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Saturday, September 23, 2017

एक मुहब्बत की चादर को...

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सिर्फ ज़रा सी जिद की खातिर अपनी जाँ से गुज़र गए,
एक शिकस्ता किश्ती लेकर हम दरिया में उतर गए !!
*शिकस्ता=टूटी हुई

तन्हाई में बैठे बैठे यूँ ही तुमको सोचा तो,
भूले बिसरे कितने मंज़र इन आँखों से गुज़र गए !!

जब तक तुम थे पास हमारे नग्मा रेज़ फज़ाएँ थीं,
और तुम्हारे जाते ही फिर सन्नाटे से पसर गए !!
*नग़्मा-रेज़=गाती हुई

हीरें भी क्यूँ शर्मिंदा हों नयी कहानी लिखने में,
जब इस दौर के सब राँझे ही अहदे वफ़ा से गुज़र गए !!
*अहदे वफ़ा=वफ़ा के वादा

हर पल अब भी इन आँखों में उसका चेहरा रहता है,
कहने को मुद्दत गुज़री है उसकी जानिब नज़र गए !!

मज़हब, दौलत, जात, घराना, सरहद, गैरत, खुद्दारी
एक मुहब्बत की चादर को कितने चूहे कुतर गए !!

उसकी भोली सूरत ने ये कैसा जादू कर डाला,
उससे मुख़ातिब होते ही सब मेरे इल्मो हुनर गए !!

~ पवन कुमार

  Sep 23, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, September 22, 2017

खिलते हैं दिलों में फूल सनम



खिलते हैं दिलों में फूल सनम सावन के सुहाने मौसम में।
होती है सभी से भूल सनम सावन के सुहाने मौसम में।

यह चाँद पुराना आशिक़ है
दिखता है कभी छिप जाता है
छेड़े है कभी ये बिजुरी को
बदरी से कभी बतियाता है
यह इश्क़ नहीं है फ़िज़ूल सनम सावन के सुहाने मौसम में।

बारिश की सुनी जब सरगोशी
बहके हैं क़दम पुरवाई के
बूँदों ने छुआ जब शाख़ों को
झोंके महके अमराई के
टूटे हैं सभी के उसूल सनम सावन के सुहाने मौसम में।

यादों का मिला जब सिरहाना
बोझिल पलकों के साए हैं
मीठी-सी हवा ने दस्तक दी
सजनी को लगा वो आए हैं
चुभते हैं जिया में शूल सनम सावन के सुहाने मौसम में।

~ देवमणि पांडेय


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Tuesday, September 19, 2017

रात ढलने लगी, चाँद बुझने लगा

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रात ढलने लगी, चाँद बुझने लगा,
तुम न आए, सितारों को नींद आ गई ।

धूप की पालकी पर, किरण की दुल्हन,
आ के उतरी, खिला हर सुमन, हर चमन,
देखो बजती हैं भौरों की शहनाइयाँ,
हर गली, दौड़ कर, न्योत आया पवन,

बस तड़पते रहे, सेज के ही सुमन,
तुम न आए बहारों को नीद आ गई ।

व्यर्थ बहती रही, आँसुओं की नदी,
प्राण आए न तुम, नेह की नाव में,
खोजते-खोजते तुमको लहरें थकीं,
अब तो छाले पड़े, लहर के पाँव में,

करवटें ही बदलती, नदी रह गई,
तुम न आए किनारों को नींद आ गई ।

रात आई, महावर रचे साँझ की,
भर रहा माँग, सिन्दूर सूरज लिए,
दिन हँसा, चूडियाँ लेती अँगडाइयाँ,
छू के आँचल, बुझे आँगनों के दिये,

बिन तुम्हारे बुझा, आस का हर दिया,
तुम न आए सहारों को नीद आ गई ।

~ मंजुल मयंक

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Monday, September 18, 2017

हम तो ओस-बिंदु सम ढरके

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हम तो ओस-बिंदु सम ढरके
आए इस जड़ता में चेतन तरल रूप कुछ धर के!

क्या जाने किसने मनमानी कर हमको बरसाया
क्या जाने क्यों हमको इस भव-मरुथल में सरसाया
बाँध हमें जड़ता बंधन में किसने यों तरसाया
कौन खिलाड़ी हमको सीमा-बंधन दे हरषाया
किसका था आदेश कि उतरे हम नभ से झर-झरके?

आज वाष्प वन उड़ जाने की साध हिये उठ आई
मन पंछी ने पंख तौलने की रट आज लगाई
क्या इस अनाहूत ने आमंत्रण की ध्वनि सुन पाई
अथवा आज प्रयाण-काल की नव शंख-ध्वनि छाई

मन पंछी ने पंख तौलने की रट आज लगाई
क्या इस अनाहूत ने आमंत्रण की ध्वनि सुन पाई
अथवा आज प्रयाण-काल की नव शंख-ध्वनि छाई
लगता है मानो जागे हैं स्मरण आज नंबर के।

~ बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'

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Sunday, September 17, 2017

अमराई में चल छुपके


अमराई में चल छुपके
कुछ बात करें चुपके चुपके।

चल नव-किसलय को छूलेंगे
डाली पर बैठे झूलेंगे
इक पुष्प बनूँ इच्छा मेरी
हम हँसते हँसते फूलेंगे
चल सन्नाटों में देखेंगे
एक दूजे के मन में घुसके।

चल इंद्र धनुष हो जाएँ हम
सत रंगों में खो जाएँ हम
बस रोम रोम में साँसों के
कुछ प्रणय बीज बो आएँ हम
अरमान लुटाएँ चल चलके
आँखों में बैठे जो दुबके।

बिजली चमके लपके झपके
अंबर से जल टप-टप टपके
पर पवन उड़ा देता बादल
औ' विटप लगा देते ठुमके
अब हम भी किसी बगीचे में
चल मिलें कहीं छुपते छुपते।

~ प्रभु दयाल


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Saturday, September 16, 2017

फूल को प्यार करो

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फूल को प्यार करो
पर झरे तो झर जाने दो,
जीवन का रस लो
देह-मन-आत्मा की रसना से
पर जो मरे
उसे मर जाने दो।

जरा है भुजा तितीर्षा की
मत बनो बाधा-
जिजीविषु को
तर जाने दो।

आसक्ति नहीं,
आनन्द है
सम्पूर्ण व्यक्ति की
अभिव्यक्ति,
मरूँ मैं, किन्तु मुझे
घोषित यह कर जाने दो।

*जरा=वृद्धावस्था; बुढ़ापा; तितीर्षा=सांसारिकता या भवसागर से पार होने या तर जाने की कामना; जिजीविषु=जो अधिक समय तक जीना चाहता हो

~ अज्ञेय

  Sep 16, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, September 15, 2017

बेशक अर्थ वही हो

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बेशक अर्थ वही हो
आशय बदल गया
गतियाँ भीतर-बाहर की कुछ यों बदलीं
जाने का अंदाज़ महाशय बदल गया।

अहम् सिकुड़ता जाता फिर भी वयं नहीं
भावबोध बदले हैं लेकिन शिवं नहीं
सीमाएँ तदर्थ होती है
टूटेंगी
जाने क्या-क्या बदला लेकिन एवं नहीं

जीवन का रस नहीं बदलता रुचियों से
प्यास वही है
भले जलाशय बदल गया।

चीज़ों से ज़्यादा चीज़ों का मतलब है
नहीं हो सका था जो तब
वो सब अब है
नहीं बदल के ही चीज़ें सड़ जाती हैं
जीवित रहना भी जीवन का करतब है

देह के बाहर देह बिना कायिक प्रजनन
गोद नहीं बदली
गर्भाशय बदल गया।

~ देवेन्द्र आर्य

  Sep 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
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रात रानी रात में

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रात रानी रात में
दिन में खिले सूरजमुखी
किन्‍तु फिर भी आज कल
हम भी दुखी
तुम भी दुखी!

हम लिए बरसात
निकले इन्‍द्रधनु की खोज में
और तुम
मधुमास में भी हो गहन संकोच में।
और चारों ओर उड़ती
है समय की बेरूखी!
हम भी दुखी
तुम भी दुखी!

सिर्फ आँखों से छुआ
बूढ़ी नदी रोने लगी
शर्म से जलती सदी
अपना 'वरन' खोने लगी।
ऊब कर खुद मर गए
जो थे कमल सबसे सुखी।
हम भी दुखी
तुम भी दुखी।

~ ओम प्रभाकर


  Sep 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
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बेनकाब चेहरे हैं

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बेनकाब चेहरे हैं,दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ

लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ

पीठ मे छुरी सा चाँद, राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बँध जाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ

~ अटल बिहारी वाजपेयी

  Sep 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Monday, September 11, 2017

अगर तुम दिल हमारा ले के पछताए



अगर तुम दिल हमारा ले के पछताए तो रहने दो
न काम आए तो वापस दो जो काम आए तो रहने दो

मिरा रहना तुम्हारे दर पे लोगों को खटकता है
अगर कह दो तो उठ जाऊँ जो रहम आए तो रहने दो

कहीं ऐसा न करना वस्ल का वा'दा तो करते हो
कि तुम को फिर कोई कुछ और समझाए तो रहने दो
*वस्ल=मिलन

दिल अपना बेचता हूँ वाजिबी दाम उस के दो बोसे
जो क़ीमत दो तो लो क़ीमत न दी जाए तो रहने दो
*वाजिबी=उचित

दिल-ए-'मुज़्तर' की बेताबी से दम उलझे तो वापस दो
अगर मर्ज़ी भी हो और दिल न घबराए तो रहने दो

~ मुज़्तर ख़ैराबादी

  Sep 11, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, September 10, 2017

चलो देखें, खिड़कियों से

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चलो देखें,
खिड़कियों से
झाँकती है धूप
उठ जाएँ,
सुबह की ताज़ी हवा में
हम नदी के साथ
थोड़ा घूम-फिर आएँ !

चलो, देखें,
रात-भर में ओस ने
किस तरह से
आत्म मोती-सा रचा होगा !
फिर ज़रा-सी आहटों में
बिखर जाने पर,
दूब की उन फुनगियों पर
क्या बचा होगा ?

चलो चलकर
रास्ते में पड़े अन्धे
कूप में पत्थर गिराएँ,
रोशनी न सही तो,
आवाज़ ही पैदा करें
कुछ तो जगाएँ !

एक जंगल
अँधेरे का, रोशनी का
हर सुबह के वास्ते जंगल,
कल जहाँ पर जल भरा था
अन्धेरों में
धूप आने पर
वहीं दलदल।

चलो जंगल में,
कि दलदल में
भटकती चीख़ को,
टेरें, बुलाएँ,
पाँव के नीचे,
खिसकती रेत को
छेड़ें, वहीं पगचिह्न
अपने छोड़ आएँ।

~ दिनेश सिंह


  Sep 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
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यह मुमकिन ही नहीं कि

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यह मुमकिन ही नहीं कि सब तुम्हें करें ‍प्यार

यह जो तुम बार-बार नाक सिकोड़ते हो
और माथे पर जो बल आते हैं
हो सकता है कि किसी एक को इस पर आए ‍प्यार।
लेकिन इसी बात पर तो कई लोग चले जाएंगे तुमसे दूर
सड़क पार करने की घबराहट, खाना खाने में जलदीबाजी
या जरा सी बात पर उदास होने की आदत,
कई लोगों को एक साथ तुमसे ‍प्यार करने से रोक ही देगी
फिर किसी को पसंद नहीं आएगी तुम्हा्री चाल
किसी को आंखों में आंखें डालकर बात करना गुज़रेगा नागवार
चलते चलते रूककर इमली के पेड़ को देखना
एक बार फिर तुम्हारे ख़िलाफ़ जाएगा।

फिर भी यदि बहुत से लोग एक साथ कहें
कि वे सब तुमको करते हैं ‍प्यार,
तो रूको और सोचो
यह बात जीवन की साधरणता के विरोध में जा रही है
देखो, इस शराब का रंग नीला तो नहीं हो रहा है।

तुम धीरे-धीरे अपनी तरह का जीवन जियोगे
और यह होगा ही तुम अपने ‍प्यार करने वालों को
मुश्किल में डालते चले जाओगे
जो उन्नीस सौ चौहत्तर में और
जो उन्नीस सौ नवासी में करते थे तुमसे प्यार
और उगते हुए पौधे की तरह देते थे पानी
जो थोड़ी सी जगह छोडकर खडे हो गए थे कि तुम्हे मिले प्रकाश।

वे भी एक दिन इसलिए ख़फ़ा हो सकते हैं कि अब
तुम्हारे होने की परछाई उनकी जगह तक पहुंचती है
कि कुछ लोग तुम्हे प्यार करना बंद नहीं करते
और कुछ नए लोग
तुम्हारे खुरदरेपन की वजह से भी करने लगते हैं प्यार।

उस रंगीन चिड़िया की तरफ देखो
जो कि किसी का मन मोहती है
और ठीक उसी वक़्त
एक दूसरा देखता है उसे शिकार की तरह।

~ कुमार अंबुज


  Sep 9, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आज उम्र की दूर दिशा से

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आज उम्र की दूर दिशा से
सावन की वातास आ रही
जिन-जिन फूलों से गुज़रा
उन-उन फूलों की वास आ रही!

निकला था मैं सालों पहले
घर से गठरी लिए सफ़र की
कुछ अरूप सपने भविष्य के
कुछ गाढ़ी यादें थीं घर की
आज न जाने कहाँ-कहाँ की दूरी
मेरे पास आ रही!

बहते हुए शहर के पथ पर
आँखें सहसा अट जाती थीं
धूल-भरी आकृतियाँ कुछ
गाँव की दिखाई पड़ जाती थीं
उमड़-उमड़ अब भी अंतरतम में
बचपन की प्यास आ रही!

चलता गया, राह में आए
कितने नए-नए चौराहे
पाता गया न जाने कितना
कुछ नूतन चाहे-अनचाहे
यादों में कुछ पेड़ पिता-से,
भीगी माँ-सी घास आ रही!

साथ समय के चलते-चलते
कितना दूर निकल आया मैं
फिर भी रह-रहकर लगता
ओ गाँव, तुम्हारा ही साया मैं
मेरी इन शहरी साँसों में
उन खेतों की साँस आ रही!

~ रामदरश मिश्र

  Sep 7, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आज उम्र की दूर दिशा से

कभी कभी, अच्छा लगता है

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कभी कभी,
अच्छा लगता है
कुछ तनहा रहना

तन्हाई में भीतर का
सन्नाटा भी बोले
कथ्य वही जो बंद ह्रदय के
दरवाजे खोले
अनुभूति के, अतल जलधि को
शब्द - शब्द कहना
कभी कभी, अच्छा लगता है
कुछ तनहा रहना

बंद पलक में अहसासों के
रंग बहुत बिखरे
शीशे जैसा शिल्प तराशा
बिम्ब तभी निखरे
प्रबल वेग से भाव उड़ें जब
गीतों में बहना
कभी कभी, अच्छा लगता है
कुछ तनहा रहना

गहन विचारों में आती, जब
भी कठिन हताशा
मन मंदिर में दिया जलाती
पथ की परिभाषा
तन -मन को रोमांचित करती
सुधियों को गहना
कभी कभी, अच्छा लगता है
कुछ तनहा रहना

~ शशि पुरवार


  Sep 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
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हर नया मौसम नई संभावना

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हर नया मौसम नई संभावना ले आएगा
जो भी झोंका आएगा, ताज़ा हवा ले आएगा

और कब तक धूप में तपती रहेंगी बस्तियाँ
बीत जाएगी उमस, सावन घटा ले जाएगा

सूखी-सूखी पत्तियों से यह निराशा किसलिए
टहनियों पर पेड़ हर पत्ता नया नया ले आएगा

यह भी सच है बढ़ रहा है घुप अँधेरा रात का
यह भी सच है वक़्त हर जुगनू नया ले आएगा

रास्ते तो इक बहाना हैं मुसाफ़िर के लिए
लक्ष्य तक ले जाएगा तो हौसला ले आएगा

~ गिरिराज शरण अग्रवाल


  Sep 4, 2017| e-kavya.blogspot.com
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भरी है दिल में जो हसरत

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भरी है दिल में जो हसरत कहूँ तो किस से कहूँ
सुने है कौन मुसीबत कहूँ तो किस से कहूँ

जो तू हो साफ़ तो कुछ मैं भी साफ़ तुझ से कहूँ
तिरे है दिल में कुदूरत कहूँ तो किस से कहूँ
*कुदूरत=मैल

न कोहकन है न मजनूँ कि थे मिरे हमदर्द
मैं अपना दर्द-ए-मोहब्बत कहूँ तो किस से कहूँ
*कोहकन=फरहाद

दिल उस को आप दिया आप ही पशीमाँ हूँ
कि सच है अपनी नदामत कहूँ तो किस से कहूँ
*पशीमाँ=शर्मिन्दा ;नदामत=पछतावा

कहूँ मैं जिस से उसे होवे सुनते ही वहशत
फिर अपना क़िस्सा-ए-वहशत कहूँ तो किस से कहूँ
*वहशत=डर, पागलपन

रहा है तू ही तो ग़म-ख़्वार ऐ दिल-ए-ग़म-गीं
तिरे सिवा ग़म-ए-फ़ुर्क़त कहूँ तो किस से कहूँ
*ग़म-ख़्वार=सांत्वना देने वाला; दिल-ए-ग़म-गीं=दुखी दिल; ग़म-ए-फ़ुर्क़त=जुदाई का दुख

जो दोस्त हो तो कहूँ तुझ से दोस्ती की बात
तुझे तो मुझ से अदावत कहूँ तो किस से कहूँ
*अदावत=दुश्मनी, बैर

न मुझ को कहने की ताक़त कहूँ तो क्या अहवाल
न उस को सुनने की फ़ुर्सत कहूँ तो किस से कहूँ
*अहवाल=हालात

किसी को देखता इतना नहीं हक़ीक़त में
'ज़फ़र' मैं अपनी हक़ीक़त कहूँ तो किस से कहूँ

~ बहादुर शाह ज़फ़र


  Sep 2, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मां बहुत याद आती है

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मां बहुत याद आती है
सबसे ज्यादा याद आता है
उनका मेरे बाल संवार देना
रोज-ब-रोज
बिना नागा

बहुत छोटी थी मैं तब
बाल छोटे रखने का शौक ठहरा
पर मां!
खुद चोटी गूंथती, रोज दो बार
घने, लंबे, भारी बाल
कभी उलझते कभी खिंचते
मैं खीझती, झींकती, रोती
पर सुलझने के बाद
चिकने बालों पर कंघी का सरकना
आह! बड़ा आनंद आता
मां की गोदी में बैठे-बैठे
जैसे नैया पार लग गई
फिर उन चिकने तेल सने बालों का चोटियों में गुंथना
लगता पहाड़ की चोटी पर बस पहुंचने को ही हैं
रिबन बंध जाने के बाद
मां का पूरे सिर को चोटियों के आखिरी सिरे तक
सहलाना थपकना
मानो आशीर्वाद है,
बाल अब कभी नहीं उलझेंगे
आशीर्वाद काम करता था-
अगली सुबह तक

किशोर होने पर ज्यादा ताकत आ गई
बालों में, शरीर में और बातों में
मां की गोद छोटी, बाल कटवाने की मेरी जिद बड़ी
और चोटियों की लंबाई मोटाई बड़ी
उलझन बड़ी
कटवाने दो इन्हें या खुद ही बना दो चोटियां
मुझसे न हो सकेगा ये भारी काम
आधी गोदी में आधी जमीन पर बैठी मैं
और बालों की उलझन-सुलझन से निबटती मां
हर दिन
साथ बैठी मौसी से कहती आश्वस्त, मुस्कुराती संतोषी मां
बड़ी हो गई फिर भी...
प्रेम जताने का तरीका है लड़की का, हँ हँ

फिर प्रेम जो सिर चढ़ा
बालों से होता हुआ मां के हाथों को झुरझुरा गया
बालों का सिरा मेरी आंख में चुभा, बह गया
मगर प्रेम वहीं अटका रह गया
बालों में, आंखों के कोरों में
बालों का खिंचना मेरा, रोना-खीझना मां का

शादी के बाद पहले सावन में
केवड़े के पत्तों की वेणी चोटी के बीचो-बीच
मोगरे का मोटा-सा गोल गजरा सिर पर
और उसके बीचो-बीच
नगों-जड़ा बड़ा सा स्वर्णफूल
मां की शादी वाली नौ-गजी
मोरपंखी धर्मावरम धूपछांव साड़ी
लांगदार पहनावे की कौंध
अपनी नजरों से नजर उतारती
मां की आंखों का बादल

फिर मैं और बड़ी हुई और
ऑस्टियोपोरोसिस से मां की हड्डियां बूढ़ी
अबकी जब मैं बैठी मां के पास
जानते हुए कि नहीं बैठ पाऊंगी गोदी में अब कभी
मां ने पसार दिया अपना आंचल
जमीन पर
बोली- बैठ मेरी गोदी में, चोटी बना दूं तेरी
और बलाएं लेते मां के हाथ
सहलाते रहे मेरे सिर और बालों को आखिरी सिरे तक
मैं जानती हूं मां की गोदी कभी
छोटी कमजोर नाकाफी नहीं हो सकती
हमेशा खाली है मेरे बालों की उलझनों के लिए

कुछ बरस और बीते
मेरे लंबे बाल न रहे
और कुछ समय बाद
मां न रही

~ अनुराधा


  Sep 1, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आज की रात बाहों मे़

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आज की रात बाहों मे़ सो जाइये
क्या पता ये मिलन फिर गवारा ना हो
या गवारा भी हो तो भरोसा नही
मन हमारा भी हो मन तुम्हारा भी हो

इस अजाने उबाऊ सफ़र मे़ घडी
दो घडी साथ जी ले़ बडी बात है
भीड से बच अकेले मे़ बैठे़ जरा
हम फटे घाव सी ले़ बडी बात है

गोद मे़ शीश धर चूम जलते अधर
इस घने कुन्तलो मे़ छिपा लीजिये
आचरण के सभी आवरण तोडकर
प्राण पर्दा दुइ का मिटा दीजिये

हाथ धोके पडा मेरे पीछे शहर
लेके कोलाहलो़ का कसैला ज़हर
इसलिये भागकर आ गया हू़ इधर
मेरे मह्बूब मुझको बचा लीजिये

आज की रात तन-मन भिगो जाइये
क्या पता कल किसी का इशारा ना हो
या इशारा भी हो तो भरोसा नही़
मन हमारा भी हो मन तुम्हारा भी हो

इससे पहले मुअज्जन की आये अजान
या शिवालय में गूंजे प्रभाती के स्वर
या अजनबी शहर में उठे चौंककर
दूर से सुन बटोही सुवह का सफ़र

या नवेली दुल्हन से ननद मनचली
हंसके पूछे रही थी कहाँ रात भर
सांस की सीढियों से फिसलती हुई
निर्वसन रात पूछे कहा कंचुकी

आज की रात सपनो में खो जाइए
क्या पता कल नज़र हो नज़ारा ना हो
या नजारा भी हो तो भरोसा नहीं
मन हमारा भी हो मन तुम्हारा भी हो

~ आत्म प्रकाश शुक्ल


  Aug 31, 2017| e-kavya.blogspot.com
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सुर सब बेसुरे हुए करूँ क्या

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सुर सब बेसुरे हुए करूँ क्या?

उतरे हुए सभी के मुखड़े
सबके पाँव लक्ष्य से उखड़े
उखड़ी हुई भ्रष्ट पीढ़ी से
विजय-वरण के लिए कहूँ क्या?

सागर निकले ताल सरीखे
अन्धों को कब आँसू दीखे
अन्धों की महफ़िल में आँसू
जैसी उजली मौत मरूँ क्या?

झूठी सत्ता की मरीचिका
आत्मभ्रष्ट कर रही जीविका
बौनों की बस्ती में बोलो
ऊँचे क़द की बात करूँ क्या?

~ रमानाथ अवस्थी


  Aug 29, 2017| e-kavya.blogspot.com
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बैठी छज्जे पर चिड़िया

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बैठी छज्जे पर चिड़िया
जाने किसको
टेर रही है
बैठी छज्जे पर चिड़िया

हमने बहुत बार देखा
उसको आते-जाते घर में
उड़ती फिरती --
पता नहीं कितनी ताक़त
उसके पर में

तिनके-तिनके
धूप हवा में
बिखराती दिन-भर चिड़िया

यह चिड़या सूरज की बेटी
इसके पंख सुनहले हैं
जोत उन्हीं की
जिससे दमके
सारे महल-दुमहले हैं

मंदिर में
आरती जगाती
रोज सुबह आकर चिड़िया

चमक रहे हीरे-पन्ने
चिड़या की उजली आँखों में
रात हुए
है यही दमकती
आम-नीम की शाखों में

आधी-रात
चन्द्रमा उगता
होती इच्छा घर चिड़िया।


~ कुमार रवींद्र


  Aug 28, 2017| e-kavya.blogspot.com
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यह जो समय का एक

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यह जो समय का एक लम्बा-सा हिस्सा
दूर तक दिखाई दे रहा है
और वह छोर जैसा वहाँ कुछ दिखाई दे रहा है
हम उस तक पहुँचना चाहते हैं
सचमुच भ्रम है

आप चाहें कि वहाँ पहुँच कर
खोल दें फन्दा और दिख जाए सब कुछ साफ़-साफ़
भ्रम एक ऎसा अदृश्य द्वार है
जिसके आर-पार देख पाना
ठीक उतना ही कठिन है
जितना कि एक बेईमान आदमी के भीतर
देख पाना बेईमानी

अब आप एक पैमाना तैयार करेंगे
जिससे सब-कुछ माप लेना चाहें
पर कुछ ऎसे क्षण होते हैं
जिनके भीतर इतना ताप होता है
कि आप उसकी पहुँच से दूर रह जाते हैं

वैसे देखा जाए तो लड़ाई शुरू होती है
तो उसका कोई छोर हमारी पकड़ में नहीं आता
भ्रम पैदा होता है छोर तक पहुँचने का
इस तरह भ्रम के संसार में पड़ते हैं हमारे क़दम।

~ बहादुर पटेल


  Aug 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
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देखो कि दिल-जलों की

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देखो कि दिल-जलों की क्या ख़ूब ज़िंदगी है
परवाने जल चुके हैं और शम्अ' जल रही है

कहने को मुख़्तसर सा इक लफ़्ज़ है मोहब्बत
लेकिन उसी में सारी दुनिया छिपी हुई है

ख़्वाब-ए-हसीं से मुझ को चौंका दिया है किस ने
किस ने चमन में आ कर आवाज़ मुझ को दी है

देखो ज़रा फ़रोग़-ए-हुस्न-ए-बहार देखो
इक इक कली चमन की दुल्हन बनी हुई है

लाए बशर कहाँ से उस हुस्न की मिसालें
क़ुदरत जिसे बना कर हैरत में खो गई है

बुझती नहीं है सारे आलम के आँसुओं से
ये कैसी आग मेरे दिल में भड़क रही है

ऐ 'प्रेम' ज़र्ब-ए-सर से ज़िंदाँ को तोड़ डालो
पाबंदियों का जीना भी कोई ज़िंदगी है

~ प्रेम वरबारतोनी


  Aug 26, 2017| e-kavya.blogspot.com
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न क़रीब आ न तो दूर जा

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न क़रीब आ न तो दूर जा ये जो फ़ासला है ये ठीक है
न गुज़र हदों से न हद बता यही दायरा है ये ठीक है

न तो आश्ना न ही अजनबी न कोई बदन है न रूह ही
यही ज़िंदगी का है फ़ल्सफ़ा ये जो फ़ल्सफ़ा है ये ठीक है

ये ज़रूरतों का ही रिश्ता है ये ज़रूरी रिश्ता तो है नहीं
ये ज़रूरतें ही ज़रूरी हैं ये जो वास्ता है ये ठीक है

मेरी मुश्किलों से तुझे है क्या तेरी उलझनों से मुझे है क्या
ये तकल्लुफ़ात से मिलने का जो भी सिलसिला है ये ठीक है

हम अलग अलग हुए हैं मगर अभी कँपकँपाती है ये नज़र
अभी अपने बीच है काफ़ी कुछ जो भी रह गया है ये ठीक है

मिरी फ़ितरतों में ही कुफ़्र है मिरी आदतों में ही उज़्र है
बिना सोचे मैं कहूँ किस तरह जो लिखा हुआ है ये ठीक है

~ भवेश दिलशाद


  Aug 25, 2017| e-kavya.blogspot.com
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जब क़लम उठाता हूँ

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जब क़लम उठाता हूँ,
कोरे काग़ज पर,
लम्बी चोंच वाली एक चिड़िया,
बैठी पाता हूँ

चोंच वह खोलती नहीं,
फुदकती - बोलती नहीं,
हिलती है न डुलती,
चुपचाप घुलती है,
बताती न नाम है,
करती न काम है,
फिर भी सुबह को,
बना देती शाम है

यों ही, बस यों ही,
दिन डूब जाता है,
मन ऊब जाता है,
रात घिर आती है,
बात फिर जाती है

शुक्रिया,
ओ प्रकाश
शुक्रिया,
ओ क़लम-थामे हाथ की परछाईं

शुक्रिया,
ओ प्यारी
हत्यारी,
चिड़िया
शुक्रिया, शुक्रिया
तुम सबको
मेरा प्रणाम है

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


  Aug 22, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

जो मरण को जन्म समझे

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जो मरण को जन्म समझे,
मैं उसे जीवन कहूँगा।

वह नहीं बन्धन कि जो अज्ञानता में बाँध ले मन,
और फिर सहसा कभी जो टूट सकता हो अकारण।
मुक्ति छू पाये न जिसको,
मैं उसे बन्धन कहूँगा।

वह नहीं नूतन कि जो प्राचीनता की जड़ हिला दे,
भूत के इतिहास का आभास भी मन से मिटा दे।
जो पुरातन को नया कर दे,
मैं उसे नूतन कहूँगा।

वह नहीं पूजन कि जो देवत्व में दासत्व भर दे,
सृष्टि के अवतंस मानव की प्रगति को मन्द कर दे।
भक्त को भगवान कर दे,
मैं उसे पूजन कहूँगा।

~ बलबीर सिंह 'रंग'


  Aug 21, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

न किसी की आँख का नूर

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न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
कसी काम में जो न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ
*मुश्त-ए-ग़ुबार=मुट्ठी भर धूल

न दवा-ए-दर्द-ए-जिगर हूँ मैं न किसी की मीठी नज़र हूँ मैं
न इधर हूँ मैं न उधर हूँ मैं न शकेब हूँ न क़रार हूँ
*शकेब=धैर्य

मिरा वक़्त मुझ से बिछड़ गया मिरा रंग-रूप बिगड़ गया
जो ख़िज़ाँ से बाग़ उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ

पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ
कोई आ के शम्अ' जलाए क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ

न मैं लाग हूँ न लगाव हूँ न सुहाग हूँ न सुभाव हूँ
जो बिगड़ गया वो बनाव हूँ जो नहीं रहा वो सिंगार हूँ

मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखी की पुकार हूँ
*नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा=प्रफुल्लित; बिरोग=बीमारी

न मैं 'मुज़्तर' उन का हबीब हूँ न मैं 'मुज़्तर' उन का रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ
* हबीब=साथी, प्रेमी; दयार=इलाक़ा

~ मुज़्तर ख़ैराबादी


  Aug 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
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सागर के उस पार


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सागर के उस पार
सनेही,
सागर के उस पार।

मुकुलित जहाँ प्रेम-कानन है
परमानन्द-प्रद नन्दन है।
शिशिर-विहीन वसन्त-सुमन है
होता जहाँ सफल जीवन है।
जो जीवन का सार
सनेही!
सागर के उस पार।

है संयोग, वियोग नहीं है,
पाप-पुण्य-फल-भोग नहीं है।
राग-द्वेष का रोग नहीं है,
कोई योग-कुयोग नहीं है।
हैं सब एकाकार
सनेही,
सागर के उस पार।

जहाँ चवाव नहीं चलते हैं,
खल-दल जहाँ नहीं खलते हैं।
छल-बल जहाँ नहीं चलते हैं,
प्रेम-पालने में पलते हैं।
है सुखमय संसार
सनेही,
सागर के उस पार।

जहाँ नहीं यह मादक हाला,
जिसने चित्त चूर कर डाला।
भरा स्वयं हृदयों का प्याला,
जिसको देखो वह मतवाला।
है कर रहा विहार
सनेही,
सागर के उस पार।

नाविक क्यों हो रहा चकित है?
निर्भय चल तू क्यों शंकित है?
तेरी मति क्यों हुई थकित है?
गति में मेरा-तेरा हित है।
निश्चल जीवन भार
सनेही,
सागर के उस पार।

कानन=उद्यान; परमानंद-प्रद= अति आनंद देने 
वाला; चवाव=निंदा

~ गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

  Aug 18, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मानता हूँ, हर नया गाना

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मानता हूँ:
हर नया गाना सदा सस्वर नहीं होता ,
अनश्वर भी नहीं होता-
अभी उमड़ा, घिरा, गूँजा, मिटा तत्काल,
जैसे बुलबुले... सपने... घिरौंदे... इन्द्रजाल।

इस तरह के गीत अपनाना,
सुनाना दूसरों को और ख़ुद गाना –
तुम्हें अच्छा नहीं मालूम होता, किन्तु
यह सोचो कि जो तुमने सुने थे गीत ,
जिनके रचे जाने, गुनगुनाने की क्रिया में
गए कितने कल्प,युग,पल बीत :
वे भी तो नए थे एक दिन
ताज़े, कुँवारे फूल की ही भाँति।
तुमने था गले उनको लगाया, और
दुलराया,सजाया, हार प्राणों का बनाया,
नहीं ठुकराया, हुए यद्यपि मलिन वे गीत ।

और फिर यह आज का गाना कि
महफ़िल भी जमी है,
ताल, सुर, लय है, हर इक शै है,
नहीं कोई कमी है।
सिर्फ़ इतना है कि तुम भी बीच में टूटी हुई झंकार को जोड़ो,
अधूरा राग मत छोड़ो,
कि तुम भी गुनगुनाओ,
बीच में आवाज़ यदि डूबे, उसे ऊपर उठाओ :
राग जाएँ दिशाओं में बिखर,
पथ हो जाय उज्ज्वल,
और उस पल
इस धरा पर स्वर्ग का गन्धर्व आए उतर:
बस इतनी प्रतीक्षा मुझे भी है, तुम्हें भी है।

और फिर यह बात भी सच है कि
ईश्वर का ठिकाना कुछ नहीं:
कब, किस दुखी अन्धे भिखारी, या पुजारी, या
बिचारी दीन बुढिया का रचाये वेश ।
उस बहुरूपिए भगवान के अस्तित्व से अनभिज्ञ रहकर
हम न जाने किस समय, किस तरह आएँ पेश :
यह भय है।

इसी से तो मुझे यह याद आता है कि
जब भी, जहाँ भी कोई नया स्वर गुनगुनाता है,
पुराना कंठ, पहले का सुना संगीत,
बीता राग, लय विपरीत,
सबका-सब अचानक भूल जाता है ।
नये स्वर से लगा लूँ नेह ,
बिसरा कर सकल सन्देह :
ऐसा भाव मन में आ समाता है:

कि शायद ‘यही’ नवयुग का मसीहा हो।

~ अजित कुमार

  Aug 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मैं उम्र के रस्ते में चुप-चाप

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मैं उम्र के रस्ते में चुप-चाप बिखर जाता
इक दिन भी अगर अपनी तन्हाई से डर जाता

मैं तर्क-ए-तअल्लुक़ पर ज़िंदा हूँ सो मुजरिम हूँ
काश उस के लिए जीता अपने लिए मर जाता
*तर्क-ए-तअल्लुक़=रिश्ते तोड़ कर

उस रात कोई ख़ुश्बू क़ुर्बत में नहीं जागी
मैं वर्ना सँवर जाता और वो भी निखर जाता
*क़ुर्बत=नज़दीकी

उस जान-ए-तकल्लुम को तुम मुझ से तो मिलवाते
तस्ख़ीर न कर पाता हैरान तो कर जाता
*जान-ए-तकल्लुम=रूह; तस्ख़ीर=लुभा लेना

कल सामने मंज़िल थी पीछे मिरी आवाज़ें
चलता तो बिछड़ जाता रुकता तो सफ़र जाता

मैं शहर की रौनक़ में गुम हो के बहुत ख़ुश था
इक शाम बचा लेता इक रोज़ तो घर जाता

महरूम फ़ज़ाओं में मायूस नज़ारों में
तुम 'अज़्म' नहीं ठहरे मैं कैसे ठहर जाता
महरूम=जो मिल न सका; फ़ज़ाओं=मौसम

~ अज़्म बहज़ाद


  Aug 16, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मन जहां डर से परे है

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मन जहां डर से परे है
और सिर जहां ऊंचा है;

ज्ञान जहां मुक्‍त है;

और जहां दुनिया को
संकीर्ण घरेलू दीवारों से
छोटे छोटे टुकड़ों में बांटा नहीं गया है;

जहां शब्‍द सच की गहराइयों से निकलते हैं;

जहां थकी हुई प्रयासरत बांहें
त्रुटि हीनता की तलाश में हैं;

जहां कारण की स्‍पष्‍ट धारा है
जो सुनसान रेतीले मृत आदत के
वीराने में अपना रास्‍ता खो नहीं चुकी है;

जहां मन हमेशा व्‍यापक होते विचार और सक्रियता में
तुम्‍हारे जरिए आगे चलता है
और आजादी के स्‍वर्ग में पहुंच जाता है
ओ पिता!
मेरे देश को जागृत बनाओ

~ रवीन्द्रनाथ टैगोर


 Aug 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
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संभव विडंबना भी है



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संभव विडंबना भी है साथ नव-सृजन के
उल्लास तो बढ़ेंगे, परिहास कम न होंगे

अलगाव की विवशता
हरदम निकट रही है
इतना प्रयत्न फिर भी
दूरी न घट रही है
होगा विकास फिर भी संभाव्य है विपर्यय
आवास तो बढ़ेंगे, वनवास कम न होंगे।

परिणाम पक्ष में हो
परितोष पर न होगा
हो प्राप्त सफलताएं
संतोष पर न होगा
हर प्राप्ति में विफलता का बोध शेष होगा
हों भोज अधिक फिर भी उपवास कम न होंगे

भौतिक पदार्थवादी
उपलब्धियां बढ़ेंगी
रक्तों रंगी वसीयत
क्या पीढ़ियां पढ़ेंगी?
उपभोग्य वस्तुओं में है वस्तु आदमी भी
सपन्नता बढ़ेगी, संत्रास कम न होंगे।

~ चंद्रसेन विराट

 Aug 14, 2017| e-kavya.blogspot.com
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बहारें आएँगी, होंठों पे फूल खिलेंगे

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बहारें आएँगी, होंठों पे फूल खिलेंगे
सितारों को मालूम था, हम दोनों मिलेंगे

सितारों को मालूम था छिटकेगी चाँदनी,
सजेगा साज प्यार का बजेगी पैंजनी
बसोगे मन में तुम तो मन के तार बजेंगे
सितारों को मालूम था, हम दोनों मिलेंगे

मिला के नैन हम-तुम दो से एक हो गए
अजी हम तुम पे पलकें उठाते ही खो गए
नैना झुकायेंगे, जिया निछावर करेंगे
सितारों को मालूम था, हम दोनों मिलेंगे

कली जैसा कच्चा मन कहीं तोड़ न देना
बहारों के जाने पे कहीं छोड़ ना देना
बिछड़ने से पहले हम अपनी जान दे देंगे
सितारों को मालूम था, हम दोनों मिलेंगे

~ गोपाल सिंह नेपाली

 Aug 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh