाज़ आई

 

बहुत दूर से एक आवाज़ आई
मैं, इक ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता हूँ, कोई मुझे गुदगुदाए
मैं तख़्लीक़ का नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा हूँ, मुझे कोई गाए
मैं इंसान की मंज़िल-ए-आरज़ू हूँ मुझे कोई पाए
बहुत दूर से एक आवाज़ आई

*ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता=अधखिली कली; तख़्लीक़=सृजन; नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा=जीवंत गीत

मैं हाथों में ले कर तजस्सुस कि मिशअल
बहुत दूर पहुँचा सितारों से आगे
मिरी रहगुज़र कहकशाँ बन के चमकी
मरे साथ आई उफ़ुक़ के किनारे
मिरे नक़्श-ए-पा बन गए चाँद सूरज
भड़कते रहे आरज़ू के शरारे

*तजस्सुस=जिज्ञासा; उफ़ुक़=क्षितिज; नक़्श-ए-पा=पैरों के निशान; शरारे=चिंगारिया

वो आवाज़ तो आ रही है मुसलसल
मगर अर्श की रिफ़अतों से उतर कर
मैं फ़र्श-ए-यक़ीं पर खड़ा सोचता हूँ
हर इक जादा-ए-रंग-ओ-बू से गुज़र कर
मिरी जुस्तुजू इंतिहा तो नहीं है
अभी और निखरेंगे रंगीं नज़ारे
ये बे-नूर ज़र्रे बनेंगे सितारे
सितारे बनेंगे अभी माह-पारे

*मुसल्सल=लगातार; अर्श=आसमान; रिफ़अतों=ऊँचाइयाँ; जादा-ए-रंग-ओ-बू=रंगीन और सुगंधित राह

ये आवाज़ जादू जगाती रहेगी
ये मंज़िल यूँही गीत गाती रहेगी
नए आदमी को नए कारवाँ को
पयाम-ए-तजस्सुस सुनाती रहेगी
*पयाम-ए-तजस्सुस=उत्सुकता का संदेश

~ रिफ़अत सरोश

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Monday, September 21, 2020

कोई मुँह चूम लेगा इस नहीं पर

 

कोई मुँह चूम लेगा इस नहीं पर
शिकन रह जाएगी यूँ ही जबीं पर
*जबीं=माथा

गिरी थी आज तो बिजली हमीं पर
ये कहिए झुक पड़े वो हम-नशीं पर
*हम-नशीं=साथी

बलाएँ बन के वो आईं हमीं पर
दुआएँ जो गईं अर्श-ए-बरीं पर
*अर्श-ए-बरीं=ऊँचा आसमान

ये क़िस्मत दाग़ जिस में दर्द जिस में
वो दिल हो लूट दस्त-ए-नाज़्नीं पर
*दस्त-ए-नाज़्नीं=प्रेमिका का कोमल हाथ

रुला कर मुझ को पोंछे अश्क-ए-दुश्मन
रहा धब्बा ये उन की आस्तीं पर

उड़ाए फिरती है उन को जवानी
क़दम पड़ता नहीं उन का ज़मीं पर

धरी रह जाएगी यूँही शब-ए-वस्ल
नहीं लब पर शिकन उन की जबीं पर

~ रियाज़ ख़ैराबादी

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Sunday, September 20, 2020

हुए हैं राम पीतम के नयन

हुए हैं राम पीतम के नयन आहिस्ता-आहिस्ता
कि ज्यूँ फाँदे में आते हैं हिरन आहिस्ता-आहिस्ता
*राम=प्रभु श्री राम, वशीभूत

मिरा दिल मिस्ल परवाने के था मुश्ताक़ जलने का
लगी उस शम्अ सूँ आख़िर लगन आहिस्ता-आहिस्ता
*मिस्ल=के जैसे; मुश्ताक़=इच्छुक
 
गिरेबाँ सब्र का मत चाक कर ऐ ख़ातिर-ए-मिस्कीं
सुनेगा बात वो शीरीं-बचन आहिस्ता-आहिस्ता
*चाक=काट देना; ख़ातिर-ए-मिस्कीं=ग़रीबों की परवाह करने वाला; शीरीं-बचन=मीठे बोल

गुल ओ बुलबुल का गुलशन में ख़लल होवे तो बरजा है
चमन में जब चले वो गुल-बदन आहिस्ता-आहिस्ता
*ख़लल=व्यवधान; बरजा=एक स्थान पर

'वली' सीने में मेरे पंजा-ए-इश्क़-ए-सितमगर ने
किया है चाक दिल का पैरहन आहिस्ता-आहिस्ता
*पैरहन=वस्त्र

~ वली मोहम्मद वली

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Thursday, September 17, 2020

मैं ने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा

 

 मैं ने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है

रात खिलने का गुलाबों से महक आने का
ओस की बूंदों में सूरज के समा जाने का
चाँद सी मिट्टी के ज़र्रों से सदा आने का
शहर से दूर किसी गाँव में रह जाने का

खेत खलियानों में बाग़ों में कहीं गाने का
सुबह घर छोड़ने का देर से घर आने का
बहते झरनों की खनकती हुई आवाज़ों का
चहचहाती हुई चिड़ियों से लदी शाख़ों का

नर्गिसी आँखों में हँसती हुई नादानी का
मुस्कुराते हुए चेहरे की ग़ज़ल ख़्वानी का
तेरा हो जाने तिरे प्यार में खो जाने का
तेरा कहलाने का तेरा ही नज़र आने का

मैं ने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है
हाथ रख दे मिरी आँखों पे कि नींद आ जाए

~ वसीम बरेलवी

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Wednesday, September 16, 2020

तू ग़ज़ल बन के उतर


तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए
मुंतज़िर दिल की मुनाजात मुकम्मल हो जाए
*मुनाजात=प्रार्थना

उम्र भर मिलते रहे फिर भी न मिलने पाए
इस तरह मिल कि मुलाक़ात मुकम्मल हो जाए

दिन में बिखरा हूँ बहुत रात समेटेगी मुझे
तू भी आ जा तो मिरी ज़ात मुकम्मल हो जाए

नींद बन कर मिरी आँखों से मिरे ख़ूँ में उतर
रत-जगा ख़त्म हो और रात मुकम्मल हो जाए

मैं सरापा हूँ दुआ तू मिरा मक़्सूद-ए-दुआ
बात यूँ कर कि मिरी बात मुकम्मल हो जाए
*सरापा=सर से पाँव तक; मक़्सूद-ए-दुआ=प्रार्थना का मूल ध्येय

अब्र आँखों से उठे हैं तिरा दामन मिल जाए
हुक्म हो तेरा तो बरसात मुकम्मल हो जाए

तेरे लब मोहर लगा दें तो ये क़िस्सा हो तमाम
दफ़्तर-ए-तूल-ए-शिकायात मुकम्मल हो जाए
*दफ़्तर-ए-तूल-ए-शिकायात=शिकायतों का पुलिंदा

तुझ को पाए तो 'वहीद' अपने ख़ुदा को पा ले
काविश-ए-मअर्फ़त-ए-ज़ात मुकम्मल हो जाए
*काविश-ए-मअर्फ़त-ए-ज़ात=अपनी पहचान में सफलता

‍~ वहीद अख़्तर

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Tuesday, September 15, 2020

फूल का शाख़ पे आना

फूल का शाख़ पे आना भी बुरा लगता है
तू नहीं है तो ज़माना भी बुरा लगता है

ऊब जाता हूँ ख़मोशी से भी कुछ देर के बाद
देर तक शोर मचाना भी बुरा लगता है

इतना खोया हुआ रहता हूँ ख़यालों में तिरे
पास मेरे तिरा आना भी बुरा लगता है

ज़ाइक़ा जिस्म का आँखों में सिमट आया है
अब तुझे हाथ लगाना भी बुरा लगता है

मैं ने रोते हुए देखा है अली बाबा को
बाज़ औक़ात ख़ज़ाना भी बुरा लगता है

अब बिछड़ जा कि बहुत देर से हम साथ में हैं
पेट भर जाए तो खाना भी बुरा लगता है

~ शकील आज़मी

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Sunday, September 13, 2020

धीरे धीरे गिर रही थीं नख़्ल-ए-शब से

 

धीरे धीरे गिर रही थीं नख़्ल-ए-शब से चाँदनी की पत्तियाँ
बहते बहते अब्र का टुकड़ा कहीं से आ गया था दरमियाँ
मिलते मिलते रह गई थीं मख़मलीं सब्ज़े पे दो परछाइयाँ
जिस तरह सपने के झूले से कोई अंधे कुएँ में जा गिरे
ना-गहाँ कजला गए थे शर्मगीं आँखों के नूरानी दिए
जिस तरह शोर-ए-जरस से कोई वामाँदा मुसाफ़िर चौंक उठे
यक-ब-यक घबरा के वो निकली थी मेरे बाज़ुओं की क़ैद से
अब सुलगते रह गए थे, छिन गया था जाम भी
और मेरी बेबसी पर हँस पड़ी थी चाँदनी

*नख़्ल-ए-शब=रात का पेड़; अब्र=बादल; सब्ज़े=हरे-भरे; ना-गहाँ=अचानक; नूरानी=उज्ज्वल; शोर-ए-जरस=घंटी की आवाज़; वामादाँ=थका हुआ;

आज तक एहसास की चिलमन से उलझा है ये मुबहम सा सवाल
उस ने आख़िर क्यूँ बुना था बहकी नज़रों से हसीं चाहत का जाल 


*चिलमन=परदा; मुबहम=धुँधला;

‍~ शकेब जलाली

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Thursday, September 10, 2020

दुनिया-ए-मोहब्बत में हम से

दुनिया-ए-मोहब्बत में हम से हर अपना पराया छूट गया
अब क्या है जिस पर नाज़ करें इक दिल था वो भी टूट गया
*दुनिया-ए-मोहब्बत=प्रेम के संसार

साक़ी के हाथ से मस्ती में जब कोई साग़र छूट गया
मय-ख़ाने में ये महसूस हुआ हर मय-कश का दिल टूट गया

जब दिल को सुकूँ ही रास न हो फिर किस से गिला नाकामी का
हर बार किसी का हाथों में आया हुआ दामन छूट गया

सोचा था हरीम-ए-जानाँ में नग़्मा कोई हम भी छेड़ सकें
उम्मीद ने साज़-ए-दिल का मगर जो तार भी छेड़ा टूट गया
*हरीम-ए-जानाँ=प्रेमिका का घर

क्या शय थी किसी की पहली नज़र कुछ इस के अलावा याद नहीं
इक तीर सा दिल में जैसे लगा पैवस्त हुआ और टूट गया
*पैवस्त=अंदर घुसा हुआ

इस नग़्मा-तराज़-ए-गुलशन ने तोड़ा है कुछ ऐसा साज़-ए-दिल
इक तार कहीं से टूट गया इक तार कहीं से टूट गया
नग़्मा-तराज़=गीतकार

~ शमीम जयपुरी

Sep 10, 2020| e-kavya.blogspot.com
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