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Sunday, July 29, 2018

तुम्हारे गाँव से जो रास्ता निकलता है

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तुम्हारे गाँव से जो रास्ता निकलता है
मैं बार बार उसी रास्ते गुज़रा हूँ

हर एक ज़र्रा यहाँ का मिरी निगाह में है
तुम्हारे गाँव के उस रास्ते का एक इक मोड़
खुदा हुआ है मिरे पाँव की लकीरों में
हर एक मोड़ पे रुकता हुआ मैं गुज़रा हूँ
कभी सुनंद की दुक्काँ पे जा के खाया पान
कभी भरे हुए बाज़ार पर नज़र दौड़ाई
कभी शरीफ़ के होटल पे रुक के पी ली चाय

मुझे शरीफ़ से मतलब न कुछ सुनंद से काम
न उस भरे हुए बाज़ार से मुझे कोई रब्त
वो पूछें हाल मैं उन से कहूँ कि अच्छा हूँ
वो मुझ से बढ़ती हुई क़ीमतों का ज़िक्र करें
मैं उन से शहर की बे-लुत्फ़ियों की बात करूँ
गुज़ारता है बस इस तरह एक दो लम्हे
और इस के बाद सड़क पर क़दम बढ़ाता है
तुम्हारे गाँव से जो रास्ता निकलता है
मैं बार बार उसी रास्ते से गुज़रा हूँ

कभी तो काम के हीले से या कभी यूँही
और इन दिनों तो कोई काम सूझता भी नहीं
वो दौर बीत गया मेरा काम ख़त्म हुआ
रही न काम से निस्बत मुझे तुम्हारे बाद
पर इक लगन जो कभी थी तुम्हारे कूचे से
उसी लगन के सहारे फिर आ गया हूँ यहाँ
अभी शरीफ़ के होटल पे आ के बैठा हूँ
अभी सुनंद की दुक्काँ से पान खाऊँगा
ज़रा सी देर यहाँ रुक के कर ही लूँगा सैर
फिर अपने वक़्त पे रस्ते पे बढ़ ही जाऊँगा

ये देखो बढ़ने ही वाली है जैसे गाँव की शाम
ये जैसे उठने ही वाला है गाँव का बाज़ार
यहाँ से वैसे ही बस मैं भी उठने वाला हूँ
बिसान-ए-शाम बस अब मैं भी बढ़ ही जाऊँगा
न कोई मुझ से ये पूछेगा क्यूँ मैं आया था
न मैं किसी से कहूँगा कहाँ मैं जाता हूँ
और एक उम्र से इस तरह जाने कितनी बार
तुम्हारे गाँव के उस रास्ते से गुज़रा हूँ

और अब न जाने इसी तरह और कितनी बार
तुम्हारे गाँव उस इस रास्ते से गुज़रूँगा

~ हबीब तनवीर

  Jul 29, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, July 27, 2018

कोई आशिक़ किसी महबूबा से!

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याद की राहगुज़र जिस पे इसी सूरत से 
मुद्दतें बीत गई हैं तुम्हें चलते चलते 
ख़त्म हो जाए जो दो चार क़दम और चलो 
मोड़ पड़ता है जहाँ दश्त-ए-फ़रामोशी का 
जिस से आगे न कोई मैं हूँ न कोई तुम हो 
साँस थामे हैं निगाहें कि न जाने किस दम
तुम पलट आओ गुज़र जाओ या मुड़ कर देखो
गरचे वाक़िफ़ हैं निगाहें कि ये सब धोका है
गर कहीं तुम से हम-आग़ोश हुई फिर से नज़र
फूट निकलेगी वहाँ और कोई राहगुज़र
फिर इसी तरह जहाँ होगा मुक़ाबिल पैहम
साया-ए-ज़ुल्फ़ का और जुम्बिश-ए-बाज़ू का सफ़र

*दश्त-ए-फ़रामोशी=सब कुछ भूलजाने वाला वीराना; हम-आग़ोश=आलिंगन; मुक़ाबिल=आमने-सामने ; पैहम=लगातार; जुम्बिश=हिलाना-डुलना

दूसरी बात भी झूटी है कि दिल जानता है
याँ कोई मोड़ कोई दश्त कोई घात नहीं
जिस के पर्दे में मिरा माह-ए-रवाँ डूब सके
तुम से चलती रहे ये राह, यूँही अच्छा है
तुम ने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं

*दश्त=जंगल; घात=छुप कर प्रहार करने को बैठा हुआ; माह-ए-रवाँ=चल रहा महीना

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


  Jul 27, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, July 22, 2018

आख़िरी बार मिलो

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आख़िरी बार मिलो ऐसे कि जलते हुए दिल
राख हो जाएँ कोई और तक़ाज़ा न करें
चाक-ए-वादा न सिले ज़ख़्म-ए-तमन्ना न खिले
साँस हमवार रहे शम्अ की लौ तक न हिले
बातें बस इतनी कि लम्हे उन्हें आ कर गिन जाएँ
आँख उठाए कोई उम्मीद तो आँखें छिन जाएँ

*तकाज़ा=माँग; चाक-ए-वादा=टूटे हुए वादे

इस मुलाक़ात का इस बार कोई वहम नहीं
जिस से इक और मुलाक़ात की सूरत निकले
अब न हैजान ओ जुनूँ का न हिकायात का वक़्त
अब न तजदीद-ए-वफ़ा का न शिकायात का वक़्त
लुट गई शहर-ए-हवादिस में मता-ए-अल्फ़ाज़
अब जो कहना है तो कैसे कोई नौहा कहिए
आज तक तुम से रग-ए-जाँ के कई रिश्ते थे
कल से जो होगा उसे कौन सा रिश्ता कहिए

*हैजान=उत्तेजना; हिकायात=कहानी; तजदीद=फिर से (शुरू करना); हवादिस=हादसों का; मता-ए-अल्फ़ाज़=शब्दों नाम की वस्तु; नौहा=शोक

फिर न दहकेंगे कभी आरिज़-ओ-रुख़्सार मिलो
मातमी हैं दम-ए-रुख़्सत दर-ओ-दीवार मिलो
फिर न हम होंगे न इक़रार न इंकार मिलो
आख़िरी बार मिलो

*आरिज़-ओ-रुख़्सार=गाल और चेहरा; दम-ए-रुख़सत=विदाई के क्षण

~ मुस्तफ़ा ज़ैदी


  Jul 22, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, July 21, 2018

जब चले जाएँगे हम लौट के

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जब चले जाएँगे हम लौट के सावन की तरह 
याद आएँगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह 

ज़िक्र जिस दम भी छिड़ा उन की गली में मेरा 
जाने शरमाए वो क्यूँ गाँव की दुल्हन की तरह 

मेरे घर कोई ख़ुशी आती तो कैसे आती
उम्र-भर साथ रहा दर्द महाजन की तरह

कोई कंघी न मिली जिस से सुलझ पाती वो
ज़िंदगी उलझी रही ब्रम्हा के दर्शन की तरह

दाग़ मुझ में है कि तुझमें ये पता तब होगा
मौत जब आएगी कपड़े लिए धोबन की तरह

हर किसी शख़्स की क़िस्मत का यही है क़िस्सा
आए राजा की तरह जाए वो निर्धन की तरह

जिस में इंसान के दिल की न हो धड़कन 'नीरज'
शाइ'री तो है वो अख़बार के कतरन की तरह

~ गोपालदास नीरज


  Jul 20, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, July 14, 2018

ख़ुदारा यादें मत लेना

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शिकस्ता हूँ मगर दौलत भी है हासिल हुई हम को 
गुज़ारे साथ जो पल क़द्र उस की हो नहीं किस को 
बने सरमाया हैं वो ज़िंदगी का प्यार से रखना 
ख़ुदारा यादें मत लेना 

*शिकस्ता=टूटा हुआ; सरमाया=पूँजी

यही यादें हैं ले जाएँगी हम को आख़री दम तक
न कोई हम-सफ़र होगा न जाएगा कोई घर तक
ये घर एहसास का होगा मेरा एहसास मत लेना
ख़ुदारा यादें मत लेना

है खेली प्यार की बाज़ी न जीता मैं न तुम हारी
लगाएगी ये दुनिया ज़र्ब अपने दम से ही कारी
ये तय है ज़ख़्म माँगेगा कोई मरहम लगा देना
ख़ुदारा यादें मत लेना

*ज़र्ब=चोट; कारी=गहरी

मिले हम इत्तिफ़ाक़न थे मगर राहें लगीं यकसाँ
कभी दुश्वारियाँ अपनी कभी मंज़िल रही पिन्हाँ
ये होता रहता है अक्सर जो रूठे दिल मना लेना
ख़ुदारा यादें मत लेना

*पिन्हाँ=छुपा हुआ

ये हाथों की लकीरें बाज़ आएँगी कहाँ दिलबर
इन्हें तो बैर है हम से करम-फ़रमा रक़ीबों पर
रहेगा खेल क़िस्मत का उसे है खेल में लेना
ख़ुदारा यादें मत लेना

मुझे है ये यक़ीं पाओगे तुम अपनी नई मंज़िल
मैं तड़पूँ या करूँ गिर्या नहीं होगा कोई हासिल
हटा कर मुझ को रस्ते से क़दम आगे बढ़ा लेना
ख़ुदारा यादें मत लेना

~ उज़ैर रहमान


  Jul 14, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, July 4, 2018

जश्न

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जश्न-ए-नौरोज़ भी है
जश्न-ए-बहाराँ भी है
शब-ए-महताब (चाँद रात) भी
जश्न-ए-मह-ए-ताबाँ (चमकता चाँद) भी है
सुनते हैं
आज ही जश्न-ए-शह-ए-ख़ूबाँ (अच्छा राजा) भी है

आइए ऐ दिल-ए-बर्बाद
चलें हम भी वहाँ
जश्न की रात है
सौग़ात तो बटती होगी
अपने हिस्से की
चलें हम भी उठा लें सौग़ात
दर्द की
आख़िरी सीने से लगा लें सौग़ात
और फिर यूँ हो
कि जब शाम ढले
ओस में भीग के
गुल-मोहर की ख़ुश्बू फैले
याद की चाँदनी
बे-ख़्वाब दरीचों (खिड़कियों) पे गिरे
फिर उसी जश्न की
ये रात मिरे काम आए
दर्द की आख़िरी सौग़ात
मिरे काम आए
आख़िर शब
शब-ए-आख़िर ठहरे
ज़िद पे आया हुआ ये दिल ठहरे

तोड़ दूँ शीशा
जो हस्ती का भी फिर जाम आए
काम आए
तो ये सौग़ात मिरे काम आए
जश्न की रात है
यूँ नज़्र गुज़ारी जाए
एक इक आरज़ू सदक़े (चढ़ावे) में उतारी जाए

~ नसीम सय्यद


  Jul 04, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, July 1, 2018

कुछ होश नहीं, कुछ होश नहीं

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कुछ होश नहीं, कुछ होश नहीं

जब दर्द की लहरें डूब गईं
जब आँखें चेहरा भूल गईं
तुम सोच के आँगन में कैसे
फिर याद के घुँगरू ले आए
मैं कैसी महक से पागल हूँ
फिर रक़्स-ए-जुनूँ में शामिल हूँ
कुछ होश नहीं, कुछ होश नहीं



फिर चेहरा चेहरा तेरा चेहरा
फिर आँख में तेरी आँखों का
पुर-कैफ़ नज़ारा झूम उठा
फिर सारा ज़माना झूम उठा
कब रात गई कब दिन जागा

कुछ होश नहीं, कुछ होश नहीं

~ ख़ालिद मलिक साहिल

  Jul 01, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh