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Sunday, October 29, 2017

जिधर के हो उधर के हो रहो

जिधर के हो उधर के हो रहो दिल से तो बेहतर है
कि लोटा बे-तली का हो तो टोंटी टूट जाती है

~ मन्नान बिजनोरी

  Oct 29, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तुम जिस को ढूँडते हो



तुम जिस को ढूँडते हो ये महफ़िल नहीं है वो
लोगों के इस हुजूम में शामिल नहीं है वो

रस्तों के पेच-ओ-ख़म ने कहीं और ला दिया
जाना हमें जहाँ था ये मंज़िल नहीं है वो
*पेच-ओ-ख़म=घुमावदार

दरिया के रुख़ को मोड़ के आए तो ये खुला
साहिल के रंग और हैं साहिल नहीं है वो
साहिल= किनारा

दुनिया में भाग-दौड़ का हासिल यही तो है
हासिल हर एक चीज़ है हासिल नहीं है वो
*हासिल=नफ़ा, प्राप्त होना

'आलम' दिल-ए-असीर को समझाऊँ किस तरह
कम-बख़्त ए'तिबार के क़ाबिल नहीं है वो
*दिल-ए-असीर=प्रेम में डूबा दिल

‍~ आलम ख़ुर्शीद


  Oct 29, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

जो नहीं हो सके पूर्ण-काम

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जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम।

कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए!
उनको प्रणाम!

जो छोटी-सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि-पार,
मन की मन में ही रही, स्वयं
हो गए उसी में निराकार!
उनको प्रणाम!

जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह-रह नव-नव उत्साह भरे,
पर कुछ ने ले ली हिम-समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे!
उनको प्रणाम

एकाकी और अकिंचन हो
जो भू-परिक्रमा को निकले,
हो गए पंगु, प्रति-पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाव चले!
उनको प्रणाम

कृत-कृत नहीं जो हो पाए,
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल!
उनको प्रणाम!

थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ,
या जन्म-काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहाँत हुआ!
उनको प्रणाम

दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति-मंत?
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत!
उनको प्रणाम!

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
उनको प्रणाम!

~ नागार्जुन


  Oct 28, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हो दोस्त या कि वह दुश्मन हो

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हो दोस्त या कि वह दुश्मन हो,
हो परिचित या परिचय विहीन
तुम जिसे समझते रहे बड़ा
या जिसे मानते रहे दीन
यदि कभी किसी कारण से
उसके यश पर उड़ती दिखे धूल,
तो सख्त बात कह उठने की
रे, तेरे हाथों हो न भूल।

मत कहो कि वह ऐसा ही था,
मत कहो कि इसके सौ गवाह,
यदि सचमुच ही वह फिसल गया
या पकड़ी उसने ग़लत राह-
तो सख्त बात से नहीं, स्नेह से
काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह अरे,
देकर देखो।

कितने भी गहरे रहे गत',
हर जगह प्यार जा सकता है,
कितना भी भ्रष्ट ज़माना हो,
हर समय प्यार भा सकता है,
जो गिरे हुए को उठा सके
इससे प्यारा कुछ जतन नहीं,
दे प्यार उठा पाए न जिसे
इतना गहरा कुछ पतन नहीं।

देखे से प्यार भरी आँखें
दुस्साहस पीले होते हैं
हर एक धृष्टता के कपोल
आँसू से गीले होते हैं।
तो सख्त बात से नहीं
स्नेह से काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह
अरे, देकर देखो।

तुमको शपथों से बड़ा प्यार,
तुमको शपथों की आदत है,
है शपथ गलत, है शपथ कठिन,
हर शपथ कि लगभग आफ़त है,
ली शपथ किसी ने और किसी के
आफत पास सरक आई,
तुमको शपथों से प्यार मगर
तुम पर शपथें छायीं-छायीं।

तो तुम पर शपथ चढ़ाता हूँ
तुम इसे उतारो स्नेह-स्नेह,
मैं तुम पर इसको मढ़ता हूँ
तुम इसे बिखेरो गेह-गेह।
हैं शपथ तुम्हें करुणाकर की
है शपथ तुम्हें उस नंगे की
जो भीख स्नेह की माँग-माँग
मर गया कि उस भिखमंगे की।

है सख़्त बात से नहीं
स्नेह से काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह
अरे, देकर देखो।

~ भवानी प्रसाद मिश्र


  Oct 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

रस्ते की कड़ी धूप को

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रस्ते की कड़ी धूप को इम्कान में रखिये
छालों को सफ़र के सर-ओ-सामान में रखिये
*इम्कान=संभावना; सर-ओ-सामान=ज़रूरी चीज़ें

वो दिन गए जब फिरते थे हाथों में लिये हाथ
अब उनकी निगाहों को भी एहसान में रखिये

ये जो है ज़मीर आपका, जंज़ीर न बन जाए
ख़ुद्दारी को छूटे हुए सामान में रखिये

जैसे नज़र आते हैं कभी वैसे बनें भी
अपने को कभी अपनी ही पहचान में रखिये

चेहरा जो कभी दोस्ती का देखना चाहें
काँटों को सजा कर किसी गुलदान में रखिये

लेना है अगर लुत्फ़ समंदर के सफ़र का
कश्ती को मुसलसल किसी तूफ़ान में रखिये
*मुसलसल=लगातार

ये वक़्त है रहता नहीं इक जैसा हमेशा
ये बात हमेशा के लिए ध्यान में रखिये

जब छोड़ के जाएँगे इसे ये न छुटेगी
दुनिया को न भूले से भी अरमान में रखिये

~ राजेश रेड्डी


  Oct 22, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

कब कब कितने फूल झरे

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कब कब कितने फूल झरे
यह उपवन को ही ज्ञात नहीं।

कितने छले गए
मृगजल को इसकी खबर नहीं
कितने पथ भटके
जंगल को इसकी खबर नहीं

तन पर कितने साँप घिरे
यह चंदन को ही ज्ञात नहीं।

कितने सपने टूटे
उसकी ही पाँखों से पूछो
बिछड़े कितने लोग
चिता की राखों से पूछो

कितनी गिरी बिजलियाँ
यह सावन को ही ज्ञात नहीं।

कब कब कितने फूल झर
यह उपवन को ही ज्ञात नहीं।

‍~ यतीन्द्र राही


  Oct 21, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

जल, रे दीपक, जल तू


जल, रे दीपक, जल तू
जिनके आगे अँधियारा है,
उनके लिए उजल तू।

जोता, बोया, लुना जिन्होंने
श्रम कर ओटा, धुना जिन्होंने
बत्ती बँटकर तुझे संजोया,
उनके तप का फल तू।
जल, रे दीपक, जल तू।

अपना तिल-तिल पिरवाया है
तुझे स्नेह देकर पाया है
उच्च स्थान दिया है घर में
रह अविचल झलमल तू।
जल, रे दीपक, जल तू।

चूल्हा छोड़ जलाया तुझको
क्या न दिया, जो पाया, तुझका
भूल न जाना कभी ओट का
वह पुनीत अँचल तू।
जल, रे दीपक, जल तू।

कुछ न रहेगा, बात रहेगी
होगा प्रात, न रात रहेगी
सब जागें तब सोना सुख से
तात, न हो चंचल तू।
जल, रे दीपक, जल तू!

जल, रे दीपक, जल तू।

~ मैथिलीशरण गुप्त


  Oct 20, 2017| e-kavya.blogspot.com
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उन्हीं लोगों की बदौलत

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उन्हीं लोगों की बदौलत ये हसीं अच्छे हैं
चाहने वाले इन अच्छों से कहीं अच्छे हैं

कूचा-ए-यार से यारब न उठाना हम को
इस बुरे हाल में भी हम तो यहीं अच्छे हैं
*कूचा=गली

न कोई दाग़ न धब्बा न हरारत न तपिश
चाँद-सूरज से भी ये माह-जबीं अच्छे हैं
*माह-जबीं=चाँद जैसे माथे वाले

कोई अच्छा नज़र आ जाए तो इक बात भी है
यूँ तो पर्दे में सभी पर्दा-नशीं अच्छे हैं

तेरे घर आएँ तो ईमान को किस पर छोड़ें
हम तो का'बे ही में ऐ दुश्मन-ए-दीं अच्छे हैं
*दीं=धर्म, आस्था

हैं मज़े हुस्न-ओ-मोहब्बत के इन्हीं को हासिल
आसमाँ वालों से ये अहल-ए-ज़मीं अच्छे हैं
अहल-ए-ज़मीं=धरती पर बसने वाले लोग

एक हम हैं कि जहाँ जाएँ बुरे कहलाएँ
एक वो वो हैं कि जहाँ जाएँ वहीं अच्छे हैं

कूचा-ए-यार से महशर में बुलाता है ख़ुदा
कह दो 'मुज़्तर' कि न आएँगे यहीं अच्छे हैं
*महशर=कयामत का दिन

~ मुज़्तर ख़ैराबादी

  Oct 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 15, 2017

उन्हीं लोगों की बदौलत

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उन्हीं लोगों की बदौलत ये हसीं अच्छे हैं
चाहने वाले इन अच्छों से कहीं अच्छे हैं

कूचा-ए-यार से यारब न उठाना हम को
इस बुरे हाल में भी हम तो यहीं अच्छे हैं
*कूचा=गली

न कोई दाग़ न धब्बा न हरारत न तपिश
चाँद-सूरज से भी ये माह-जबीं अच्छे हैं
*माह-जबीं=चाँद जैसे माथे वाले

कोई अच्छा नज़र आ जाए तो इक बात भी है
यूँ तो पर्दे में सभी पर्दा-नशीं अच्छे हैं

तेरे घर आएँ तो ईमान को किस पर छोड़ें
हम तो का'बे ही में ऐ दुश्मन-ए-दीं अच्छे हैं
*दीं=धर्म, आस्था

हैं मज़े हुस्न-ओ-मोहब्बत के इन्हीं को हासिल
आसमाँ वालों से ये अहल-ए-ज़मीं अच्छे हैं
अहल-ए-ज़मीं=धरती पर बसने वाले लोग

एक हम हैं कि जहाँ जाएँ बुरे कहलाएँ
एक वो वो हैं कि जहाँ जाएँ वहीं अच्छे हैं

कूचा-ए-यार से महशर में बुलाता है ख़ुदा
कह दो 'मुज़्तर' कि न आएँगे यहीं अच्छे हैं
*महशर=कयामत का दिन

~ मुज़्तर ख़ैराबादी


  Oct 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, October 14, 2017

कैसी है पहचान तुम्हारी

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कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

पथरा चलीं पुतलियाँ मैंने विविध धुनों में कितना गाया
दायें बायें ऊपर नीचे दूर पास तुमको कब पाया
धन्य कुसुम, पाषाणों पर ही तुम खिलते हो तो खिलते हो
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

किरणों से प्रगट हुए सूरज के सौ रहस्य तुम खोल उठे से
किन्तु अतड़ियों में गरीब की कुम्हलाए स्वर बोल उठे से
काँच कलेजे में भी करूणा के डोरे से ही खिलते हो
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

प्रणय और पुरुषार्थ तुम्हारा मनमोहिनी धरा के बल है
दिवस रात्रि बीहड़ बस्ती सब तेरी ही छाया के छल हैं
प्राण कौन से स्वप्न दिख गए जो बलि के फूलों खिलते हो
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

~ माखनलाल चतुर्वेदी


  Oct 14, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आप निगलते सूर्य समूचा

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आप निगलते सूर्य समूचा
अपने मुँह मिट्ठू बनते हैं,
हमने माना
आप बड़े हैं!

पुरखों की
उर्वरा भूमि से यश की फसल आपने पायी,
अपनी महनत से, बंजर में हमने थोड़ी फसल उगाई।
हम ज़मीन पर पाँव रखे हैं,
पर, काँधों पर
आप चढ़े हैं!

किंचित किरणों
को हम तरसे आप निगलते सूर्य समूचा,
बाँह पसारे मिला अँधेरा उजियारे ने हाल न पूछा।
आप मनाते दीपावलियाँ
लेकिन हमने
दीप गढ़े हैं!

भ्रष्ट, घिनौनी
करतूतों से तुमने अर्जित कीं उपाधियाँ,
भूख, गरीबी, लाचारी की हमें पैतृक मिलीं व्याधियाँ।
तुमने, ग्रन्थ सूदखोरी के
हमने तो बस
कर्ज़ पढ़े हैं!

‍~ आचार्य भगवत दुबे

  Oct 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
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हज़ारों मंज़िलें फिर भी

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हज़ारों मंज़िलें फिर भी मिरी मंज़िल है तू ही तू
मोहब्बत के सफ़र का आख़िरी हासिल है तू ही तू

बला से कितने ही तूफ़ाँ उठे बहर-ए-मोहब्बत में
हर इक धड़कन ये कहती है मिरा साहिल है तू ही तू
*बहर-ए-मोहब्बत=प्यार का समंदर

मुझे मालूम है अंजाम क्या होगा मोहब्बत का
मसीहा तू ही तू है और मिरा क़ातिल है तू ही तू

किया इफ़्शा मोहब्बत को मिरी बेबाक नज़रों ने
ज़माने को ख़बर है मुझ से बस ग़ाफ़िल है तू ही तू
*इफ़्शा=खुलासा; गाफ़िल=अनभिग्य

तिरे बख़्शे हुए रंगों से है पुर-नूर हर मंज़र
यक़ीनन बहर ओ बर की रूह में शामिल है तू ही तू
*पुर-नूर=रौशन

तुझी से गुफ़्तुगू हर दम तिरी ही जुस्तुजू हर दम
मिरी आसानियाँ तुझ से मिरी मुश्किल है तू ही तू

जिधर जाऊँ जिधर देखूँ तिरे क़िस्से तिरी बातें
सर-ए-महफ़िल है तू ही तू पस-ए-महमिल है तू ही तू

~ अमीता परसुराम 'मीता'

  Oct 9, 2017| e-kavya.blogspot.com
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वह फ़िर जलाती है

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वह फ़िर जलाती है
दिल के फांसलों के दरम्यां
उसकी लम्बी उम्र का दीया

कुछ खूबसूरती के मीठे शब्द
निकालती है झोली से
टांक लेती है माथे पे ,
कलाइयों पे, बदन पे
घर के हर हिस्से को
करीने से सजाती है
फ़िर....गौर से देखती है
शायद कोई और जगह मिल जाए
जहाँ बीज सके कुछ मोहब्बत के फूल

पर सोफे की गर्द में
सारे हर्फ़ बिखर जाते हैं
झनझना कर फेंके गए लफ्जों में
दीया डगमगाने लगता है
हवा दर्द और अपमान से
काँपने लगती है
आसमां फ़िर
दो टुकडों में बंट जाता है

वह जला देती है सारे ख्वाब
रोटी के साथ जलते तवे पर
छौक देती है सारे ज़ज्बात
कढाही के गर्म तेल में
मोहब्बत जब दरवाजे पे
दस्तक देती है
वह चढा देती है सांकल

दिनभर की कशमकश के बाद
रात जब कमरे में कदम रखती है
वह बिस्तर पर औंधी पड़ी
मन की तहों को
कुरेदने लगती है ....

बहुत गहरे में छिपी
इक पुरानी तस्वीर
उभर कर सामने आती है
वह उसे बड़े जतन से
झाड़ती है ,पोंछती है
धीरे -धीरे नक्श उभरते हैं
रोमानियत के कई हसीं पल
बदन में साँस लेने लगते हैं

वह धीमें से ....
रख देती है अपने तप्त होंठ
उसके लबों पे और कहती है
आज करवा चौथ है जान
खिड़की से झांकता चौथ का चाँद
हौले -हौले मुस्कुराने लगता है !

~ हरकीरत ' हीर'

  Oct 8, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, October 7, 2017

तोड़कर चट्टान फूटे सैकड़ों झरने

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तोड़कर चट्टान फूटे सैकड़ों झरने
टेसुओं में खिल गये दहके हुए अंगार
फिर उठे सोए समन्दर में महकती
खुशबुओं के ज्वार

रंग उभरा कल्पनाओं में
घुल गया चन्दन हवाओं में
मिल गयीं बेहोशियाँ आकर
होश की सारी दवाओं में
भावनाओं की उठी जयमाल के आगे
आज संयम सिर झुकाने
को हुआ लाचार

छू लिया जो रेशमी पल ने
बिजलियाँ जल में लगीं जलने
प्रश्न सारे कर दिए झूठे
दो गुलाबों के लिखे हल ने
तितलियों ने आज मौसम के इशारे पर
फूल की हर पंखुड़ी का
कर दिया शृंगार

लड़खड़ाई साँस की सरगम
गुनगुना कर गीत गोविन्दम्
झिलमिलाकर झील के जल में
और उजली हो गई पूनम
रंग डाला फिर हठीले श्याम ने आकर
राधिका का हर बहाना
हो गया बेकार

~ कीर्ति काले


  Oct 7, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

गहन है यह अंधकारा

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गहन है यह अंधकारा
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।

खड़ी है दीवार जड़ की घेर कर
बोलते हैं लोग ज्यों मुँह फेर कर
इस गहन में नहीं दिनकर
नहीं शशघर नहीं तारा।

कल्पना का ही अपार समुद्र यह
गरजता है घेर कर तनु रुद्र यह
कुछ नहीं आता समझ में
कहाँ है श्यामल किनारा।

प्रिय मुझे यह चेतना दो देह की
याद जिससे रहे वंचित गेह की
खोजता फिरता न पाता हुआ
मेरा हृदय हारा।

~ सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

  Oct 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

कि तुमने जन्‍म गाँधी को

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कि तुमने जन्‍म गाँधी को दिया था,

जिस समय हिंसा,
कुटिल विज्ञान बल से हो समंवित,
धर्म, संस्‍कृति, सभ्‍यता पर डाल पर्दा,
विश्‍व के संहार का षड्यंत्र रचने में लगी थी,
तुम कहाँ थे? और तुमने क्‍या किया था!

एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्‍म गाँधी को दिया था,
जिस समय अन्‍याय ने पशु-बल सुरा पी-
उग्र, उद्धत, दंभ-उन्‍मद-
एक निर्बल, निरपराध, निरीह को
था कुचल डाला
तुम कहाँ थे? और तुमने क्‍या किया था?

एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्‍म गाँधी को दिया था,
जिस समय अधिकार, शोषण, स्‍वार्थ
हो निर्लज्‍ज, हो नि:शंक, हो निर्द्वन्‍द्व
सद्य: जगे, संभले राष्‍ट्र में घुन-से लगे
जर्जर उसे करते रहे थे,
तुम कहाँ थे? और तुमने क्‍या किया था?

क्‍यों कि गाँधी व्‍यर्थ
यदि मिलती न हिंसा को चुनौ‍ती,
क्‍यों कि गाँधी व्‍यर्थ
यदि अन्‍याय की ही जीत होती,
क्‍यों कि गाँधी व्‍यर्थ
जाति स्‍वतंत्र होकर
यदि न अपने पाप धोती!

~ हरिवंशराय बच्‍चन


  Oct 1, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, October 1, 2017

ओ मेरे जीवन के संचित सपने


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मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो।

तुमने ही मेरे प्राणों को जलने की रीति सिखाई है,
तुममें ही मेरे गीतों ने विश्वासमयी गति पाई है,
मेरे डूबे-डूबे मन का तुम ही तो ठौर-ठिकाना हो
मेरी आवारा आँखों ने तुमसे ही लगन लगाई है
काँटों से भरी विफलता में आधार न जीने का लूटो
मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो!

तुमको मनुहारा करती है ये दर्दीली प्यासे मेरी
तुम तक न पहुँच क्या पाती है उत्पीड़ित अभिलाषें मेरी
मेरी संतप्त पुकारे तुमको अब तक पूज नहीं पाई
मेरी नश्वरता को क्या जीवन दे न सकीं सांसें मेरी
तुम रीते-रीते ही बीतो - मेरे सुख के घट मत फूटो
मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो!

जीवन भर मैं पथ में भटका, तुमने मुझको खोने न दिया
अर्पण में भी असमर्थ रहा लेकिन तुमने रोने न दिया
मन में जैसी उत्कंठा थी वैसा तो जाग नहीं पाया
लेकिन तुमने क्षण-भर मुझको अपना होकर सोने न दिया
मत मंत्रित मन का दीप बुझा अंधियारी रजनी में छूटो
मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो!

नभ में उग आया शुक्र नया, जीवन की आधी रात ढली
सब दिन सुख दुख में होड़ रही सब दिन पीड़ा में प्रीत पली
उतरी माला-सी सकुचाई मेरी ममता छाया-छल में
इस मध्य निशा में भोर छिपा, इसमें किरणों की बंद गली
कल्पित रस जी भर घूँट चुके अब जीवन के विष भी घूँटो
मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो!

~ रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

  Oct 1, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

देखो, सोचो, समझो, सुनो

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देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो औ' जानो
इसको, उसको, सम्भव हो निज को पहचानो
लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो,
जीवन की धारा में अपने को बहने दो
तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो।

वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो
तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो
लेकिन अचरज इतना, तुम कितने भोले हो
ऊपर से ठोस दिखो, अन्दर से पोले हो
बन कर मिट जाने की एक तुम कहानी हो।

पल में रो देते हो, पल में हँस पड़ते हो,
अपने में रमकर तुम अपने से लड़ते हो
पर यह सब तुम करते - इस पर मुझको शक है,
दर्शन, मीमांसा - यह फुरसत की बकझक है,
जमने की कोशिश में रोज़ तुम उखड़ते हो।

थोड़ी-सी घुटन और थोड़ी रंगीनी में,
चुटकी भर मिरचे में, मुट्ठी भर चीनी में,
ज़िन्दगी तुम्हारी सीमित है, इतना सच है,
इससे जो कुछ ज़्यादा, वह सब तो लालच है
दोस्त उम्र कटने दो इस तमाशबीनी में।

धोखा है प्रेम-बैर, इसको तुम मत ठानो
कडु‌आ या मीठा ,रस तो है छक कर छानो,
चलने का अन्त नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है
भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है
जब-जब थक कर उलझो, तब-तब लम्बी तानो।

~ भगवती चरण वर्मा

  Sep 29, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh