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Saturday, December 31, 2016

ब्याह की यह शाम‚ आधी रात को भाँवर

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ब्याह की यह शाम‚
आधी रात को भाँवर पड़ेंगी।
आज तो रो लो तनिक‚ सखि।

गूँजती हैं ढोलके–
औ’ तेज स्वर में चीखते– से हैं खुशी के गीत।
बंद आँखों को किये चुपचाप‚
सोचती होगी कि आएंगे नयन के मीत
सज रहे होंगे नयन पर हास‚
उठ रहे होंगे हृदय में आश औ’ विश्वास के आधार
नाचते होंगे पलक पर
दो दिनों के बाद के… आलिंगनों के‚ चुंबनों के वे सतत व्यापार
जिंदगी के घोर अनियम में‚ अनिश्चय में
नहीं हैं मानते जो हार।

किंतु संध्या की उदासी मिट नहीं पाती‚
बजें कितने खुशी के गीत
और जीवन के अनिश्चय बन न पाते कभी निश्चय‚
हाय। क्रम इस जिंदगी के… साथ के विपरीत।
साँवली इस शाम की परछाइयाँ कुछ देर में
आकाश पर तारे जड़ेंगी‚

अश्रुओं के तारकों को तुम संजो लो
आज तो रो लो तनिक सखि‚
ब्याह की यह शाम‚
आधी रात को भांवर पड़ेंगी।

~ अजित कुमार


  Dec 31, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, December 30, 2016

चाँदनी की रात है तो क्‍या करूँ

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चाँदनी की रात है तो क्‍या करूँ
ज़िन्‍दगी में चाँदनी कैसे भरूँ

दूर है छिटकी छबीली चाँदनी
बहुत पहली देह-पीली चाँदनी
चौक थे पूरे छुई के - चाँदनी
दीप ये ठण्‍डे रुई के - चाँदनी
पड़ रही आँगन तिरछी चाँदनी
गन्‍ध चौके भरे मैले वसन
गृहिणी चाँदनी

याद यह मीठी कहाँ कैसे धरूँ
असलियत में चाँदनी कैसे भरूँ

फूल चम्‍पे का खिला है चाँद में
दीप ऐपन का जला है चाँद में
चाँद लालिम उग कर उजला हुआ
कामिनी उबटन लगा आई नहा
राह किसकी देखती यह चाँदनी
दूर देश पिया, अकेली चाँदनी

चाँदनी की रात है तो क्‍या करूँ
आसुँओं में चाँदनी कैसे भरूँ

शहर, कस्‍बे, गाँव, ठिठकी चाँदनी
एक जैसी पर न छिटकी चाँदनी
कागजों में बन्‍द भटकी चाँदनी
राह चलते कहाँ अटकी चाँदनी
हविस, हिंसा, होड़ है उन्‍मादिनी
शहर में दिखती नहीं है चाँदनी

चाँदनी की रात है तो क्‍या करूँ
कुटिलता में चाँदनी कैसे भरूँ

गाँव की है रात चटकी चाँदनी
है थकन की नींद मीठी चाँदनी
दूध का झरता बुरादा : चाँदनी
खोपरे की मिगी कच्‍ची चाँदनी

उतर आई रात दूर विहान है
वक्त का ठहराव है सुनसान है

चाँदनी है फसल
ठंडे बाजरे की ज्‍वार की
गोल नन्‍हे चाँद से दाने
उजरिया मटीले घर-द्वार की
एक मुट्ठी चाँदनी भी रह न पाई
जब्र लूटे धूजते संसार की
दबे नंगे पाँव लुक-छिप भागती है
धूल की धौरी नदी गलियार की
चुक गई सारी उमर की चाँदनी

बाल सन से ऊजरे ज्‍यों चाँदनी
कौड़ियों-सी बिछी उजली चाँदनी
कौड़ियों के मोल बिकती चाँदनी
और भी लगती सुहानी चाँदनी
धान, चावल, चून होती चाँदनी

चाँदनी की रात है तो क्‍या करूँ
पंजरों में चाँदनी कैसे भरूँ

गाँव का बूढ़ा कहे सुन चाँदनी
रात काली हो कि होवे चाँदनी
गाँव पर अब भी अँधेरा पाख है
साठ बरसों में न बदली चाँदनी
फिर मिलेगी कब दही-सी चाँदनी
दूध, नैनू, घी, मही-सी चाँदनी

चाँदनी की रात है तो क्‍या करूँ
डण्‍ठलों में चाँदनी कैसे भरूँ

~ गिरिजा कुमार माथुर

  Dec 30, 2016| e-kavya.blogspot.com
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सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज़ संघर्ष ही।

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सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज़ संघर्ष ही।

संघर्ष से हटकर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम।
जो नत हुआ वह मृत हुआ ज्यों वृंत से झरकर कुसुम।
जो लक्ष्य भूल रुका नहीं
जो हार देख झुका नहीं
जिसने प्रणय पाथेय माना जीत उसकी ही रही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज़ संघर्ष ही।

ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे।
जो है जहाँ चुपचाप अपने आप से लड़ता रहे।
जो भी परिस्थितियाँ मिलें
काँटे चुभें कलियाँ खिलें
हारे नहीं इंसान, है जीवन का संदेश यही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज़ संघर्ष ही।

हमने रचा आओ हमीं अब तोड़ दें इस प्यार को।
यह क्या मिलन, मिलना वही जो मोड़ दे मंझधार को।
जो साथ फूलों के चले
जो ढ़ाल पाते ही ढ़ले
यह ज़िंदगी क्या ज़िंदगी जो सिर्फ़ पानी सी बही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज़ संघर्ष ही।

संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित।
पर झाँककर देखो दृगों में, हैं सभी प्यासे थकित।
जब तक बँधी है चेतना
जब तक हृदय दुख से घना
तब तक न मानूँगा कभी इस राह को ही मैं सही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज़ संघर्ष ही।

अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना।
अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना।
आकाश सुख देगा नहीं
धरती पसीजी है कहीं?
जिससे हृदय को बल मिले है ध्येय अपना तो वही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज़ संघर्ष ही।

~ जगदीश गुप्त
  Dec 29, 2016| e-kavya.blogspot.com
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हम दीवानों का क्या परिचय?

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हम दीवानों का क्या परिचय?
कुछ चाव लिए, कुछ चाह लिए
कुछ कसकन और कराह लिए
कुछ दर्द लिए, कुछ दाह लिए
हम नौसिखिए, नूतन पथ पर चल दिए, प्रणय का कर विनिमय
हम दीवानों का क्या परिचय?

विस्मृति की एक कहानी ले
कुछ यौवन की नादानी ले
कुछ-कुछ आंखों में पानी ले
हो चले पराजित अपनों से, कर चले जगत को आज विजय,
हम दीवानों का क्या परिचय?

हम शूल बढ़ाते हुए चले
हम फूल चढ़ाते हुए चले
हम धूल उड़ाते हुए चले
हम लुटा चले अपनी मस्ती, अरमान कर चले कुछ संचय,
हम दीवानों का क्या परिचय?

हम चिर-नूतन विश्वास लिए
प्राणों में पीड़ा-पाश लिए
मर मिटने की अभिलाषा लिए
हम मिटते रहते हैं प्रतिपल, कर अमर प्रणय में प्राण-निलय,
हम दीवानों का क्या परिचय?

हम पीते और पिलाते हैं
हम लुटते और लुटाते हैं
हम मिटते और मिटाते हैं
हम इस नन्हीं-सी जगती में बन-बन मिट-मिट करते अभिनय,
हम दीवानों का क्या परिचय?

शाश्वत यह आना-जाना है
क्या अपना और बिराना है
प्रिय में सबको मिल जाना है
इतने छोटा-से जीवन में, इतना ही कर पाए निश्चय,
हम दीवानों का क्या परिचय?

शाश्वत यह आना-जाना है
क्या अपना और बिराना है
प्रिय में सबको मिल जाना है
इतने छोटे-से जीवन में, इतना ही कर पाए निश्चय,
हम दीवानों का क्या परिचय?

~ शिवमंगल सिंह 'सुमन'



  Dec 28, 2016| e-kavya.blogspot.com
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घातक है, जो देवता–सदृश दिखता है

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घातक है, जो देवता–सदृश दिखता है
लेकिन कमरे में ग़लत हुक्म लिखता है
जिस पापी को गुण नहीं, गोत्र प्यारा है
समझो उसने ही हमें यहाँ मारा है।

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है
जो किसी लोभ के विवश मूक रहता है
उस कुटिल राजतंत्री कदर्य को धिक् है
वह मूक सत्यहंता कम नहीं वधिक है।

चोरों के हैं जो हेतु, ठगों के बल हैं
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं
जो छल–प्रपंच सब को प्राश्रय देते हैं
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं।

यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है
भारत अपने घर में ही हार गया है।

कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से
सीलें जबान, चुपचाप काम पर जायें
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें

जा कहो पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में
तामस यदि बढ़ता गया ढकेल प्रभा को
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।

~ रामधारी सिंह दिनकर


  Dec 272016| e-kavya.blogspot.com
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हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू

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हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा परिचय!

मै शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार–क्षार।
डमरू की वह प्रलय–ध्वनि हूँ, जिसमे नचता भीषण संहार।
रणचंडी की अतृप्त प्यास, मै दुर्गा का उन्मत्त हास।
मै यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुँआधार।
फिर अंतरतम की ज्वाला से जगति मे आग लगा दूँ मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अंबर, जड़ चेतन तो कैसा विस्मय?
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा परिचय!

मै अखिल विश्व का गुरु महान, देता विद्या का अमरदान।
मैने दिखलाया मुक्तिमार्ग, मैने सिखलाया ब्रह्मज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर्णभ मे घहर–घहर, सागर के जल मे छहर–छहर।
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगति सोरभमय।
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा परिचय!

मैने छाती का लहू पिला, पाले विदेश के क्षुधित लाल।
मुझको मानव में भेद नही, मेरा अन्तस्थल वर विशाल।
जग से ठुकराए लोगों को लो मेरे घर का खुला द्वार।
अपना सब कुछ हूँ लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनागार।
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राजमुकुट।
यदि इन चरणों पर झुक जाए कल वह किरीट तो क्या विस्मय?
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा परिचय!

होकर स्वतन्त्र मैने कब चाहा है कर लूँ सब को गुलाम?
मैने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल–राम के नामों पर कब मैने अत्याचार किया?
कब दुनिया को हिन्दू करने घर–घर मे नरसंहार किया?
कोई बतलाए काबुल मे जाकर कितनी मस्जिद तोडी?
भूभाग नहीं, शत–शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा परिचय!

मै एक बिन्दु परिपूर्ण सिन्धु है यह मेरा हिन्दु समाज।
मेरा इसका संबन्ध अमर, मैं व्यक्ति और यह है समाज।
इससे मैने पाया तन–मन, इससे मैने पाया जीवन।
मेरा तो बस कर्तव्य यही, कर दू सब कुछ इसके अर्पण।
मै तो समाज की थाति हूँ, मै तो समाज का हूं सेवक।
मै तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा परिचय!

~ अटल बिहारी वाजपेयी



  Dec 262016| e-kavya.blogspot.com
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संग तुम्हारे गाऊँगा मैं कब उठकर

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सभी पाठकों को 2016 क्रिसमस' की शुभ कामनाएँ।

संग तुम्हारे गाऊँगा मैं कब उठकर, आनंद विहंगिनी!

कुछ अँधियारे, कुछ उजियारे, सुनता हूँ जब तान तुम्हारी,
आ जाता है ध्यान कि मुझको करनी है दिन की तैयारी,
औ' जग-धंधों में पड़्ना है, साथ सोचता भी जाता हूँ
संग तुम्हारे गाऊँगा मैं कब उठ कर, आनंद विहंगिनी!

ख़ून पसीने से दुनिया का कर्ज़ चुका कर जब आता हूँ,
तब रजनी के सूनेपन में कुछ अपने पन को पाता हूँ,
और गूँजती है कानों में तब फिर प्रातः की प्रतिध्वनियाँ,
औ' ध्वनियों से उत्तर दे कर गाता हूँ निर्द्वंद विहंगिनी!

दिन को नौकर हूँ मैं लेकिन रातों का राजा बन जाता,
सपना, सत्य, कल्पना, अनुभव का अद्भुत दरबार लगाता,
कहाँ-कहाँ से किन किन शाहों के मुझको संदेशे आते,
जाते हैं फ़रमान जगत में बनकर मेरे छंद, विहंगिनी!

नीड़ों की नीरव नींदों में तुम क्या मेरी धुन पहचानो,
जिस दुख, सुख को मैं भजता हूँ, तुम क्या उसको जानो मानो,
डाह बहुत है तुमहे मुझको मुक्त परों की मुक्त स्वरों की,
गो न गये दे मुझको कुछ कम जीवन के प्रतिबंध, विहंगिनी!

संग तुम्हारे गाऊँगा मैं कब उठकर, आनंद विहंगिनी!

‍~ हरिवंशराय बच्चन

  Dec 252016| e-kavya.blogspot.com
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आप धीरे धीरे मरने लगते हैं,

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आप धीरे धीरे मरने लगते हैं,
अगर आप करते नहीं कोई यात्रा,
अगर आप पढ़ते नहीं कोई किताब,
अगर आप सुनते नहीं जीवन की ध्वनियाँ,
अगर आप करते नहीं किसी की तारीफ़, 

आप धीरे धीरे मरने लगते हैं,
जब आप मार डालते हैं अपना स्वाभिमान,
जब आप नहीं करने देते मदद अपनी,
न करते हैं मदद दूसरों की,

आप धीरे धीरे मरने लगते हैं,
अगर आप बन जाते हैं गुलाम अपनी आदतों के,
चलते हैं रोज़ उन्हीं रोज़ वाले रास्तों पे,
अगर आप नहीं बदलते हैं अपना दैनिक नियम व्यवहार ,
अगर आप नहीं पहनते हैं अलग अलग रंग,
या आप नहीं बात करते उनसे जो हैं अजनबी अनजान,

आप धीरे धीरे मरने लगते हैं,
अगर आप नहीं महसूस करना चाहते आवेगों को,
और उनसे जुड़ी अशांत भावनाओं को,
वे जिनसे नम होती हों आपकी आँखें,
और करती हों तेज़ आपकी धड़कनों को,

आप धीरे धीरे मरने लगते हैं,
अगर आप नहीं बदल सकते हों अपनी ज़िन्दगी को,
जब हों आप असंतुष्ट अपने काम और परिणाम से,
अगर आप अनिश्चित के लिए नहीं छोड़ सकते हों निश्चित को,
अगर आप नहीं करते हों पीछा किसी स्वप्न का,
अगर आप नहीं देते हों इजाज़त खुद को,
अपने जीवन में कम से कम एक बार
किसी समझदार सलाह से दूर भाग जाने की..

आप धीरे धीरे मरने लगते हैं....

नोबेल पुरस्कार विजेता स्पेनिश कवि पाब्लो नेरुदा की कविता "You start dying slowly – Pablo Neruda" का हिन्दी अनुवाद...


  Dec 23, 2016| e-kavya.blogspot.com
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देखो यह जग का परिवर्तन

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देखो यह जग का परिवर्तन

जिन कलियों को खिलते देखा
मृदु मारुत में हिलते देखा
प्रिय मधुपों से मिलते देखा
हो गया उन्हीं का आज दलन
देखो यह जग का परिवर्तन

रहती थी नित्य बहार जहाँ
बहती थी रस की धार जहाँ
था सुषमा का संसार जहाँ
है वहाँ आज बस ऊजड़ बन
देखो यह जग का परिवर्तन

था अतुल विभव का वास जहाँ
था जीवन में मधुमास जहाँ
था सन्तत हास विलास जहाँ
है आज वहाँ दुख का क्रंदन
देखो यह जग का परिवर्तन

जो देश समुन्नत–भाल रहे
नित सुखी स्वतंत्र विशाल रहे
जन–मानस–मंजु–कराल रहे
लो उनका भी हो गया पतन
देखो यह जग का परिवर्तन

*समुन्नत=जिसकी यथेष्ट उन्नति हुई हो; भाल=तेज;
मंजु=मनोहर; कराल=बहुत ऊँचा

~ ठाकुर गोपालशरण सिंह


  Dec 21, 2016| e-kavya.blogspot.com
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कहां तो सत्य की जय का ध्वजारोहण

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कहां तो सत्य की जय का ध्वजारोहण किया था‚
कहां अन्याय से नित जूझने का प्रण लिया था‚
बुराई को मिटाने के अदम उत्साह को ले‚
तिमिर को दूर करने का तुमुल घोषण किया था।

बंधी इन मुठ्ठियों में क्यों शिथिलता आ रही है?
ये क्यों अब हाथ से तलवार फिसली जा रही है?
निकल तरकश से रिपुदल पर बरसने को तो शर थे‚
भुजा जो धनुषधारी थी‚ मगर पथरा रही है।

जो बज उत्साह से रण–भेरियां नभ को गुंजातीं‚
नया संकल्प रण का नित्य थीं हमको सुनातीं‚
सिमट कर गर्भ में तम के अचानक खो गई हैं‚
समय की धुंध में जा कर कहीं पर सो गई हैं।

ये कैसी गहन कोहरे सी उदासी छा गई है?
उमंगों की तरंगों पर कहर सा ढा रहा है;
ये पहले से कदम क्योंकर नहीं उठते हमारे?
ये कैसा बाजुओं में जंग लगता जा रहा है?

जो जागृत पल थे आशा के‚ वे ओझल हो गए हैं‚
कहां सब इंद्रधनुषी रंग जा कर खो गए हैं?
लिये संकल्प निष्ठा से कभी करबद्ध हो जो‚
वे निष्क्रियता की चादर ओढ़ कर क्यों सो गए हैं?

∼ राजीव कृष्ण सक्सेना


  Dec 20, 2016| e-kavya.blogspot.com
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मैं तुम्हारी बाट जोहूँ

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मैं तुम्हारी बाट जोहूँ
तुम दिशा मत मोड़ जाना

तुम अगर ना साथ दोगे
पूर्ण कैसे छंद होंगे
भावना के ज्वार कैसे
पक्तिंयों में बंद होंगे

वर्णमाला में दुखों की
और कुछ मत जोड़ जाना

देह से हूँ दूर लेकिन
हूँ हृदय के पास भी मैं
नयन में सावन संजोए
गीत भी मधुमास भी मैं

तार में झंकार भर कर
बीन-सा मत तोड़ जाना

पी गई सारा अंधेरा
दीप-सी जलती रही मैं
इस भरे पाषाण युग में
मोम सी गलती रही मैं

प्रात को संध्या बना कर
सूर्य-सा मत छोड़ जाना

~ निर्मला जोशी


  Dec 19, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 18, 2016

दिल ने कहा आओ भुला दें यादें



आज फिर दिल ने कहा आओ भुला दें यादें
ज़िंदगी बीत गई और वही यादें - यादें

जिस तरह आज ही बिछड़े हों बिछड़ने वाले
जैसे इक उम्र के दुःख याद दिला दें यादें

काश मुमकिन हो कि इक काग़ज़ी कश्ती की तरह
ख़ुद-फरामोशी के दरिया में बहा दें यादें
*ख़ुदफरामोशी=ख़ुद को भूलना

वो भी रुत आए कि ऐ ज़ूद-फ़रामोश मेरे
फूल पत्ते तेरी यादों में बिछा दें यादें
*ज़ूद-फ़रामोश=भुलक्कड़

जैसे चाहत भी कोई जुर्म हो और जुर्म भी वो
जिसकी पादाश में ता-उम्र सज़ा दें यादें
*पादाश=जुर्म की सजा

भूल जाना भी तो इक तरह की नेअमत है ‘फ़राज़’
वरना इंसान को पागल न बना दें यादें

~ अहमद फ़राज़


  Dec 18, 2016| e-kavya.blogspot.com
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कोहरे में चंदन वन डूब गया

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छोटी से बड़ी हुईं तरुओं की छायाएं
धुंधलाईं सूरज के माथे की रेखाएं
मत बांधो आंचल मे फूल, चलो लौट चलें
वह देखो, कोहरे में चंदन वन डूब गया।

माना सहमी गलियों में न रहा जाएगा
सांसों का भारीपन भी न सहा जाएगा
किन्तु विवशता यह यदि अपनों की बात चली
कांपेंगे आधर और कुछ न कहा जाएगा।

वह देखो! मंदिर वाले वट के पेड़ तले
जाने किन हाथों से दो मंगल दीप जले
और हमारे आगे अंधियारे सागर में
अपने ही मन जैसा नील गगन डूब गया।

कौन कर सका बंदी रोशनी निगाहों में
कौन रोक पाया है गंध बीच राहों में
हर जाती संध्या की अपनी मजबूरी है
कौन बांध पाया है इंद्रधनुष बाहों में।

सोने से दिन चांदी जैसी हर रात गयी
काहे का रोना जो बीती सो बात गयी
मत लाओ नैनों में नीर कौन समझेगा
एक बूंद पानी में‚ एक वचन डूब गया।

भावुकता के कैसे केश संवारे जाएं?
कैसे इन घड़ियों के चित्र उतारे जाएं?
लगता है मन की आकुलता का अर्थ यही
आगत के आगे हम हाथ पसारे जाएं।

दाह छुपाने को अब हर पल गाना होगा
हंसने वालों में रह कर मुसकाना होगा
घूंघट की ओट किसे होगा संदेह कभी
रतनारे नयनों में एक सपान डूब गया।

∼ किशन सरोज


  Dec 17, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 16, 2016

कौन यहाँ आया था......,


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कौन यहाँ आया था
कौन दिया बाल गया
सूनी घर-देहरी में
ज्योति-सी उजाल गया।

पूजा की बेदी पर
गंगाजल भरा कलश
रक्खा था, पर झुक कर
कोई कौतुहलवश
बच्चों की तरह हाथ
डाल कर खंगाल गया।

आँखों में तिरा आया
सारा आकाश सहज
नए रंग रँगा थका-
हारा आकाश सहज
पूरा अस्तित्व एक
गेंद-सा उछाल गया।

अधरों में राग, आग
अनमनी दिशाओं में
पार्श्व में, प्रसंगों में
व्यक्ति में, विधाओं में
साँस में, शिराओं में
पारा-सा ढाल गया।

∼ दुष्यंत कुमार


  Dec 16, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, December 15, 2016

प्रिये तुम्हारी इन आँखों में

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प्रिये तुम्हारी इन आँखों में मेरा जीवन बोल रहा है

बोले मधुप फूल की बोली, बोले चाँद समझ लें तारे
गा-गाकर मधुगीत प्रीति के, सिंधु किसी के चरण पखारे
यह पापी भी क्यों-न तुम्हारा मनमोहम मुख-चंद्र निहारे
प्रिये तुम्हारी इन आँखों में मेरा जीवन बोल रहा है

देखा मैंने एक बूँद से ढँका जरा आँखों का कोना
थी मन में कुछ पीर तुम्हारे, पर न कहीं कुछ रोना धोना
मेरे लिय बहुत काफी है आँखों का यह डब-डब होना
साथ तुम्हारी एक बूँद के, मेरा जीवन डोल रहा है

कोई होगी और गगन में, तारक-दीप जलाने वाली
कोई होगी और, फूल में सुंदर चित्र बनाने वाली
तुम न चाँदनी, तुम न अमावस, सखी तुम तो ऊषा की लाली
यह दिल खोल तुम्हारा हँसना, मेरा बंधन खोल रहा है

~ गोपाल सिंह नेपाली


  Dec 15, 2016| e-kavya.blogspot.com
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बड़ी बहकी सी बातें कर रहा

बड़ी बहकी सी बातें कर रहा वो,
न जाने क्या बताना चाहता है।

~ उन्नावी

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Wednesday, December 14, 2016

इस बार नहीं आ पाऊँगा

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इस बार नहीं आ पाऊँगा

पर निश्चय ही यह हृदय मेरा
बेचैनी से अकुलाएगा
कुछ नीर नैन भर लाएगा
पर जग के कार्यकलापों से
दायित्वों के अनुपातों से
हारूँगा, जीत न पाऊँगा
इस बार नहीं आ पाऊँगा

जब संध्या की अंतिम लाली
नीलांबर पर बिछ जाएगी
नभ पर छितरे घनदल के संग
जब सांध्य रागिनी गाएगी
मन से कुछ कुछ सुन तो लूँगा
पर साथ नहीं गा पाऊँगा
इस बार नहीं आ पाऊँगा

जब प्रातः की मंथर समीर
वृक्षों को सहला जाएगी
मंदिर की घंटी दूर कहीं
प्रभु की महिमा को गाएगी
तब जोड़ यहीं से हाथों को
अपना प्रणाम पहुँचाऊँगा
इस बार नहीं आ पाऊँगा

जब ग्रीष्म काल की हरियाली
अमराई पर छा जाएगी
कूहू-कूहू कर के कोयल
रस आमों में भर जाएगी
रस को पीने की ज़िद करते
मन को कैसे समझाऊँगा
इस बार नहीं आ पाऊँगा

जब इठलाते बादल के दल
पूरब से जल भर लाएँगे
जब रंग बिरंगे पंख खोल
कर मोर नृत्य इतराएँगे
मेरे पग भी कुछ थिरकेंगे
पर नाच नहीं मैं पाऊँगा
इस बार नहीं आ पाऊँगा

जब त्यौहारों के आने की
रौनक होगी बाज़ारों में
खुशबू जानी पहचानी-सी
बिख़रेगी घर चौबारों में
उस खुशबू की यादों को ले
मैं सपनों में खो जाऊँगा
इस बार नहीं आ पाऊँगा

~ राजीव कृष्ण सक्सेना


  Dec 14, 2016| e-kavya.blogspot.com
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कोई मन पाखी टेरा रे

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रुक रुक चले बयार, कि झुक झुक जाए बादल छाँह
कोई मन सावन घेरा रे, कोई मन सावन घेरा रे
ये बगुलों की पांत उडी मन के गोले आकाश
कोई मन पाखी टेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे

कौंध कौंध कर चली बिजुरिया, बदल को समझने
बीच डगर मत छेड़ लगी है, पूर्व हाय लजाने
सहमे सकुचे पांव, कि नयनों पर पलकों की छाँव
किसने मुद कर हेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे

झूम झूम झुक जाए चंपा, फूल फूल उतराये
गदराई केलों की कलियाँ, सावन शोर मचाये
रिम झिम बरसे प्यार की पल पल उमगे मेघ मल्हार
मधुर रास सारा तेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे

पात पात लहराए बगिया, उमग उमग बौराये
सौंधी सौंधी गंध धरा की, कन कन महकी जाये
बहकी बहकी सांस, कि अँखियों भर भर दिये उजास
मन कहाँ बसेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे

रूठ रूठ खुल जाये पयलिया, छुम छुम चली मनाने
सूने सूने पांव महावर, दुल्हिन चली रचाने
किसके मन की बात, की सकुचे किसका कोमल गात
कहाँ पर हुआ सवेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे

∼ वीरबाला भावसार


  Dec 13, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Monday, December 12, 2016

उँगली पर गिनना पड़ता है



उँगली पर गिनना पड़ता है
किससे बात करें!

पढ़ने-लिखने वाले सब हैं सोचने वाले गिने-चुने
उद्धरणों से भरे रिसाले दिल के हवाले गिने-चुने
अर्थ कभी होते होंगे शब्दों के
अब बस क़ीमत है
सबके सब गुलदस्तों जैसे ज़हर के प्याले गिने-चुने

भाड़ में जाएँ कबीर निराला
क्यों कवि ही हो ग़ैरतवाला
अपने में फूला है आग बबूला है हर कोई यहाँ
हर कोई तिरछा पड़ता है
किससे बात करें।

बिन पगार वे पनप रहे हम मरखप के भी हैं निर्धन
वे कट ग्लासों की क्राकरियाँ हम कुम्हार के हैं बर्तन
मौलिकता है घालमेल की डुप्लीकेटों के युग में
हम हैं गली खड़ंजे वाली वे मोज़ेक के हैं आँगन
एक नहीं नाना प्रकार के
बैठे हैं सब कुछ डकार के
उनको अपनी आँख का माड़ा कभी नहीं दिखता लेकिन
औरों का काजल गड़ता है
किससे बात करें!

~ देवेंद्र आर्य


  Dec 12, 2016| e-kavya.blogspot.com
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मेरे आंगन श्वेत कबूतर!



 
मेरे आंगन श्वेत कबूतर!
उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे आंगन श्वेत कबूतर!
गर्मी की हल्की संध्या यों
झांक गई मेरे आंगन में
झरीं केवड़े की कुछ बूंदें
किसी नवोढ़ा के तन-मन में;
लहर गई सतरंगी चूनर, ज्यों तन्यी के मृदुल गात पर!
उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे आंगन श्वेत कबूतर!

मेरे हाथ रची मेहंदी, उर
बगिया में बौराया फागुन
मेरे कान बजी बंसी धुन
घर आया मनचाहा पाहुन
एक पुलक प्राणों में, चितवन एक नयन में, मधुर मधुर-तर!
उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे आंगन श्वेत कबूतर!

कोई सुंदर स्वप्न सुनहले
आंचल में चंदा बन आया
कोई भटका गीत उनींदा
मेरी सांसों से टकराया;
छिटक गई हो जैसे जूही, मन प्राणों में महक महक कर!
उड़ आया ऊंची मुडेर से, मेरे आंगन श्वेत कबूतर!

मेरा चंचल गीत किलकता
घर-आंगन देहरी-दरवाजे।
दीप जलाती सांझ उतरती
प्राणों में शहनाई बाजे
अमराई में बिखर गए री, फूल सरीखे सरस सरस स्वर!
उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे आंगन श्वेत कबूतर!

~ वीरबाला भावसार


  May 23, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 11, 2016

किसी ने ग़म को कुछ समझा



किसी ने ग़म को कुछ समझा कोई समझा ख़ुशी को कुछ ।
नज़र इक ज़िन्दगी आई किसी को कुछ किसी को कुछ ।

इक आलम बेहिसी का उम्र भर तारी रहा हम पर,
गिना कुछ मौत को हमने न माना ज़िन्दगी को कुछ ।
*बेहिसी=बेपरवाही; तारी=संयोग

समुन्दर को मुक़द्दर मानती है हर नदी अपना,
मगर कोई समुन्दर कब समझता है नदी को कुछ ।

तेरी दरियादिली का हमने रक्खा है भरम कायम,
न दे पानी, दुआ ही दे हमारी तिशनगी को कुछ ।

रज़ामन्दी से हमने कब कोई लम्हा गुज़ारा है,
तवज्जो कब मिली अपनी ख़ुशी और नाख़ुशी को कुछ ।
*तवज्जो=परवाह

बहुत समझाया, जितने मुँह बनेंगी उतनी ही बातें,
समझ आता कहाँ हैं लेकिन अपनी ख़ामुशी को कुछ ।

जो लेते ही रहे थे ज़िन्दगी से, मर गए कबके,
वो ही ज़िन्दा रहे, देते रहे जो जिन्दगी को कुछ ।

अभी बेवज्ह ख़ुश-ख़ुश था अभी बेवज्ह चुप-चुप है,
नहीं कुछ ठीक इस दिल का, घड़ी को कुछ घड़ी को कुछ ।

~ राजेश रेड्डी


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Saturday, December 10, 2016

बाद युगों के नभ में आया!



आज सांझ से ही ऐसा लगता है
जैसे चांद सलोना
बाद युगों के नभ में आया!

मेरा मन कुछ घबराया-घबराया-सा है
लेकिन घबराने जैसी कुछ बात नहीं है
खिली हुई है यहां चांदनी पीली-पीली
नभ में काली रात नहीं है
काली रात नहीं लेकिन लगता है मुझको
जैसे लखकर यह जहरीला चांद गगन में
तुमने कोई गीत दर्द का होगा गाया!

आकर्षण की मदिरा पी तारों की टोली
नभ के आंगन में मस्ती से नाच रही है
आया बासंती बयार का पहला झोंका
सरिता नए प्यार की गीता बांच रही है
सरिता नए प्यार की गीता बांच रही औ
हम-तुम कितनी दूर सुनयने?
आज सोच यह, मेरा मन भर-भरकर आया!

जैसे चांद सलोना
बाद युगों के नभ में आया!

~ भीमसेन त्यागी


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Friday, December 9, 2016

तस्वीर अधूरी रहनी थी



तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा
धरती के काग़ज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी

रेती पर लिखे नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था
मलयानिल के बहकाने पर, बस एक प्रभात निखरना था
गूंगे के मनोभाव जैसे, वाणी स्वीकार न कर पाए
ऐसे ही मेरा हृदय-कुसुम, असमर्पित सूख बिखरना था
जैसे कोई प्यासा मरता, जल के अभाव में विष पी ले
मेरे जीवन में भी कोई, ऐसी मजबूरी रहनी थी

इच्छाओं के उगते बिरुवे, सब के सब सफल नहीं होते
हर एक लहर के जूड़े में, अरुणारे कमल नहीं होते
माटी का अंतर नहीं मगर, अंतर रेखाओं का तो है
हर एक दीप के हँसने को, शीशे के महल नहीं होते
दर्पण में परछाई जैसे, दीखे तो पर अनछुई रहे
सारे सुख-वैभव से यूँ ही, मेरी भी दूरी रहनी थी

मैंने शायद गत जन्मों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे
चातक का स्वर सुनने वाले, बादल वापस मोड़े होंगे
ऐसा अपराध किया होगा, जिसकी कुछ क्षमा नहीं होती
तितली के पर नोचे होंगे, हिरनों के दृग फोड़े होंगे
अनगिनती कर्ज़ चुकाने थे, इसलिए ज़िन्दगी भर मेरे
तन को बेचैन विचरना था, मन में कस्तूरी रहनी थी

~ भारत भूषण


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मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा



मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जाँ-ब-लब मुझे ज़िंदगी की दुआ न दे
*हमनफ़स=मित्र; हमनवा=साथी; जाँ-ब-लब=मृतप्राय, मरणासन्न

मेरे दाग़-ए-दिल से है रौशनी उसी रौशनी से है ज़िंदगी
मुझे डर है ऐ मिरे चारा-गर ये चराग़ तू ही बुझा न दे
*दाग़-ए-दिल=टूटे हुये दिल; चारा-गर=चिकित्सक

मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर तिरा क्या भरोसा है चारा-गर
ये तिरी नवाज़िश-ए-मुख़्तसर मेरा दर्द और बढ़ा न दे
*नवाज़िश-ए-मुख़्तसर=छोटी सी मेहरबानी

मेरा अज़्म इतना बुलंद है कि पराए शो'लों का डर नहीं
मुझे ख़ौफ़ आतिश-ए-गुल से है ये कहीं चमन को जला न दे
*अज़्म=इरादा; आतिश-ए-गुल=फूल की आग

वो उठे हैं ले के ख़ुम-ओ-सुबू अरे ओ 'शकील' कहाँ है तू
तिरा जाम लेने को बज़्म में कोई और हाथ बढ़ा न दे
*ख़ुम-ओ-सुबू=(शराब का) प्याला और सुराही; बज़्म=महफ़िल

~ शकील बँदायूनी


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Wednesday, December 7, 2016

चले नहीं जाना बालम



यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम

ड्योढी पर पहले दीप जलाने दो मुझको
तुलसी जी की आरती सजाने दो मुझको
मंदिर के घंटे, शंख और घड़ियाल बजे
पूजा की सांझ-संझौती गाने दो मुझको
उगने तो दो पहले उत्तर में ध्रुवतारा
पथ के पीपल पर कर आने दो उजियारा
पगडंडी पर जल-फूल-दीप धर आने दो
चरणामृत जाकर ठाकुर जी का लाने दो
यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम

यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी सी, चले नहीं जाना बालम

बेले की पहले ये कलियाँ खिल जाने दो
कल का उत्तर पहले इन से मिल जाने दो
तुम क्या जानो यह किन प्रश्नों की गाँठ पड़ी
रजनीगंधा से ज्वार-सुरभि को आने दो
इस नीम ओट से ऊपर उठने दो चन्दा
घर के आँगन में तनिक रोशनी आने दो
कर लेने दो तुम मुझको बंद कपाट ज़रा
कमरे के दीपक को पहले सो जाने दो
यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी सी, चले नहीं जाना बालम

यह ठंडी-ठंडी रात, उनींदा सा आलम
मैं नींद भरी सी, चले नहीं जाना बालम

चुप रहो ज़रा सपना पूरा हो जाने दो
घर की मैना को ज़रा प्रभाती गाने दो
खामोश धरा, आकाश, दिशायें सोयीं हैं
तुम क्या जानो क्या सोच रात भर रोयीं हैं
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो
मुझको आँचल में हरसिंगार भर लेने दो
मिटने दो आँखों के आगे का अंधियारा
पथ पर पूरा-पूरा प्रकाश हो लेने दो
यह ठंडी-ठंडी रात, उनींदा सा आलम
मैं नींद भरी सी, चले नहीं जाना बालम

~ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना


  Dec 7, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, December 6, 2016

हे मेरे चितवन के चकोर



मंजुल मधु का सागर अपार
तन से टकराता बार-बार
ले विपुल स्नेह से पद पखार
रस घोल पिलाता वह अपार
अंतःस्थल में उठता हिलोर
हे मेरे चितवन के चकोर

सीने में स्नेह भरा मेरे
रससिक्त ह्रिदय लेता फेरे
पलकों में श्याम घटा घेरे
बूँदों नें डाले हैं डेरे
उर डूब रहा रस में विभोर
हे मेरे चितवन के चकोर

सुरभित अंचल की रेखा सी
मधुमय की सघन सुरेखा सी
झीना यौवन अषलेखा सी
जलमाला की अभिलेखा सी
साँसें करतीं उन्मत्त शोर
हे मेरे चितवन के चकोर

मन चंचल होकर डोल रहा
अवचेतन हो कुछ बोल रहा
हिय के नीरव पट खोल रहा
अंतर में मधुरस घोल रहा
मन-उपवन नाचे मन के मोर
हे मेरे चितवन के चकोर

तुम कभी मिले जीवन पथ में
हो अवलंबित इस मधुबन में
ज्यों स्वप्न सुमन सौरभ सुख में
बरसे अधराम्रित तन-मन में
विस्मित यौवन करता है शोर
हे मेरे चितवन के चकोर

नव तुषार के बिंदु बने हो
जीवन के प्रतिबिंब बने हो
मधुरितु के अरविंद बने हो
विकल वेदना मध्य सने हो
समर्पित इस जीवन की दोर
हे मेरे चितवन के चकोर

‍‍~ राजेश कुमार दुबे


  Dec 6, 2016| e-kavya.blogspot.com
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अहल-ए-तूफ़ाँ आओ दिल-वालों का



अहल-ए-तूफ़ाँ आओ दिल-वालों का अफ़्साना कहें
मौज को गेसू भँवर को चश्म-ए-जानाना कहें
*अहल-ए-तूफ़ाँ=तूफान में फँसे लोग; गेसू=लटें; चश्म-ए-जानाना=प्रेयसी की आँखें

दार पर चढ़ कर लगाएँ नारा-ए-ज़ुल्फ़-ए-सनम
सब हमें बाहोश समझें चाहे दीवाना कहें
*दार=फंदा; नारा-ए-ज़ुल्फ़-ए-सनम=प्रेयसी के बालों का गुणगान

यार-ए-नुक्ता-दाँ किधर है फिर चलें उस के हुज़ूर
ज़िंदगी को दिल कहें और दिल को नज़राना कहें
*यार-ए-नुक्ता-दाँ=निंदक दोस्त; नज़राना=तोहफा

थामें उस बुत की कलाई और कहें इस को जुनूँ
चूम लें मुँह और इसे अंदाज़-ए-रिंदाना कहें
*अंदाज़-ए-रिंदाना=नशे में की हुयी हरक़त

सुर्ख़ी-ए-मय कम थी मैं ने छू लिए साक़ी के होंट
सर झुका है जो भी अब अरबाब-ए-मय-ख़ाना कहें
*अरबाब-ए-मय-ख़ाना=शराब घर में साथ के लोग

तिश्नगी ही तिश्नगी है किस को कहिए मय-कदा
लब ही लब हम ने तो देखे किस को पैमाना कहें
*तिश्नगी=प्यास

पारा-ए-दिल है वतन की सरज़मीं मुश्किल ये है
शहर को वीरान या इस दिल को वीराना कहें
*पारा-ए-दिल=दिल की शांति

ऐ रुख़-ए-ज़ेबा बता दे और अभी हम कब तलक
तीरगी को शम-ए-तन्हाई को परवाना कहें
*रुख़-ए-ज़ेबा=ख़ूबसूरत चेहरा; तीरगी=अंधेरा; शम-ए-तन्हाई=एकाकीपन का चिराग़

आरज़ू ही रह गई 'मजरूह' कहते हम कभी
इक ग़ज़ल ऐसी जिसे तस्वीर-ए-जानाना कहें
*तस्वीर-ए-जानाना==प्रेयसी की तस्वीर

~ मजरूह सुल्तानपुरी


  Dec 5, 2016| e-kavya.blogspot.com
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ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो

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ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो ठहर जाऊँगा
वर्ना ख़ुद्दार मुसाफ़िर हूँ गुज़र जाऊँगा

आँधियों का मुझे क्या ख़ौफ़ मैं पत्थर ठहरा
रेत का ढेर नहीं हूँ जो बिखर जाऊँगा

ज़िंदगी अपनी किताबों में छुपा ले वर्ना
तेरे औराक़ के मानिंद बिखर जाऊँगा
*औराक़=पेड़ की पत्तियाँ

मैं हूँ अब तेरे ख़यालात का इक अक्स-ए-जमील
आईना-ख़ाने से निकला तो किधर जाऊँगा
*अक्स-ए-जमील=सुंदरता का प्रतिबिम्ब; आईना-ख़ाना=शीशा घर

मुझ को हालात में उलझा हुआ रहने दे यूँ ही
मैं तिरी ज़ुल्फ़ नहीं हूँ जो सँवर जाऊँगा

तेज़-रफ़्तार सही लाख मिरा अज़्म-ए-सफ़र
वक़्त आवाज़ जो देगा तो ठहर जाऊँगा
*अज़्म-ए-सफ़र=यात्रा का संकल्प

दम न लेने की क़सम खाई है मैं ने 'रज़्मी'
मुझ को मंज़िल भी पुकारे तो गुज़र जाऊँगा

‍~ मुज़फ़्फ़र रज़्मी


  Dec 4, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 3, 2016

सुनहरी सरज़मीं मेरी




पद्मश्री से सम्मानित, पूर्व राज्यसभा सदस्य, सांप्रदायिक सद्भाव के अग्रदूत, मशहूर कवि और शायर बेकल उत्साही जी नही रहे! विनम्र श्रद्धांजलि!

सुनहरी सरज़मीं मेरी, रुपहला आसमाँ मेरा
मगर अब तक नहीं समझा, ठिकाना है कहाँ मेरा

किसी बस्ती को जब जलते हुए देखा तो ये सोचा
मैं ख़ुद ही जल रहा हूँ और फैला है धुआँ मेरा

सुकूँ पाएँ चमन वाले हर इक घर रोशनी पहुँचे
मुझे अच्छा लगेगा तुम जला दो आशियाँ मेरा

बचाकर रख उसे मंज़िल से पहले रूठने वाले
तुझे रस्ता दिखाएगा गुबारे-कारवाँ मेरा

पड़ेगा वक़्त जब मेरी दुआएँ काम आएंगी
अभी कुछ तल्ख़ लगता है ये अन्दाज़-ए-बयाँ मेरा

कहीं बारूद फूलों में, कहीं शोले शिगूफ़ों में
ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे, है यही जन्नत निशाँ मेरा

मैं जब लौटा तो कोई और ही आबाद था "बेकल"
मैं इक रमता हुआ जोगी, नहीं कोई मकाँ मेरा

~ बेकल उत्साही


  Dec 3, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 2, 2016

अब कितने दिन और भटकती रातें



अब कितने दिन और
भटकती रातें बिखरे बिखरे दिन
होगा भी क्या
इसके सिवा तुम्हारे बिन।

चांद सितारे होते तो हैं पर उपलब्ध नहीं होते
बिछुआ, पायल, कंगन, आंचल केवल शब्द नहीं होते।
चीज़ें तो कंधों पर भी ढोई जा सकती हैं लेकिन
खुशबू, अनुभव, स्वाद, गीत हम केवल यादों में ढोते।

पतझर का मौसम भी तो
मौसम ही होता है लेकिन
क्यों कुछ मामूली बातें भी
हो जाती हैं बहुत कठिन।

प्राणों के ऊपर निष्प्राणों की भी पड़ती है छाया
गांठ पड़ी उलझी किरनों को कौन भला सुलझा पाया
आड़ न हो तो आहट कैसी, बाड़ न हो, बेगाना क्या
एक मोह से ही तो मिट्टी, मिट्टी है, काया, काया।

ख़तरों का अनुमान अगर
लग भी जाए तो क्या होगा
क्या घर बैठे घर की प्यास
बुझा पाएगी पनिहारिन?

~ देवेंद्र आर्य

  Dec 2, 2016| e-kavya.blogspot.com
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मुस्कुरा कर मुझे यूँ न देखा करो



मुस्कुरा कर मुझे यूँ न देखा करो
मृगशिरा-सा मेरा मन दहक जाएगा

चांद का रूप चेहरे पे उतरा हुआ
सूर्य की लालिमा रेशमी गाल पर
देह ऐसी कि जैसे लहरती नदी
मर मिटें हिरनियाँ तक सधी चाल पर
हर डगर पर संभल कर बढ़ाना क़दम
पैर फिसला, कि यौवन छलक जाएगा

मुस्कुरा कर मुझे यूँ न देखा करो
मृगशिरा-सा मेरा मन दहक जाएगा

तुम बनारस की महकी हुई भोर हो
या मेरे लखनऊ की हँसी शाम हो
कह रही है मेरे दिल की धड़कन, प्रिये!
तुम मेरे प्यार के तीर्थ का धाम हो
रूप की मोहिनी ये झलक देखकर
लग रहा है कि जीवन महक जाएगा

मुस्कुरा कर मुझे यूँ न देखा करो
मृगशिरा-सा मेरा मन दहक जाएगा

*मृगशिरा=मृग का शीष

~ देवल आशीष


  Dec 1, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, November 30, 2016

पहले मन में पीड़ा जागी



पहले मन में पीड़ा जागी
फिर भाव जगे मन-आंगन में
जब आंगन छोटा लगा उसे
कुछ ऐसे सँवर गई पीड़ा
क़ागज़ पर उतर गई पीड़ा।

जाने-पहचाने चेहरों ने
जब बिना दोष उजियारों का
रिश्ता अंधियारों से जोड़ा
जब क़समें खाने वालों ने
अपना बतलाने वालों ने
दिल का दर्पण पल-पल तोड़ा
टूटे दिल को समझाने को
मुश्क़िल में साथ निभाने को
और छोड़ के सारे ज़माने को
हर हद से गुज़र गई पीड़ा।

ये चांद-सितारे और अम्बर
पहले अपने-से लगे मगर
फिर धीरे-धीरे पहचाने
ये धन-वैभव, ये कीर्ति-शिखर
पहले अपने-से लगे मगर
फिर ये भी निकले बेगाने
फिर मन का सूनापन हरने
और सारा खालीपन भरने
ममतामई आँचल को लेकर
अन्तस् में ठहर गई पीड़ा
काग़ज़ पर उतर गई पीड़ा।

कुछ ख़्वाब पले जब आँखों में
बेगानों तक का प्यार मिला
यूँ लगा कि ये संसार मिला
जब आँसू छ्लके आँखों से
अपनों तक से प्रतिकार मिला
चुप रहने का अधिकार मिला
फिर ख़ुद में इक विश्वास मिला
कुछ होने का अहसास मिला
फिर एक खुला आकाश मिला
तारों-सी बिखर गई पीड़ा।

~ दिनेश रघुवंशी


  Nov 30, 2016| e-kavya.blogspot.com
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वे हिटलर की तरह आएंगे


 

 वे हिटलर की तरह आएंगे
और कहेंगे
कि सिर्फ़ जर्मनों को ही
राज करने का हक़ है
क्योंकि सिर्फ़ जर्मनों का रक्त
शुध्द है।
राजसी रक्त!

वे इस्लाम का चोगा पहन कर आएंगे
और कहेंगे
कि दुनिया में इस्लाम का
परचम लहराएगा!

उनके हाथों में त्रिशूल होंगे
‘अलख निरंजन’ कहकर
विधर्मी की छाती में उतर जाने के लिए
लपलपाते!
वे कहेंगे
कि देश में सिर्फ़
हिन्दुओं को रहने का हक़ है!

कहीं वे
अकाल तख्त की शक्ल में होंगे-
‘राज करेगा खालसा’
का उद्धोष करते हुए!

तो कहीं उनके हाथों में थमी होंगी
तिज़ारत की किताबें
-बायबिल के रूप में-
मूल मालिकों से ज़मीन छीन कर
उन्हें धर्म-दीक्षित करने के षडयंत्र के साथ!

वे किसी भी वेष में आएँ
मगर उनकी भाषा एक ही होगी
वही जो किसी भेड़िये की होती है
उनका शिकार होगी मानवता
उनके हाथ रंगे होंगे
अपने ही किसी भाई के रक्त से
और उनके दाँतें में लिथड़े होंगे
मांस के वे लोथड़े
जिन्हें उन्होंने किसी
मानवता के मसीहा की
छाती से नोचा होगा।

‘असहमति’
उनके शब्द-कोश का होगा
‘अद्वूत शब्द’
जो असहमत होगा, मारा जाएगा।
सत्तर साल का बूढ़ा
या किलकारी मारता
नन्हा मृगछौना,
सृष्टि की रचयिता औरत
होगी उनके लिए एक
द्वि-अर्थीय मशीन
जिससे वे बलात् चाहेंगे
इन्द्रिय सुख तथा
साँड़ की तरह बलिष्ठ
किन्तु बुध्दिहीन संतान।

~ दिनेश बैस


  Nov 29, 2016| e-kavya.blogspot.com
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नींद सुख की फिर हमें सोने न देगा












नींद सुख की
फिर हमें सोने न देगा
यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल।

छू लिए भीगे कमल-
भीगी ॠचाएँ
मन हुए गीले-
बहीं गीली हवाएँ
बहुत सम्भव है डुबो दे
सृष्टि सारी
दृष्टि के आकाश में घिरता हुआ जल।

हिमशिखर, सागर, नदी-
झीलें, सरोवर
ओस, आँसू, मेघ, मधु-
श्रम-बिंदु, निर्झर
रूप धर अनगिन कथा
कहता दुखों की
जोगियों-सा घूमता-फिरता हुआ जल।

लाख बाँहों में कसें
अब ये शिलाएँ
लाख आमंत्रित करें
गिरि-कंदराएँ
अब समंदर तक
पहुँचकर ही रुकेगा
पर्वतों से टूटकर गिरता हुआ जल।

नींद सुख की
फिर हमें सोने न देगा
यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल।

~ किशन सरोज

  Nov 28, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, November 27, 2016

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ



तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ ये कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तिरी याद आई क्या तू सच-मुच आई है

शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उस की अंगड़ाई शर्माई है

इस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रिफ़ाक़त का एहसास
जब उस के मल्बूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है
*रिफ़ाक़त=साथी; मल्बूस=पहनावे

हुस्न से अर्ज़-ए-शौक़ न करना हुस्न को ज़क पहुँचाना है
हम ने अर्ज़-ए-शौक़ न कर के हुस्न को ज़क पहुँचाई है
*अर्ज़-ए-शौक़=प्रेम की विनती; ज़क=नुकसान

हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़-ए-रक़ाबत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है
*सोज़-ए-रक़ाबत=जलन, ईर्ष्या

हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच ये तू ने कैसी शक्ल बनाई है

इशक़-ए-पेचाँ की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है
*इशक़-ए-पेचाँ=पेड़ पर चढ़ने वाली बेल, जिसमें लाल फूल आते हैं

हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम
इश्क़ का पेशा हुस्न-परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है
*हुस्न-परस्ती=सुंदरता की पूजा

आज बहुत दिन ब'अद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
जूँ ही दरवाज़ा खोला है उस की ख़ुश्बू आई है

एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है
*हब्स=दम घुटना

जौन एलिया

  Nov 27, 2016| e-kavya.blogspot.com
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हमारे चेहरे पे ग़म भी नहीं


हमारे चेहरे पे ग़म भी नहीं, ख़ुशी भी नहीं
अंधेरा पूरा नहीं, पूरी रौशनी भी नहीं

है दुश्मनों से कोई ख़ास दुश्मनी भी नहीं
जो दोस्त अपने हैं उनसे कभी बनी भी नहीं

मैं कैसे तोड़ दूँ दुनिया से सारे रिश्तों को
अभी तो पूरी तरह उससे लौ लगी भी नहीं

~ कृष्णानंद चौबे

  Nov 26, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 26, 2016

युगबोध का हस्ताक्षर हूँ



दिग्भ्रमित क्या कर सकेंगीं, भ्रांतियाँ मुझको डगर में
मैं समय के भाल पर, युगबोध का हस्ताक्षर हूँ

कर चुका हर पल समर्पित जागरण को
नींद को अब रात भर सोने न दूंगा
है अंधेरे को खुली मेरी चुनौती
रोशनी का अपहरण होने न दूंगा
जानता अच्छी तरह हूँ, आंधियों के मैं इरादे
इसलिए ही; जल रहे जो दीप उनका पक्षधर हूँ
मैं समय के भाल पर, युगबोध का हस्ताक्षर हूँ


मंज़िलों के द्वार तक लेकर गया हूँ
हार कर बैठी थकन जब भी डगर में
मान्यताएँ दें न दें मुझको समर्थन
मैं अकेला ही लड़ूंगा, वर्जनाओं के नगर में
अब घुटन की ज़िंदगी के मौन को मुखरित करूंगा
मैं धरा पर क्रांति की संभावना का एक स्वर हूँ
मैं समय के भाल पर, युगबोध का हस्ताक्षर हूँ

~ जगपाल सिंह 'सरोज'

  Nov 26, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 25, 2016

दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा



दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ

बहुत बार आई गई यह दीवाली
मगर तम जहाँ था वहीं पर खड़ा है
बहुत बार लौ जल बुझी पर अभी तक
कफ़न रात का हर चमन पर पड़ा है
न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे
उषा को जगाओ, निशा को सुलाओ
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ

सृजन शांति के वास्ते है ज़रूरी
कि हर द्वार पर रौशनी गीत गाए
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा
कि जब प्यार तलवार से जीत जाए
घृणा बढ़ रही है, अमा चढ़ रही है
मनुज को जिलाओ, दनुज को मिटाओ
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ

बड़े वेगमय पंख हैं रौशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में
किया क़ैद जिसने उसे शक्तिबल से
स्वयं उड़ गया वह धुँआ बन पवन में
न मेरा-तुम्हारा, सभी का प्रहर यह
इसे भी बुलाओ, उसे भी बुलाओ
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ

अगर चाहते तुम कि सारा उजाला
रहे दास बनकर सदा को तुम्हारा
नहीं जानते कि फूस के गेह में पर
बुलाता सुबह किस तरह से अँगारा
न फिर कोई अग्नि रचे रास इससे
सभी रो रहे आँसुओं को हँसाओ।
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ

~ गोपालदास नीरज


  Nov 25, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, November 24, 2016

छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए



कहाँ चला ऐ मेरे जोगी, जीवन से तू भाग के,
किसी एक दिल के कारण यूँ सारी दुनिया त्याग के।

छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए
ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए
प्यार से भी ज़रूरी कई काम हैं
प्यार सब कुछ नहीं ज़िन्दगी के लिए

तन से तन का मिलन हो न पाया तो क्या
मन से मन का मिलन कोई कम तो नहीं
ख़ुशबू आती रहे दूर ही से सही
सामने हो चमन कोई कम तो नहीं
चांद मिलता नहीं सबको संसार में
है दिया ही बहुत रौशनी के लिए।

कितनी हसरत से तकती हैं कलियाँ तुम्हें
क्यूँ बहारों को फिर से बुलाते नहीं
एक दुनिया उजड़ ही गई है तो क्या
दूसरा तुम जहाँ क्यूँ बसाते नहीं
दिल न चाहे भी तो, साथ संसार के
चलना पड़ता है सबकी ख़ुशी के लिए

~ इन्दीवर


  Nov 24, 2016| e-kavya.blogspot.com
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प्रेम एक दलदल है




प्रेम एक दलदल है
अच्छा हुआ
मैं बच गया।

देखा है मैंने
प्रेमियों को
टूटकर रोते।
देखा है उन्हें चेहरा छिपाते।
प्यार के लिए करुणा जगाने के
नए-नए अभिनय करते
धोखा देने और विश्वास जमाने के
नायाब तरीक़े अपनाते।

छोटी-छोटी बातों पर
लड़ते हैं प्रेमी।
दुखी होते हैं
बेचैन अपनी-अपनी हालत पर।

शुरू होती है उनकी यात्रा
एक-दूसरे के
सुख-दुख के बीच
आने-जाने से।
ख़त्म हो जाती
सब कुछ एक साथ
न पाने से!

अच्छा ही हुआ
मैं न कर सका किसी को प्यार।
पता नहीं मेरे कारण
मेरी प्रेमिका को
कितना और कहाँ
झूठ बोलना पड़ता।
छिपानी होतीं अपनी ख़ुशियाँ
उदासी
अपने आँसू
घबराहट…
चुरानी पड़ती नज़रें।

चक्कर काटती वह ज्योतिषियों के
कहाँ-कहाँ फैलाती हाथ
मांगती मन्नतें।
कहाँ-कहाँ भटकती
मेरे लिए
अच्छे-से-अच्छा
उपहार ढूंढने।

मुझे भी भटकना पड़ता
नए से नया प्रिंट ढूंढते हुए
कपड़ों के मेले में।

उपस्थित रहते हुए भी
हम दोनों
नहीं होते-
अपने दफ़्तर में
अपनी-अपनी कुर्सी पर
जबकि रखे रहते
मेज़ पर टिफ़िन।
कष्ट पाती उसकी अन्तरात्मा
अपने सरल माता-पिता के
विश्वास को धोखा देते हुए

कष्ट पाता मैं
उसे उसके सीधे-सुखी
रास्ते से भटका कर।

बर्बाद हो जाती
कितनों की
कितनी ज़िन्दगी।

यों सब कुछ अच्छा ही हुआ
सीधा-सादा चलता रहा मैं।

बस यही बुरा हुआ
मैं आदमी नहीं बन पाया
बिना प्यार के;-
यों ही
मारा गया!

~ हरिमोहन शर्मा


  Nov 21, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, November 23, 2016

था तुम्हें मैंने रुलाया





हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा
हाय, मेरी कटु अनिच्छा
था बहुत मांगा न तुमने
किन्तु वह भी दे न पाया
था तुम्हें मैंने रुलाया

स्नेह का वह कण तरल था
मधु न था, न सुधा-गरल था
एक क्षण को भी सरलते
क्यों समझ तुमको न पाया
था तुम्हें मैंने रुलाया

बूंद कल की आज सागर
सोचता हूँ बैठ तट पर-
क्यों अभी तक डूब इसमें
कर न अपना अंत पाया
था तुम्हें मैंने रुलाया

~ हरिवंश राय बच्चन

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Tuesday, November 22, 2016

जीवित सौ प्रतिबंध हो गए



सारी रात जागकर मन्दिर
कंचन को तन रहा बेचता
मैं जब पहुँचा दर्शन करने
तब दरवाज़े बन्द हो गए

छल को मिली अटारी सुख की
मन को मिला दर्द का आंगन
नवयुग के लोभी पंचों ने
ऐसा ही कुछ किया विभाजन
शब्दों में अभिव्यक्ति देह की
सुनती रही शौक़ से दुनिया
मेरी पीड़ा अगर गा उठे
दूषित सारे छन्द हो गए

इन वाचाल देवताओं पर
देने को केवल शरीर है
सोना ही इनका गुलाल है
लालच ही इनका अबीर है
चांदी के तारों बिन मोहक
बनता नहीं ब्याह का कंगन
कल्पित किंवदंतियों जैसे
मन-मन के संबंध हो गए

जीवन का परिवार घट रहा
और मरण का वंश बढ़ रहा
बैठा कलाकार गलियों में
अपने तन की भूख गड़ रहा
निष्ठा की नीलामी में तो
देती है सहयोग सभ्यता
मन अर्पित करना चाहा तो
जीवित सौ प्रतिबंध हो गए

~ रामावतार त्यागी

  Nov 22, 2016| e-kavya.blogspot.com
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