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Sunday, September 30, 2018

बहुत था ख़ौफ़ जिस का फिर वही

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बहुत था ख़ौफ़ जिस का फिर वही क़िस्सा निकल आया
मिरे दुख से किसी आवाज़ का रिश्ता निकल आया

वो सर से पाँव तक जैसे सुलगती शाम का मंज़र
ये किस जादू की बस्ती में दिल-ए-तन्हा निकल आया

जिन आँखों की उदासी में बयाबाँ साँस लेते हैं
उन्हीं की याद में नग़्मों का ये दरिया निकल आया
*बयाबाँ=जंगल

सुलगते दिल के आँगन में हुई ख़्वाबों की फिर बारिश
कहीं कोंपल महक उट्ठी कहीं पत्ता निकल आया

पिघल उठता है इक इक लफ़्ज़ जिन होंटों की हिद्दत से
मैं उन की आँच पी कर और भी सच्चा निकल आया
*हिद्दत=गर्मी

गुमाँ था ज़िंदगी बे-सम्त ओ बे-मंज़िल बयाबाँ है
मगर इक नाम पर फूलों-भरा रस्ता निकल आया
*बे-सम्त=दिशाहीन

~ बशर नवाज़


  Sep 30, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, September 29, 2018

नई रौशनी

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अव्वल चाचा नेहरू आए
नई रोशनी वे ही लाए

इन्दू बिटिया उनके बाद
नई रोशनी पाइन्दबाद

हुए सहायक संजय भाई
नई रोशनी जबरन आई

फिर आए भैया राजीव
डाली नई रोशनी की नींव

आगे बढीं सोनिया गाँधी
पीछे नई रोशनी की आँधी

सत्ता की वे नहीं लालची
मनमोहन उनके मशालची

राहुल ने तब तजा अनिश्चय
नई रोशनी की गूँजी जय

जब राहुल दुल्हन लाएँगे
नई रोशनियाँ हम पाएँगे

बहन प्रियंका अलग सक्रिय हैं
वड्रा जीजू सबके प्रिय हैं

ये खुद तो हैं नई रोशनी
इनकी भी हैं कई रोशनी

यह जो पूरा खानदान है
राष्ट्रीय रोशनीदान है

एकमात्र इसकी सन्तानें
नई रोशनी लाना जानें

क्या इसमें अब भी कुछ शक़ है
नई रोशनी इसका ही हक़ है

जब तक सूरज चान्द रहेगा
यह न कभी भी मान्द रहेगा

बीच बीच में नई रोशनी के आए दीगर सौदागर
लेकिन इस अन्धियारे को ही वे कर गए दुबारा दूभर

हर दफ़ा इसी कुनबे से गरचे है नई रोशनी सारी
फिर भी अन्धकार यह बार-बार क्यों हो जाता है भारी?

इनकी ऐसी नई रोशनी में जीवन जीना पड़ता है
यह क्लेश कलेजे में जंग-लगे कीले-सा हर पल गड़ता है

क्या हमीं नहीं मिलकर खींचें अपने हाथों की रेखाएँ
पहचानें नित नई रोशनी सबकी, उसे ख़ुद लेकर आएँ?

~ विष्णु खरे


  Sep 29, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, September 28, 2018

नहीं मैं यूँ नहीं कहता

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नहीं मैं यूँ नहीं कहता
कि ये दुनिया जहन्नम और हम सब इस का ईंधन हैं,
नहीं यूँ भी नहीं कहता
कि हम जन्नत के बासी हैं -
सरों पर ला-जवर्दी (नीले रंग के) शामियाने और पैरों में
निराले ज़ाएक़ों (स्वाद) वाले फलों के पेड़ शीर (दूध) ओ शहद की नहरें मचलती हैं
मुझे तो बस यही कुछ आम सी कुछ छोटी छोटी बातें कहनी हैं
मुझे कहना है
इस धरती पे गुलशन भी हैं सहरा (वीराना) भी
महकती नर्म मिट्टी भी
और उस की कोख में ख़्वाबों का जादू आने वाली नित नई फ़सलों की ख़ुशबू भी
चटख़ती और तपती सख़्त बे-हिस (संवेदन रहित) ख़ून की प्यासी चटानें भी
मुझे कहना है
हम सब अपनी धरती की
बुराई और भलाई सख़्तियों और नरमियों अच्छाइयों कोताहियों (कमियों) हर रंग
हर पहलू के मज़हर (अभिव्यक्ति)हैं
हमें इंसान की मानिंद
ख़ैर ओ शर (कुशल-मंगल व बुराई) मोहब्बत और नफ़रत दुश्मनी और दोस्ती के साथ जीना है
इसी धरती का शहद ओ सम (ज़हर)
इसी धरती के खट-मिठ जाने पहचाने मज़े का जाम पीना है
मुझे बस इतना कहना है
कि हम को आसमानों या ख़लाओं (शून्य या आसमानी) की कोई मख़्लूक़ (जीव) मत समझो

*ला-जवर्दी=नीले रंग का कीमती पत्थर

~ बशर नवाज़

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Sunday, September 23, 2018

डरो

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कहो तो डरो, कि हाय यह क्यों कह दिया
न कहो तो डरो, कि पूछेंगे चुप क्यों हो।
सुनो तो डरो, कि अपना कान क्यों दिया
न सुनो तो डरो, कि सुनना लाजिमी तो नहीं था।

देखो तो डरो कि एक दिन तुम पर भी यह न हो
न देखो तो डरो कि गवाही में बयान क्या दोगे।
सोचो तो डरो कि वह चेहरे पर न झलक आया हो
न सोचो तो डरो कि सोचने को कुछ दे न दें।

पढ़ो तो डरो कि पीछे से झाँकने वाला कौन है
न पढ़ो तो डरो कि तलाशेंगे क्या पढ़ते हो।
लिखो तो डरो कि उसके कई मतलब लग सकते हैं
न लिखो तो डरो कि नई इबारत सिखाई जाएगी

डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है,
न डरो तो डरो कि हुक़्म होगा कि डर।

~ विष्णु खरे


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Saturday, September 22, 2018

दोस्त मायूस न हो

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दोस्त मायूस न हो
सिलसिले बनते बिगड़ते ही रहे हैं अक्सर
तेरी पलकों पे ये अश्कों के सितारे कैसे
तुझ को ग़म है तिरी महबूब तुझे मिल न सकी
और जो ज़ीस्त तराशी थी तिरे ख़्वाबों ने
जब पड़ी चोट हक़ाएक़ की तो वो टूट गई
*ज़ीस्त=ज़िंदगी; हक़ाएक=हक़ीक़त' का बहुवचन, हक़ीक़ते

तुझ को मालूम है मैं ने भी मोहब्बत की थी
और अंजाम-ए-मोहब्बत भी है मालूम तुझे
तुझ से पहले भी बुझे हैं यहाँ लाखों ही चराग़
तेरी नाकामी नई बात नहीं दोस्त मेरे

किस ने पाई है ग़म-ए-ज़ीस्त की तल्ख़ी से नजात
चार-ओ-नाचार ये ज़हराब सभी पीते हैं
जाँ लुटा देने के फ़र्सूदा फ़सानों पे न जा
कौन मरता है मोहब्बत में सभी जीते हैं
*ग़म-ए-ज़ीस्त=जीन के दुख; नजात-छुटकारा; नाचार=बेबसी; फ़र्सूदा=पुराने

वक़्त हर ज़ख़्म को हर ग़म को मिटा देता है
वक़्त के साथ ये सदमा भी गुज़र जाएगा
और ये बातें जो दोहराई हैं मैं ने इस वक़्त
तू भी इक रोज़ इन्ही बातों को दोहराएगा

दोस्त मायूस न हो!
सिलसिले बनते बिगड़ते ही रहे हैं अक्सर

~ अहमद राही


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Friday, September 21, 2018

आज की शब तो किसी तौर

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आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी

रात गहरी है मगर चाँद चमकता है अभी
मेरे माथे पे तिरा प्यार दमकता है अभी
मेरी साँसों में तिरा लम्स महकता है अभी
मेरे सीने में तिरा नाम धड़कता है अभी
ज़ीस्त करने को मिरे पास बहुत कुछ है अभी
आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी!
*लम्स=स्पर्श; जीस्त=ज़िंदगी

तेरी आवाज़ का जादू है अभी मेरे लिए
तेरे मल्बूस की ख़ुश्बू है अभी मेरे लिए
तेरी बाँहें तिरा पहलू है अभी मेरे लिए
सब से बढ़ कर मिरी जाँ तू है अभी मेरे लिए
ज़ीस्त करने को मिरे पास बहुत कुछ है अभी
आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी!
आज के ब'अद मगर रंग-ए-वफ़ा क्या होगा
इश्क़ हैराँ है सर-ए-शहर-ए-सबा क्या होगा
मेरे क़ातिल तिरा अंदाज़-ए-जफ़ा क्या होगा!
*मल्बूस=कपड़ों; सर-ए-शहर-ए-सबा=शहर में चलने वाली पुरवैया; अंदाज़-ए-जफ़ा=ज़ुल्म करने का तरीका

आज की शब तो बहुत कुछ है मगर कल के लिए
एक अंदेशा-ए-बेनाम है और कुछ भी नहीं
देखना ये है कि कल तुझ से मुलाक़ात के ब'अद
रंग-ए-उम्मीद खिलेगा कि बिखर जाएगा
वक़्त परवाज़ करेगा कि ठहर जाएगा
जीत हो जाएगी या खेल बिगड़ जाएगा
ख़्वाब का शहर रहेगा कि उजड़ जाएगा
*अंदेशा-ए-बेनाम =व्यग्रता; परवाज़=उड़ान

~ परवीन शाकिर

  Sep 21, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, September 16, 2018

समुंदर चाँदनी में रक़्स करता है

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समुंदर चाँदनी में रक़्स करता है
परिंदे बादलों में छुप के कैसे गुनगुनाते हैं
ज़मीं के भेद जैसे चाँद तारों को बताते हैं
हवा सरगोशियों के जाल बुनती है
तुम्हें फ़ुर्सत मिले तो देखना;

लहरों में इक कश्ती है
और कश्ती में इक तन्हा मुसाफ़िर है
मुसाफ़िर के लबों पर वापसी के गीत
लहरों की सुबुक-गामी में ढलते
दास्ताँ कहते
जज़ीरों में कहीं बहते
पुराने साहिलों पर गूँजते रहते
किसी माँझी के नग़्मों से गले मिल कर पलटते हैं
तुम्हारी याद का सफ़्हा उलटते हैं

अभी कुछ रात बाक़ी है
तुम्हारा और मेरा साथ बाक़ी है
अंधेरों में छुपा इक रौशनी का हाथ बाक़ी है
चले आना
कि हम उस आने वाली सुब्ह को इक साथ देखेंगे

*रक़्स=नृत्य; सरगोशी=कानाफूसी; सुबुक-गामी=तेज़ी से; जज़ीरों=द्वीपों; सफ़्हा=पन्ना

~ सलीम कौसर


  Sep 15, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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गुज़र रहे हैं शब ओ रोज़

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गुज़र रहे हैं शब ओ रोज़ तुम नहीं आतीं
रियाज़-ए-ज़ीस्त है आज़ुरदा-ए-बहार अभी
मिरे ख़याल की दुनिया है सोगवार अभी
जो हसरतें तिरे ग़म की कफ़ील हैं प्यारी 


अभी तलक मिरी तन्हाइयों में बस्ती हैं
तवील रातें अभी तक तवील हैं प्यारी
उदास आँखें तिरी दीद को तरसती हैं
बहार-ए-हुस्न पे पाबंदी-ए-जफ़ा कब तक
ये आज़माइश-ए-सब्र-ए-गुरेज़-पा कब तक 


क़सम तुम्हारी बहुत ग़म उठा चुका हूँ मैं
ग़लत था दावा-ए-सब्र-ओ-शकेब आ जाओ
क़रार-ए-ख़ातिर-ए-बेताब थक गया हूँ मैं

*रियाज़-ए-ज़ीस्त=ज़िंदगी जीने का अभ्यास; आज़ुरदा-ए-बहार=बहार से पीड़ित; सोगवार=उदास; कफ़ील=जमानतदार; तवील=लम्बी

*दीद=दर्शन; ज़फ़ा=ज़ुल्म; गुरेज़-पा=छलावा; सब्र-ओ-शकेब=धीरज व सहन-शक्ति

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


  Sep 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, September 9, 2018

कब तलक ख़्वाबों से धोका खाओगी


कब तलक ख़्वाबों से धोका खाओगी
कब तलक स्कूल के बच्चों से दिल बहलाओगी
कब तलक मुन्ना से शादी के करोगी तज़्किरे
ख़्वाहिशों की आग में जलती रहोगी कब तलक
छुट्टियों में कब तलक हर साल दिल्ली जाओगी
कब तलक शादी के हर पैग़ाम को ठुकराओगी
चाय में पड़ता रहेगा और कितने दिन नमक
बंद कमरे में पढ़ोगी और कितने दिन ख़ुतूत
ये उदासी कब तलक
*तज़्किरे=चर्चा

कब तलक नज़्में लिखोगी
रोओगी यूँ रात की ख़ामोशियों में कब तलक
बाइबल में कब तलक ढूँडोगी ज़ख़्मों का इलाज
मुस्कुराहट में छुपाओगी कहाँ तक अपने ग़म
कब तलक पूछोगी टेलीफ़ोन पर मेरा मिज़ाज
फ़ैसला कर लो कि किस रस्ते पे चलना है तुम्हें
मेरी बाँहों में सिमटना है हमेशा के लिए
या हमेशा दर्द के शो'लों में जलना है तुम्हें
कब तलक ख़्वाबों से धोके खाओगी
ये उदासी कब तलक

~ कफ़ील आज़र अमरोहवी


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Saturday, September 8, 2018

मुझे ख़्वाब अपना अज़ीज़ था

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मुझे ख़्वाब अपना अज़ीज़ था
सो मैं नींद से न जगा कभी
मुझे नींद अपनी अज़ीज़ है
कि मैं सर-ज़मीन पे ख़्वाब की
कोई फूल ऐसा खिला सकूँ
कि जो मुश्क बन के महक सके
कोई दीप ऐसा जला सकूँ
जो सितारा बन के दमक सके

*मुश्क= इत्र, हिरन की नाभि में छुपी हुई ख़ुशबू

मिरा ख़्वाब अब भी है नींद में
मिरी नींद अब भी है मुंतज़िर
कि मैं वो करिश्मा दिखा सकूँ
कहीं फूल कोई खिला सकूँ
कहीं दीप कोई जला सकूँ

*मुंतज़िर=इंतज़ार में

~ बशर नवाज़


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Friday, September 7, 2018

तेरे घर के द्वार बहुत हैं


तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?
सब द्वारों पर भीड़ मची है,
कैसे भीतर जाऊं मैं?

द्वारपाल भय दिखलाते हैं,
कुछ ही जन जाने पाते हैं,
शेष सभी धक्के खाते हैं,
क्यों कर घुसने पाऊं मैं?

तेरी विभव कल्पना कर के,
उसके वर्णन से मन भर के,
भूल रहे हैं जन बाहर के
कैसे तुझे भुलाऊं मैं?

बीत चुकी है बेला सारी,
किंतु न आयी मेरी बारी,
करूँ कुटी की अब तैयारी,
वहीं बैठ गुन गाऊं मैं।

कुटी खोल भीतर जाता हूँ
तो वैसा ही रह जाता हूँ
तुझको यह कहते पाता हूँ-
‘अतिथि, कहो क्या लाउं मैं?

तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?

~ मैथिलीशरण गुप्त


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Monday, September 3, 2018

तुम्हारी आँखें शरारती हैं

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तुम्हारी आँखें शरारती हैं

तुम अपने पीछे छुपे हुए हो
बग़ौर देखूँ तुम्हें तो मुझ को
शरारतों पर उभारती हैं
तुम्हारी आँखें शरारती हैं
*बग़ौर=ध्यान से

लहू को शोला-ब-दस्त कर दें
ये पत्थरों को भी मस्त कर दें
हयात की सूखती रुतों में
बहार का बंद-ओ-बस्त कर दें
कभी गुलाबी कभी सुनहरी
समुंदरों से ज़ियादा गहरी
तहों में अपनी उतारती हैं
तुम्हारी आँखें शरारती हैं
*ब-दस्त=हाथ में

हया भी है उन में शोख़ियाँ भी
ये राज़ भी अपनी तर्जुमाँ भी
रियासत-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ की हैं
रेआया भी और हुक्मराँ भी
वो खो गया ये मिली हैं जिस को
ये जीतना चाहती है जिस को
उसी से दर-असल हारती हैं
तुम्हारी आँखें शरारती हैं
* रेआया, हुक्मराँ=प्रजा और राजा

कशिश का वो दायरा बनाएँ
हवास जिस से निकल न पाएँ
मैं अपने अंदर बिखर सा जाऊँ
समेटने भी न मुझ को आएँ
अजब है अंजान-पन भी उन का
मैं उन का और मेरा फ़न भी उन का
ख़मोश रह कर पुकारती हैं
तुम्हारी आँखें शरारती हैं
*हवास=चेतना (होशो-हवास)

~ मुज़फ़्फ़र वारसी


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Saturday, September 1, 2018

दिल इक कुटिया दश्त किनारे

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दुनिया-भर से दूर ये नगरी
नगरी दुनिया-भर से निराली
अंदर अरमानों का मेला
बाहर से देखो तो ख़ाली
हम हैं इस कुटिया के जोगी
हम हैं इस नगरी के वाली
हम ने तज रक्खा है ज़माना
तुम आना तो तन्हा आना
दिल इक कुटिया दश्त किनारे
बस्ती का सा हाल नहीं है

मुखिया पीर प्रोहित प्यादे
इन सब का जंजाल नहीं है
ना बनिए न सेठ न ठाकुर
पैंठ नहीं चौपाल नहीं है
सोना रूपा चौकी मसनद
ये भी माल-मनाल नहीं है
लेकिन ये जोगी दिल वाला
ऐ गोरी कंगाल नहीं है

चाहो जो चाहत का ख़ज़ाना
तुम आना और तन्हा आना
आहू माँगे बन का रमना
भँवरा चाहे फूल की डाली
सूखे खेत की कोंपल माँगे
इक घनघोर बदरिया काली
धूप जले कहीं साया चाहें
अंधी रातें दीप दिवाली

हम क्या माँगें हम क्या चाहें
होंट सिले और झोली ख़ाली
दिल भँवरा न फूल न कोंपल
बगिया ना बगिया का माली
दिल आहू न धूप न साया
दिल की अपनी बात निराली
दिल तो किसी दर्शन का भूका
दिल तो किसी दर्शन का सवाली

नाम लिए बिन पड़ा पुकारे
किसे पुकारे दश्त किनारे
ये तो इक दुनिया को चाहें
इन को किस ने अपना जाना
और तो सब लोगों के ठिकाने
अब भटकें तो आप ही भटकें
छोड़ा दुनिया को भटकाना
गीत कबत और नज़्में ग़ज़लें
ये सब इन का माल पुराना
झूटी बातें सच्ची बातें
बीती बातें क्या दोहराना
अब तो गोरी नए सिरे से
अँधियारों में दीप जलाना
मजबूरी? कैसी मजबूरी
आना हो तो लाख बहाना 


आना इस कुटिया के द्वारे
दिल इक कुटिया दश्त किनारे

~ इब्न-ए-इंशा


  Sep 1, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh