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Saturday, May 25, 2019

हम जहाँ हैं वहीं से आगे बढ़ेंगे

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हम जहाँ हैं
वहीं से आगे बढ़ेंगे।
देश के बंजर समय के
बाँझपन में
याकि अपनी लालसाओं के
अंधेरे सघन वन में

या अगर हैं
परिस्थितियों की तलहटी में
तो वहीं से बादलों के रूप में
ऊपर उठेंगे।
हम जहाँ हैं
वहीं से आगे बढ़ेंगे।

यह हमारी नियति है
चलना पड़ेगा
रात में दीपक
दिवस में सूर्य बन जलना पड़ेगा।

जो लड़ाई पूर्वजों ने छोड़ दी थी
हम लड़ेंगे
हम जहाँ हैं
वहीं से आगे बढ़ेंगे।

~ ओम प्रभाकर


 May 25, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, May 24, 2019

सिंहासन खाली करो

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सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

जनता, हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

जनता, हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"

मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

~ रामधारी सिंह दिनकर



 May 24, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, May 19, 2019

मन्जिल दूर नहीं है

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यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है

चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से
शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही;
और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है

अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेप है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

~ रामधारी सिंह दिनकर

 May 18, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, May 17, 2019

अर्पित तुमको मेरी आशा

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अर्पित तुमको मेरी आशा और निराशा और पिपासा।

एक तुम्हारे बतलाए थे,
विचरण को सौ ठौर, बसेरे
को केवल गलबाँह तुम्हारी,
अर्पित तुमको मेरी आशा और निराशा और पिपासा।

ऊँचे-ऊँचे लक्ष्य बनाकर
जब जब उनको छूकर आता,
हर्ष तुम्हारे मन का मेरे
मन का प्रतिद्वंदी बन जाता,
और जहाँ मेरी असफलता
मेरी विह्वलता बन जाती,
वहाँ तुम्हारा ही दिल बनता मेरे दिल का एक दिलासा
अर्पित तुमको मेरी आशा और निराशा और पिपासा।

~ हरिवंशराय बच्चन

 May 17, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, May 12, 2019

बेसन की सौंधी रोटी पर - माँ

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बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका बासन चिमटा फुकनी जैसी माँ

बाँस की खर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी थकी दो-पहरी जैसी माँ

चिड़ियों की चहकार में गूँजे राधा मोहन अली अली
मुर्ग़े की आवाज़ से बजती घर की कुंडी जैसी माँ

बीवी बेटी बहन पड़ोसन थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी माँ

बाँट के अपना चेहरा माथा आँखें जाने कहाँ गई
फटे पुराने इक एल्बम में चंचल लड़की जैसी माँ

~ निदा फ़ाज़ली


 May 12, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, May 11, 2019

शाम ही नहीं होती


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छुटपुटे के ग़ुर्फ़े में 
लम्हे अब भी मिलते हैं 
सुब्ह के धुँदलके में 
फूल अब भी खिलते हैं 
अब भी कोहसारों पर 
सर-कशीदा हरियाली
पत्थरों की दीवारें
तोड़ कर निकलती है
अब भी आब-ज़ारों पर
कश्तियों की सूरत में
ज़ीस्त की तवानाई
ज़ाविए बदलती है 

*छुटपुटे=जल्दबाज़ी); ग़ुर्फ़े=ख़िड़की; कोहसारों=पर्वतों; सर-कशीदा=ऊँची; आब-ज़ारों=झरने; ज़ीस्त=जीवन; तवानाई=ताक़त; ज़ाविए=दृष्टि-कोण

अब भी घास के मैदाँ
शबनमी सितारों से
मेरे ख़ाक-दाँ पर भी
आसमाँ सजाते हैं
अब भी खेत गंदुम के
तेज़ धूप में तप कर
इस ग़रीब धरती को
ज़र-फ़िशाँ बनाते हैं 

*ख़ाक-दाँ=घर; गंदुम=गेहूँ; ज़र-फ़िशाँ=सुनहरा

साए अब भी चलते हैं
सूरज अब भी ढलता है
सुब्हें अब भी रौशन हैं
रातें अब भी काली हैं
ज़ेहन अब भी चटयल (उजाड़) हैं
रूहें अब भी बंजर हैं
जिस्म अब भी नंगे हैं
हाथ अब भी ख़ाली हैं
अब भी सब्ज़ फ़सलों में
ज़िंदगी के रखवाले
ज़र्द ज़र्द चेहरों पर
ख़ाक ओढ़े रहते हैं
अब भी उन की तक़दीरें
मुंक़लिब नहीं होतीं
मुंक़लिब नहीं होंगी
कहने वाले कहते हैं
गर्दिशों की रानाई
आम ही नहीं होती
अपने रोज़-ए-अव्वल की
शाम ही नहीं होती

*चटयल=उजाड़; ज़र्द=पीले; मुंक़लिब=बदली; रानाई=सुंदरता;  रोज़-ए-अव्वल=पहले दिन

~
अहमद नसीम क़ासमी

 May 11, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, May 10, 2019

अब के हम बिछड़े तो शायद


अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें,
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें


ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती,
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें


ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो,
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें


तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा,
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें

*हिजाब=परदा

आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों पर,
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें

*दार=सूली; निसाब=पाठ्यक्रम

अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़',
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें

*माज़ी=गुज़रा हुआ; सराब=मृग मरीचिका

~ अहमद फ़राज़


 May 10, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, May 5, 2019

ज़िंदगी को देखा है



ज़िंदगी को देखा है ज़िंदगी से भागे हैं
रौशनी के आँचल में तीरगी के धागे हैं
तीरगी के धागों में ख़ून की रवानी है
दर्द है मोहब्बत है हुस्न है जवानी है
*तीरगी=अंधेरा

हर तरफ़ वही अंधा खेल है अनासिर का
तैरता चले साहिल डूबता चले दरिया
चाँद हो तो काकुल की लहर और चढ़ती है
रात और घटती है बात और बढ़ती है
*अनासिर=(पंच) तत्व; काकुल=बालों की लट

ये कशिश मगर क्या है रेशमी लकीरों में
शाम कैसे होती है नाचते जज़ीरों में
हर क़दम नई उलझन सौ तरह की ज़ंजीरें
फ़लसफ़ों के वीराने दूसरों की जागीरें
*ज़ज़ीरे=द्वीप;

आँधियाँ उजालों की घन-गरज सियासत की
काँपते हैं सय्यारे रात है क़यामत की
जंग से जले दुनिया चाँद को चले पागल
आँख पर गिरे बिजली कान में पड़े काजल
*सय्यारे=ग्रह

दौर है परिंदों का छेड़ है सितारों से
काएनात आजिज़ है हम गुनाहगारों से
*काएनात=सृष्टि

~ महबूब ख़िज़ां


 May 05, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, May 4, 2019

संदलीं जिस्म की ख़ुशबू से महकती...


संदलीं जिस्म की ख़ुशबू से महकती हुई रात
मुझ से कहती है यहीं आज बसेरा कर ले
गर तिरी नींद उजालों की परस्तार नहीं
अपने एहसास पे ज़ुल्फ़ों का अँधेरा कर ले

*परस्तार=पूजने वाला

मैं कि दिन भर की चका-चौंद से उकताया हुआ
किसी ग़ुंचे की तरह धूप में कुम्हलाया हुआ
इक नई छाँव में सुस्ताने को आ बैठा हूँ
गर्दिश-ए-दहर के आलाम से घबराया हुआ
सोचता हूँ कि यहीं आज बसेरा कर लूँ

*गर्दिश-ए-दहर=धरती की डोलना

सुब्ह के साथ कड़ी धूप खड़ी है सर पर
क्यूँ न इस अब्र को कुछ और घनेरा कर लूँ
जाने ये रात अकेले में कटे या न कटे
क्यूँ न कुछ देर शबिस्ताँ में अँधेरा कर लूँ

*अब्र=बादल; शबिस्ताँ=रात में रुकने का स्थान

लेकिन इस रात की ये बात न बढ़ जाए कहीं
तुझ से मिल कर ये मिरे दिल को लगा है धड़का
राख हो जाऊँगा मैं सुब्ह से पहले पहले
खुल के सीने में जो एहसास का शोला भड़का

~ क़तील शिफ़ाई 

 May 04, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, May 3, 2019

नया शिवाला

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सच कह दूँ ऐ बरहमन गर तू बुरा न माने
तेरे सनम-कदों के बुत हो गए पुराने
अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने
तंग आ के मैं ने आख़िर दैर ओ हरम को छोड़ा
वाइज़ का वाज़ छोड़ा छोड़े तिरे फ़साने
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है
*सनम-कदों=जा घरों; जंग-ओ-जदल=लड़ाई; वाइज़=उपदेशक; दैर ओ हरम=मंदिर-मस्जिद; वाज़=सलाह; ख़ाक-ए-वतन=देश की मिट्टी

आ ग़ैरियत के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
दुनिया के तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आसमाँ से इस का कलस मिला दें
हर सुब्ह उठ के गाएँ मंतर वो मीठे मीठे
सारे पुजारियों को मय पीत की पिला दें
शक्ति भी शांति भी भगतों के गीत में है
धरती के बासीयों की मुक्ती भी प्रीत में है

*ग़ैरियत=अपना-पराया; नक़्शे-दुई=दोगलापन

~ अल्लामा इक़बाल 

 May 03, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh