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Sunday, August 30, 2015

इश्क़ नाज़ुक मिज़ाज़ है बेहद

इश्क़ नाज़ुक मिजाज़ है बेहद,
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता

~ अकबर इलाहाबादी

  Aug 30, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Friday, August 28, 2015

बहुत सम्भाल के रक्खी तो पाएमाल हुई



बहुत सम्भाल के रक्खी तो पाएमाल हुई
सड़क पे फेंक दी तो ज़िन्दगी निहाल हुई
*पाएमाल=रौंदी हुई

बड़ा लगाव है इस मोड़ को निगाहों से
कि सबसे पहले यहीं रोशनी हलाल हुई

कोई निज़ात की सूरत नहीं रही, न सही
मगर निज़ात की कोशिश तो एक मिसाल हुई
*निज़ात=छुटकारा

मेरे ज़ेहन पे ज़माने का वो दबाव पड़ा
जो एक स्लेट थी वो ज़िंदगी, सवाल हुई
*ज़ेहन=स्मरणशक्ति; याददास्त

समुद्र और उठा, और उठा, और उठा
किसी के वास्ते ये चांदनी वबाल हुई

उन्हें पता भी नहीं है कि उनके पाँवों से
वो खूँ बहा है कि ये गर्द भी गुलाल हुई

मेरी ज़ुबान से निकली तो सिर्फ नज़्म बनी
तुम्हारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई

~ दुष्यन्त कुमार


  Aug 28, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, August 27, 2015

जवानी के हीले हया के बहाने



जवानी के हीले हया के बहाने
ये माना के तुम मुझ से पर्दा करोगी
ये दुनिया मगर तुझ सी भोली नहीं है
छुपा कर मुहब्बत को रुसवा करोगी
*हीले=टालमटोल करना, बहाना बनाना; हया=लाज, शर्म

बड़ी कोशिशों से बड़ी काविशों से
तमन्ना की सहमी हुई साज़िशों से
मिलेगा जो मौका तो बेचैन होकर
दरीचों से तुम मुझको देखा करोगी
*काविश=चिंता, फ़िक्र; दरीचा=खिड़की, झरोख़ा

सतायेगी जब चाँदनी की उदासी
दुखायेगी दिल जब फ़िज़ा की ख़ामोशी
उफ़क़ की तरफ़ ख़ाली नज़रें जमाकर
कभी जो न सोचा वो सोचा करोगी
*फ़िज़ा=वातावरण; उफ़क़=क्षितिज

कभी दिल की धड़कन महसूस होगी
कभी ठन्डी साँसों के तूफ़ाँ उठेंगे
कभी गिर के बिस्तर पे आहें भरोगी
कभी झुक के तकिये पे रोया करोगी

~  प्रेम वरबारतोनी

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Tuesday, August 25, 2015

जीवन में कितना सूनापन



जीवन में कितना सूनापन
पथ निर्जन है, एकाकी है,
उर में मिटने का आयोजन
सामने प्रलय की झाँकी है

वाणी में है विषाद के कण
प्राणों में कुछ कौतूहल है
स्मृति में कुछ बेसुध-सी कम्पन
पग अस्थिर है, मन चंचल है

यौवन में मधुर उमंगें हैं
कुछ बचपन है, नादानी है
मेरे रसहीन कपालो पर
कुछ-कुछ पीडा का पानी है

आंखों में अमर-प्रतीक्षा ही
बस एक मात्र मेरा धन है
मेरी श्वासों, निःश्वासों में
आशा का चिर आश्वासन है

मेरी सूनी डाली पर खग
कर चुके बंद करना कलरव
जाने क्यों मुझसे रूठ गया
मेरा वह दो दिन का वैभव

कुछ-कुछ धुँधला सा है अतीत
भावी है व्यापक अन्धकार
उस पार कहां? वह तो केवल
मन बहलाने का है विचार

आगे, पीछे, दायें, बायें
जल रही भूख की ज्वाला यहाँ
तुम एक ओर, दूसरी ओर
चलते फिरते कंकाल यहाँ

इस ओर रूप की ज्वाला में
जलते अनगिनत पतंगे हैं
उस ओर पेट की ज्वाला से
कितने नंगे भिखमंगे हैं

इस ओर सजा मधु-मदिरालय
हैं रास-रंग के साज कहीं
उस ओर असंख्य अभागे हैं
दाने तक को मुहताज कहीं

इस ओर अतृप्ति कनखियों से
सालस है मुझे निहार रही
उस ओर साधना पथ पर
मानवता मुझे पुकार रही

तुमको पाने की आकांक्षा
उनसे मिल मिटने में सुख है
किसको खोजूँ, किसको पाऊँ
असमंजस है, दुस्सह दुख है

बन-बनकर मिटना ही होगा
जब कण-कण में परिवर्तन है
संभव हो यहां मिलन कैसे
जीवन तो आत्म-विसर्जन है

सत्वर समाधि की शय्या पर
अपना चिर-मिलन मिला लूँगा
जिनका कोई भी आज नहीं
मिटकर उनको अपना लूँगा ।

~ शिवमंगल सिंह सुमन

  Aug 26, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, August 20, 2015

झूठ नहीं सच होगा साथी



गढने को जो चाहे गढ़ ले
मढने को जो चाहे मढ ले
शासन के सौ रूप बदल ले
राम बना रावण सा चल ले

करने जो चाहे कर ले
चलनी पर चढ़ सागर तर ले
चिउंटी पर चढ़ चाँद पकड़ ले
लड ले एटम बम से लड़ ले

झूठ नहीं सच होगा साथी ।

~ केदार नाथ अग़वाल

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Wednesday, August 19, 2015

ये कब चाहा कि मैं मशहूर हो जाऊँ




ये कब चाहा कि मैं मशहूर हो जाऊँ
बस अपने आप को मंज़ूर हो जाऊँ

नसीहत कर रही है अक़्ल कब से
कि मैं दीवानगी से दूर हो जाऊँ

न बोलूँ सच तो कैसा आईना मैं
जो बोलूँ सच तो चकनाचूर हो जाऊँ

है मेरे हाथ में जब हाथ तेरा
अजब क्या है जो मग़रूर हो जाऊँ

बहाना कोई तो ऐ ज़िन्दगी दे
कि जीने के लिए मजबूर हो जाऊँ

सराबों से मुझे सैराब कर दे
नशे में तिश्नगी के चूर हो जाऊँ
*सराब=मृगतृष्णा; सैराब=भरपूर; तिश्नगी=प्यास

मिरे अंदर से गर दुनिया निकल जाए
मैं अपने-आप में भरपूर हो जाऊँ

~ राजेश रेड्डी
  Aug 19, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, August 18, 2015

घर के चराग़ से

दिल के फफूले जल उठे सीने के दाग़ से
इस घर को आग लग गई घर के चराग़ से

~ नामालूम

  Aug 18, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, August 16, 2015

कि घुँघरू टूट गये !


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वाइज़ के टोकने पे मैं क्यूँ रक्स रोक लूँ,
उनका ये हुक़्म है के अभी नाचती रहूँ।

मोहे आई न जग से लाज
मैं इतनी ज़ोर से नाची आज
कि घुँघरू टूट गये !

कुछ मुझपे नया जोबन भी था
कुछ प्यार का पागलपन भी था
एक पलक पलक बन तीर मेरी
एक ज़ुल्फ़ बनी ज़ंजीर मेरी
लिया दिल साजन का जीत
वो छेड़े पायलिया ने गीत
कि घुँघरू टूट गये !

मैं बसी थी जिसके सपनों में
वो गिनेगा अब मुझे अपनों में
कहती है मेरी हर अंगड़ाई
मैं पिया की नींद चुरा लाई
मैं बन के गई थी चोर
कि मेरी पायल थी कमज़ोर
कि घुँघरू टूट गये !

धरती पे न मेरे पैर लगे
बिन पिया मुझे सब ग़ैर लगे
मुझे अंग मिले परवानों के
मुझे पँख मिले अरमानों के
जब मिला पिया का गाँव
तो ऐसा लचका मेरा पाँव
कि घुँघरू टूट गये !

~ क़तील शिफ़ाई


  Aug 16, 2015| e-kavya.blogspot.com
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गर ख़ुदा मुझसे कहे

गर ख़ुदा मुझसे कहे कुछ माँग ऐ बंदे मेरे
मैं ये माँगूँ महफ़िलों के दौर यूँ चलते रहें
हमप्याला, हमनिवाला, हमसफ़र, हमराज़ हों,
ता-क़यामत, जो चिराग़ों की तरह जलते रहें

~ गुलशन बावरा

  Aug 15, 2015| e-kavya.blogspot.com
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न माथे पर शिकन होती

न माथे पर शिकन होती, न तब तेवर बदलते थे
ख़ुदा भी मुस्‍कुरा देता था जब हम प्यार करते थे

~ मख़्दूम मोहिउद्दीन

  Aug 14, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Friday, August 14, 2015

देखो परचम लहराता है आज़ादी का



वह जंग ही क्या, वह अमन ही क्या
दुश्मन जिसमें ताराज़ न हो
वह दुनिया दुनिया क्या होगी
जिस दुनिया में स्व-राज न हो
वह आज़ादी आज़ादी क्या
मज़दूर का जिसमें राज न हो

लो सुर्ख़ सवेरा आता है आज़ादी का, आज़ादी का
गुलनार तराना गाता है आज़ादी का, आज़ादी का
देखो परचम लहराता है आज़ादी का, आज़ादी का

~ मख़्दूम मोहिउद्दीन


  Aug 14, 2015| e-kavya.blogspot.com
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तुम मेरी गुलामी हो



तुम मेरी गुलामी हो और मेरी आजादी
तुम हो गर्मियों की एक आदिम रात की तरह जलती हुई मेरी देह
तुम मेरा देश हो
तुम हो हल्‍की भूरी आँखों में हरा रेशम
तुम हो विशाल, सुन्‍दर और विजेता
और तुम मेरी वेदना हो जो महसूस नहीं होती
जितना ही अधिक मैं इसे महसूस करता हूँ।

~ नाज़िम हिकमत


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Thursday, August 13, 2015

वो कहते हैं आओ मेरी अंजुमन में

वो कहते हैं आओ मेरी अंजुमन में
मगर मैं वहाँ अब नहीं जाने वाला,
कि अक्सर बुलाया, बुलाकर बिठाया
बिठाकर उठाया, उठाकर निकाला।


*अंजुमन=महफ़िल

~ नूह नारवी

  Aug 13, 2015| e-kavya.blogspot.com
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मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ



मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ,
जैसे रोटी को नमक में डुबोना और खाना,
जैसे तेज़ बुखार में रात में उठना
और टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीना,
जैसे डाकिये से लेकर भारी डिब्‍बे को खोलना
बिना किसी अनुमान के कि उसमें क्‍या है
उत्‍तेजना, खुशी और सन्‍देह के साथ।

मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ
जैसे सागर के ऊपर से एक जहाज में पहली बार उड़ना,
जैसे मेरे भीतर कोई हरकत होती है
जब इस्‍ताम्‍बुल में आहिस्‍ता-आहिस्‍ता अँधेरा उतरता है।
मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ
जैसे ख़ुदा को शुक्रिया अदा करना -
हमें ज़िन्‍दगी अता करने के लिए।

~ नाज़िम हिकमत



  Aug 13, 2015| e-kavya.blogspot.com
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कल तुझे सैर करवाएंगे समन्दर से

 

कल तुझे सैर करवाएंगे समन्दर से लगी गोल सड़क की
रात को हार सा लगता है समन्दर के गले में !
घोड़ा गाडी पे बहुत दूर तलक सैर करेंगे
धोडों की टापों से लगता है कि कुछ देर के राजा है हम !
गेटवे ऑफ इंडिया पे देखेंगे हम ताज महल होटल
जोड़े आते हैं विलायत से हनीमून मनाने ,
तो ठहरते हैं यही पर !
आज की रात तो फुटपाथ पे ईंट रख कर ,
गर्म कर लेते हैं बिरयानी जो ईरानी के होटल से मिली है
और इस रात मना लेंगे 'हनीमून' यहीं जीने के नीचे !

~ गुलज़ार

  Aug 12, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, August 12, 2015

आपको देखकर देखता रह गया



आपको देखकर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया

उनकी आँखों में कैसे छलकने लगा
मेरे होंटों पे जो माजरा रह गया

ऐसे बिछड़े सभी राह के मोड़ पर
आख़री हमसफ़र रास्ता रह गया

सोच कर आओ कू-ए-तमन्ना है ये
जानेमन जो यहाँ रह गया रह गया

*कू=गली

~ अज़ीज़ क़ैसी


  Aug 11, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Beautifully rendered by eternal Gazal king Jagjit ji:
 https://www.youtube.com/watch?v=AXtBc5CnyN4

Tuesday, August 11, 2015

मिट्टी, तेरा क्या मोल?

मिट्टी, तेरा क्या मोल?
पड़ी है सबके पैरों तले
उगाये तूने जो अंकुर भले
उन पर क्या वारूँ, बोल !

~ मैथिलीशरण गुप्त


  Aug 9, 2015| e-kavya.blogspot.com
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जाए है जी निजात के ग़म में


जाए है जी निजात के ग़म में
ऐसी जन्नत गई जहन्नुम में

*निजात=मोक्ष, मुक्ति

~ मीर तक़ी मीर

  Aug 8, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, August 8, 2015

गजरा टूटा, कजरा फैला..


गजरा टूटा
कजरा फैला
अस्त-व्यस्त हो गई बेडियाँ
बिंदिया सरकी
आँचल ढरका
धुली महावर लगी एड़ियाँ ।
साँसों की संतूर बजी थी
पायन की खनखन यारों
जेठ माह की भरी दुपहरी
बरस गया सावन यारो

कंगना खनका
संयम बहका
प्यासा-प्यासा मन भीगा ।
चूड़ी टूटी
बिछुआ सरका
और पाँव तक तन भीगा ।
बिखर गई बंधन की डोरी
निखर गया तन मन यारो

कुंकुंम फैला
रोली भीगी
अक्षत-चंदन गंध घुली ।
अलकें बोझिल
निद्रालस में
लगती हैं अधखुली-खुली
सांसों की वीणाएं गूंजी ।
दूर हुआ अनबन यारो

~ अजय पाठक


  Aug 8, 2015| e-kavya.blogspot.com
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अतसि नील गोटे की

अतसि नील गोटे की
सरसों-सी पीली-पीली
पुण्य पीत साड़ी में वेष्टित
नवनीत गात,
कोपलों-सी रक्त आभ
अधरों पर लिए हुये
तार झीनी बोली में
कोयल सा गा गया।
क्षण-क्षण बदलती सौंदर्य की छायाओं
जीवन के पतझड़ में
कोई मुसका गया।
वासंती छवि का समंदर लहरा गया
लगा की जैसे
वसंत घर आ गया। 


~ कन्हैयालाल नन्दन

  Aug 7, 2015| e-kavya.blogspot.com
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तुम्हारे शहर में खानाबदोश

तुम्हारे शहर में खानाबदोश रहना क्या
मैं बेनिशान हूँ कोई निशान हो जाये,
सड़क हो नाला हो कि फुटपाथ के तले
मैं चाहता हूँ अपना मकान हो जाये।

~ तश्ना आलमी

  Aug 5, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, August 5, 2015

हम अनिकेतन...!



हम अनिकेतन, हम अनिकेतन !
हम तो रमते राम हमारा क्या घर, क्या दर, कैसा वेतन?

अब तक इतनी योंही काटी, अब क्या सीखें नव परिपाटी
कौन बनाये आज घरौंदा हाथों चुन-चुन कंकड़-माटी
ठाठ फकीराना है अपना बाघाम्बर सोहे अपने तन?

देखे महल, झोंपड़े देखे, देखे हास-विलास मज़े के
संग्रह के सब विग्रह देखे, जँचे नहीं कुछ अपने लेखे
लालच लगा कभी पर हिय में मच न सका शोणित-उद्वेलन!

हम जो भटके अब तक दर-दर, अब क्या खाक बनायेंगे घर
हमने देखा सदन बने हैं लोगों का अपनापन लेकर
हम क्यों सने ईंट-गारे में हम क्यों बने व्यर्थ में बेमन?

ठहरे अगर किसीके दर पर कुछ शरमाकर कुछ सकुचाकर
तो दरबान कह उठा, बाबा, आगे जा देखो कोई घर
हम रमता बनकर बिचरे पर हमें भिक्षु समझे जग के जन!
हम अनिकेतन!

*अनिकेतन=बंजारे

~ बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'


  Aug 5, 2015| e-kavya.blogspot.com
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तुम कहाँ होगी इस वक़्त?

तुम कहाँ होगी इस वक़्त?
क्षितिज के उस ओर अपूर्ण स्वप्नों की एक बस्ती है
जहाँ तारे झिलमिलाते रहते है आठों पहर
और चन्द्रमा अपनी घायल देह लिए भटकता रहता है
तुम्हारी तलाश में हज़ारों बरस भटका हूँ वहाँ,
नक्षत्रों के पाँवों से चलता हुआ अनवरत!


~ अशोक पाण्डेय

  Aug 4, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Monday, August 3, 2015

पहुँचा जो तेरे दर पे तो...!

पहुँचा जो तेरे दर पे तो महसूस ये हुआ,
लंबी सी एक क़तार में जैसे खड़ा हूँ मैं।

~ क़तील शिफ़ाई

  Aug 3, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, August 2, 2015

जख़्म भर जाते हैं

जख़्म भर जाते हैं
जेहनों से उतर जाते हैं
दिन गुज़रता है तो फिर शब भी गुज़र जाती है
फूल जिस शाख़ से झड़ जाते हैं,
मर जाते है ।

चंद ही रोज़ मे
उस शाख़ पे आइंदा के फूलों के नगीने-से उभर आते है।
तेरे जाने से मेरी ज़ात के अंदर जो ख़ला गूँजता है
इक न इक दिन उसे भर जाना है
इक न इक रोज़ तुझे
मेरी फैली हुई, तरसी हुई बाहों में पलट आना हे!

*आइंदा=भविष्य में; ज़ात=अस्तित्व; ख़ला=अन्तरिक्ष

~ अहमद नदीम क़ासमी

   Aug 2, 2015| e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

मैं छुपाता हूँ बरहना ख़्वाहिशें

मैं छुपाता हूँ बरहना ख़्वाहिशें,
वो समझती हैं कि शर्मीला हूँ मैं ।

*बरहना=(फारसी-बर्हन) जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो, नग्न

~ अनवर शऊर

   Jul 30, 2015| e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

तुम जन्नते कश्मीर हो

तुम जन्नते कश्मीर हो तुम ताज महल हो
'जगजीत' की आवाज़ में ग़ालिब की ग़ज़ल हो

हर पल जो गुज़रता है वो लाता है तिरी याद
जो साथ तुझे लाये कोई ऐसा भी पल हो

मिल जाओ किसी मोड़ पे इक रोज अचानक
गलियों में हमारा ये भटकना भी सफल हो

~ राजेंद्रनाथ रहबर

   Jul 30, 2015| e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

न उड़ा यूँ ठोकरों से

न उड़ा यूँ ठोकरों से, मेरी ख़ाक-ए-क़ब्र ज़ालिम
यही एक रह गई है मेरे प्यार की निशानी।

तुझे पहले ही कहा था, है जहाँ सराय-फ़ानी
दिल-ए-बदनसीब तूने मेरी बात ही ना मानी।

ये इनायत ग़ज़ब की ये बला की मेहरबानी
मेरी ख़ैरियत भी पूछी किसी और की ज़बानी

*सराय-फ़ानी=अस्थायी रुकने की जगह जो आसानी से नष्ट की जा सके

~ सागर सरहदी

   Jul 29, 2015| e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh