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Monday, December 14, 2015

तू मेरे शौक़ की शिद्दत पे हैराँ

तू मेरे शौक़ की शिद्दत पे हैराँ
मैं तेरे क़र्ब की लज़्ज़त में गुम हूँ
हम इस पल में हैं दोनों क़ाबिले दीद
तुझे देखूँ या तुझको देखने दूँ

*शिद्दत=उग्रता; क़र्ब=यातना; लज़्ज़त=स्वाद

~ अहमद नसीम क़ासमी

  Dec 14, 2015| e-kavya.blogspot.com
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ऐश की छाँव हो या ग़म की धूप

ऐश की छाँव हो या ग़म की धूप
ज़िन्दगी को कहीं पनाह नहीं
एक वीरान राह है दुनिया
जिसपे कोई क़यामगाह नहीं।

*क़यामगाह=विश्राम-गृह

~ अहकर काशीपुरी


  Dec 13, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 12, 2015

साक़ी ग़म-ए-दुनिया से

साक़ी ग़म-ए-दुनिया से हज़ार जाम पिला
मरने का नहीं मुझको ख़तर जाम पिला
जीने की दुआएं तो बुज़ुर्गों से मिलीं
ले वो भी तेरी नज़्र मगर जाम पिला।

~ अर्श मल्सियानी

  Dec 12, 2015| e-kavya.blogspot.com
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वादियाँ-वादियाँ, रास्ते-रास्ते



वादियाँ-वादियाँ, रास्ते-रास्ते
मारे मारे फिरे हम तेरे वास्ते।

आबशारों से पूछा कहाँ हैं सनम
और नज़ारों के जा जा के, पकड़े क़दम
इन बहारों ने फ़रमाया, क्या जाने हम
खा रहा है हमें अब, जुदाई का ग़म।
छाले पड़ते गए भागते-भागते।

*आबशारों=झरने

मचली जाएँ लटें, लिपटी जाए हवा
जलता जाए बदन, रोती जाए वफ़ा
बेवफ़ा मत सता, मिल भी जा - आ भी जा
कि ख़ता क्या बता, क्यों ये दे दी सज़ा।
आँखें पथरा गईं जागते-जागते।

~ नूर देवासी


  Dec 12, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 11, 2015

क्यूँकि फ़र्बा न नज़र आवे

क्यूँकि फ़र्बा न नज़र आवे तिरी ज़ुल्फ़ की लट
जोंक सी ये तो मिरा ख़ून ही पी जाती है

*फ़र्बा=हरी-भरी, सेहतमंद 

~ मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

  Dec 11, 2015| e-kavya.blogspot.com
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ग़ायब बहुत ऐ जाने-जहाँ

ग़ायब बहुत ऐ जाने-जहाँ रहते हो
मानिन्द नज़र हमसे निहाँ रहते हो
हर चंद कि आँखों में हो, दिल में हो तुम
मालूम नहीं पर कि कहाँ रहते हो।

*मानिन्द=जैसे; निहाँ=छुपे हुये; हर चंद=हर समय

~ अमीर मीनाई लखनवी

  Dec 10, 2015| e-kavya.blogspot.com
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काश इक रोज़ तेरे तेरे कूचे में

काश इक रोज़ तेरे तेरे कूचे में
यूँ गिरूँ लड़खड़ा के मस्त-ओ-ख़राब
तू ये पूछे किसी से कौन है यह
और क्यों पी गया है इतनी शराब।

*मस्त-ओ-ख़राब=(शराब) पिया हुआ

~ अब्दुल हमीद अदम

  Dec 9, 2015| e-kavya.blogspot.com
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हो मुबारक हुज़ूर को गांधी

एक कटाक्ष गांधी-वादी, प्रतिरोध रहित, एक तरफ़ा लड़ाई पर:

हो मुबारक हुज़ूर को गांधी,
ऐसे दुश्मन नसीब हों किसको?
कि पिटें खूब और सर न उठाएँ
और खिसक जाएँ जब कहो खिसको।

~ अकबर इलाहाबादी

  Dec 8, 2015| e-kavya.blogspot.com
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अपनी हालत छुपाए जाता हूँ

अपनी हालत छुपाए जाता हूँ
बे-महल मुस्कराये जाता हूँ
ख़ुद हूँ महज़ूं मगर ज़माने को
बेतहाशा हँसाऐ जाता हूँ।

*बे-महल=बेमौका; महज़ूं=शोकाकुल

~ ख़ुमार बाराबंकवी

  Dec 7, 2015| e-kavya.blogspot.com
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सीपियाँ खुल गईं तुम्हें छू कर

सीपियाँ खुल गईं तुम्हें छू कर
धूप शीतल हुई तुम्हें छू कर
तुम जो निकली हो रात में बाहर
चाँदनी जल गई तुम्हें छू कर।

~ कुमार शिव

  Dec 6, 2015| e-kavya.blogspot.com
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उनका कलम उन्हें लौटाया - धन्यवाद



उनका कलम उन्हें लौटाया - धन्यवाद जी !
पत्र लिखा तो उत्तर आया - धन्यवाद जी !
छायावाद, रहस्यवाद तो बहुत सुने थे,
किंतु कहां से आ टपका यह धन्यवाद जी !

पत्नीवाद मान लेने से गदगद औरत,
पूंजीवाद पकड़ लेने से मिलती दौलत !
सत्य, अहिंसा, सदाचार को मारो गोली,
गांधीवादी को मिल जाती इनसे मोहलत।

मार्क्सवाद के हो-हल्ले में,
नाम-धाम तो हो जाता है।
लेकिन कोरे धन्यवाद में,
क्या जाता है, क्या आता है ?

भेजा - नहीं रसीद पहुंच की
आया - फाइल करें कहां पर ?
धन्यवाद धोबी का कुत्ता -
घर से घाट, घाट से फिर घर।

चला यहां से, गया वहां को,
वहां न पहुंचा, गया कहां फिर ?
घूम रहा है मारा-मारा,
धन्यवाद है नेता का सिर।

नेताजी भाषण देते हैं,
लालाजी पहनाते माला,
संयोजक ने पूरा डिब्बा
मक्खन का खाली कर डाला।

लेकिन जनता बिगड़ उठी है -
इसे उतारो, उसे लाद दो।
मटरूमल जी जल्दी आओ,
खत्म करो अब धन्यवाद दो !

धन्यवाद है या कि मुसीबत ?
बला आगई, इसको टालो।
जिसका भाषण नहीं कराना,
उससे धन्यवाद दिलवा लो।

अयशपाल जी धन्यवाद का -
भाषण देने खड़े हुए हैं।
लोग उठ गए, नेता गायब,
वह माइक पर अड़े हुए हैं।

धन्यवाद है या पत्थर है ?
आए हो तो खाना होगा।
माला भले नहीं ले जाओ
धन्यवाद ले जाना होगा !

धन्यवाद ऐसी गाली है,
देकर इसे लेख लौटा दो।
धन्यवाद उल्लू का पट्ठा -
खड़ा रहेगा, भले लिटा दो।

नाक काटकर उसे उढ़ा दो
धन्यवाद वह दोशाला है।
पाकर हाथ जोड़ने पड़ते,
ठंडी कॉफी का प्याला है।

~ गोपाल प्रसाद व्यास


  Dec 6, 2015| e-kavya.blogspot.com
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छिः, छिः, लज्जा-शरम नाम को



छिः, छिः, लज्जा-शरम नाम को भी न गई रह हाय,
औचक चूम लिया मुख जब मैं दूह रही थी गाय।

लोट गई धरती पर अब की उलर फूल की डार,
अबकी शील सँभल नहीं सकता यौवन का भार।
दोनों हाथ फँसे थे मेरे, क्या करती मैं हाय?
औचक चूम लिया मुख जब मैं दूह रही थी गाय।

पीछे आकर खड़ा हुआ, मैंने न दिया कुछ ध्यान,
लगी साँस श्रुति पर, सहसा झनझना उठे मन-प्राण।
किन हाथों से उसे रोकती, मैं तो थी निरुपाय
औचक चूम लिया मुख जब मैं दूह रही थी गाय।

कर थे कर्म-निरत, केवल मन ही था कहीं विभोर,
मैं क्या थी जानती, छिपा है यहीं कहीं चितचोर?
मैंने था कब कहा उसे छूने को अपना काय,
औचक चूम लिया मुख जब मैं दूह रही थी गाय।

~ रामधारी सिंह 'दिनकर'
(Original poem - Alfred Tennyson)


  Dec 5, 2015| e-kavya.blogspot.com
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आओ कि आज ग़ौर करें

आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर
देखे थे हमने जो, वो ख़्वाब क्या हुए

*ग़ौर=ध्यान

~ साहिर लुधियानवी

  Dec 4, 2015| e-kavya.blogspot.com
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भटकते पाँवों को राहों की ज़रूरत

भटकते पाँवों को राहों की ज़रूरत होगी
तसव्वुरात को बाहों की ज़रूरत होगी
तेरे मासूम ख़यालों की क़सम तुझको भी
उम्र के साथ गुनाहों की ज़रूरत होगी।

*तसव्वुरात=कल्पनाओं, ख़यालों

~ किशन सरोज

  Dec 4, 2015| e-kavya.blogspot.com
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क्या इनका कोई अर्थ नहीं?




ये शामें, सब की शामें …
जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया
जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया
जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में

ये शामें,
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?

वे लमहें
वे सूनेपन के लमहें
जब मैनें अपनी परछाई से बातें की
दुख से वे सारी वीणाएं फेकीं
जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे

वे लमहें,
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?

वे घड़ियां, वे बेहद भारी-भारी घड़ियां
जब मुझको फिर एहसास हुआ
अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नहीं
जब मैंने झुककर फिर माथे से पंथ छुआ
फिर बीनी गत-पाग-नूपुर की मणियां

वे घड़ियां,
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?

ये घड़ियां, ये शामें, ये लमहें
जो मन पर कोहरे से जमे रहे
निर्मित होने के क्रम में

क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?

जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं

अर्पित है पूजा के फूलों-सा जिसका मन
अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन
अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को
नत-मस्तक होकर वह कर लेता सहज ग्रहण

वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियां
यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियां

इनमें से क्या है,
जिनका कोई अर्थ नहीं !

कुछ भी तो व्यर्थ नहीं !!!

~ धर्मवीर भारती


  Dec 4, 2015| e-kavya.blogspot.com
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रूप की चाँदनी में नहाता रहा

रूप की चाँदनी में नहाता रहा
वो तिमिर में कहीं जगमगाता रहा,
प्यार की उँगलियों से ज़रा छू लिया
देर तक आईना गुनगुनाता रहा।

~ कुँवर बेचैन

  Dec 3, 2015| e-kavya.blogspot.com
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प्राण पत्थर थे, अब फूलमाला हुये

प्राण पत्थर थे, अब फूलमाला हुये
हम अँधेरों में हँसता उजाला हुये
प्रीति के रंग ने जब हमें रंग दिया
हम स्वयं प्यार की रंगशाला हुये।

*रंगशाला=रंगभूमि, खेलने का घर

~ कुँवर बेचैन

  Dec 2, 2015| e-kavya.blogspot.com
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दिवस का अंत आया, पर..



दिवस का अंत आया, पर डगर का अंत कब आया?

थका सूरज, प्रतीची की सजीली गोद में सोया,
किसी से नीड़ में बिछुडा हुआ पंछी मिला, खोया;
मगर मैं हूं कि सूनी राह पर चुपचाप चलता हूं
थके पग, पर परिश्रम के प्रहर का अंत कब आया?

लिये प्रतिबिंब कूलों का, अंधेरे में नदी सोई,
भ्रमर के प्यार की तड़पन कमल के अंक में खोई!
थकी लहरें हुईं खामोश गिर कर के किनारों पर,
दृगों में किंतु आंसू की लहर का अंत कब आया?

पवन ने पी लिया आसव कुमुद की स्निग्ध पाखों का।
किसी ने भी न पोंछा नीर मेरी क्षुब्ध आंखों का
तिमिर का विष गई पी रात, चांदी के कटोरे से
मगर मेरी निराशा के ज़हर का अंत कब आया?

*प्रतीची=पश्चिम; कूलों=किनारों; आसव=रस; स्निग्ध=चिकनी

~ गोरख नाथ


  Dec 2, 2015| e-kavya.blogspot.com
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लाख हम शेर कहें

लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खे,
बात वो है जो तिरे दिल में जगह पाती है।

~ मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

  Dec 1, 2015| e-kavya.blogspot.com
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खैर खून खांसी खुशी

खैर खून खांसी खुशी बैर प्रीत मधुपान
रहिमन दाबे न दबे जानत सकल जहान

*खैर=सेहत; खून=कत्ल; बैर=दुश्मनी

~ रहीम

  Dec 1, 2015| e-kavya.blogspot.com
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अफ़लाक तक औरों की फुगाँ

अफ़लाक तक औरों की फुगाँ जा पहुँची
जो चीज़ यहाँ की थी वहाँ जा पहुँची
तू ख़्वाब की जन्नत को सजाता ही रहा
दुनिया को ज़रा देखो कहाँ जा पहुँची।

* अफ़लाक=आकाश; फुगाँ=आवाज़

~ कादिर सिद्दीक़ी

  Nov 30, 2015| e-kavya.blogspot.com
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महकी हुई गुफ्तार में फूलों का

महकी हुई गुफ्तार में फूलों का तबस्सुम
बहकी हुई रफ्तार में झोकों की रवानी
मुमकिन है ख़िजाओं का तसव्वुर ही बदल दे
ऐ जाने - बहाराँ तेरी गुलपोश जवानी।

*गुफ्तार=बात चीत करने का ढंग, तौर-तरीका; तसव्वुर=कल्पना; गुलपोश=फूलों (जैसी)

~ क़तील शिफ़ाई

  Nov 29, 2015| e-kavya.blogspot.com
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सत्य का जिसके हृदय में



सत्य का जिसके हृदय में प्यार हो,
एक पथ, बलि के लिए तैयार हो ।

फूँक दे सोचे बिना संसार को,
तोड़ दे मँझधार जा पतवार को ।

कुछ नई पैदा रगों में जाँ करे,
कुछ अजब पैदा नया तूफाँ करे।

हाँ, नईं दुनिया गढ़े अपने लिए,
रैन-दिन जागे मधुर सपने लिए ।

बे-सरो-सामाँ रहे, कुछ गम नहीं,
कुछ नहीं जिसको, उसे कुछ कम नहीं ।

प्रेम का सौदा बड़ा अनमोल रे !
निःस्व हो, यह मोह-बन्धन खोल रे !

मिल गया तो प्राण में रस घोल रे !
पी चुका तो मूक हो, मत बोल रे !

प्रेम का भी क्या मनोरम देश है !
जी उठा, जिसकी जलन निःशेष है ।

जल गए जो-जो लिपट अंगार से,
चाँद बन वे ही उगे फिर क्षार से ।

प्रेम की दुनिया बड़ी ऊँची बसी,
चढ़ सका आकाश पर विरला यशी।

हाँ, शिरिष के तन्तु का सोपान है,
भार का पन्थी ! तुम्हें कुछ ज्ञान है ?

है तुम्हें पाथेय का कुछ ध्यान भी ?
साथ जलने का लिया सामान भी ?

बिन मिटे, जल-जल बिना हलका बने,
एक पद रखना कठिन है सामने ।

प्रेम का उन्माद जिन-जिन को चढ़ा,
मिट गए उतना, नशा जितना बढ़ा ।

मर-मिटो, यह प्रेम का शृंगार है।
बेखुदी इस देश में त्योहार है ।

खोजते -ही-खोजते जो खो गया,
चाह थी जिसकी, वही खुद हो गया।

जानती अन्तर्जलन क्या कर नहीं ?
दाह से आराध्य भी सुन्दर नहीं ।

‘प्रेम की जय’ बोल पग-पग पर मिटो,
भय नहीं, आराध्य के मग पर मिटो ।

हाँ, मजा तब है कि हिम रह-रह गले,
वेदना हर गाँठ पर धीरे जले।

एक दिन धधको नहीं, तिल-तिल जलो,
नित्य कुछ मिटते हुए बढ़ते चलो ।

पूर्णता पर आ चुका जब नाश हो,
जान लो, आराध्य के तुम पास हो।

आग से मालिन्य जब धुल जायगा,
एक दिन परदा स्वयं खुल जायगा।

आह! अब भी तो न जग को ज्ञान है,
प्रेम को समझे हुए आसान है ।

फूल जो खिलता प्रल्य की गोद में,
ढूँढ़ते फिरते उसे हम मोद में ।

बिन बिंधे कलियाँ हुई हिय-हार क्या?
कर सका कोई सुखी हो प्यार क्या?

प्रेम-रस पीकर जिया जाता नहीं ।
प्यार भी जीकर किया जाता कहीं?

मिल सके निज को मिटा जो राख में,
वीर ऐसा एक कोई लाख में।

भेंट में जीवन नहीं तो क्या दिया ?
प्यार दिल से ही किया तो क्या किया ?

चाहिए उर-साथ जीवन-दान भी,
प्रेम की टीका सरल बलिदान ही।

~ रामधारी सिंह 'दिनकर'


  Nov 29, 2015| e-kavya.blogspot.com
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जब कभी साक़ी-ए-मदहोश




जब कभी साक़ी-ए-मदहोश की याद आती है
नशा बन कर मेरी रग-रग में समा जाती है।

डर ये है टूट ना जाए कहीं मेरी तौबा
चार जानिब से घटा घिर के चली आती है।
*जानिब=ओर

जब कभी ज़ीस्त पे और आप पे जाती है नज़र
याद गुज़रे हुए ख़ैय्याम की आ जाती है।
*ज़ीस्त=ज़िंदगी; ख़य्याम=उमर ख़य्याम-फ़ारसी के प्रसिद्द कवि

मुसकुराती है कली, फूल हँसे पड़ते हैं
मेरे महबूब का पैग़ाम सबा लाती है।
*सबा=हवा

दूर के ढोल तो होते हैं सुहाने ‘दर्शन’
दूर से कितनी हसीन बर्क़ नज़र आती है।
*बर्क़=बिजली, तड़ित

~ संत दर्शन सिंह



  Nov 28, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Ghulam Ali sahab, Jab kabhi saki e madhosh....
https://www.youtube.com/watch?v=4MXi3IYE6nA

आकाश के फूलों से न श्रृंगार करो

आकाश के फूलों से न श्रृंगार करो
तुम स्वर्ग नहीं भू को नमस्कार करो
भगवान को दिन रात रिझाने वालों,
उस के बंदों से भी कुछ प्यार करो।

~ उदय भानु 'हंस'

  Nov 27, 2015| e-kavya.blogspot.com
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सुरमई शाम के उजालों से



सुरमई शाम के उजालों से, जब भी सज-धज के रात आती है
बेवफ़ा, बेरहम, ओ बेदर्दी, जाने क्यों तेरी याद आती है।

इस जवानी ने क्या सज़ा पाई, रेशमी सेज हाय तनहाई,
शोख़ जज़्बात ले हैं अँगड़ाई,आँखें बोझल हैं नींद हरजाई,
तेरी तस्वीर तेरी परछाईं दे, के आवाज़ फिर बुलाती है।

आज भी लम्हे वो मोहब्बत के गर्म साँसों से लिपटे रहते हैं,
अब भी अरमान तेरी चाहत के महकी ज़ुल्फ़ों में सिमटे रहते हैं,
तुझको भूलें तो कैसे भूलें हम, बस यही सोच अब सताती है।

वो भी क्या दिन थे जब कि हम दोनों, मरने-जीने का वादा करते थे
जाम हो ज़हर का कि अमृत का, साथ पीने का वादा करते थे।
ये भी क्या दिन हैं क्या क़यामत है ग़म तो ग़म है ख़ुशी भी खाती है।

~ नूर देवासी


  Nov 26, 2015| e-kavya.blogspot.com
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यौवन के समय प्रेम की क्या बात

यौवन के समय प्रेम की क्या बात न हो,
क्या दिन ही रहे हमेशा, कभी रात न हो,
संभव भी कहीं है यह भला सोच के देखो
सावन का महीना हो, पर बरसात न हो।

~ उदय भानु 'हंस'

  Nov 25, 2015| e-kavya.blogspot.com
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हम बलाएँ लिया करें उनकी



हम बलाएँ लिया करें उनकी, और हम पर बलाएँ वे लाएँ
है यही ठीक तो कहें किससे करें क्या चैन किस तरह पाएँ
किस तरह रंग में रंगें उनको, आह को कौन ढंग सिखलाएँ
जो पसीजे न आंसुओं से वे, क्यों कलेजा निकाल दिखलाएँ।

~ अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरीऔध'


  Nov 24, 2015| e-kavya.blogspot.com
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ज़िंदगी से गिराँ जवानी है



ज़िंदगी से गिराँ जवानी है
रहम अपने पे खाइये 'कैफ़ी'
देखकर अब कहीं घना साया
आप भी बैठ जाइए 'कैफ़ी'।

*गिराँ= भारी, क़ीमती

~ कैफ़ी आज़मी

  Nov 23, 2015| e-kavya.blogspot.com
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ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको...

ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो
शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो

~ जाँ निसार अख़्तर

  Nov 22, 2015| e-kavya.blogspot.com
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हर दर्पन तेरा दर्पन है!


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हर दर्पन तेरा दर्पन है, हर चितवन तेरी चितवन है,
मैं किसी नयन का नीर बनूँ, तुझको ही अर्घ्य चढ़ाता हूँ !

नभ की बिंदिया चन्दावाली, भू की अंगिया फूलोंवाली,
सावन की ऋतु झूलोंवाली, फागुन की ऋतु भूलोंवाली,
कजरारी पलकें शरमीली, निंदियारी अलकें उरझीली,
गीतोंवाली गोरी ऊषा, सुधियोंवाली संध्या काली,
हर चूनर तेरी चूनर है, हर चादर तेरी चादर है,
मैं कोई घूँघट छुऊँ, तुझे ही बेपरदा कर आता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !!

यह कलियों की आनाकानी, यह अलियों की छीनाछोरी,
यह बादल की बूँदाबाँदी, यह बिजली की चोराचारी,
यह काजल का जादू-टोना, यह पायल का शादी-गौना,
यह कोयल की कानाफूँसी, यह मैना की सीनाज़ोरी,
हर क्रीड़ा तेरी क्रीड़ा है, हर पीड़ा तेरी पीड़ा है,
मैं कोई खेलूँ खेल, दाँव तेरे ही साथ लगाता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !!

तपसिन कुटियाँ, बैरिन बगियाँ, निर्धन खंडहर, धनवान महल,
शौकीन सड़क, गमग़ीन गली, टेढ़े-मेढ़े गढ़, गेह सरल,
रोते दर, हँसती दीवारें नीची छत, ऊँची मीनारें,
मरघट की बूढ़ी नीरवता, मेलों की क्वाँरी चहल-पहल,
हर देहरी तेरी देहरी है, हर खिड़की तेरी खिड़की है,
मैं किसी भवन को नमन करूँ, तुझको ही शीश झुकाता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !!

पानी का स्वर रिमझिम-रिमझिम, माटी का रव रुनझुन-रुनझुन,
बातून जनम की कुनुनमुनुन, खामोश मरण की गुपुनचुपुन,
नटखट बचपन की चलाचली, लाचार बुढ़ापे की थमथम,
दुख का तीखा-तीखा क्रन्दन, सुख का मीठा-मीठा गुंजन,
हर वाणी तेरी वाणी है, हर वीणा तेरी वीणा है,
मैं कोई छेड़ूँ तान, तुझे ही बस आवाज़ लगाता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !!

काले तन या गोरे तन की, मैले मन या उजले मन की,
चाँदी-सोने या चन्दन की, औगुन-गुन की या निर्गुन की,
पावन हो या कि अपावन हो, भावन हो या कि अभावन हो,
पूरब की हो या पश्चिम की, उत्तर की हो या दक्खिन की,
हर मूरत तेरी मूरत है, हर सूरत तेरी सूरत है,
मैं चाहे जिसकी माँग भरूँ, तेरा ही ब्याह रचाता हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है!!

~ गोपालदास नीरज


  Nov 21, 2015| e-kavya.blogspot.com
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मँझधार से बचने के सहारे

मँझधार से बचने के सहारे नहीं होते
दुर्दिन में कभी चाँद सितारे नहीं होते
हम पार भी जाएँ तो भला जाएँ किधर से
इस प्रेम की सरिता के किनारे नहीं होते।

~ उदय भानु 'हंस'

  Nov 20, 2015| e-kavya.blogspot.com
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मुहब्बत ख़ुद-ब-ख़ुद इक रोज़

मुहब्बत ख़ुद-ब-ख़ुद इक रोज़ दिल का साज़ बन जाती
अगर दिल की हर इक धड़कन, तेरी आवाज़ बन जाती
सदा पी की, पपीहा काश इस अंदाज़ में देता
कि मुझ तक आते-आते वो तेरी आवाज़ बन जाती।

~ एकता शबनम

  Nov 19, 2015| e-kavya.blogspot.com
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किताबें झाँकती हैं



किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं क़िताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो कदरें वो सुनाती थी कि जिनके
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंड लगते हैं वो अल्फ़ाज़
जिनपर अब कोई मानी नहीं उगते
जबां पर जो ज़ायका आता था जो सफ़ा पलटने का
अब ऊँगली क्लिक करने से बस झपकी गुजरती है
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, वो कट गया है
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे!!

~ गुलज़ार


  Nov 19, 2015| e-kavya.blogspot.com
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सारे प्रश्नों के हल नहीं होते

सारे प्रश्नों के हल नहीं होते
हर समय सुख के पल नहीं होते
मुझको पत्थर दिखा के क्या लोगे
सूखे पेड़ों में फल नहीं होते,

~ उर्मिलेश शंखधर

  Nov 18, 2015| e-kavya.blogspot.com
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ख़्वाब की तरह से है याद



ख़्वाब की तरह से है याद कि तुम आए थे
जिस तरह दामन-ए-मश्रिक़ में सहर होती है
ज़र्रे ज़र्रे को तजल्ली की ख़बर होती है
और जब नूर का सैलाब गुज़र जाता है
रात भर एक अंधेरे में बसर होती है
कुछ इसी तरह से है याद के तुम आये थे
*मश्रिक़=पूर्व; तजल्ली=रोशनी

जैसे गुलशन में दबे पाओं बहार आती है
पत्ती-पत्ती के लिये लेके निखार आती है
और फिर वक़्त वो आता है के हर मौज-ए-सबा
अपने दामन में लिये गर्द-ओ-ग़ुबार आती है
कुछ इसी तरह से है याद के तुम आये थे

जिस तरह मह्व-ए-सफ़र हो कोई वीराने में
और रस्ते में कहीं कोई ख़ियाबाँ आ जाये
चन्द लम्हों में ख़ियाबाँ के गुज़र जाने पर
सामने फिर वोही दुनिया-ए-बियाबाँ आ जाये
कुछ इसी तरह से है याद के तुम आये थे
*मह्व=व्यस्त; ख़ियाबाँ=फुलवारी; बियाबाँ=जंगल

~ जगन्नाथ आज़ाद


  Nov 18, 2015| e-kavya.blogspot.com
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एक ऐसा वक़्त भी आता है

एक ऐसा वक़्त भी आता है चाँदनी रात में
मेरा दिमाग़, मेरा दिल, कहीं नहीं होता
तेरा ख़याल भी ऐसा निखर के आता है
तेरा विसाल भी इतना हंसी नहीं होता।

*विसाल=मिलन

~ क़तील शिफ़ाई

  Nov 17, 2015| e-kavya.blogspot.com
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दूर इक शहर में जब कोई भटकता



दूर इक शहर में जब कोई भटकता बादल
मेरी जलती हुई बस्ती की तरफ़ जाएगा
कितनी हसरत से उसे देखेंगी प्यासी आँखें
और वो वक़्त की मानिंद गुज़र जाएगा
*हसरत=लालसा; मानिंद=तरह

जाने किस सोच में खो जाएगी दिल की दुनिया
जाने क्या-क्या मुझे बीता हुआ याद आएगा
और उस शह्र का बे-फैज़ भटकता बादल
दर्द की आग को फैला के चला जाएगा
*बे-फैज़=कंजूस

~ अहमद फ़राज़


  Nov 17, 2015| e-kavya.blogspot.com
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क्या हुआ इनको कि भागे जा रहे

क्या हुआ इनको कि भागे जा रहे हैं
घर, डगर, गिरिवर छलांगे जा रहे है
कौन - सा रसरूप धरती पर नहीं है
खोंज में जिसकी अभागे जा रहे हैं।

~ आनंद मिश्रा

  Nov 16, 2015| e-kavya.blogspot.com
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कहीं-कहीं से हर चेहरा



कहीं-कहीं से हर चेहरा
तुम जैसा लगता है
तुमको भूल न पायेंगे हम
ऐसा लगता है

ऐसा भी इक रंग है जो
करता है बातें भी
जो भी इसको पहन ले वो
अपना-सा लगता है

तुम क्या बिछड़े भूल गये
रिश्तों की शराफ़त हम
जो भी मिलता है कुछ दिन ही
अच्छा लगता है

अब भी यूँ मिलते हैं हमसे
फूल चमेली के
जैसे इनसे अपना कोई
रिश्ता लगता है

और तो सब कुछ ठीक है लेकिन
कभी-कभी यूँ ही
चलता-फिरता शहर अचानक
तन्हा लगता है

~ निदा फ़ाज़ली


  Nov 16, 2015| e-kavya.blogspot.com
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ज़ाहिर में जो आज़रदा तुम्हें पाता

ज़ाहिर में जो आज़रदा तुम्हें पाता हूँ
कुछ दिल में नहीं दिल को यह समझाता हूँ
होता है कभी अगली मोहब्बत का असर
सच कह दो कभी मैं तुम्हें याद आता हूँ

*ज़ाहिर=प्रत्यक्ष, प्रकट रूप में; आज़रदा=कष्टदायी

~ अमीर मीनाई

  Nov 15, 2015| e-kavya.blogspot.com
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ओ बदगुमाँ तू जितना भी चाहे

ओ बदगुमाँ तू जितना भी चाहे गुरेज़ कर
बन्दा तेरे मिलाप का उम्मीद - वार है,
तू छुपके भी आएगा तो जाएगा किधर
कहते हैं जिसको ज़ीस्त तेरी रहगुज़ार है।

*गुरेज़=बचाव; ज़ीस्त=ज़िन्दगी; रहगुज़ार=रास्ता

~ अबदुल हमीद 'अदम'

  Nov 14, 2015| e-kavya.blogspot.com
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रातें विमुख दिवस बेगाने




रातें विमुख दिवस बेगाने
समय हमारा,
हमें न माने!

लिखें अगर बारिश में पानी
पढ़ें बाढ़ की करूण कहानी
पहले जैसे नहीं रहे अब
ऋतुओं के रंग-
रूप सुहाने।

दिन में सूरज, रात चन्‍द्रमा
दिख जाता है, याद आने पर
हम गुलाब की चर्चा करते हैं
गुलाब के झर जाने पर।

हमने, युग ने या चीज़ों ने
बदल दिए हैं
ठौर-ठिकाने।

~ ओम प्रभाकर


  Nov 14, 2015| e-kavya.blogspot.com
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हर बात पे इक अपनी सी

हर बात पे इक अपनी सी कर जाऊँगा
जिस राह से चाहूँगा गुज़र जाऊँगा
जीना हो तो मैं मौत को दे दूँगा शिकस्त
मरना हो तो बेमौत भी मर जाऊँगा

~ महबूब राही

  Nov 13, 2015| e-kavya.blogspot.com
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तुम को देखा तो नहीं है लेकिन




सुबह की धूप
खुली शाम का रूप
फ़ाख़्ताओं की तरह सोच में डूबे तालाब
अज़नबी शहर के आकाश
धुंधलकों की किताब
पाठशाला में
चहकते हुए मासूम गुलाब

घर के आँगन की महक
बहते पानी की खनक
सात रंगों की धनक

तुम को देखा तो नहीं है लेकिन
मेरी तन्हाई में
ये रंग-बिरंगे मंज़र
जो भी तस्वीर बनाते हैं
वह
तुम जैसी है।

~ निदा फ़ाज़ली


  Nov 13, 2015| e-kavya.blogspot.com
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उसकी आँखों में मेरे आँसू



उसकी हथेली पर मेरे आँसू
कितने अच्छे लगते हैं

जैसे सुब्‍ह-सवेरे
कँवल की पंखुड़ियाँ
शबनम से जगमग करती हों
मोती जैसी शबनम
फूल की आँखों में जाकर हीरे की कनी बन जाती है

क़तरा-क़तरा दिल करता है
ख़ुशबू धीरे-धीरे तन में फैलाती है
शबनम फूल के रंग में आख़िर रंग जाती है
नन्हे-नन्हे चिराग़ों की लौ बढ़ती है तो
उसका चेहरा पहले से बढ़कर रोशन लगने लगता है

उसकी आँखों में मेरे आँसू
कितने अच्छे लगते हैं!

~ परवीन शाकिर


  Nov 12, 2015| e-kavya.blogspot.com
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