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Tuesday, June 10, 2014

जलाते चलो ये दिए स्नेह भर-भर


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जलाते चलो ये दिए स्नेह भर-भर
कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा!

जला दीप पहला तुम्हीं ने तिमिर की
चुनौती प्रथम बार स्वीकार की थी।
तिमिर की सरित पार करने, तुम्हीं ने
बना दीप की नाव तैयार की थी।

बहाते चलो नाव तुम वह निरंतर
कभी तो तिमिर का किनारा मिलेगा।

युगो से तुम्ही ने तिमिर की शिला पर
दिए अनगिनत है निरंतर जलाये
समय साक्षी है कि जलते हुए दीप
अनगिन तुम्हारे, पवन ने बुझाए

मगर बुझ स्वयं ज्योति जो दे गये वे
उसी से तिमिर को उजाला मिलेगा।

दिए और तूफ़ान की यह कहानी
चली आ रही और चलती रहेगी
जली जो प्रथम बार लौ उस दिए की
जली स्वर्ण सी है, और जलती रहेगी।

रहेगा धरा पर दिया एक भी यदि 
कभी तो निशा को सवेरा मिलेगा


~ द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी  
  April 1, 2014

  
   

3 comments:

  1. there was one more stanza to this poem, can you please post it too? many thanks for sharing this poem, i had been looking for it for years.

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  2. Agnivesh ji,

    Here is the complete poem. Enjoy!
    Ashok Singh.

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  3. can you please post the english meaning of this poem

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