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Sunday, April 28, 2019

मेरी आहट गूँज रही है


मेरी आहट गूँज रही है
दुनिया की हर राहगुज़र में
ऊषा मेरे नक़्श-ए-क़दम पर
ख़ुशबू की पिचकारी ले कर
रंग छिड़कती जाती है
सूरज के अलबेले मुग़न्नी
जुम्बिश पा के सरगम पर
संगीत सुनाते जाते हैं
सजी-सजाई शाम की दुल्हन
शब की सियह-अंदाम अभागन
मेरे मन की नाज़ुक धड़कन
एक ही ताल पे लहराती हैं

*राहगुज़र=रास्ते; मुग़न्नी=गायक; जुम्बिश=गति; शब की सियह-अंदाम (धुंधले रंग की)

कोहरे की बाँहों में साए
गर्द-ए-कफ़-ए-पा के सय्यारे
एक ही गत पर नाच रहे हैं
मेरी आहट गूँज रही है
दुनिया की हर राहगुज़र में
फिर भी यूँ लगता है जैसे
ये गीती बा-वस्फ़-ए-वुसअत
एक अकेली बस्ती है
और जैसे हर बज़्म-आराई
इक इज़हार-ए-तंहाई है
और जैसे ये चाँद सितारे
सूरज, दरिया, सहरा
मौसम बर्र-ए-आज़म
सब मौहूम धुँदलके हैं
सब मेरी पाइंदा अना के जलते बुझते हाले हैं
सब आवाज़ें फ़ानी हैं
इक मेरी आहट लाफ़ानी है

*सरकश=विद्रोही; गर्द-ए-कफ़-ए-पा=पैरों के तलवों पर चिपकी धूल; सय्यारे=ग्रह; गीती=ज़िंदगी; बा-वस्फ़-ए-वुसअत=जिसे मापा जा सके; बज़्म-आराई (ख़ुशी से भरी महफिलें); इज़हार-ए-तंहाई (अकलेपन का भाव); बर्र-ए-आज़म (द्वीप); मौहूम=काल्पनिक; पाइंदा=चिरकाल; अना=अहम्; फ़ानी=नश्वर; लाफ़ानी=अ-नश्वर

~ अज़ीज़ तमन्नाई

 Apr 28, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, April 27, 2019

बरसों बैठ के सोचें फिर भी

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बरसों बैठ के सोचें फिर भी
हाथ के आगे पड़ा निवाला
आप हल्क़ के पार न जाए
ये अदना नाख़ुन भी शायद
बढ़ते बढ़ते जाल बिछाए
ज्ञान नगर बेहद दिलकश है
लेकिन उस के रस्ते में जो ख़ार पड़े हैं
कौन हटाए

सदियों की सोचों का मुरक़्क़ा' (अलबम)
टूटे हुए उस बुत को देखो
हरे-भरे ख़ुद-रौ (निरंकुश) सब्ज़े (हरियाली) ने घेर रखा है
फ़र्क़ कुशादा (खुला हुआ) से चिड़ियों की याद-दहानी (याद दिलाना)
चाह-ए-ज़क़न (ठुड्ढी के डिम्पल) पे काई जमी है
हो सकता है शायद उस को ज्ञान मिला हो
हो सकता है

~ अबरारूल हसन

 Apr 27, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, April 26, 2019

मुझे जाना है

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मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर
अभी फिर दर्द टपकेगा मिरी आवाज़ से आख़िर
अभी फिर आग उट्ठेगी शिकस्ता साज़ से आख़िर
मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

*बज़्म-ए-नाज़=शोख़ महफिल; शिकस्ता=टूटे हुए

अभी तो हुस्न के पैरों पे है जब्र-ए-हिना-बंदी
अभी है इश्क़ पर आईन-ए-फ़र्सूदा की पाबंदी
अभी हावी है अक़्ल ओ रूह पर झूटी ख़ुदावंदी
मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

*जब्र=मजबूरी; आईन-ए-फ़र्सूदा=पुराना आईना

अभी तहज़ीब-ए-अदल-ओ-हक़ की कश्ती खे नहीं सकती
अभी ये ज़िंदगी दाद-ए-सदाक़त दे नहीं सकती
अभी इंसानियत दौलत से टक्कर ले नहीं सकती
मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

*तहज़ीब-ए-अदल-ओ-हक़=सभ्यता, न्याय और सच; दाद-ए-सदाक़त=सच की तारीफ़

अभी तो काएनात औहाम का इक कार-ख़ाना है
अभी धोका हक़ीक़त है हक़ीक़त इक फ़साना है
अभी तो ज़िंदगी को ज़िंदगी कर के दिखाना है
मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

*काएनात-सृष्टि; औहाम=धोखा

अभी हैं शहर की तारीक गलियाँ मुंतज़िर मेरी
अभी है इक हसीं तहरीक-ए-तूफ़ाँ मुंतज़िर मेरी
अभी शायद है इक ज़ंजीर-ए-ज़िंदाँ मुंतज़िर मेरी
मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

*तारीक=अंधेरी; मुंतज़िर=प्रतीक्षा-रत; तहरीक-ए-तूफाँ=तूफान का शुरू होना; ज़न्हजीर-ज़िंदाँ=क़ैद खाने की ज़ंजीर

अभी तो फ़ाक़ा-कश इंसान से आँखें मिलाना है
अभी झुलसे हुए चेहरों पे अश्क-ए-ख़ूँ बहाना है
अभी पामाल-ए-जौर आदम को सीने से लगाना है
मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

*फ़ाक़ा-कश=भूखे; पामाल-ए-ज़ौर=अन्याय से पीड़ित

अभी हर दुश्मन-ए-नज़्म-ए-कुहन के गीत गाना है
अभी हर लश्कर-ए-ज़ुल्मत-शिकन के गीत गाना है
अभी ख़ुद सरफ़रोशान-ए-वतन के गीत गाना है
मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

*दुश्मन-ए-नज़्म-ए-कुहन=पुराने गीतों का बैरी; लश्कर=सेना; सरफ़रोशान-ए-वतन=देश के लिए जान देने का जज़्बा

कोई दम में हयात-ए-नौ का फिर परचम उठाता हूँ
ब-ईमा-ए-हमिय्यत जान की बाज़ी लगाता हूँ
मैं जाऊँगा मैं जाऊँगा मैं जाता हूँ में जाता हूँ
मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर

*हयात-ए-नौ=नया जीवन; परचम=झंडा; ब-ईमा-ए-हमिय्यत=जो पावन है, और रक्षा करने योग्य है

~ असरार-उल-हक़ मजाज़


 Apr 26, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, April 21, 2019

ज़ालिम की हिमायत न करेंगे

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मर जाएँगे ज़ालिम की हिमायत न करेंगे
अहरार कभी तर्क-ए-रिवायत न करेंगे

*हिमायत=पक्षपात; अहरार=आज़ाद लोग; तर्क-ए-रिवायत=परम्परा से अलग जा कर कुछ करना

क्या कुछ न मिला है जो कभी तुझ से मिलेगा
अब तेरे न मिलने की शिकायत न करेंगे

शब बीत गई है तो गुज़र जाएगा दिन भी
हर लहज़ा जो गुज़री वो हिकायत न करेंगे

ये फ़क़्र दिल-ए-ज़ार का एवज़ाना बहुत है
शाही नहीं माँगेंगे विलायत न करेंगे

*फ़क़्र=ग़रीब; दिल-ए-ज़ार=व्यथित हृदय; एवज़ाना=हर्ज़ाना

हम शैख़ न लीडर न मुसाहिब न सहाफ़ी
जो ख़ुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे

*मुसाहिब=बड़े आदमियों के साथ बैठने वाला; सहाफ़ी=पत्रकार

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


 Apr 21, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, April 20, 2019

दिल-ओ-दिमाग़ को रो लूँगा

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दिल-ओ-दिमाग़ को रो लूँगा आह कर लूँगा
तुम्हारे इश्क़ में सब कुछ तबाह कर लूँगा
अगर मुझे न मिलीं तुम तुम्हारे सर की क़सम
मैं अपनी सारी जवानी तबाह कर लूँगा

मुझे जो दैर-ओ-हरम में कहीं जगह न मिली
तिरे ख़याल ही को सज्दा-गाह कर लूँगा
जो तुम से कर दिया महरूम आसमाँ ने मुझे
मैं अपनी ज़िंदगी सर्फ़-ए-गुनाह कर लूँगा
*दैर-ओ-हरम=मंदिर-मस्जिद; सज्दा-गाह=इबादत की जगह

रक़ीब से भी मिलूँगा तुम्हारे हुक्म पे मैं
जो अब तलक न किया था अब आह कर लूँगा
तुम्हारी याद में मैं काट दूँगा हश्र से दिन
तुम्हारे हिज्र में रातें सियाह कर लूँगा

सवाब के लिए हो जो गुनह वो ऐन सवाब
ख़ुदा के नाम पे भी इक गुनाह कर लूँगा
हरीम-ए-हज़रत-ए-सलमा की सम्त जाता हूँ
हुआ न ज़ब्त तो चुपके से आह कर लूँगा
* हरीम-ए-हज़रत-ए-सलमा=हज़रत सलमा के घर; ज़ब्त=ख़ुद पर काबू

ये नौ-बहार ये अबरू, हवा ये रंग शराब
चलो जो हो सो हो अब तो गुनाह कर लूँगा
किसी हसीने के मासूम इश्क़ में 'अख़्तर'
जवानी क्या है मैं सब कुछ तबाह कर लूँगा
*नौ-बहार=वसंत; अबरू=भौंह

~ अख़्तर शीरानी


 Apr 20, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, April 19, 2019

प्राण, पहले तो हृदय तुमने चुराया

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प्राण, पहले तो हृदय तुमने चुराया
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।

बीत जाती रात हो जाता सबेरा,
पर नयन-पंक्षी नहीं लेते बसेरा,
बन्द पंखों में किये आकाश-धरती
खोजते फिरते अँधेरे का उजेरा,
पंख थकते, प्राण थकते, रात थकती
खोजने की चाह पर थकती न मन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।

स्वप्न सोते स्वर्ग तक अंचल पसारे,
डाल कर गल-बाँह भू, नभ के किनारे
किस तरह सोऊँ मगर मैं पास आकर
बैठ जाते हैं उतर नभ से सितारे,
और हैं मुझको सुनाते वह कहानी,
है लगा देती झड़ी जो अश्रु-घन की।

सिर्फ क्षण भर तुम बने मेहमान घर में,
पर सदा को बस गये बन याद उर में,
रूप का जादू किया वह डाल मुझ पर
आज मैं अनजान अपने ही नगर में,
किन्तु फिर भी मन तुम्हें ही प्यार करता
क्या करूँ आदत पड़ी है बालपन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।

पर न अब मुझको रुलाओ और ज़्यादा,
पर न अब मुझको मिटाओ और ज़्यादा,
हूँ बहुत मैं सह चुका उपहास जग का
अब न मुझ पर मुस्कराओ और ज़्यादा,
धैर्य का भी तो कहीं पर अन्त है प्रिय !
और सीमा भी कहीं पर है सहन की।
प्राण, पहले तो हृदय तुमने चुराया
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।

~ गोपालदास नीरज


 Apr 19, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, April 17, 2019

चलो, कहीं हम सेज बिछाएँ

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फूलों के बिस्तर पर
नींद क्यों नहीं आती,
चलो, कहीं सूली पर, सेज हम बिछाएँ ।

दूर-दूर तक कोई
नदी नहीं दिखती है ।
हिरणों की आँखों में
रेत प्यास लिखती है ।
घाटी में हँसते हैं,
बुत ही बुत पत्थर के,
चलो, कहीं सूने में, ख़ुद से बतियाएँ ।

आग हुई धुआँ-धुआँ
अँधियारा गहराया ।
पेड़ों पर पसर गया
गाढ़ा काला साया ।
आगे है मोड़ों पर
बियाबान सन्नाटा
चलो, कहीं पिछली पगडण्डी गुहराएँ ।

तुम से जो मुमकिन था
अभिनय वह ख़ूब किया ।
वह देखो सूर्यध्वज
जुगनू ने थाम लिया ।
मंच पर उभरने को
एक भीड़ आतुर है,
चलो, कहीं पर्दे के पीछे छिप जाएँ ।

~ देवेन्द्र शर्मा इन्द्र


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Sunday, April 14, 2019

दुआ दुआ वो चेहरा

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दुआ दुआ वो चेहरा
हया हया वो आँखें
सबा सबा वो ज़ुल्फ़ें
चले लहू गर्दिश में
रहे आँख में दिल में
बसे मिरे ख़्वाबों में
जले अकेले-पन में
मिले हर इक महफ़िल में
दुआ दुआ वो चेहरा

कभी किसी चिलमन के पीछे
कभी दरख़्त के नीचे
कभी वो हाथ पकड़ते
कभी हवा से डरते
कभी वो बारिश अंदर
कभी वो मौज समुंदर
कभी वो सूरज ढलते
कभी वो चाँद निकलते
कभी ख़याल की रौ में
कभी चराग़ की लौ में
दुआ दुआ वो चेहरा

कभी बाल सुखाए आँगन में
कभी माँग निकाले दर्पन में
कभी चले पवन के पाँव में
कभी हँसे धूप में छाँव में
कभी पागल पागल नैनों में
कभी छागल छागल सीनों में
कभी फूलों फूल वो थाली में
कभी दियों भरी दीवाली में
कभी सजा हुआ आईने में
कभी दुआ बना वो ज़ीने में

कभी अपने-आप से जंगों में
कभी जीवन मौज-तरंगों में
कभी नग़्मा नूर-फ़ज़ाओं में
कभी मौला हुज़ूर दुआओं में
कभी रुके हुए किसी लम्हे में
कभी दुखे हुए किसी चेहरे में
वही चेहरा बोलता रहता हूँ
वही आँखें सोचता रहता हूँ
वही ज़ुल्फ़ें देखता रहता हूँ
दुआ दुआ वो चेहरा
हया हया वो आँखें
सबा सबा वो ज़ुल्फ़ें

~ उबैदुल्लाह अलीम


 Apr 14, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, April 13, 2019

मन बेचारा

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मन बेचारा एक-वचन
लेकिन
दर्द हज़ार-गुने
चाँदी की चम्मच ले कर
जन्मे नहीं हमारे दिन
अँधियारी रातों के घर
रह आए भावुक-पल छिन
चंदा से सौ बातें कीं
सूरज ने जब घातें कीं
किंतु एक नक्कार-गह में
तूती की ध्वनि
कौन सुने

बिके अभावों के हाथों
सपने खेल-बताशों के
भरे नुकीले शूलों से
आँगन
खेल तमाशों के
कुछ को चूहे काट गए
कुछ को झींगुर चाट गए
नए नए संकल्पों के
जो भी हम ने जाल बुने

~ कुँवर बेचैन


 Apr 13, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, April 12, 2019

ओ देस से आने वाले बता

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ओ देस से आने वाला है बता
ओ देस से आने वाले बता, किस हाल में हैं यारान-ए-वतन
आवारा-ए-ग़ुर्बत को भी सुना, किस रंग में है कनआन-ए-वतन
वो बाग़-ए-वतन फ़िरदौस-ए-वतन, वो सर्व-ए-वतन रैहान-ए-वतन
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता

क्या अब भी वहाँ के बाग़ों में, मस्ताना हवाएँ आती हैं
क्या अब भी वहाँ के पर्बत पर, घनघोर घटाएँ छाती हैं
क्या अब भी वहाँ की बरखाएँ, वैसे ही दिलों को भाती हैं
ओ देस से आने वाले बता, ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी वतन में वैसे ही, सरमस्त नज़ारे होते हैं
क्या अब भी सुहानी रातों को, वो चाँद सितारे होते हैं
हम खेल जो खेला करते थे, क्या अब वही सारे होते हैं
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता

क्या अब भी शफ़क़ के सायों में, दिन रात के दामन मिलते हैं
क्या अब भी चमन में वैसे ही, ख़ुश-रंग शगूफ़े खिलते हैं
बरसाती हवा की लहरों से, भीगे हुए पौदे हिलते हैं
शादाब-ओ-शगुफ़्ता फूलों से, मामूर हैं गुलज़ार अब कि नहीं
बाज़ार में मालन लाती है, फूलों के गुँधे हार अब कि नहीं
और शौक़ से टूटे पड़ते हैं, नौ-उम्र ख़रीदार अब कि नहीं
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता

क्या शाम पड़े गलियों में वही, दिलचस्प अँधेरा होता है
और सड़कों की धुँदली शम्ओं पर, सायों का बसेरा होता है
बाग़ों की घनेरी शाख़ों में, जिस तरह सवेरा होता है
क्या अब भी वहाँ वैसी ही जवाँ, और मध-भरी रातें होती हैं
क्या रात भर अब भी गीतों की, और प्यार की बातें होती हैं
वो हुस्न के जादू चलते हैं, वो इश्क़ की घातें होती हैं
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता

क्या अब भी वहाँ के पनघट पर, पनहारियाँ पानी भरती हैं
अंगड़ाई का नक़्शा बन बन कर, सब माथे पे गागर धरती हैं
और अपने घरों को जाते हुए, हँसती हुई चुहलें करती हैं
बरसात के मौसम अब भी वहाँ, वैसे ही सुहाने होते हैं
क्या अब भी वहाँ के बाग़ों में, झूले और गाने होते हैं
और दूर कहीं कुछ देखते ही, नौ-उम्र दीवाने होते हैं
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता

‍~ अख़्तर शीरानी


 Apr 12, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, April 7, 2019

देखना भी जुर्म है

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ज़िंदगी के जितने दरवाज़े हैं, मुझ पे बंद हैं
देखना हद्द-ए-नज़र से आगे बढ़ कर

देखना भी जुर्म है
सोचना अपने अक़ीदों (विश्वासों)
और यक़ीनों से निकल कर सोचना भी जुर्म है
आसमाँ-दर-आसमाँ असरार (रहस्य) की
परतें हटा कर झाँकना भी जुर्म है
क्यूँ भी कहना जुर्म है कैसे भी कहना जुर्म है

साँस लेने की तो आज़ादी मयस्सर है मगर
ज़िंदा रहने के लिए इंसान को
कुछ और भी दरकार (ज़रूरी) है
और इस कुछ और भी का
तज़्किरा (बात-चीत करना) भी जुर्म है
ऐ ख़ुदावंदान-ए-ऐवान-ए-अक़ाएद
(विश्वास के महलों के मसीहा)
ऐ हुनर-मन्दान-ए-आईन-ओ-सियासत
(व्यवस्था और राजनीति के सर्वज्ञ ज्ञाता)

ज़िंदगी के नाम पर बस इक इनायत (कृपा) चाहिए
मुझ को इन सारे जराएम (अपराध – बहुवचन) की इजाज़त चाहिए

~ अहमद नदीम क़ासमी


 Apr 07, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, April 5, 2019

मैं नहीं मानता

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दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

*महल्लात=महल; मस्लहत=देख-भाल कर काम करना; सुब्ह-बे-नूर=बिना रौशनी की सुबह

मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

*ख़ाइफ़=डरा; तख़्ता-ए-दार=जहाँ फाँसी लगाई जाती है; मंसूर=विजेता; अग्यार=गैर लोग
ज़िंदाँ=जेल; जहल=जड़ता

फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ
चारागर दर्द-मंदों के बनते हो क्यूँ
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

*चारागर=चिकित्सक

~ हबीब जालिब


 Apr 05, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh