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Wednesday, September 30, 2020

आँखों ने बस देखा भर था

 

आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया।

रंग पंखुरी, केसर टहनी, नस नस के सब ताने बाने,
उनमें कोमल फूल बना जो, भोली आँख उसे ही जाने,
मन ने सौरभ के वातायन से
असली रस भाँप लिया।
आँखों ने बस देखा भर था
मन ने उसको छाप लिया।

छवि की गरिमा से मंडित, उस तन की मानक ऊँचाई को,
स्नेह-राग से उद्वेलित उस मन की विह्वल तरुणाई को,
आँखों ने छूना भर चाहा,
मन ने पूरा नाप लिया।
आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया।

आँख पुजारी है, पूजा में भर अँजुरी नैवेद्य चढ़ाए,
वेणी गूँथे, रचे महावर, आभूषण ले अंग सजाए,
मन ने जीवन मंदिर में
उस प्रतिमा को ही थाप लिया।

आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया। 

~ रवीन्द्र भ्रमर

Sep 30, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Monday, September 28, 2020

न झटको ज़ुल्फ़ से पानी

 

न झटको ज़ुल्फ़ से पानी ये मोती टूट जाएँगे
तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा मगर दिल टूट जाएँगे

ये भीगी रात ये भीगा बदन ये हुस्न का आलम
ये सब अंदाज़ मिल कर दो जहाँ को लूट जाएँगे

ये नाज़ुक लब हैं या आपस में दो लिपटी हुई कलियाँ
ज़रा इन को अलग कर दो तरन्नुम फूट जाएँगे

हमारी जान ले लेगा ये नीची आँख का जादू
चलो अच्छा हुआ मर कर जहाँ से छूट जाएँगे

~ राजिंदर कृष्ण

Sep 28, 2020| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Sunday, September 27, 2020

श्यामल रंग

  

हज़ारों साल बीते
मिरी ज़रख़ेज़ (उपजाऊ) धरती के सिंघासन पर
बिराजे देवताओं के सरापे (रूप) साँवले थे
मगर उस वक़्त भी कुछ हुस्न का मेआ'र (स्तर) ऊँचा था
हिमाला की हसीं बेटी उन्हें भाई
बृन्दाबन की धरती पर
थिरकती नाचती राधा
बसी थी कृष्ण के दिल में
उन्हें भी हुस्न की मन-मोहनी मूरत पसंद आई
मगर उन को ख़ुदा होते हुए भी ये ख़बर कब थी
कि उन की आने वाली नस्ल पर उन का सरापा (सर से पाँव तक)
बहुत गहरा असर है छोड़ने वाला
हज़ारों साल बीते
मगर अब भी हमारी साँवली रंगत
तिरा वरदान हो गोया
हमारा हम-सफ़र भी किसी पारो
किसी राधा का अंधा ख़्वाब
आँखों में बसाए
लिए कश्कोल (भीख का कटोरा) हाथों में
फिरे बस्ती की गलियों में
हम अब किस ज़ो'म (घमंड) में पूजा की थाली में
दिए रख कर
तिरी चौखट पे आएँ
सर झुकाएँ
उतारें आरती तेरी
हमारे बख़्त (भाग्य) पर तेरा ये श्यामल रंग
इक आसेब (भूत-प्रेत) की सूरत मुसल्लत (लगातार) है
हम अब तो डर के मारे
आइनों से मुँह छुपाए फिर रहे हैं

~ कहकशाँ तबस्सुम

Sep 27, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, September 24, 2020

क्यूँ मिरी तल्ख़-नवाई से ख़फ़ा होते हो

क्यूँ मिरी तल्ख़-नवाई से ख़फ़ा होते हो
ज़हर ही मुझ को मिला ज़हर पिया है मैं ने
कोई इस दश्त-ए-जुनूँ में मिरी वहशत देखे
अपने ही चाक-ए-गरेबाँ को सिया है मैं ने
*तल्ख़-नवाई=कड़वा कहना; वहशत=डर; फटा दामन

दैर ओ काबा में जलाए मिरी वहशत ने चराग़
मेरी मेहराब-ए-तमन्ना में अँधेरा ही रहा
रुख़-ए-तारीख़ पे है मेरे लहू का ग़ाज़ा
फिर भी हालात की आँखों में खटकता ही रहा
मैं ने खींची है ये मय मैं ने ही ढाले हैं ये जाम
पर अज़ल से जो मैं प्यासा था तो प्यासा ही रहा
ये हसीं अतलस-ओ-कम-ख़्वाब बुने हैं मैं ने
मेरे हिस्से में मगर दूर का जल्वा ही रहा

*दैर=मंदिर, काबा=मक्का का पवित्र स्थान; गाज़ा=मुँह पर मलने का पाउडर; अज़ल=आदि; अतलस-ओ-कम-ख़्वाब=रेशमी और बूटेदार

मुझ पे अब तक न पड़ी मेरे मसीहा की नज़र
मेरे ख़्वाबों की ये बेचैन ज़ुलेखाएँ हैं
जिन को ताबीर का वो यूसुफ़-ए-कनआँ न मिला
मैं ने हर लहजा में लोगों से कही बात मगर
जो मिरी बात समझता वो सुख़न-दाँ न मिला
कुफ़्र ओ इस्लाम की ख़ल्वत में भी जल्वत में भी
कोई काफ़िर न मिला कोई मुसलमाँ न मिला

*तासीर=सपने का अर्थ; सुख़न-दाँ=कविता समझने वाला; कुफ़्र=अविश्वास; ख़ल्वत=एकांत; जल्वत=प्रकट

मेरे माथे का अरक़ ढलता है टक्सालों में
पर मिरी जेब मिरे हाथ से शर्माई है
कभी मैं बढ़ के थपक देता हूँ रुख़्सार-ए-हयात
ज़िंदगी बैठ के मुझ को कभी समझाती है
रात ढलती है तो सन्नाटे की पगडंडी पर
अपने ख़्वाबों के तसव्वुर से हया आती है
*अरक़=पसीना; रुख़्सार-ए-हयात=जीवन का पहलू; तसव्वुर=कल्पना

क्यूँ मिरी तल्ख़-नवाई से ख़फ़ा होते हो
मेरी आवाज़ को ये ज़हर दिया है किस ने

~ राही मासूम रज़ा

Sep 23, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, September 23, 2020

बहुत दूर से एक आवाज़ आई

 

बहुत दूर से एक आवाज़ आई
मैं, इक ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता हूँ, कोई मुझे गुदगुदाए
मैं तख़्लीक़ का नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा हूँ, मुझे कोई गाए
मैं इंसान की मंज़िल-ए-आरज़ू हूँ मुझे कोई पाए
बहुत दूर से एक आवाज़ आई

*ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता=अधखिली कली; तख़्लीक़=सृजन; नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा=जीवंत गीत

मैं हाथों में ले कर तजस्सुस कि मिशअल
बहुत दूर पहुँचा सितारों से आगे
मिरी रहगुज़र कहकशाँ बन के चमकी
मरे साथ आई उफ़ुक़ के किनारे
मिरे नक़्श-ए-पा बन गए चाँद सूरज
भड़कते रहे आरज़ू के शरारे

*तजस्सुस=जिज्ञासा; उफ़ुक़=क्षितिज; नक़्श-ए-पा=पैरों के निशान; शरारे=चिंगारिया

वो आवाज़ तो आ रही है मुसलसल
मगर अर्श की रिफ़अतों से उतर कर
मैं फ़र्श-ए-यक़ीं पर खड़ा सोचता हूँ
हर इक जादा-ए-रंग-ओ-बू से गुज़र कर
मिरी जुस्तुजू इंतिहा तो नहीं है
अभी और निखरेंगे रंगीं नज़ारे
ये बे-नूर ज़र्रे बनेंगे सितारे
सितारे बनेंगे अभी माह-पारे

*मुसल्सल=लगातार; अर्श=आसमान; रिफ़अतों=ऊँचाइयाँ; जादा-ए-रंग-ओ-बू=रंगीन और सुगंधित राह

ये आवाज़ जादू जगाती रहेगी
ये मंज़िल यूँही गीत गाती रहेगी
नए आदमी को नए कारवाँ को
पयाम-ए-तजस्सुस सुनाती रहेगी
*पयाम-ए-तजस्सुस=उत्सुकता का संदेश

~ रिफ़अत सरोश

Sep 23, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Monday, September 21, 2020

कोई मुँह चूम लेगा इस नहीं पर

 

कोई मुँह चूम लेगा इस नहीं पर
शिकन रह जाएगी यूँ ही जबीं पर
*जबीं=माथा

गिरी थी आज तो बिजली हमीं पर
ये कहिए झुक पड़े वो हम-नशीं पर
*हम-नशीं=साथी

बलाएँ बन के वो आईं हमीं पर
दुआएँ जो गईं अर्श-ए-बरीं पर
*अर्श-ए-बरीं=ऊँचा आसमान

ये क़िस्मत दाग़ जिस में दर्द जिस में
वो दिल हो लूट दस्त-ए-नाज़्नीं पर
*दस्त-ए-नाज़्नीं=प्रेमिका का कोमल हाथ

रुला कर मुझ को पोंछे अश्क-ए-दुश्मन
रहा धब्बा ये उन की आस्तीं पर

उड़ाए फिरती है उन को जवानी
क़दम पड़ता नहीं उन का ज़मीं पर

धरी रह जाएगी यूँही शब-ए-वस्ल
नहीं लब पर शिकन उन की जबीं पर

~ रियाज़ ख़ैराबादी

Sep 21, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, September 20, 2020

हुए हैं राम पीतम के नयन

हुए हैं राम पीतम के नयन आहिस्ता-आहिस्ता
कि ज्यूँ फाँदे में आते हैं हिरन आहिस्ता-आहिस्ता
*राम=प्रभु श्री राम, वशीभूत

मिरा दिल मिस्ल परवाने के था मुश्ताक़ जलने का
लगी उस शम्अ सूँ आख़िर लगन आहिस्ता-आहिस्ता
*मिस्ल=के जैसे; मुश्ताक़=इच्छुक
 
गिरेबाँ सब्र का मत चाक कर ऐ ख़ातिर-ए-मिस्कीं
सुनेगा बात वो शीरीं-बचन आहिस्ता-आहिस्ता
*चाक=काट देना; ख़ातिर-ए-मिस्कीं=ग़रीबों की परवाह करने वाला; शीरीं-बचन=मीठे बोल

गुल ओ बुलबुल का गुलशन में ख़लल होवे तो बरजा है
चमन में जब चले वो गुल-बदन आहिस्ता-आहिस्ता
*ख़लल=व्यवधान; बरजा=एक स्थान पर

'वली' सीने में मेरे पंजा-ए-इश्क़-ए-सितमगर ने
किया है चाक दिल का पैरहन आहिस्ता-आहिस्ता
*पैरहन=वस्त्र

~ वली मोहम्मद वली

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Thursday, September 17, 2020

मैं ने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा

 

 मैं ने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है

रात खिलने का गुलाबों से महक आने का
ओस की बूंदों में सूरज के समा जाने का
चाँद सी मिट्टी के ज़र्रों से सदा आने का
शहर से दूर किसी गाँव में रह जाने का

खेत खलियानों में बाग़ों में कहीं गाने का
सुबह घर छोड़ने का देर से घर आने का
बहते झरनों की खनकती हुई आवाज़ों का
चहचहाती हुई चिड़ियों से लदी शाख़ों का

नर्गिसी आँखों में हँसती हुई नादानी का
मुस्कुराते हुए चेहरे की ग़ज़ल ख़्वानी का
तेरा हो जाने तिरे प्यार में खो जाने का
तेरा कहलाने का तेरा ही नज़र आने का

मैं ने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है
हाथ रख दे मिरी आँखों पे कि नींद आ जाए

~ वसीम बरेलवी

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Wednesday, September 16, 2020

तू ग़ज़ल बन के उतर


तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए
मुंतज़िर दिल की मुनाजात मुकम्मल हो जाए
*मुनाजात=प्रार्थना

उम्र भर मिलते रहे फिर भी न मिलने पाए
इस तरह मिल कि मुलाक़ात मुकम्मल हो जाए

दिन में बिखरा हूँ बहुत रात समेटेगी मुझे
तू भी आ जा तो मिरी ज़ात मुकम्मल हो जाए

नींद बन कर मिरी आँखों से मिरे ख़ूँ में उतर
रत-जगा ख़त्म हो और रात मुकम्मल हो जाए

मैं सरापा हूँ दुआ तू मिरा मक़्सूद-ए-दुआ
बात यूँ कर कि मिरी बात मुकम्मल हो जाए
*सरापा=सर से पाँव तक; मक़्सूद-ए-दुआ=प्रार्थना का मूल ध्येय

अब्र आँखों से उठे हैं तिरा दामन मिल जाए
हुक्म हो तेरा तो बरसात मुकम्मल हो जाए

तेरे लब मोहर लगा दें तो ये क़िस्सा हो तमाम
दफ़्तर-ए-तूल-ए-शिकायात मुकम्मल हो जाए
*दफ़्तर-ए-तूल-ए-शिकायात=शिकायतों का पुलिंदा

तुझ को पाए तो 'वहीद' अपने ख़ुदा को पा ले
काविश-ए-मअर्फ़त-ए-ज़ात मुकम्मल हो जाए
*काविश-ए-मअर्फ़त-ए-ज़ात=अपनी पहचान में सफलता

‍~ वहीद अख़्तर

Sep 16, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, September 15, 2020

फूल का शाख़ पे आना

फूल का शाख़ पे आना भी बुरा लगता है
तू नहीं है तो ज़माना भी बुरा लगता है

ऊब जाता हूँ ख़मोशी से भी कुछ देर के बाद
देर तक शोर मचाना भी बुरा लगता है

इतना खोया हुआ रहता हूँ ख़यालों में तिरे
पास मेरे तिरा आना भी बुरा लगता है

ज़ाइक़ा जिस्म का आँखों में सिमट आया है
अब तुझे हाथ लगाना भी बुरा लगता है

मैं ने रोते हुए देखा है अली बाबा को
बाज़ औक़ात ख़ज़ाना भी बुरा लगता है

अब बिछड़ जा कि बहुत देर से हम साथ में हैं
पेट भर जाए तो खाना भी बुरा लगता है

~ शकील आज़मी

Sep 14, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, September 13, 2020

धीरे धीरे गिर रही थीं नख़्ल-ए-शब से

 

धीरे धीरे गिर रही थीं नख़्ल-ए-शब से चाँदनी की पत्तियाँ
बहते बहते अब्र का टुकड़ा कहीं से आ गया था दरमियाँ
मिलते मिलते रह गई थीं मख़मलीं सब्ज़े पे दो परछाइयाँ
जिस तरह सपने के झूले से कोई अंधे कुएँ में जा गिरे
ना-गहाँ कजला गए थे शर्मगीं आँखों के नूरानी दिए
जिस तरह शोर-ए-जरस से कोई वामाँदा मुसाफ़िर चौंक उठे
यक-ब-यक घबरा के वो निकली थी मेरे बाज़ुओं की क़ैद से
अब सुलगते रह गए थे, छिन गया था जाम भी
और मेरी बेबसी पर हँस पड़ी थी चाँदनी

*नख़्ल-ए-शब=रात का पेड़; अब्र=बादल; सब्ज़े=हरे-भरे; ना-गहाँ=अचानक; नूरानी=उज्ज्वल; शोर-ए-जरस=घंटी की आवाज़; वामादाँ=थका हुआ;

आज तक एहसास की चिलमन से उलझा है ये मुबहम सा सवाल
उस ने आख़िर क्यूँ बुना था बहकी नज़रों से हसीं चाहत का जाल 


*चिलमन=परदा; मुबहम=धुँधला;

‍~ शकेब जलाली

Sep 13, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, September 10, 2020

दुनिया-ए-मोहब्बत में हम से

दुनिया-ए-मोहब्बत में हम से हर अपना पराया छूट गया
अब क्या है जिस पर नाज़ करें इक दिल था वो भी टूट गया
*दुनिया-ए-मोहब्बत=प्रेम के संसार

साक़ी के हाथ से मस्ती में जब कोई साग़र छूट गया
मय-ख़ाने में ये महसूस हुआ हर मय-कश का दिल टूट गया

जब दिल को सुकूँ ही रास न हो फिर किस से गिला नाकामी का
हर बार किसी का हाथों में आया हुआ दामन छूट गया

सोचा था हरीम-ए-जानाँ में नग़्मा कोई हम भी छेड़ सकें
उम्मीद ने साज़-ए-दिल का मगर जो तार भी छेड़ा टूट गया
*हरीम-ए-जानाँ=प्रेमिका का घर

क्या शय थी किसी की पहली नज़र कुछ इस के अलावा याद नहीं
इक तीर सा दिल में जैसे लगा पैवस्त हुआ और टूट गया
*पैवस्त=अंदर घुसा हुआ

इस नग़्मा-तराज़-ए-गुलशन ने तोड़ा है कुछ ऐसा साज़-ए-दिल
इक तार कहीं से टूट गया इक तार कहीं से टूट गया
नग़्मा-तराज़=गीतकार

~ शमीम जयपुरी

Sep 10, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, September 9, 2020

जो भी कहना हो वहाँ


जो भी कहना हो वहाँ मेरी ज़बानी कहना
लोग कुछ भी कहें तुम आग को पानी कहना

आज वो शख़्स ज़माने में है यकता कह दो
जब कोई दूसरा मिल जाए तो सानी कहना
*यकता=बेमिसाल; सानी=दूसरा

ग़म अगर पलकों पे थम जाए तो आँसू कहियो
और बह जाए तो मौजों की रवानी कहना

जितना जी चाहे उसे आज हक़ीक़त कह लो
कल उसे मेरी तरह तुम भी कहानी कहना

अब तो धुँदला गया यादों का हर इक नक़्श 'शमीम'
फिर वो दे जाए कोई अपनी निशानी कहना

~ शमीम फ़ारूक़ी

Sep 09, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Monday, September 7, 2020

कभी जीने कभी मरने की ख़्वाहिश


कभी जीने कभी मरने की ख़्वाहिश रोक लेती है
वगर्ना मैं हवा की लहर में तहलील हो जाऊँ
किधर जाऊँ कि हर-सू साअतें रस्ते का पत्थर हैं
अगर बैठा रहूँ तो राख में तब्दील हो जाऊँ
*तहलील=विलय; हर-सू=चारो तरफ़; साअतें=क्षण

वो जादूगर था जिस ने रात पर पहरे बिठाए थे
वगर्ना अब तलक ये चाँद तारे मिट चुके होते
जुनून-ए-आगही मानूस आँखों से छलक जाता
बिसात-ए-ज़िंदगी के सारे मोहरे पिट चुके होते
*जुनून-ए-आगही=समझ-बूझ की ताब; मानूस= स्नेहशील

मुझे मालूम है इक चाँद दिन को भी निकलता है
मुझे मालूम है रातें भी इक ख़ुर्शीद रखती हैं
अगर ये दोनों आलम एक हो जाएँ तो फिर क्या हो
हवाएँ रात दिन यकताई की उम्मीद रखती हैं
*ख़ुर्शीद=सूरज; यकताई=अनूठापन

मगर इन वुसअतों को कौन बाँहों में समेटेगा
कहाँ से आएगी वो रौशनी जो मुंतही होगी
दिलों की तीरगी कुछ और गहरी होती जाती है
अज़िय्यत रौशनी की दिन की रग रग ने सही होगी
*मुंतही=परिपक्व; तीरगी=अंधेरा; अज़िय्यत=तकलीफ़

किधर जाऊँ कि हर सू रास्ते किरनों की सूरत हैं
मगर किरनों पे चलना बे-क़रारी को नहीं आता
वो नुक़्ता जिस पे मैं हूँ मरक़द-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ है
मगर इस सम्त कोई आह-ओ-ज़ारी को नहीं आता
*नुक़्ता=बिंदु; मरक़द-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ=विपदाओं से भरी शाम की समाधि; आह-ओ-ज़ारी=विलाप और शोक

~ शहज़ाद अहमद 

Sep 07, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, September 6, 2020

शब के आवारा-गर्द शहज़ादे

 

शब के आवारा-गर्द शहज़ादे
जा छुपे अपनी ख़्वाब-गाहों में
पड़ गए हैं गुलाबी डोरे से
रात की शबनमी निगाहों में

सीम तन अप्सराओं के झुरमुट
महव-ए-परवाज़ हैं फ़ज़ाओं में
रात-रानी की दिल-नशीं ख़ुश्बू
घुल गई मनचली हवाओं में
*सीम तन=चाँदी से बदन; महव-ए-परवान=उड़ान में

झील की बे-क़रार जल-परियाँ
आ के साहिल को चूम जाती हैं
दम-ब-दम मेरी डूबती नज़रें
तेरी राहों पे घूम जाती हैं

मुंतज़िर है उदास पगडंडी
एक संगीत रेज़ आहट की
राह तकती हैं अध-खुली कलियाँ
तेरी मासूम मुस्कुराहट की
*मुंतज़िर=इंतज़ारे में; रेज़=जो बिखर जाए

जाने कितने ही रत-जगे बीते
आरज़ूओं की नर्म जानों पर
सो गए थक के दर्द के मारे
आस की खुरदुरी चटानों पर

~ शाहिद अख़्तर 
 
  Sep 06, 2020| e-kavya.blogspot.com
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Friday, September 4, 2020

हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का मौसम

 

हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का मौसम निकल गया
ऐ दर्द-ए-इश्क़ जाग ज़माना बदल गया
*हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार=प्रेयसी से मिलने बिछड़ने

कब तक ये रोज़-ए-हश्र सुन ऐ शाम-ए-इंतिज़ार
क्या रात अब न आएगी सूरज तो ढल गया
*रोज़-ए-हश्र=फ़ैसले का दिन

अब के कहाँ से आए हो सावन के बादलो
देखो तो सारा बाग़ ही बरखा से जल गया

जाऊँ कहाँ कि ताब नहीं अर्ज़-ए-नग़्मा की
पानी में आग लग गई पत्थर पिघल गया
*अर्ज़-ए-नग़्मा=गीत प्रस्तुति

सातों सुरों के राग से जलती है दिल की आग
बाद-ए-फ़ना मैं भी मिरा शो'ला सँभल गया
*बाद-ए-फ़ना=मृत्यु की हवा

उस की सदा से राग निकाले 'शहाब' ने
इक शब लगी वो आग कि नादान जल गया

~ शहाब जाफ़री

Sep 04, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Thursday, September 3, 2020

क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी

 

क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी के बाद
सीने में होगी साँस अड़ी दो घड़ी के बाद

क्या रोका अपने गिर्ये को हम ने कि लग गई
फिर वो ही आँसुओं की झड़ी दो घड़ी के बाद
*गिर्ये=रोना

कोई घड़ी अगर वो मुलाएम हुए तो क्या
कह बैठेंगे फिर एक कड़ी दो घड़ी के बाद

उस लाल-ए-लब के हम ने लिए बोसे इस क़दर
सब उड़ गई मिसी की धड़ी दो घड़ी के बाद
*मिसी=दाँतों के षृंगार का मंजन; धड़ी=(5 किलो के बराबर का वज़न)

अल्लाह रे ज़ोफ़-ए-सीना से हर आह-ए-बे-असर
लब तक जो पहुँची भी तो चढ़ी दो घड़ी के बाद
ज़ोफ़=कमज़ोर

कल उस से हम ने तर्क-ए-मुलाक़ात की तो क्या
फिर उस बग़ैर कल न पड़ी दो घड़ी के बाद
तर्क-ए-मुलाक़ात=सम्बंध विच्छेद

थे दो घड़ी से शैख़ जी शेख़ी बघारते
सारी वो शेख़ी उन की झड़ी दो घड़ी के बाद

कहता रहा कुछ उस से अदू दो घड़ी तलक
ग़म्माज़ ने फिर और जड़ी दो घड़ी के बाद
अदू=दुश्मन; ग़म्माज़=(आँख के इशारे से) चुगलखोर

परवाना गिर्द शम्अ के शब दो घड़ी रहा
फिर देखी उस की ख़ाक पड़ी दो घड़ी के बाद

तू दो घड़ी का वादा न कर देख जल्द आ
आने में होगी देर बड़ी दो घड़ी के बाद

गो दो घड़ी तक उस ने न देखा इधर तो क्या
आख़िर हमीं से आँख लड़ी दो घड़ी के बाद

क्या जाने दो घड़ी वो रहे 'ज़ौक़' किस तरह
फिर तो न ठहरे पाँव घड़ी दो घड़ी के बाद

~ शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

Sep 03, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, September 2, 2020

ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों


 

ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
जो याद न आए भूल के फिर ऐ हम-नफ़सो वो ख़्वाब हैं हम
*हम-नफ़सो=साथ साँस लेने वालों

मैं हैरत ओ हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर
दरिया-ए-मोहब्बत कहता है आ कुछ भी नहीं पायाब हैं हम
*पायाब=उथला

हो जाए बखेड़ा पाक कहीं पास अपने बुला लें बेहतर है
अब दर्द-ए-जुदाई से उन की ऐ आह बहुत बेताब हैं हम

ऐ शौक़ बुरा इस वहम का हो मक्तूब तमाम अपना न हुआ
वाँ चेहरे पे उन के ख़त निकला याँ भूले हुए अलक़ाब हैं हम
*मक्तूब=चिट्ठी; अलक़ाब=पत्र में सम्बोधन

किस तरह तड़पते जी भर कर याँ ज़ोफ़ ने मुश्कीं कस दीं हैं
हो बंद और आतिश पर हो चढ़ा सीमाब भी वो सीमाब हैं हम
*ज़ोफ़=कमज़ोर; मुश्कीं=ख़ुशबू से सम्बंधित; सीमाब=पारा

ऐ शौक़ पता कुछ तू ही बता अब तक ये करिश्मा कुछ न खुला
हम में है दिल-ए-बेताब निहाँ या आप दिल-ए-बेताब हैं हम

लाखों ही मुसाफ़िर चलते हैं मंज़िल पे पहुँचते हैं दो एक
ऐ अहल-ए-ज़माना क़द्र करो नायाब न हों कम-याब हैं हम
*कम-याब=दुर्लभ

मुर्ग़ान-ए-क़फ़स को फूलों ने ऐ 'शाद' ये कहला भेजा है
आ जाओ जो तुम को आना हो ऐसे में अभी शादाब हैं हम
*मुर्ग़ान-ए-क़फ़स=पिंजरे के पक्षी; शादाब=हरा भरा

~ शाद अज़ीमाबादी

Sep 01, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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