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Friday, June 29, 2018

गया है जब से मन का मीत



अक्षर-अक्षर मौन हो गए, मौन हुआ संगीत
परदेसी के साथ गया है, जब से मन का मीत।

चलता है सूरज वैसे ही दुनिया भी चलती है
और तिरोहित होकर संध्या वैसे ही ढलती है
किंतु गहनतम निशा अकेली मन को ही छलती है
अधरों पर सजने लगता है, अनजाना-सा गीत।

डाल-डाल पर खिले सुमन को ॠतुओं ने घेरा है
अपने अंतर में पतझड़ का ही केवल डेरा है
स्मृतियों के ओर छोर तक उसका ही फेरा है
उधर खिला मधुबन हँसता है रोता इधर अगीत।

दूर गगन में उगे सितारे अपनों से लगते हैं
लिए किरण की आस भोर तक वह भी तो जगते हैं
अनबोले शब्दों की भाषा में सब कुछ कहते हैं
एक सुखद जो वर्तमान था, वह भी हुआ अतीत।

सपनों के झुरमुट में उतरा कालिख-सा अँधियारा
हमने उसको रात-रात भर खोजा उसे पुकारा
खड़ा रहा बनकर निर्मोही निरर्थक रहा इशारा
जलती-बुझती रही निशा भर अनुभव की परतीत

अक्षर-अक्षर मौन हो गए, मौन हुआ संगीत
परदेसी के साथ गया है, जब से मन का मीत।

~ अजय पाठक


  Jun 29, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, June 24, 2018

तुझे याद करते करते

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तुझे याद करते करते
तिरी राह तकते तकते
मिरे अजनबी मुसाफ़िर
कई दिन गुज़र गए हैं

कोई शाम आ रही है:
कोई ख़ुशनुमा सितारा जो फ़लक (आसमान) पे हँस रहा है
किसी मह-जबीं (चाँदे से माथे) की सूरत
जो नज़र को डस रहा है
वही एक इस्तिआ'रा (रूपक)
तिरी याद रहगुज़र पर मिरा हम-सफ़र बना है
वही इक ज़िया (रौशनी)सलामत
सर-ए-शाम तीरगी (अँधेरा) में
मिरे काम आ रही है

मिरे रास्ते के आगे
किसी रात का गुज़र है
कहीं वहम सर-ब-सर (सम्पूर्ण) है
कहीं ख़ौफ़ का असर है
कहीं सरसराहटें हैं
कहीं झुनझुनाहटें हैं
नहीं दश्त-ए-हू (वीरान जंगल) में आहू (हिरन)
नहीं जंगलों में जुगनू

तिरी याद वो खिलौना जिसे तोड़ भी न पाऊँ
कहीं छोड़ भी न पाऊँ

अभी निस्फ़ (आधी) शब है गुज़री
तुझे याद कर रहा हूँ तिरे ख़्वाब देखता हूँ
यही जिस्म है बिछौना इसी जाँ को ओढ़ना है

हुई सुब्ह दर पे दस्तक
तिरे ख़्वाब जा चुके हैं
तिरी याद भी है रुख़्सत
नई आरज़ू खड़ी है
नए लोग मिल गए हैं
मिरे सामने हज़ारों
नए काम आ पड़े हैं

इसी दरमियाँ तसव्वुर (कल्पना) तिरा बार बार आया
इसी रास्ते पे जानाँ
कोई शाम फिर है आई
तिरी याद नूर-पैकर (रौशनी का आकार)
तिरी क़ुर्बतों (नज़दीकियोँ) का साया
कहीं तीरगी में गुम है
मैं अज़ान दे रहा हूँ
किसी दश्त-ए-बे-अमाँ (वीरान बंजर) में

~ खुर्शीद अकबर


  Jun 24, 2018 | e-kavya.blogspot.com

  Submitted by: Ashok Singh

Friday, June 22, 2018

तब याद तुम्‍हारी आती है

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गरमी में प्रात: काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है।

जब मन में लाखों बार गया-
आया सुख सपनों का मेला,
जब मैंने घोर प्रतीक्षा के
युग का पल-पल जल-जल झेला,
मिलने के उन दो यामों ने
दिखलाई अपनी परछाईं,
वह दिन ही था बस दिन मुझको
वह बेला थी मुझको बेला;
उड़ती छाया सी वे घड़ि‍याँ
बीतीं कब की लेकिन तब से,
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है।

तुमने जिन सुमनों से उस दिन
केशों का रूप सजाया था,
उनका सौरभ तुमसे पहले
मुझसे मिलने को आया था,
बह गंध गई गठबंध करा
तुमसे, उन चंचल घ‍ड़ि‍यों से,
उस सुख से जो उस दिन मेरे
प्राणों के बीच समाया था;
वह गंध उठा जब करती है
दिल बैठ न जाने जाता क्‍यों;
गरमी में प्रात:काल पवन,
प्रिय, ठंडी आहें भरता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है।
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है।

चितवन जिस ओर गई उसने
मृदों फूलों की वर्षा कर दी,
मादक मुसकानों ने मेरी
गोदी पंखुरियों से भर दी
हाथों में हाथ लिए, आए
अंजली में पुष्‍पों से गुच्‍छे,
जब तुमने मेरी अधरों पर
अधरों की कोमलता धर दी,
कुसुमायुध का शर ही मानो
मेरे अंतर में पैठ गया!
गरमी में प्रात: काल पवन
कलियों को चूम सिहरता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है।

गरमी में प्रात: काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है।

‍~ हरिवंशराय बच्चन


  Jun 22, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, June 17, 2018

ओ पिता

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ओ पिता,
तुम गीत हो घर के
और अनगिन काम दफ़्तर के।

छाँव में हम रह सकें यूँ ही
धूप में तुम रोज़ जलते हो
तुम हमें विश्वास देने को
दूर, कितनी दूर चलते हो

ओ पिता,
तुम दीप हो घर के
और सूरज-चाँद अंबर के।

तुम हमारे सब अभावों की
पूर्तियाँ करते रहे हँसकर
मुक्ति देते ही रहे हमको
स्वयं दुख के जाल में फँसकर

ओ पिता,
तुम स्वर, नए स्वर के
नित नये संकल्प निर्झर के।

~ कुँवर बेचैन


  Jun 17, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, June 16, 2018

ईद-मुबारक

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फूटी लब-ए-नाज़ुक से वो इक शोख़ सी लाली
थोड़ी सी शफ़क़ आरिज़-ए-ताबाँ ने चुरा ली
फिर बाम की जानिब उठे अबरू-ए-हिलाली
और चाँद ने शर्मा के कहा ईद-मुबारक

*शफ़क़=शाम की लालिमा; आरिज़=गाल; ताबाँ=चमक; बाम=छत; अबरू=भौँएं; हिलाली=चाँद के (आकार) जैसी

छेड़ा वो हसीं शब ने तमन्नाओं का जादू
लहरा गई ख़ल्वत-कदा-ए-नाज़ में ख़ुशबू
हौले से सँवरने लगे एहसास के गेसू
दी किस ने दर-ए-दिल पे सदा ईद-मुबारक

*ख़ल्वत=एकांत; कदा=जगह; नाज़=प्रेयसी

झलका रुख़-ए-रौशन पे हसीं सुब्ह का परतव
गुलनार हथेली पे हिना देने लगी लौ
ज़ुल्फ़ों से चली निकहत-ए-वारफ़्ता की इक रौ
पैग़ाम लिए आई सबा ईद-मुबारक

*परतव=प्रतिबिम्ब; निकहत=ख़ुशबू; वारफ़्ता=फिरती हुई

सखियों ने ख़यालों के हसीं रंग उभारे
जागे कई ख़्वाबीदा से जज़्बात के धारे
फूटे वो निगाहों से तबस्सुम के फुवारे
माहौल हुआ नग़्मा-नवा ईद-मुबारक

सदक़े तिरे ऐ रूह-ए-अदा पैक-ए-लताफ़त
ख़ुश आए तिरे हुस्न को ये कैफ़ की साअत
ये तोहफ़ा-ए-अशआर है नज़राना-ए-उल्फ़त
ऐ जान-ए-हया जान-ए-वफ़ा ईद-मुबारक

*लताफ़त=कोमलता; क़ैफ=नशा; साअत=क्षण

~ अब्दुल अहद साज़


  Jun 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, June 15, 2018

धूप के पेड़ पर कैसे शबनम उगे

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धूप के पेड़ पर कैसे शबनम उगे,
बस यही सोच कर सब परेशान हैं
मेरे आँगन में क्या आज मोती झरे,
लोग उलझन में हैं और हैरान हैं

तुमसे नज़रें मिलीं ,दिल तुम्हारा हुआ,
धड़कनें छिन गईं तुम बिछड़ भी गए
आँखें पथरा गईं,जिस्म मिट्टी हुआ
अब तो बुत की तरह हम भी बेजान हैं

डूब जाओगे तुम ,डूब जाउँगा मैं
और उबरने न देगी नदी रेत की
तुम भी वाकि़फ़ नहीं मैं भी हूँ बेख़बर,
प्यार की नाव में कितने तूफ़ान हैं

डूब जाता ये दिल, टूट जाता ये दिल,
शुक्र है ऐसा होने से पहले ही खु़द
दिल को समझा लिया और तसल्ली ये दी
अश्क आँखों में कुछ पल के मेहमान हैं

ज़ख़्म हमको मिले,दर्द हमको मिले
और ये रुस्वाइयाँ जो मिलीं सो अलग
बोझ दिल पर ज़्यादा न अब डालिए
आपकी और भी कितने एहसान हैं

‍~ गोविन्द गुलशन


  Jun 15, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, June 10, 2018

दिल पीत की आग में जलता है

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दिल पीत की आग में जलता है, हाँ जलता रहे उसे जलने दो
इस आग से लोगो दूर रहो, ठंडी न करो पंखा न झलो

हम रात दिना यूँ ही घुलते रहें, कोई पूछे कि हम को ना पूछे
कोई साजन हो या दुश्मन हो, तुम ज़िक्र किसी का मत छेड़ो
सब जान के सपने देखते हैं, सब जान के धोके खाते हैं
ये दीवाने सादा ही सही, पर इतने भी सादा नहीं यारो
किस बैठी तपिश के मालिक हैं, ठिठुरी हुई आग के अंगियारे
तुम ने भी कभी सेंका ही नहीं, तुम क्या समझो तुम क्या जानो

हर महफ़िल में हम दोनों की, क्या क्या नहीं बातें होती हैं
इन बातों का मफ़्हूम है क्या, तुम क्या समझो तुम क्या जानो
दिल चल के लबों तक आ न सका, लब खुल न सके ग़म जा न सका
अपना तो बस इतना क़िस्सा था, तुम अपनी सुनाओ अपनी कहो
वो शाम कहाँ वो रात कहाँ, वो वक़्त कहाँ वो बात कहाँ
जब मरते थे मरने न दिया, अब जीते हैं अब जीने दो

लोगों की तो बातें सच्ची हैं, और दिल का भी कहना करना हुआ
पर बात हमारी मानो तो, या उन के बनो या अपने रहो
राही भी नहीं रहज़न भी नहीं, बिजली भी नहीं ख़िर्मन भी नहीं
ऐसा भी भला होता है कहीं, तुम भी तो अजब दीवाने हो
इस खेल में हर बात अपनी कहाँ, जीत अपनी कहाँ मात अपनी कहाँ
या खेल से यकसर उठ जाओ, या जाती बाज़ी जाने दो

दिल पीत की आग में जलता है हाँ जलता रहे उसे जलने दो

* रहज़न=लूटने वाला; ख़िर्मन=काटी हुई फ़सल

~ इब्न-ए-इंशा

  Jun 10, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, June 9, 2018

लड़कियाँ,लड़कियाँ ,लड़कियाँ

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लड़कियाँ,लड़कियाँ ,लड़कियाँ

लड़कियाँ,लड़कियाँ ,लड़कियाँ
सुर्खियाँ.हल्दियाँ ,स्याहियाँ
गोदियाँ ,लोरियाँ ,घुट्टियां
उँगलियाँ ,बज्जियाँ ,टॉफियाँ
गिनतियाँ ,तख्तियां ,कापियाँ

लड़कियाँ लड़कियाँ लड़कियाँ
मेहदियाँ,रोलियाँ ,राखियाँ
तितलियाँ ,हिरनियाँ ,मछलियाँ
शोखियाँ,शेखियाँ,कनखियाँ
द्रष्टियां,फ़ब्तियाँ ,सीटियाँ

लड़कियाँ,लड़कियाँ ,लड़कियाँ
चिठ्ठियाँ,खिड़कियाँ,हिचकियाँ
आँधियाँ,बदलियाँ,बिजलियाँ
चोलियाँ ,चुन्नियाँ, साड़ियाँ
शादियाँ,डोलियाँ ,सिसकियाँ

लड़कियाँ,लड़कियाँ ,लड़कियाँ
बिंदियाँ, कंघियाँ, चोटियाँ
रोटियां,सब्जियाँ,थालियाँ
इमलियाँ,मितलियाँ, उल्टियाँ
रानियाँ बीवियाँ,दासियाँ

लड़कियाँ,लड़कियाँ ,लड़कियाँ
आगियाँ,रस्सियाँ, फाँसियाँ
सर्दियाँ,खासियाँ ,शीशियाँ
झुर्रियाँ,हड्डियाँ,पसलियाँ
सुस्तियाँ, झपकियाँ, चुप्पियाँ

लड़कियाँ,लड़कियाँ ,लड़कियाँ
अर्थियाँ, लकड़ियाँ, तीलियाँ

~ उर्मिलेश शंखधर


  Jun 9, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, June 3, 2018

कभी कभी बेहद डर लगता है

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कभी कभी बेहद डर लगता है
कि दोस्ती के सब रुपहले रिश्ते
प्यार के सारे सुनहरे बंधन
सूखी टहनियों की तरह
चटख़ कर टूट न जाएँ

आँखें खुलें, बंद हों देखें
लेकिन बातें करना छोड़ दें
हाथ काम करें
उँगलियाँ दुनिया भर के क़ज़िए (मत-भेद) लिक्खें
मगर फूल जैसे बच्चों के
डगमगाते छोटे छोटे पैरों को
सहारा देना भूल जाएँ
और सुहानी शबनमी रातों में
जब रौशनियाँ गुल हो जाएँ

तारे मोतिया चमेली की तरह महकें
प्रीत की रीत
निभाई न जाए
दिलों में कठोरता घर कर ले
मन के चंचल सोते सूख जाएँ
यही मौत है!
उस दूसरी से
बहुत ज़ियादा बुरी
जिस पर सब आँसू बहाते हैं

अर्थी उठती है
चिता सुलगती है
क़ब्रों पर फूल चढ़ाए जाते हैं
चराग़ जुलते हैं
लेकिन ये, ये तो
तन्हाई के भयानक मक़बरे हैं
दाइमी (हमेशा के लिए) क़ैद है
जिस के गोल गुम्बद से
अपनी चीख़ों की भी
बाज़-गश्त नहीं आती
कभी कभी बेहद डर लगता है

~ सज्जाद ज़हीर


  Jun 3, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, June 2, 2018

दिया गया संदर्भ सही

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दिया गया संदर्भ सही पर
अवसर और प्रसंग ग़लत है ।

भाव, अमूर्त और अशरीरी
वह अनुभव की वस्तु रहा है
चित्र न कर पाया रूपायित
शब्दों ने ही उसे कहा है

उसका कल्पित रूप सही पर
दृश्यमान हर रंग ग़लत है ।

जब विश्वास सघन होता तब
संबंधो का मन बनता है
गगन तभी भूतल बनता है
भूतल तभी गगन बनता है

सही, प्रेम में प्रण करना पर
करके प्रण, प्रण-भंग ग़लत है ।

संस्तुति, अर्थ, कपट से पायी
जो भी हो उपलब्धि हीन है
ऐसा, तन से उजला हो पर
मन से वह बिलकुल मलीन है

शिखर लक्ष्य हो, सही बात पर
उसमें चोर-सुरंग ग़लत है ।

*अमूर्त=निराकार; रूपायित=जिसने कोई रूप प्राप्त किया हो; संस्तुति=प्रशंसा; अर्थ=धन; मलीन=मैला

~ चंद्रसेन विराट


  Jun 2, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, June 1, 2018

खुले पानियों में घिरी लड़कियाँ

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खुले पानियों में घिरी लड़कियाँ
नर्म लहरों के छींटे उड़ाती हुई
बात-बे-बात हँसती हुई
अपने ख़्वाबों के शहज़ादों का तज़्किरा (बात चीत) कर रही थीं
जो ख़ामोश थीं
उन की आँखों में भी मुस्कुराहट की तहरीर (लिखावट) थी
उन के होंटों को भी अन-कहे ख़्वाब का ज़ाइक़ा चूमता था!
आने वाले नए मौसमों के सभी पैरहन (लिबास) नीलमीं हो चुके थे!
दूर साहिल पे बैठी हुई एक नन्ही सी बच्ची
हमारी हँसी और मौजों के आहंग (इरादे) से बे-ख़बर
रेत से एक नन्हा घरौंदा बनाने में मसरूफ़ थी
और मैं सोचती थी
ख़ुदा-या! ये हम लड़कियाँ
कच्ची उम्रों से ही ख़्वाब क्यूँ देखना चाहती हैं
ख़्वाब की हुक्मरानी (हुकूमत) में कितना तसलसुल (नियमितता) रहा है!

~ परवीन शाकिर

  Jun 1, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh