Disable Copy Text

Sunday, December 30, 2018

कुछ तुम ने कहा

Image may contain: one or more people, people standing, sky, twilight, cloud, outdoor and nature

कुछ तुम ने कहा
कुछ मैं ने कहा
और बढ़ते बढ़ते बात बढ़ी
दिल ऊब गया
दिल डूब गया
और गहरी काली रात बढ़ी

तुम अपने घर
मैं अपने घर
सारे दरवाज़े बंद किए
बैठे हैं कड़वे घूँट पिए
ओढ़े हैं ग़ुस्से की चादर

कुछ तुम सोचो
कुछ मैं सोचूँ
क्यूँ ऊँची हैं ये दीवारें
कब तक हम इन पर सर मारें
कब तक ये अँधेरे रहने हैं
कीना के ये घेरे रहने हैं
चलो अपने दरवाज़े खोलें
और घर के बाहर आएँ हम
दिल ठहरे जहाँ हैं बरसों से
वो इक नुक्कड़ है नफ़रत का
कब तक इस नुक्कड़ पर ठहरें
अब इस के आगे जाएँ हम

बस थोड़ी दूर इक दरिया है
जहाँ एक उजाला बहता है
वाँ लहरों लहरों हैं किरनें
और किरनों किरनों हैं लहरें
इन किरनों में
इन लहरों में
हम दिल को ख़ूब नहाने दें
सीनों में जो इक पत्थर है
उस पत्थर को घुल जाने दें
दिल के इक कोने में भी छुपी
गर थोड़ी सी भी नफ़रत है
इस नफ़रत को धुल जाने दें
दोनों की तरफ़ से जिस दिन भी
इज़हार नदामत का होगा
तब जश्न मोहब्बत का होगा

*कीना=द्वेष; नदामत=लज्जा, पश्चाताप;

~ जावेद अख़्तर


 Dec 30, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, December 29, 2018

तुझ को चाँद नहीं कह सकता

Image may contain: 1 person, smiling, closeup


तुझ को चाँद नहीं कह सकता
क्यूँकि ये चाँद तो इस धरती के चार तरफ़ नाचा करता है
मैं अलबत्ता दीवाना हूँ
तेरे गिर्द फिरा करता हूँ
जैसे ज़मीं के गिर्द ये चाँद और सूरज के गिर्द अपनी ज़मीं नाचा करती है
लेकिन मैं भी चाँद नहीं हूँ
मैं बादल का इक टुकड़ा हूँ
जिस को तेरी क़ुर्बत की किरनों ने उठा कर ज़ुल्फ़ों जैसी नर्म हवा को सौंप दिया है
लेकिन बादल की क़िस्मत क्या
तेरे फ़िराक़ की गर्मी मुझ को पिघला कर फिर आँसू के इक क़तरे में तब्दील करेगी

*क़ुर्बत=नज़दीकी; फ़िराक़=विछोह

तुझ को चराग़ नहीं कह सकता
क्यूँकि चराग़ तो शाम-ए-ग़रीबाँ के सहरा में सुब्ह-ए-वतन का नक़्श-ए-क़दम है
मुझ में इतना नूर कहाँ है
मैं तो इक दरयूज़ा-गर हूँ
सूरज चाँद सितारों के दरवाज़ों पर दस्तक देता हूँ
एक किरन दो
एक दहकता अंगारों दो
कभी कभी मिल जाता है
और कभी ये दरयूज़ा-गर ख़ाली हाथ चला आता है

*शाम-ए-ग़रीबाँ=ग्रसित शाम; नक़्श-ए-क़दम=क़दमों के निशान; दरयूज़ा-गर=भिखारी

मैं तो एक दरयूज़ा-गर हूँ
कलियों के दरवाज़ों पर दस्तक देता हूँ
इक चुटकी भर रंग और उसे ख़ुश्बू दे
लफ़्ज़ों का कश्कोल लिए फिरता रहता हूँ
कभी कभी कुछ मिल जाता है
और कभी ये दरयूज़ा-गर चाक-गरेबाँ फूलों को ख़ुद अपने गरेबाँ का इक टुकड़ा दे आता है!

*कश्कोल=(भीख का) कटोरा; चाक-गरेबाँ=फटे हाल

तुझ को ख़्वाब नहीं कह सकता
ख़्वाबों का क्या
ख़िज़ाँ-रसीदा पत्ती के मानिंद हवा की ठेस से भी टूटा करते हैं
लेकिन मैं भी ख़्वाब नहीं हूँ
ख़्वाब तो वो है जिस को कोई देख रहा हो
मैं इक दीद हूँ
इक गीता हूँ
इक इंजील हूँ इक क़ुरआँ हूँ
राहगुज़र पर पड़ा हुआ हूँ
सूद ओ ज़ियाँ की इस दुनिया में किसे भला इतनी फ़ुर्सत है
मुझे उठा कर जो ये देखे
मुझ में आख़िर क्या लिक्खा है

*ख़िज़ाँ-रसीदा-पतझड़ की मारी हुई; दीद=दर्शन; इंजील=बाइबल; क़ुरआँ=क़ुरान; सूद ओ ज़ियाँ=नफ़ा नुकसान

तुझ को राज़ नहीं कह सकता
राज़ तो अक्सर खुल जाते हैं
लेकिन मैं भी राज़ नहीं हूँ
मैं इक ग़मगीं आईना हूँ
मेरी नज़्मों का हर मिस्रा इस आईने का जौहर है
आईने में झाँक कर लोग अपने को देख रहे हैं
आईने को किस ने देखा

तू ही बतला तेरे लिए मैं लाऊँ कहाँ से अब तश्बीहें
जिस तश्बीह को छूता हूँ वो झिझक के पीछे हट जाती है
कह उठती है
मैं नाक़िस हूँ
जान-ए-तमन्ना
तेरा शाएर तेरे क़सीदे की तश्बीब की वादी ही में आवारा है

*तश्बीहें=उपमाएँ; नाक़िस=अपूर्ण; क़सीदे=तारीफ़ में लिखे हुए गीत

~ राही मासूम रज़ा


 Dec 29, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, December 28, 2018

मिज़ा-ए-ख़ार पे किस तरह भला

Image may contain: one or more people

मिज़ा-ए-ख़ार पे किस तरह भला पाए क़रार
आरिज़-ए-गुल पे न जब क़तरा-ए-शबनम ठहरे
हादसा है कि दर आई ये मसर्रत की किरन
वर्ना इस दिल पे थे तारीकी-ए-ग़म के पहरे

*मिज़ा-ए-ख़ार=काटों की पलकें; आरिज़-ए-गुल=फूल जैसे गाल; मसर्रत=ख़ुशी; दर=दरवाज़े पर; तारीक़ी-ए-ग़म=ग़मों के अंधेरे

दर्द-ए-महरूमी-ए-जावेद हमारी क़िस्मत
राहत-ए-वस्ल-ओ-मुलाक़ात के दर बंद रहे
साल-हा-साल रिवायात के ज़िंदानों में
कितने बिफरे हुए जज़्बात नज़र-बंद रहे

*दर्द-ए-महरूमी-ए-जावेद=कभी ख़त्म न होने वाले दुर्भाग्य का दर्द; राहत-ए-वस्ल-ओ-मुलाक़ात=मुलाक़ात और मिलन की राहत; रिवायात=रिवाज़ों; ज़िंदानों=क़ैद ख़ाना

सिम-सिम-ए-सीम से खुल जाते हैं उक़दों के पहाड़
जगमगा उठते हैं फूलों के दिए सहरा में
ग़ाज़ा-ए-ज़र से है रुख़्सार-ए-तमद्दुन का निखार
दिल तो इक जिंस-ए-फ़रोमाया है इस दुनिया में

*सिम-सिम-ए-सीम=चाँदी के जादू से; उक़दों=गूढ़ रहस्य; ग़ाज़ा-ज़र=सोने के पाउडर; रुख़्सार-ए-तमद्दुन=सभ्यता का गाल (चेहरा)

चढ़ते सूरज के परस्तार हैं दुनिया वाले
डूबते चाँद को बिन देखे गुज़र जाते हैं
कौन जूड़े में सजाता है भला धूल के फूल
शाख़ के ख़ार भी आँखों में जगह पाते हैं

*परस्तार=पूजने वाले

तू मिरी है कि यहाँ कोई नहीं था मेरा
मैं तिरा हूँ कि तुझे कोई भी अपना न सका
कितनी प्यारी है सुहानी है ये दुनिया जिस में
तू भी ठुकराई गई मुझ को भी ठुकराया गया

~ अहमद राही


 Dec 28, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Thursday, December 27, 2018

इन हाथों को तस्लीम करो

Image may contain: one or more people, flower, plant, nature and outdoor


इन हाथों की ताज़ीम करो
इन हाथों की तकरीम करो
दुनिया के चलाने वाले हैं
इन हाथों को तस्लीम करो
तारीख़ के और मशीनों के पहियों की रवानी इन से है
तहज़ीब की और तमद्दुन की भरपूर जवानी इन से है
दुनिया का फ़साना इन से है, इंसाँ की कहानी इन से है
इन हाथों की ताज़ीम करो
*ताज़ीम=सम्मान; तकरीम=आदर; तस्लीम=सत्कार; तमद्दुन=सभ्यता

सदियों से गुज़र कर आए हैं, ये नेक और बद को जानते हैं
ये दोस्त हैं सारे आलम के, पर दुश्मन को पहचानते हैं
ख़ुद शक्ति का अवतार हैं, ये कब ग़ैर की शक्ति मानते हैं
इन हाथों को ताज़ीम करो

एक ज़ख़्म हमारे हाथों के, ये फूल जो हैं गुल-दानों में
सूखे हुए प्यासे चुल्लू थे, जो जाम हैं अब मय-ख़ानों में
टूटी हुई सौ अंगड़ाइयों की मेहराबें हैं ऐवानों में
इन हाथों की ताज़ीम करो
*मेराबें=आर्च; ऐवान=महल

राहों की सुनहरी रौशनियाँ, बिजली के जो फैले दामन में
फ़ानूस हसीं ऐवानों के, जो रंग-ओ-नूर के ख़िर्मन में
ये हाथ हमारे जलते हैं, ये हाथ हमारे रौशन हैं
इन हाथों की ताज़ीम करो
*ख़िर्मन=फ़सल 


ख़ामोश हैं ये ख़ामोशी से, सो बरबत-ओ-चंग बनाते हैं
तारों में राग सुलाते हैं, तब्लों में बोल छुपाते हैं
जब साज़ में जुम्बिश होती है, तब हाथ हमारे गाते हैं
इन हाथों की ताज़ीम करो
*बरबत-ओ-चंग=एक वाद्य यंत्र

एजाज़ है ये इन हाथों का, रेशम को छुएँ तो आँचल है
पत्थर को छुएँ तो बुत कर दें, कालख को छुएँ तो काजल है
मिट्टी को छुएँ तो सोना है, चाँदी को छुएँ तो पायल है
इन हाथों की ताज़ीम करो
*एजाज़=चमत्कार

बहती हुई बिजली की लहरें, सिमटे हुए गंगा के धारे
धरती के मुक़द्दर के मालिक, मेहनत के उफ़ुक़ के सय्यारे
ये चारागरान-ए-दर्द-ए-जहाँ, सदियों से मगर ख़ुद बेचारे
इन हाथों की ताज़ीम करो
*उफ़ुक़=क्षितिज; सय्यारे=ग्रह; चारागरान-ए-दर्द-ए-जहाँ=दुनिया के दर्द का इलाज करने वाले

तख़्लीक़ ये सोज़-ए-मेहनत की, और फ़ितरत के शहकार भी हैं
मैदान-ए-अमल में लेकिन ख़ुद, ये ख़ालिक़ भी मेमार भी हैं
फूलों से भरी ये शाख़ भी हैं और चलती हुई तलवार भी हैं
इन हाथों की ताज़ीम करो
*तख़्लीक़=निर्माण; शहकार=श्रेष्ठ कृति; ख़ालिक़=कर्ता धर्ता; मेमार=बनाने वाला

ये हाथ न हूँ तो मोहमल सब, तहरीरें और तक़रीरें हैं
ये हाथ न हों तो बे-मअ'नी इंसानों की तक़रीरें हैं
सब हिकमत-ओ-दानिश इल्म-ओ-हुनर इन हाथों की तफ़्सीरें हैं
इन हाथों की ताज़ीम करो
*मोहमल=अर्थहीन; तहरीर=लिखावट; तक़रीर=बोलना

ये कितने सुबुक और नाज़ुक हैं, ये कितने सिडौल और अच्छे हैं
चालाकी में उस्ताद हैं ये और भोले-पन में बच्चे हैं
इस झूट की गंदी दुनिया में बस हाथ हमारे सच्चे हैं
इन हाथों की ताज़ीम करो

ये सरहद सरहद जुड़ते हैं और मुल्कों मुल्कों जाते हैं
बाँहों में बाँहें डालते हैं और दिल से दिल को मिलाते हैं
फिर ज़ुल्म-ओ-सितम के पैरों की ज़ंजीर-ए-गिराँ बन जाते हैं
इन हाथों की ताज़ीम करो

तामीर तो इन की फ़ितरत है, इक और नई तामीर सही
इक और नई तदबीर सही, इक और नई तक़दीर सही
इक शोख़ ओ हसीं ख़्वाब और सही इक शोख़ ओ हसीं ताबीर सही
इन हाथों की ताज़ीम करो
इन हाथों की तकरीम करो
दुनिया को चलाने वाले हैं
इन हाथों को तस्लीम करो

~ अली सरदार जाफ़री


 Dec 27, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, December 26, 2018

दिसम्बर का महीना

Image may contain: night, sky and outdoor

दिसम्बर का महीना और दिल्ली की सर्दी
सितारों की झिलमिलाती झुरमुट से परे
आसमान के एक सुनसान गोशे में
पूनम का ठिठुरता हुआ कोई चाँद जैसे
बादलों में खाता है मुतवातिर हचकोले
हौले हौले
तन्हा मुसाफ़िर

और दूर तक कोहरे की चादर में लिपटी
बल खाती सड़कें
धुँद की ग़ुबार में खोया हुआ इंडिया गेट
ठण्ड में ठोकरें खाता मुसाफ़िर
ख़ुश नसीब है
बादलों में घुस जाता है चाँद

मेरी क्रिसमस की रौनक़ें फैली हैं तमाम
सितारों से रौशन सजे धजे बाज़ार
लज़ीज़ खानों की ख़ुशबुएँ जहाँ फैली हैं हर-सू
बाज़ार की गर्म फ़ज़ाओं में
मय की सरमस्ती में डूबा हुआ है पूरे शहर का शबाब
तन्हा मुसाफ़िर की
चंद रोज़ा मसाफ़त भी क्या शय है यारो!

हम-वतनों से दूर
अपनों से दूर
जमुना तट पर जैसे बिन माँझी के नाव
बोट क्लब के सर्द पानी में जैसे
तैरता रुकता हुआ कोई तन्हा हुबाब

तन्हा मुसाफ़िर सोचता है
कोई है जिस का वो हाथ थाम ले हौले हौले
कोई है जो उस के साथ कुछ दौर चले हौले हौले
धुँद में खोई हुई मंज़िलें
तवील सड़कें
और तन्हा मुसाफ़िर
जैसे पूनम का ठिठुरता हुआ कोई चाँद
बादलों में खाता है मुतवातिर हचकोले
हौले हौले

~ परवेज़ शहरयार


 Dec 26, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, December 23, 2018

ये धूप किनारा शाम ढले

Image may contain: one or more people and closeup

ये धूप किनारा शाम ढले
मिलते हैं दोनों वक़्त जहाँ
जो रात न दिन जो आज न कल
पल-भर को अमर पल भर में धुआँ
इस धूप किनारे पल-दो-पल
होंटों की लपक
बाँहों की छनक
ये मेल हमारा झूट न सच
क्यूँ रार करो क्यूँ दोश धरो
किस कारन झूटी बात करो
जब तेरी समुंदर आँखों में
इस शाम का सूरज डूबेगा
सुख सोएँगे घर दर वाले
और राही अपनी रह लेगा

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

 Dec 23, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, December 22, 2018

रौशनी डूब गई

Image may contain: 1 person, night and closeup

रौशनी डूब गई चाँद ने मुँह ढाँप लिया
अब कोई राह दिखाई नहीं देती मुझ को
मेरे एहसास में कोहराम मचा है लेकिन
कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती मुझ को

रात के हाथ ने किरनों का गला घूँट दिया
जैसे हो जाए ज़मीं-बोस शिवाला कोई
ये घटा-टोप अँधेरा ये घना सन्नाटा
अब कोई गीत है बाक़ी न उजाला कोई
*ज़मीं-बोस=ज़मीन को चूमता हुआ

जिस ने छुप-छुप के जलाया मिरी उम्मीदों को
वो सुलगती हुई ठंडक मिरे घर तक पहुँची
देखते देखते सैलाब-ए-हवस फैल गया
मौज-ए-पायाब उभर कर मिरे सर तक पहुँची
*सैलाब-ए-हवस=लालसा का ज्वार; मौज-ए-पायाब=नीची रहने वाली लहर

मिरे तारीक घरौंदे को उदासी दे कर
मुस्कुराते हैं दरीचों में इशारे क्या क्या
उफ़ ये उम्मीद का मदफ़न ये मोहब्बत का मज़ार
इस में देखे हैं तबाही के नज़ारे क्या क्या
*तारीक़=अंधेरे; दरीचों=खिड़कियाँ; मदफ़न=दफ़न करने की जगह

जिस ने आँखों में सितारे से कभी घोले थे
आज एहसास पे काजल सा बिखेरा उस ने
जिस ने ख़ुद आ के टटोला था मिरे सीने को
ले लिया ग़ैर के पहलू में बसेरा उस ने

वो तलव्वुन कि नहीं जिस का ठिकाना कोई
उस के अंदाज़-ए-कुहन आज नए तौर के हैं
वही बेबाक इशारे वही भड़के हुए गीत
कल मिरे हाथ बिके आज किसी और के हैं
*तलव्वुन=रंग बदलना; अंदाज़-ए-कुहन=पुराने अंदाज़

वो महकता सा चहकता सा उबलता सीना
उस की मीआद है दो रोज़ लिपटने के लिए
ज़ुल्फ़ बिखरी हुई बिखरी तो नहीं रह सकती
फैलता है कोई साया तो सिमटने के लिए
*मीआद=अवधि

~ क़तील शिफ़ाई


 Dec 22, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, December 21, 2018

शहर

Image may contain: one or more people, people walking, crowd and outdoor

बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है
वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है
वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा
वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा
वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे
हैं उलझ गए जीने के सारे धागे

यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ
कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ
यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी
ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी
तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में
यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूँ
इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ

जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे
किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें

~ केदारनाथ सिंह


 Dec 21, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, December 16, 2018

तेरे होंटों के फूलों की चाहत में हम

Image may contain: 1 person, smiling, closeup

तेरे होंटों के फूलों की चाहत में हम
दार की ख़ुश्क टहनी पे वारे गए
तेरे हाथों की शम्ओं की हसरत में हम
नीम-तारीक राहों में मारे गए

*दार=सूली; नीम-तारीक=आधी-अंधेरी

सूलियों पर हमारे लबों से परे
तेरे होंटों की लाली लपकती रही
तेरी ज़ुल्फ़ों की मस्ती बरसती रही
तेरे हाथों की चाँदी दमकती रही
जब घुली तेरी राहों में शाम-ए-सितम
हम चले आए लाए जहाँ तक क़दम
लब पे हर्फ़-ए-ग़ज़ल दिल में क़िंदील-ए-ग़म
अपना ग़म था गवाही तिरे हुस्न की
देख क़ाएम रहे इस गवाही पे हम
हम जो तारीक राहों पे मारे गए

*हर्फ़-ए-ग़ज़ल=गीतों के बोल; किंदील-ए-ग़म=दुख की शमा;

ना-रसाई अगर अपनी तक़दीर थी
तेरी उल्फ़त तो अपनी ही तदबीर थी
किस को शिकवा है गर शौक़ के सिलसिले
हिज्र की क़त्ल-गाहों से सब जा मिले
*ना-रसाई=असमर्थ; तदबीर=तरकीब, प्रयत्न

क़त्ल-गाहों से चुन कर हमारे अलम
और निकलेंगे उश्शाक़ के क़ाफ़िले
जिन की राह-ए-तलब से हमारे क़दम
मुख़्तसर कर चले दर्द के फ़ासले
कर चले जिन की ख़ातिर जहाँगीर हम
जाँ गँवा कर तिरी दिलबरी का भरम
हम जो तारीक राहों में मारे गए

*अलम=झंडे; उश्शाक़=आशिक़ (बहुवचन); राह-ए-तलब=दिल को बाए वो राह; मुख़्तसर=संक्षिप्त; जहाँगीर=दुनिया को जीतने वाला; तारीक-अंधेरी

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

 Dec 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, December 15, 2018

स्त्रियाँ

 
स्त्रियां
अक्सर कहीं नहीं जातीं,
साथ रहती हैं
पास रहती हैं
जब भी जाती हैं कहीं
तो आधी ही जाती हैं,
शेष घर मे ही रहती हैं।

लौटते ही
पूर्ण कर देती हैं घर
पूर्ण कर देती हैं हवा, माहौल, आसपड़ोस।

स्त्रियां जब भी जाती हैं
लौट लौट आती हैं।,
लौट आती स्त्रियां बेहद सुखद लगती हैं
सुंदर दिखती हैं
प्रिय लगती हैं।

स्त्रियां
जब चली जाती हैं दूर
जब लौट नहीं पातीं,
घर के प्रत्येक कोने में तब
चुप्पी होती है,
बर्तन बाल्टियां बिस्तर चादर नहाते नहीं
मकड़ियां छतों पर लटकती ऊंघती हैं
कान में मच्छर बजबजाते हैं
देहरी हर आने वालों के कदम सूंघती है।

स्त्रियां जब चली जाती हैं
ना लौटने के लिए,
रसोई टुकुर टुकुर देखती है
फ्रिज में पड़ा दूध मक्खन घी फल सब्जियां एक दूसरे से बतियाते नहीं
वाशिंग मशीन में ठूँस कर रख दिये गए कपड़े
गर्दन निकालते हैं बाहर
और फिर खुद ही दुबक-सिमट जाते हैँ मशीन के भीतर।

स्त्रियां जब चली जाती हैं
कि जाना ही सत्य है
तब ही बोध होता है
कि स्त्री कौन होती है
कि जरूरी क्यों होता है
घर मे स्त्री का बने रहना।

~ केदारनाथ सिंह

 Dec 15, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, December 14, 2018

कई सर-ज़मीनें सदा दे रही हैं

 Image may contain: 1 person, phone

कई सर-ज़मीनें सदा दे रही हैं कि आओ
कई शहर मेरे त'आक़ुब में हैं चीख़ते हैं न जाओ
कई घर लब-ए-हाल से कह रहे हैं
कि जब से गए हो
हमें एक वीरान तन्हाई ने डस लिया है
पलट आओ फिर हम को आबाद कर दो

वो सब घर
वो सब शहर.... सब सर-ज़मीनें
मोहब्बत की छोड़ी हुई रहगुज़र बन गई हैं
कभी मंज़िलें थीं मगर आज गर्द-ए-सफ़र बन गई हैं
मोहब्बत सफ़र है
मुसलसल सफ़र है
सो मैं तुझ से तेरी ही जानिब सफ़र कर रहा हूँ

*सदा=पुकार; त’आक़ुब=पीछा करना; रहगुज़र=रास्ता; गर्द-ए-सफ़र=रास्ते की धूल; मुसल्सल=न रुकने वाला

‍~ सलीम अहमद

 Dec 14, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, December 9, 2018

मैं तुम्हारी रूह की अंगड़ाइयों से

Image may contain: 2 people, people sitting and beard

मैं तुम्हारी रूह की अंगड़ाइयों से आश्ना हूँ
मैं तुम्हारी धड़कनों के ज़ेर-ओ-बम पहचानता हूँ
मैं तुम्हारी अँखड़ियों में नर्म लहरें जागती सी देखता हूँ
जैसे जादू जागता हो
तुम अमर हो तो लचकती टहनियों की मामता हो

तुम जवानी हो तबस्सुम हो मोहब्बत की लता हो
मैं तुम्हें पहचानता हूँ तुम मिरी पहली ख़ता हो
लहलहाती झूमती फुलवारियों की ताज़गी हो बे-अदाई की अदा हो
तेज़ मंडलाती अबाबीलों के नन्हे बाज़ुओं का हौसला हो
फूल हो और फूल के अंजाम से ना-आश्ना हो

डालियों पर फूलती हो झूलती हो देखती हो भूलती हो
हर नए फ़ानूस पे गिरती हुई परवानगी हो
और ख़ुद भी रौशनी हो
ज़िंदगी हो ज़िंदगी के गिर्द चक्कर काटती हो
मैं तुम्हें पहचानता हूँ तुम मोहब्बत चाहती हो
ख़ुद को देखो और भरी दुनिया को देखो और सोचो
और सोचो तुम कहाँ हो

*ज़ेर-ओ-बम=ऊँचाई और नीचाई; मामता=मातृत्व; अबाबील=छोटी चिड़िया;

~ महबूब ख़िज़ां


 Dec 09, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, December 8, 2018

मुलाक़ात’

Image may contain: 1 person, closeup


जो हो न सकी बात वो चेहरों से अयाँ थी
हालात का मातम था मुलाक़ात कहाँ थी
उस ने न ठहरने दिया पहरों मिरे दिल को
जो तेरी निगाहों में शिकायत मिरी जाँ थी
*अयाँ=स्पष्ट

घर में भी कहाँ चैन से सोए थे कभी हम
जो रात है ज़िंदाँ में वही रात वहाँ थी
यकसाँ हैं मिरी जान क़फ़स और नशेमन
इंसान की तौक़ीर यहाँ है न वहाँ थी
*ज़िंदाँ=कारागार; क़फ़स=पिंजरा; नशेमन=घोसला

शाहों से जो कुछ रब्त न क़ाएम हुआ अपना
आदत का भी कुछ जब्र था कुछ अपनी ज़बाँ थी
सय्याद ने यूँही तो क़फ़स में नहीं डाला
मशहूर गुलिस्ताँ में बहुत मेरी फ़ुग़ाँ थी
*शाहों=राजाओं; रब्त=सम्बंध; क़ाएम=स्थापित करना; जब्र=अत्याचार; फ़ुग़ाँ=फ़रियाद

तू एक हक़ीक़त है मिरी जाँ मिरी हमदम
जो थी मिरी ग़ज़लों में वो इक वहम-ओ-गुमाँ थी
महसूस किया मैं ने तिरे ग़म से ग़म-ए-दहर
वर्ना मिरे अशआर में ये बात कहाँ थी
*ग़म-ए-दहर=दुनिया के दुख; अशआर=शेर का बहु वचन

~ हबीब जालिब

‘मुलाक़ात’ नज़्म हबीब जालिब ने उन दिनों लिखी थी जब वो सरकार विरोधी आंदोलन में भाग लेने की वज़ह से जेल में बंद थे, और उनके परिवार को बहुत मुसीबतें उठानी पड़ रहीं थीं।


 Dec 08, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, December 7, 2018

मुझे अब डर नहीं लगता


किसी के दूर जाने से
तअ'ल्लुक़ टूट जाने से
किसी के मान जाने से
किसी के रूठ जाने से
मुझे अब डर नहीं लगता

किसी को आज़माने से
किसी के आज़माने से
किसी को याद रखने से
किसी को भूल जाने से
मुझे अब डर नहीं लगता

किसी को छोड़ देने से
किसी के छोड़ जाने से
ना शम्अ' को जलाने से
ना शम्अ' को बुझाने से
मुझे अब डर नहीं लगता

अकेले मुस्कुराने से
कभी आँसू बहाने से
ना इस सारे ज़माने से
हक़ीक़त से फ़साने से
मुझे अब डर नहीं लगता

किसी की ना-रसाई से
किसी की पारसाई से
किसी की बेवफ़ाई से
किसी दुख इंतिहाई से
मुझे अब डर नहीं लगता

ना तो इस पार रहने से
ना तो उस पार रहने से
ना अपनी ज़िंदगानी से
ना इक दिन मौत आने से
मुझे अब डर नहीं लगता

~ मोहसिन नक़वी


 Dec 07, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, December 2, 2018

काली, जगमगाती, निराली रातें

Image may contain: one or more people, people standing, ocean, sky, cloud, outdoor, water and nature

काली, जगमगाती, निराली रातें
रस भरी, मदमाती रातें
रात की रानी ख़ुश्बू से भरी
तारों की मद्धम नूरानी छाँव में
हल्की ठंडी रातें
बैसाखी हवाओं
''सारंगी की लम्बी अलकसी सिसकियों''
प्यार के राज़ों से बोझल
कहानी रातें
कहाँ खो गईं हैं या-रब?

खो जाएँ
तो फिर खो जाएँ
लेकिन वो मन-मोहक घड़ियाँ
ख़ून में जैसे घुल सी गई हैं
वो लड़खड़ाते, अधूरे, ना-मुकम्मल जुमले
अब भी साफ़ सुनाई देते हैं
अब्रुओं, पलकों माथे की शिकनों के
बाँके तिरछे पल पल बदलते ज़ावीए
जो क्या क्या कुछ कहते थे
दिखाई देते हैं
वो नित-नई अनोखी बे-इंतिहा ख़ुशियाँ
मौजूद भी हैं ज़िंदा भी
लेकिन दर्द-ओ-अलम की मौजें बन कर
दिल के गोशे गोशे में फैल गई हैं
ये तो सुना है ज़हर कभी अमृत बन जाता है
लेकिन जब अमृत ख़ुद ज़हरीला हो जाए
फिर आख़िर कोई कैसे जिए?

~ सज्जाद ज़हीर


 Dec 02, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, December 1, 2018

आज भी कितनी अन-गिनत शमएँ

Image may contain: 1 person
आज भी कितनी अन-गिनत शमएँ
मेरे सीने में झिलमिलाती हैं
कितने आरिज़ की झलकियाँ अब तक
दिल में सीमीं वरक़ लुटाती हैं
*आरिज़=गाल; सीमीं=चाँदी; वरक़=पन्ने

कितने हीरा-तराश जिस्मों की
बिजलियाँ दिल में कौंद जाती हैं
कितनी तारों से ख़ुश-नुमा आँखें
मेरी आँखों में मुस्कुराती हैं
कितने होंटों की गुल-फ़िशाँ आँचें
मेरे होंटों में सनसनाती हैं
कितनी शब-ताब रेशमी ज़ुल्फ़ें
मेरे बाज़ू पे सरसराती हैं
*गुल-फिशाँ=फूलों की बुहार; शब-ताब=जुगुनू

कितनी ख़ुश-रंग मोतियों से भरी
बालियाँ दिल में टिमटिमाती हैं
कितनी गोरी कलाइयों की लवें
दिल के गोशों में जगमगाती हैं
कितनी रंगीं हथेलियाँ छुप कर
धीमे धीमे कँवल जलाती हैं
कितनी आँचल से फूटती किरनें
मेरे पहलू में रसमसाती हैं
*गोशों=कोनों

कितनी पायल की शोख़ झंकारें
दिल में चिंगारियाँ उड़ाती हैं
कितनी अंगड़ाइयाँ धनक बन कर
ख़ुद उभरती हैं टूट जाती हैं
कितनी गुल-पोश नक़्रई बाँहें
दिल को हल्क़े में ले के गाती हैं
आज भी कितनी अन-गिनत शमएँ
मेरे सीने में झिलमिलाती हैं
*धनक=इंद्रधनुष; गुलपोश=फूलों से सजी; नक़ई=चाँदी

अपने इस जल्वा-गर तसव्वुर की
जाँ-फ़ज़ा दिलकशी से ज़िंदा हूँ
इन ही बीते जवान लम्हों की
शोख़-ताबिंदगी से ज़िंदा हूँ
यही यादों की रौशनी तो है
आज जिस रौशनी से ज़िंदा हूँ
आओ मैं तुम से ए'तिराफ़ करूँ
मैं इसी शाइरी से ज़िंदा हूँ
*जल्वा-गर=रौशन; जाँ-फ़ज़ाँ=ज़िंदगी बढ़ाने वाला; शोख़-ताबिंदगी=शरारती चका चौंध; ए’तिराफ़=स्वीकार करना

~ जाँ निसार अख़्तर


 Dec 01, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh