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Wednesday, November 30, 2016

पहले मन में पीड़ा जागी



पहले मन में पीड़ा जागी
फिर भाव जगे मन-आंगन में
जब आंगन छोटा लगा उसे
कुछ ऐसे सँवर गई पीड़ा
क़ागज़ पर उतर गई पीड़ा।

जाने-पहचाने चेहरों ने
जब बिना दोष उजियारों का
रिश्ता अंधियारों से जोड़ा
जब क़समें खाने वालों ने
अपना बतलाने वालों ने
दिल का दर्पण पल-पल तोड़ा
टूटे दिल को समझाने को
मुश्क़िल में साथ निभाने को
और छोड़ के सारे ज़माने को
हर हद से गुज़र गई पीड़ा।

ये चांद-सितारे और अम्बर
पहले अपने-से लगे मगर
फिर धीरे-धीरे पहचाने
ये धन-वैभव, ये कीर्ति-शिखर
पहले अपने-से लगे मगर
फिर ये भी निकले बेगाने
फिर मन का सूनापन हरने
और सारा खालीपन भरने
ममतामई आँचल को लेकर
अन्तस् में ठहर गई पीड़ा
काग़ज़ पर उतर गई पीड़ा।

कुछ ख़्वाब पले जब आँखों में
बेगानों तक का प्यार मिला
यूँ लगा कि ये संसार मिला
जब आँसू छ्लके आँखों से
अपनों तक से प्रतिकार मिला
चुप रहने का अधिकार मिला
फिर ख़ुद में इक विश्वास मिला
कुछ होने का अहसास मिला
फिर एक खुला आकाश मिला
तारों-सी बिखर गई पीड़ा।

~ दिनेश रघुवंशी


  Nov 30, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

वे हिटलर की तरह आएंगे


 

 वे हिटलर की तरह आएंगे
और कहेंगे
कि सिर्फ़ जर्मनों को ही
राज करने का हक़ है
क्योंकि सिर्फ़ जर्मनों का रक्त
शुध्द है।
राजसी रक्त!

वे इस्लाम का चोगा पहन कर आएंगे
और कहेंगे
कि दुनिया में इस्लाम का
परचम लहराएगा!

उनके हाथों में त्रिशूल होंगे
‘अलख निरंजन’ कहकर
विधर्मी की छाती में उतर जाने के लिए
लपलपाते!
वे कहेंगे
कि देश में सिर्फ़
हिन्दुओं को रहने का हक़ है!

कहीं वे
अकाल तख्त की शक्ल में होंगे-
‘राज करेगा खालसा’
का उद्धोष करते हुए!

तो कहीं उनके हाथों में थमी होंगी
तिज़ारत की किताबें
-बायबिल के रूप में-
मूल मालिकों से ज़मीन छीन कर
उन्हें धर्म-दीक्षित करने के षडयंत्र के साथ!

वे किसी भी वेष में आएँ
मगर उनकी भाषा एक ही होगी
वही जो किसी भेड़िये की होती है
उनका शिकार होगी मानवता
उनके हाथ रंगे होंगे
अपने ही किसी भाई के रक्त से
और उनके दाँतें में लिथड़े होंगे
मांस के वे लोथड़े
जिन्हें उन्होंने किसी
मानवता के मसीहा की
छाती से नोचा होगा।

‘असहमति’
उनके शब्द-कोश का होगा
‘अद्वूत शब्द’
जो असहमत होगा, मारा जाएगा।
सत्तर साल का बूढ़ा
या किलकारी मारता
नन्हा मृगछौना,
सृष्टि की रचयिता औरत
होगी उनके लिए एक
द्वि-अर्थीय मशीन
जिससे वे बलात् चाहेंगे
इन्द्रिय सुख तथा
साँड़ की तरह बलिष्ठ
किन्तु बुध्दिहीन संतान।

~ दिनेश बैस


  Nov 29, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

 

नींद सुख की फिर हमें सोने न देगा












नींद सुख की
फिर हमें सोने न देगा
यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल।

छू लिए भीगे कमल-
भीगी ॠचाएँ
मन हुए गीले-
बहीं गीली हवाएँ
बहुत सम्भव है डुबो दे
सृष्टि सारी
दृष्टि के आकाश में घिरता हुआ जल।

हिमशिखर, सागर, नदी-
झीलें, सरोवर
ओस, आँसू, मेघ, मधु-
श्रम-बिंदु, निर्झर
रूप धर अनगिन कथा
कहता दुखों की
जोगियों-सा घूमता-फिरता हुआ जल।

लाख बाँहों में कसें
अब ये शिलाएँ
लाख आमंत्रित करें
गिरि-कंदराएँ
अब समंदर तक
पहुँचकर ही रुकेगा
पर्वतों से टूटकर गिरता हुआ जल।

नींद सुख की
फिर हमें सोने न देगा
यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल।

~ किशन सरोज

  Nov 28, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, November 27, 2016

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ



तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ ये कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तिरी याद आई क्या तू सच-मुच आई है

शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उस की अंगड़ाई शर्माई है

इस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रिफ़ाक़त का एहसास
जब उस के मल्बूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है
*रिफ़ाक़त=साथी; मल्बूस=पहनावे

हुस्न से अर्ज़-ए-शौक़ न करना हुस्न को ज़क पहुँचाना है
हम ने अर्ज़-ए-शौक़ न कर के हुस्न को ज़क पहुँचाई है
*अर्ज़-ए-शौक़=प्रेम की विनती; ज़क=नुकसान

हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़-ए-रक़ाबत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है
*सोज़-ए-रक़ाबत=जलन, ईर्ष्या

हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच ये तू ने कैसी शक्ल बनाई है

इशक़-ए-पेचाँ की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है
*इशक़-ए-पेचाँ=पेड़ पर चढ़ने वाली बेल, जिसमें लाल फूल आते हैं

हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम
इश्क़ का पेशा हुस्न-परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है
*हुस्न-परस्ती=सुंदरता की पूजा

आज बहुत दिन ब'अद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
जूँ ही दरवाज़ा खोला है उस की ख़ुश्बू आई है

एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है
*हब्स=दम घुटना

जौन एलिया

  Nov 27, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हमारे चेहरे पे ग़म भी नहीं


हमारे चेहरे पे ग़म भी नहीं, ख़ुशी भी नहीं
अंधेरा पूरा नहीं, पूरी रौशनी भी नहीं

है दुश्मनों से कोई ख़ास दुश्मनी भी नहीं
जो दोस्त अपने हैं उनसे कभी बनी भी नहीं

मैं कैसे तोड़ दूँ दुनिया से सारे रिश्तों को
अभी तो पूरी तरह उससे लौ लगी भी नहीं

~ कृष्णानंद चौबे

  Nov 26, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 26, 2016

युगबोध का हस्ताक्षर हूँ



दिग्भ्रमित क्या कर सकेंगीं, भ्रांतियाँ मुझको डगर में
मैं समय के भाल पर, युगबोध का हस्ताक्षर हूँ

कर चुका हर पल समर्पित जागरण को
नींद को अब रात भर सोने न दूंगा
है अंधेरे को खुली मेरी चुनौती
रोशनी का अपहरण होने न दूंगा
जानता अच्छी तरह हूँ, आंधियों के मैं इरादे
इसलिए ही; जल रहे जो दीप उनका पक्षधर हूँ
मैं समय के भाल पर, युगबोध का हस्ताक्षर हूँ


मंज़िलों के द्वार तक लेकर गया हूँ
हार कर बैठी थकन जब भी डगर में
मान्यताएँ दें न दें मुझको समर्थन
मैं अकेला ही लड़ूंगा, वर्जनाओं के नगर में
अब घुटन की ज़िंदगी के मौन को मुखरित करूंगा
मैं धरा पर क्रांति की संभावना का एक स्वर हूँ
मैं समय के भाल पर, युगबोध का हस्ताक्षर हूँ

~ जगपाल सिंह 'सरोज'

  Nov 26, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 25, 2016

दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा



दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ

बहुत बार आई गई यह दीवाली
मगर तम जहाँ था वहीं पर खड़ा है
बहुत बार लौ जल बुझी पर अभी तक
कफ़न रात का हर चमन पर पड़ा है
न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे
उषा को जगाओ, निशा को सुलाओ
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ

सृजन शांति के वास्ते है ज़रूरी
कि हर द्वार पर रौशनी गीत गाए
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा
कि जब प्यार तलवार से जीत जाए
घृणा बढ़ रही है, अमा चढ़ रही है
मनुज को जिलाओ, दनुज को मिटाओ
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ

बड़े वेगमय पंख हैं रौशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में
किया क़ैद जिसने उसे शक्तिबल से
स्वयं उड़ गया वह धुँआ बन पवन में
न मेरा-तुम्हारा, सभी का प्रहर यह
इसे भी बुलाओ, उसे भी बुलाओ
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ

अगर चाहते तुम कि सारा उजाला
रहे दास बनकर सदा को तुम्हारा
नहीं जानते कि फूस के गेह में पर
बुलाता सुबह किस तरह से अँगारा
न फिर कोई अग्नि रचे रास इससे
सभी रो रहे आँसुओं को हँसाओ।
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ

~ गोपालदास नीरज


  Nov 25, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, November 24, 2016

छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए



कहाँ चला ऐ मेरे जोगी, जीवन से तू भाग के,
किसी एक दिल के कारण यूँ सारी दुनिया त्याग के।

छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए
ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए
प्यार से भी ज़रूरी कई काम हैं
प्यार सब कुछ नहीं ज़िन्दगी के लिए

तन से तन का मिलन हो न पाया तो क्या
मन से मन का मिलन कोई कम तो नहीं
ख़ुशबू आती रहे दूर ही से सही
सामने हो चमन कोई कम तो नहीं
चांद मिलता नहीं सबको संसार में
है दिया ही बहुत रौशनी के लिए।

कितनी हसरत से तकती हैं कलियाँ तुम्हें
क्यूँ बहारों को फिर से बुलाते नहीं
एक दुनिया उजड़ ही गई है तो क्या
दूसरा तुम जहाँ क्यूँ बसाते नहीं
दिल न चाहे भी तो, साथ संसार के
चलना पड़ता है सबकी ख़ुशी के लिए

~ इन्दीवर


  Nov 24, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

प्रेम एक दलदल है




प्रेम एक दलदल है
अच्छा हुआ
मैं बच गया।

देखा है मैंने
प्रेमियों को
टूटकर रोते।
देखा है उन्हें चेहरा छिपाते।
प्यार के लिए करुणा जगाने के
नए-नए अभिनय करते
धोखा देने और विश्वास जमाने के
नायाब तरीक़े अपनाते।

छोटी-छोटी बातों पर
लड़ते हैं प्रेमी।
दुखी होते हैं
बेचैन अपनी-अपनी हालत पर।

शुरू होती है उनकी यात्रा
एक-दूसरे के
सुख-दुख के बीच
आने-जाने से।
ख़त्म हो जाती
सब कुछ एक साथ
न पाने से!

अच्छा ही हुआ
मैं न कर सका किसी को प्यार।
पता नहीं मेरे कारण
मेरी प्रेमिका को
कितना और कहाँ
झूठ बोलना पड़ता।
छिपानी होतीं अपनी ख़ुशियाँ
उदासी
अपने आँसू
घबराहट…
चुरानी पड़ती नज़रें।

चक्कर काटती वह ज्योतिषियों के
कहाँ-कहाँ फैलाती हाथ
मांगती मन्नतें।
कहाँ-कहाँ भटकती
मेरे लिए
अच्छे-से-अच्छा
उपहार ढूंढने।

मुझे भी भटकना पड़ता
नए से नया प्रिंट ढूंढते हुए
कपड़ों के मेले में।

उपस्थित रहते हुए भी
हम दोनों
नहीं होते-
अपने दफ़्तर में
अपनी-अपनी कुर्सी पर
जबकि रखे रहते
मेज़ पर टिफ़िन।
कष्ट पाती उसकी अन्तरात्मा
अपने सरल माता-पिता के
विश्वास को धोखा देते हुए

कष्ट पाता मैं
उसे उसके सीधे-सुखी
रास्ते से भटका कर।

बर्बाद हो जाती
कितनों की
कितनी ज़िन्दगी।

यों सब कुछ अच्छा ही हुआ
सीधा-सादा चलता रहा मैं।

बस यही बुरा हुआ
मैं आदमी नहीं बन पाया
बिना प्यार के;-
यों ही
मारा गया!

~ हरिमोहन शर्मा


  Nov 21, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, November 23, 2016

था तुम्हें मैंने रुलाया





हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा
हाय, मेरी कटु अनिच्छा
था बहुत मांगा न तुमने
किन्तु वह भी दे न पाया
था तुम्हें मैंने रुलाया

स्नेह का वह कण तरल था
मधु न था, न सुधा-गरल था
एक क्षण को भी सरलते
क्यों समझ तुमको न पाया
था तुम्हें मैंने रुलाया

बूंद कल की आज सागर
सोचता हूँ बैठ तट पर-
क्यों अभी तक डूब इसमें
कर न अपना अंत पाया
था तुम्हें मैंने रुलाया

~ हरिवंश राय बच्चन

  Nov 23, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, November 22, 2016

जीवित सौ प्रतिबंध हो गए



सारी रात जागकर मन्दिर
कंचन को तन रहा बेचता
मैं जब पहुँचा दर्शन करने
तब दरवाज़े बन्द हो गए

छल को मिली अटारी सुख की
मन को मिला दर्द का आंगन
नवयुग के लोभी पंचों ने
ऐसा ही कुछ किया विभाजन
शब्दों में अभिव्यक्ति देह की
सुनती रही शौक़ से दुनिया
मेरी पीड़ा अगर गा उठे
दूषित सारे छन्द हो गए

इन वाचाल देवताओं पर
देने को केवल शरीर है
सोना ही इनका गुलाल है
लालच ही इनका अबीर है
चांदी के तारों बिन मोहक
बनता नहीं ब्याह का कंगन
कल्पित किंवदंतियों जैसे
मन-मन के संबंध हो गए

जीवन का परिवार घट रहा
और मरण का वंश बढ़ रहा
बैठा कलाकार गलियों में
अपने तन की भूख गड़ रहा
निष्ठा की नीलामी में तो
देती है सहयोग सभ्यता
मन अर्पित करना चाहा तो
जीवित सौ प्रतिबंध हो गए

~ रामावतार त्यागी

  Nov 22, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, November 20, 2016

सोनजुही की बेल नवेली



सोनजुही की बेल नवेली
एक वनस्पति वर्ष
हर्ष से खेली
फूली-फैली
सोनजुही की बेल नवेली!
*सोनजुही=पीले रंग की जूही (yellow jasmine)

आंगन के बाड़े पर चढ़कर
दारुखंभ को गलबाँही भर
कुहनी टेक कंगूरे पर
वह मुस्काती अलबेली!
सोनजुही की बेल छबीली!

दुबली-पतली देह लतर, लोनी लम्बाई
प्रेम डोर-सी सहज सुहाई!
फूलों के गुच्छों से उभरे अंगों की गोलाई
निखरे रंगों की गोराई
शोभा की सारी सुघराई
जाने कब भुजगी से पाई!
सौरभ के पलने में झूली
मौन मधुरिमा में निज भूली
यह ममता की मधुर लता
मन के आंगन में छाई!
सोनजुही की बेल लजीली!
पहिले अब मुस्काई!

एक टांग पर उचक खड़ी हो
मुग्धा वय से अधिक बड़ी हो
पैर उठा कृश पिंडुली पर धर
घुटना मोड़, चित्र बन सुन्दर
पल्ल्व देही से मृदु मांसल
खिसका धूप-छाँह का ऑंचल
पंख सीप के खोल पवन में
वन की हरी परी आंगन में
उठ अंगूठे के बल ऊपर
उड़ने को अब छूने अम्बर!
सोनजुही की बेल हठीली
लटकी सधी अधर पर!

झालरदार गागरा पहने
स्वर्णिम कलियों के सज गहने
बूटे कढ़ी चुनरी फहरा
शोभा की लहरी-सी लहरा
तारों की-सी छाँह साँवली
सीधे पग धरती न बावली
कोमलता के भार से मरी
अंग-भंगिमा भरी, छरहरी!
उदि्भद जग की-सी निर्झरिणी
हरित नीर, बहती-सी टहनी!
सोनजुही की बेल
चौकड़ी भरती चंचल हिरनी!

आकांक्षा सी उर से लिपटी,
प्राणों के रज तम से चिपटी,
भू यौवन की सी अंगड़ाई,
मधु स्वप्नों की सी परछाई,
रीढ़ स्तम्भ का ले अवलंबन
धरा चेतना करती रोहण
आ, विकास पथ पर भू जीवन!
सोनजुही की बेल,
गंध बन उड़ी, भरा नभ का मन!

~ सुमित्रानंदन पंत


  Nov 20, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 19, 2016

सुब्ह को आए हो निकले शाम के


सुब्ह को आए हो निकले शाम के
जाओ भी अब तुम मिरे किस काम के

हाथा-पाई से यही मतलब भी था
कोई मुँह चूमे कलाई थाम के

तुम अगर चाहो तो कुछ मुश्किल नहीं
ढंग सौ हैं नामा-ओ-पैग़ाम के
*नामा-ओ-पैग़ाम=पत्र और संदेश

क़हर ढाएगी असीरों की तड़प
और भी उलझेंगे हल्क़े दाम के
*असीरों=कैदियों; हल्क़े=हल्क़े=ज़ंजीरें; दाम=दाम=फंदा

मोहतसिब चुन लेने दे इक इक मुझे
दिल के टुकड़े हैं ये टुकड़े जाम के
*मोहतसिब=कानून का रखवाला

लाखों धड़के इब्तिदा-ए-इश्क़ में
ध्यान हैं आग़ाज़ में अंजाम के
*इब्तिदा-ए-इश्क़=इश्क़ की शुरुआत; आगाज़=शुरू; अंजाम=अंत

मय का फ़तवा तो सही क़ाज़ी से लूँ
टोक कर रस्ते में दामन थाम के

दूर दौर-ए-मोहतसिब है आज-कल
अब कहाँ वो दौर-दौरे जाम के
*दौरे-दौरे=रोब

नाम जब उस का ज़बाँ पर आ गया
रह गया नासेह कलेजा थाम के

दूर से नाले मिरे सुन कर कहा
आ गए दुश्मन मिरे आराम के
*नाले=शिकवे, शिकायतें

हाए वो अब प्यार की बातें कहाँ
अब तो लाले हैं मुझे दुश्नाम के
*लाले=ललक; दुष्नाम=बुरा बर्ताव

वो लगाएँ क़हक़हे सुन कर 'हफ़ीज़'
आप नाले कीजिए दिल थाम के
*नाले=शिकवे, शिकायतें

~ हफ़ीज़ जौनपुरी


  Nov 19, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 18, 2016

मेरा वतन वही है



चिश्ती ने जिस ज़मीं पे पैग़ाम-ए-हक़ सुनाया,
नानक ने जिस चमन में वहदत का गीत गाया,
तातारियों ने जिसको अपना वतन बनाया,
जिसने हिजाज़ियों से दश्त-ए-अरब छुड़ाया,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
*पैग़ामे हक़=सच्चाई का संदेश; वहदत=एकता; हिजाज़=सऊदी अरब का पुराना नाम

यूनानियों को जिसने हैरान कर दिया था,
सारे जहाँ को जिसने इल्मो-हुनर दिया था,
मिट्टी को जिसकी हक़ ने ज़र का असर दिया था
तुर्कों का जिसने दामन हीरों से भर दिया था,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
*इल्मो-हुनर=ज्ञान और कला; हक़=ईश्वर; ज़र=सोना, दौलत

टूटे थे जो सितारे फ़ारस के आसमां से,
फिर ताब दे के जिसने चमकाए कहकशां से,
वहदत की लय सुनी थी दुनिया ने जिस मकाँ से,
मीरे-अरब को आई ठंढी हवा जहाँ से,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
*फ़ारस=ईरान; ताब=शक्ति; कहकशाँ=आकाश गंगा

बंदे कलीम जिसके, परबत जहाँ के सीना,
नूहे-नबी का ठहरा, आकर जहाँ सफ़ीना,
रिफ़अत है जिस ज़मीं को, बामे-फलक़ का ज़ीना,
जन्नत की ज़िन्दगी है, जिसकी फ़िज़ा में जीना,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
*बंदे=आदमी; कलीम=बोलने वाले; नूह-ए-नबी=प्राफेट नोह; सफ़ीना=जहाज़
*रिफ़अत=ऊँचाई; बाम-ए-फ़लक=आसमान रूपी छत; ज़ीना=सीढ़ी


गौतम का जो वतन है, जापान का हरम है,
ईसा के आशिक़ों को मिस्ले-यरूशलम है,
मदफ़ून जिस ज़मीं में इस्लाम का हरम है,
हर फूल जिस चमन का, फिरदौस है, इरम है,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
*हरम=पवित्र स्थान; मदफ़ूम=गाड़ा हुआ, गहराई तक पैठा हुआ; फिरदौस=स्वर्ग; इरम=स्वर्ग, अरेबिया का एक मशहूर उद्यान
 

~ इक़बाल

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Thursday, November 17, 2016

जाग बेसुध जाग!



जाग बेसुध जाग!
अश्रुकण से उर सजाया त्याग हीरक हार
भीख दुख की मांगने फिर जो गया, प्रतिद्वार
शूल जिसने फूल छू चंदन किया, संताप
सुन जगाती है उसी सिध्दार्थ की पदचाप
करुणा के दुलारे जाग!

शंख में ले नाश मुरली में छिपा वरदान
दृष्टि में जीवन अधर में सृष्टि ले छविमान
आ रचा जिसने विपिन में प्यार का संसार
गूंजती प्रतिध्वनि उसी की फिर क्षितिज के पार
वृंदा विपिन वाले जाग!
*विपिन=जंगल, बियावान

रात के पथहीन तम में मधुर जिसके श्वास
फैले भरते लघुकणों में भी असीम सुवास
कंटकों की सेज जिसकी ऑंसुओं का ताज
सुभग, हँस उठ, उस प्रफुल्ल गुलाब ही सा आज
बीती रजनी प्यारे जाग!

~ महादेवी वर्मा


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Wednesday, November 16, 2016

जीवन में अरमानों का...



जीवन में अरमानों का आदान-प्रदान नहीं होता है।

मैंने ऐसा मनुज न देखा
अंतर में अरमान न जिसके,
मिला देवता मुझे न कोई
शाप बने वरदान न जिसके।
पंथी को क्या ज्ञात कि
पथ की जड़ता में चेतनता है?
पंथी के श्रम स्वेद-कणों से पथ गतिमान नहीं होता है।
जीवन में अरमानों का आदान-प्रदान नहीं होता है।

यदि मेरे अरमान किसी के
उर पाहन तक पहुँच न पाए,
अचरज की कुछ बात नहीं
जो जग ने मेरे गीत न गाए।
यह कह कर संतोष कर लिया-
करता हूँ मैं अपने उर में,
अरुण-शिखा के बिना कहीं क्या स्वर्ण-विहान नहीं होता है।
जीवन में अरमानों का आदान-प्रदान नहीं होता है।

मैं ही नहीं अकेला आकुल
मेरी भाँति दुखी जन अनगिन,
एक बार सब के जीवन में
आते गायन रोदन के क्षण,
फिर भी सब के मन का सुख-दुख एक समान नहीं होता है।
जीवन में अरमानों का आदान-प्रदान नहीं होता है।

~ बलबीर सिंह 'रंग'


  Nov 16, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, November 15, 2016

बादल को घिरते देखा है



अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है
बादलों को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं
उनके श्यामल-नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर बिस-तंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती
निशाकाल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकवी का
बंद हुआ क्रंदन; फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है
बादल को घिरते देखा है।

दुर्गम बर्फ़ानी घाटी में
शत्-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल
-के पीछे धावित हो-होकर
तरल तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है
बादल को घिरते देखा है।

कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का
ढूंढा बहुत परंतु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर
जाने दो; वह कवि-कल्पित था
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है
बादल को घिरते देखा है।

शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कानन में
शोणित धवल भोज-पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों से कुंतल को साजे
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में
कानों में कुवलय लटकाए
शतदल लाल कमल वेणी में
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान-पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपुटी पर
नरम निदाग बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आँखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अंगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है।

~ नागार्जुन
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Monday, November 14, 2016

नैनों की बँध डोर



नैनों की बँध डोर
चपल कनखियों के छोर
कहे बिन चोट दे गई।

कहा जो दे दे यौवन धन
सकुचाई मन ही मन,
लजा कर लोट हो गई।

~ अशोक सिंह


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हारने को कुछ नहीं है पास तेरे



हारने को कुछ नहीं है पास तेरे
जीतने को सामने दुनिया पड़ी है।

जो कंटीली झाडियाँ पथ में बिछी हैं
और पर्वत सिर उठाये से खड़े हैं
ये कहाँ अवरोध, ये तो मित्र अपने
प्रेरणा देने किनारों तक अड़े हैं
ठहर कर तो क्या करेगा पास तेरे
चल पड़े तो सामने दुनिया पड़ी है।

भीड़ में पहचान कब होती किसी की
लीक से हटकर चलो तो बात है कुछ
वक़्त के आगे सभी बेबस हुए हैं
वक़्त को बेबस करो तो बात है कुछ
जिंदगी के चार पल हैं पास तेरे
झुक गए तो लूटने दुनिया खड़ी है।

गर तलाशो तो तलाशो आग अपनी
इन अलावों में कहाँ चिंगारियां हैं
पारदर्शी से बने जग-आइनों में
काटने को स्वार्थ की दो आरियाँ हैं
इस जगत का व्याकरण है पास तेरे
जांच कर पढ़ना कि ये दुनिया बड़ी है।

हारने को कुछ नहीं है पास तेरे
जीतने को सामने दुनिया पड़ी है।

~ देवेंद्र आर्य


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Saturday, November 12, 2016

जीवन में प्यार कर लो प्रिए



लगती हो रात में प्रभात की किरन-सी
किरन से कोमल कपास की छुअन-सी
छुअन-सी लगती हो किसी लोकगीत की
लोकगीत, जिसमें बसी हो गंध प्रीत की

प्रीत को नमन एक बार कर लो प्रिए
एक बार जीवन में प्यार कर लो प्रिए

प्यार ठुकरा के मत भटको विकल-सी
विकल हृदय में मचा दो हलचल-सी
हलचल प्यार की मचा दो एक पल को
एक पल में ही खिल जाओगी कमल-सी
प्यार के सलोने पंख बांध लो सपन में
सपन को सजने दो चंचल नयन में
नयन झुका के अपना लो किसी नाम को
किसी प्रिय नाम को बसा लो तन-मन में
मन पे किसी के अधिकार कर लो प्रिए
एक बार जीवन में प्यार कर लो प्रिए

प्यार है पवित्र पुंज, प्यार पुण्यधाम है
पुण्यधाम, जिसमें कि राधिका है श्याम है
श्याम की मुरलिया की हर गूंज प्यार है
प्यार कर्म, प्यार धर्म, प्यार प्रभुनाम है
प्यार एक प्यास, प्यार अमृत का ताल है
ताल में नहाए हुए चन्द्रमा की चाल है
चाल बनवासिन हिरनियों का प्यार है
प्यार देवमंदिर की आरती का थाल है

थाल आरती का है विचार कर लो प्रिए
एक बार जीवन में प्यार कर लो प्रिए

प्यार की शरण जाओगी तो तर जाओगी
जाओगी नहीं तो आयु भर पछताओगी
पछताओगी जो किया अपमान रूप का
रूप-रंग-यौवन दोबारा नहीं पाओगी
युगों की है जानी-अनजानी पल भर की
अनजानी जग की कहानी पल भर की
बस पल भर की कहानी इस रूप की
रूप पल भर का, जवानी पल भर की

अपनी जवानी का सिंगार कर लो प्रिए
एक बार जीवन में प्यार कर लो प्रिए

~ देवल आशीष


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Friday, November 11, 2016

प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से



तुमसे मिलकर जीने की चाहत जागी,
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

तुम औरों से कब हो, तुमने पल भर में
मन के सन्नाटों का मतलब जान लिया
जितना मैं अब तक ख़ुद से अनजान रहा
तुमने वो सब पल भर में पहचान लिया
मुझ पर भी कोई अपना हक़ रखता है
यह अहसास मुझे भी पहली बार हुआ,
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ।

ऐसा नहीं कि सपन नहीं थे आँखों में
लेकिन वो जगने से पहले मुरझाए
अब तक कितने ही सम्बन्ध जिए मैंने
लेकिन वो सब मन को सींच नहीं पाये
भाग्य जगा है मेरी हर प्यास क
तृप्ति के हाथों ही ख़ुद सत्कार हुआ,
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ।

दिल कहता है तुम पर आकर ठहर गई
मेरी हर मजबूरी, मेरी हर भटकन
दिल के तारों को झंकार मिली तुमसे
गीत तुम्हारे गाती है दिल की धड़कन
जिस दिल पर अधिकार कभी मैं रखता था
उस दिल के हाथों ही अब लाचार हुआ,
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ।

बहकी हुई हवाओं ने मेरे पथ पर
दूर-दूर तक चंदन-गंध बिखेरी है
भाग्य देव ने स्वयं उतरकर धरती पर
मेरे हाथ में रेखा नई उकेरी है
मेरी हर इक रात महकती है अब तो
मेरा हर दिन जैसे इक त्यौहार हुआ,
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ।

~ दिनेश रघुवंशी


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Thursday, November 10, 2016

हिलता रहा मन



धर गए मेहंदी रचे दो हाथ जल में दीप
जन्म-जन्मों ताल-सा हिलता रहा मन

बाँचते हम रह गए अंतर्कथा
स्वर्णकेशा गीत वधुओं की व्यथा
ले गया चुन कर कँवल कोई हठी युवराज
देर तक शैवाल-सा हिलता रहा मन

जंगलों का दुःख तटों की त्रासदी
भूल सुख से सो गयी कोई नदी
थक गयी लड़ती हवाओं से अभागी नाव
और झीने पाल-सा हिलता रहा मन

तुम गए क्या जग हुआ अंधा कुआँ
रेल छूटी रह गया केवल धुआँ
गुनगुनाते हम भरी आँखों फिरे सब रात
हाथ के रूमाल-सा हिलता रहा मन

धर गए मेहंदी रचे दो हाथ जल में दीप
जन्म-जन्मों ताल-सा हिलता रहा मन

~ किशन सरोज


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Wednesday, November 9, 2016

जिन गीतों से सार न उपजे



जिस डाली पर नीड़ बने ना
उस पर जा कर रहना कैसा
जिन राहों पर मंज़िल ना हो
उन पर चलना-चलना कैसा

जो डग सागर को ना जाए
उस पथ पर बहती क्यों नदिया
जो धारा तट तक ना जाए
उससे क्यों टकराती नैया

जिन पुष्पों में रंग न उभरें
उनका खिलना है क्या खिलना
जिनको जीवन मर्म न दरसे
उनका जीना भी क्या जीना

जो पयोद बे-मौसम बरसे
उसमें नाच नाचना कैसा
जिन बोलों से भरम न टूटे
उनको रटना-रटना कैसा
*पयोद=बादल, मेघ

जिन तारों से वाद्य न फूटें
उनको कसना-कसना कैसा
जिन गीतों से सार न उपजे
उनको गाना, गाना कैसा

~ आनन्द प्रकाश माहेश्वरी


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Tuesday, November 8, 2016

वोट देते हैं टके की ओट में



नवं. 8, अमेरिका में आज राष्ट्रपति और नयी सरकार के चुनाव के लिये वोट डाले जा रेहे हैं, भारत जैसी भ्रांत परिस्थिति पाश्चात्य देशों में नहीं है, फिर भी इस अवसर पर हरिऔध जी की कविता:

वोट देते हैं टके की ओट में।
हैं सभाओं में बहुत ही ऐंठते।
कुछ उठल्लू लोग ऐसे हैं कि जो।
हैं उठाते हाथ उठते बैठते।

वोट देने से उन्हें मतलब रहा।
एतबारों को न क्यों लेवें उठा।
वे उठाते हाथ यों ही हैं सदा।
क्यों न उन पर हाथ हम देवें उठा।

वोट देने का निकम्मा ढंग हो।
है उन्हें बेआबरू करता न कम।
हैं उठाते तो उठायें हाथ वे।
क्यों उठा देवें पकड़ कर हाथ हम।

वोट की क्या चोट लगती है नहीं।
क्यों कमीने बन कमाते हैं टका।
नीचपन से जब लदा था बेतरह।
तब उठाये हाथ कैसे उठ सका।

वोट दें पर खोट से बचते रहें।
क्यों करें वह, लिम लगे जिस के किये।
जब कि ऊपर मुँह न उठ सकता रहा।
हाथ ऊपर हैं उठाते किस लिए।

~ अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध'


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Monday, November 7, 2016

दिल्ली मत जाना




गाँव में उस दिन
ख़ामोश थे अलाव
पूरी रात गुड़गुड़ाए थे हुक्के
और ग्राम देवता हुए थे दुखी
गाँव भर ने पिता से कहा था:-
बड़े लोग रहते हैं दिल्ली में
सुना है,
हमारे पहाड़ से भी बड़े
क़ुतुबमीनार के बराबर ऊँचे।
जिनके घर लालक़िले-से
बातें एकद सफ़ेद्।
दिल्ली मत जाना
मूर्ख बनने में ही
सारी उम्र लगा दोगे वहाँ

पिता नहीं माने
गए दिल्ली
बनाया घर।
अच्छी-ख़ासी मिट्टी
उनकी
हो गई ख़राब

लौट कर आए पिता
उखड़ी हुई साँसें उनकी
बर्फ़ की तरह गिर रही थी आवाज़
भाई से कहा उन्होंने:-
कहीं जाना
कहीं रहना
दिल्ली मत जाना

दिल्ली में एक शतरंज बिछा है
जहाँ आदमी सिर्फ़ प्यादा हो कर रह जाता है
वज़ीर और बादशाह
घोड़े, हाथी और ऊँट
उसे अपने लिए इस्तेमाल करते हैं
सो तुम मत जाना दिल्ली
बहुत लोग गए
नहीं लौटे
वहीं काम आए।

भाई नहीं माने
गए दिल्ली
लड़े, भीड़ में बनाने अपनी जगह
खाए धक्के
लौट आए बेहद थके
गुस्से की खाली बन्दूक के
थके हुए घोड़े पर
रखी हुई बेजान उंगली भर थे वे।

भाई ने मुझसे कहा:-
तुम दिल्ली मत जाना
न हमारा गाँव है वहाँ
न कोई छाँव
हवा-पानी कुछ भी नहीं
अपना आसमान तक नहीं

कोई नहीं सुनता दिल्ली में
संसद की तरह हैं वहाँ के लोग
ख़बरों का कारखाना है दिल्ली
आदमी वहाँ महज़ एक ख़बर है
या आँकड़ा

बहुत हुआ तो
किसी साबुन के प्रचार में नहाती
मुस्कुराती-गुनगुनाती
बेहद शर्मीली है बेशर्म दिल्ली
सिखाती हत्या करने की
ख़ूबसूरत कला

मैं मानता रहा कुछ दिन
भाई की बात।
मुझे जाना पड़ा दिल्ली।

मैंने पाया-
दिल्ली में
हर आदमी की
अपनी एक दिल्ली है।
एक मेरी भी।

मेरी दिल्ली संगीत से भरी
कविता में डूबी
नाटक में जीती
और दिल की तरह धड़कती

कोई कुछ भी कहे
दिल्ली स्वप्न नगरी तो है।
मैं हो जाता हूँ यहाँ
हवा में फ़ड़फ़ड़ाता आसमान
किसी के कपड़े पर छपा
खिला छोटा सा फूल
या सुन कर जिसे
हँस जाए
उदास मित्र
ऐसी कोई बात्।

सोचता हूँ
जब लौटूंगा कभी
थककर, हारकर, जीतकर
तो क्या कहूंगा
अपने बच्चों से?

मैं कहूंगा-
तुम जाना बादल की तरह
या चुपचाप बैठना
खाली किसी मेज़ पर
बसंत की तरह
यानि
ऐसे पहुँचना
जैसे पहुँचती है
अच्छी अचानक ख़बर
देखना दिल्ली भी
कितना प्यार करेगी तुमको!

दिल्ली में तुम्हारे लिये भी
एक दिल्ली होगी
ठीक मेरी जैसी!!

सो तुम
दिल्ली
ज़रूर जाना।

~ हरिमोहन शर्मा

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Sunday, November 6, 2016

टुकड़े-टुकड़े हो गया आईना


टुकड़े-टुकड़े हो गया आईना गिर कर हाथ से
मेरा चेहरा अनगिनत चेहरों में बट कर रह गया
हादसा, दर हादसा, दर हादसा, दर हादसा
सारा माज़ी एक ऑंसू में सिमट कर रह गया

*माज़ी=अतीत

~मुज़फ्फर रज्मी

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रात चांदनी-सी तुम आईं!



प्राण लगा चंदा की बिंदी और तारों की वरमाला ले
रात चांदनी-सी तुम आईं!

मन होता अपनी कमज़ोरी ज़ाहिर कर दूँ
अपने पापों की सब सूची सम्मुख धर दूँ
लेकिन तेरे स्वप्न-जाल की डोर न टूटे
सुख का यह साम्राज्य न इतनी जल्दी छूटे
दुख कह देने का सुख पाऊँ या सुख हरने का दुख पाऊँ
सोच-सोच चेतना गँवाई!

नए-नए नित स्वप्न जुगाना तो अपने में बात बड़ी है
इन सपनों के ऊपर ही तो संसृति की मीनार खड़ी है
लेकिन महल रहे जो कल तक और अब गिरकर टूट चुके हैं
याद कभी उनकी कर लेना पाप नहीं जो छूट चुके हैं
मैंने मुड़कर देखा ही है अपने पिछले जीवन-पथ को
तुम क्यों पगली-सी भरमाई!

भला-बुरा जैसा जो कुछ कर कह आए हम
सुख-दुख हर्ष-विषाद सभी जो सह आए हम
भला यही अब उसको भूलें ख़ुद को जानें
आगे जो कुछ करना है उसको पहचानें
बहुत बार सोचा था मन ने, लेकिन काँप गया यह उस दिन
जब उदासियाँ तुम पर छाईं!

~ भीमसेन त्यागी


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Saturday, November 5, 2016

जा तुझको भी नींद न आए



मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए
पूनम वाला चांद तुझे भी सारी-सारी रात जगाए

तुझे अकेले तन से अपने, बड़ी लगे अपनी ही शैय्या
चित्र रचे वह जिसमें, चीरहरण करता हो कृष्ण-कन्हैया
बार-बार आँचल सम्भालते, तू रह-रह मन में झुंझलाए
कभी घटा-सी घिरे नयन में, कभी-कभी फागुन बौराए
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

बरबस तेरी दृष्टि चुरा लें, कंगनी से कपोत के जोड़े
पहले तो तोड़े गुलाब तू, फिर उसकी पंखुडियाँ तोड़े
होठ थकें ‘हाँ’ कहने में भी, जब कोई आवाज़ लगाए
चुभ-चुभ जाए सुई हाथ में, धागा उलझ-उलझ रह जाए
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

बेसुध बैठ कहीं धरती पर, तू हस्ताक्षर करे किसी के
नए-नए संबोधन सोचे, डरी-डरी पहली पाती के
जिय बिनु देह नदी बिनु वारी, तेरा रोम-रोम दुहराए
ईश्वर करे हृदय में तेरे, कभी कोई सपना अँकुराए
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

‍‍~ भारत भूषण


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Friday, November 4, 2016

ज़िन्दगानी मना ही लेती है।



हर किसी आँख में खुमार नहीं
हर किसी रूप पर निखार नहीं
सब के आँचल तो भर नहीं देता
प्यार धनवान है उदार नहीं।

सिसकियाँ भर रहा है सन्नाटा
कोई आहट कोई पुकार नहीं
क्यों न कर लूँ मैं बन्द दरवाज़े
अब तो तेरा भी इंतजार नहीं।

पर झरोखे की राह चुपके से
चाँदनी इस तरह उतर आई
जैसे दरपन की शोख बाहों में
काँपती हो किसी कि परछाई।

मैंने चाहा कि भूल जाऊँ पर
अनदिखे हाथ ने उबार लिया
मरे माथे की सिलवटों को तभी
गीत के होंठ ने सँवार दिया।

एक नटखट अधीर बच्चे सी
कुछ बहाना बना ही लेती है
रूठिये लाख गुदगुदा के मगर
ज़िन्दगानी मना ही लेती है।

∼ बालस्वरूप राही


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Thursday, November 3, 2016

तुम्‍हारी चांदनी का क्‍या करूँ मैं



तुम्‍हारी चांदनी का क्‍या करूँ मैं
अंधेरे का सफ़र मेरे लिए है

किसी गुमनाम के दुख-सा अजाना है सफ़र मेरा
पहाड़ी शाम-सा तुमने मुझे वीरान में घेरा
तुम्‍हारी सेज को ही क्‍यों सजाऊँ
समूचा ही शहर मेरे लिए है

थका बादल, किसी सौदामिनी के साथ सोता है
मगर इंसान थकने पर बड़ा लाचार होता है
गगन की दामिनी का क्‍या करूँ मैं
धरा की हर डगर मेरे लिए है

किसी चौरास्‍ते की रात-सा मैं सो नहीं पाता
किसी के चाहने पर भी किसी का हो नहीं पाता
मधुर है प्‍यार, लेकिन क्‍या करूँ मैं
जमाने का ज़हर मेरे लिए है

नदी के साथ मैं, पहुँचा किसी सागर किनारे
गई ख़ुद डूब, मुझको छोड़ लहरों के सहारे
निमंत्रण दे रही लहरें करूँ क्‍या
कहाँ कोई भँवर मेरे लिए है

~ रमानाथ अवस्थी


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कल तलक जिस में रह न पायेंगे

कल तलक जिस में रह न पायेंगे
उसको अपना मकान कहते है।

अपने बस में, न अपने क़ाबू में
जिसको अपनी ज़बान कहते है।

हो ख़िजाँ और बहार का हमदम
तब उसे गुलसितान कहते है।

उसके ज़ोर-ओ-सितम से हूँ वाक़िफ़
सब जिसे मेहरबान कहते है।

~ अशरफ़ गिल


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Wednesday, November 2, 2016

चांद की बातें करते हो



चांद की बातें करते हो, धरती पर अपना घर ही नहीं
रोज़ बनाते ताजमहल, संगमरमर क्या कंकर ही नहीं
सूखी नदिया नाव लिए तुम बहते हो यूँ ही
क्या लिखते रहते हो यूँ ही

आपके दीपक, शमा, चिराग़ में आग नहीं, पर जलते हैं
अंधियारे की बाती, सूरज से सुलगाने चलते हैं
आँच नहीं है चूल्हे में, पर काँख में सूरज दाबे हो
सीले, घुटन भरे कमरे में, वेग पवन का थामे हो
ठंडी-मस्त हवा हो तो भी दहते हो यूँ ही

चंचल-चंद्रमुखी चावल से कंकर चुनते नहीं लिखी
परी को नल की लम्बी कतारों में स्वेटर बुनते नहीं लिखी
पाँव धँसे दलदल में पतंग सतरंगी उड़ाते फिरते हो
दिन-दिन झड़ते बाल बिचारे ज़ुल्फें गाते फिरते हो
खड़ा हिमालय बातों का कर ढहते हो यूँ ही

ठोस क़दम की बातें करते, कठिनाई से बचते हो
बिना किए ही मेहनत के, तुम मेहनत के छंद रचते हो
सारी दुनिया से रूठे हो, कारण क्या कुछ पता नहीं
भीतर से बिखरे-टूटे हो, कारण क्या कुछ पता नहीं
प्रश्न बड़े हैं उत्तर जिनके कहते हो यूँ ही

कभी कल्पना-लोक से निकलो, सच से दो-दो हाथ करो
कीचड़ भरी गली में घूमो, फिर सावन की बात करो
झाँईं पड़े हुए गालों को, गाल गुलाबी लिख डाला
पत्र कोई आया ही नहीं, पर पत्र जवाबी लिख डाला
छोटे दुख भी भारी कर के सहते हो यूँ ही

~ रमेश शर्मा


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Tuesday, November 1, 2016

काँच बिखरा है धरा पर



काँच बिखरा है धरा पर
तू न नंगे पाँव चल

स्वप्न स्वर्णिम हों भले ही सच नहीं होते मगर
जागरण के नाम कर दे नींद की सारी उमर
सामना कर ज़िन्दगी का
ठोकरें खा कर संभल

आज तक जग ने किसी के दर्द को बाँटा नहीं
दीप तेरी देहरी का ही न बुझ जाए कहीं
आंधियाँ हर रोज़ ही
आने लगी हैं आजकल

और कुछ करना अगर, तेरे लिए संभव न हो
दूसरों के रास्ते में कम से कम काँटे न बो
काटनी तुझको पड़ेगी
अन्यथा वो ही फ़सल

पाँव के छाले न गिन, यदि लक्ष्य पाना है तुझे
चल थकन को साथ लेकर, दूर जाना है तुझे
तेज़ कर रफ्तार अपनी
दिन कहीं जाए न ढल

~ जगपाल सिंह ‘सरोज’


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