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Thursday, November 12, 2015

नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये



नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाये जाते हैं
*नियाज़-ओ-नाज़=सावधानी और गर्व

ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पाकर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराये जाते हैं
*नाज़-ए-हुस्न=सुंदरता के नखरे

मेरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाये जाते हैं दामन छुड़ाये जाते हैं
*जुनून-ए-तमन्ना=इच्छाओं का उन्माद

जो दिल से उठते हैं शोले वो अंग बन-बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छये जाते हैं
*मंज़र-ए-फ़ितरत=प्रकृति के दृश्य

मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तेरी निगाह के अंदाज़ पाये जाते हैं
*आह=कराह; सदक़े=न्योछावर

ये अपनी तर्क-ए-मुहब्बत भी क्या मुहब्बत है
जिन्हें भुलाते हैं वो याद आये जाते हैं
*तर्क-ए-मुहब्बत=प्रेम की समाप्ति

~ जिगर मुरादाबादी


  Nov 12, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, November 11, 2015

जल गया है दीप तो ...


आंधियां चाहें उठाओ,
बिजलियां चाहें गिराओ,
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये,
वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये,
वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,
जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये,
उग रही लौ को न टोको,
ज्योति के रथ को न रोको,
यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,
धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,
दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,
देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह,
व्यर्थ है दीवार गढना,
लाख लाख किवाड़ जड़ना,
मृतिका के हांथ में अमरित मचलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

है जवानी तो हवा हर एक घूंघट खोलती है,
टोक दो तो आंधियों की बोलियों में बोलती है,
वह नहीं कानून जाने, वह नहीं प्रतिबन्ध माने,
वह पहाड़ों पर बदलियों सी उछलती डोलती है,
जाल चांदी का लपेटो,
खून का सौदा समेटो,
आदमी हर कैद से बाहर निकलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

वक़्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है,
बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है,
क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो,
हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है,
उस सुबह से सन्धि कर लो,
हर किरन की मांग भर लो,
है जगा इन्सान तो मौसम बदलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

~ गोपाल दास 'नीरज',


  Nov 11, 2015| e-kavya.blogspot.com
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आज बिखरी है हवाओं में

आज बिखरी है हवाओं में चरागों की महक
आज रौशन है हवा चाँद-सितारों की तरह

~ सतपाल ख़याल

  Nov 10, 2015| e-kavya.blogspot.com
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जहां रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा

जहां रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा
किसी चराग का अपना मकां नहीं होता

~ वसीम बरेलवी

  Nov 10, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, November 10, 2015

फूल खिला दे शाखों पर



फूल खिला दे शाखों पर, पेड़ों को फल दे मालिक
धरती जितनी प्यासी है, उतना तो जल दे मालिक

वक़्त बड़ा दुखदायक है, पापी है संसार बहुत,
निर्धन को धनवान बना, दुर्बल को बल दे मालिक

कोहरा कोहरा सर्दी है, काँप रहा है पूरा गाँव,
दिन को तपता सूरज दे, रात को कम्बल दे मालिक

बैलों को एक गठरी घास, इंसानों को दो रोटी,
खेतो को भर गेहूं से, काँधों को हल दे मालिक

हाथ सभी के काले हैं, नजरें सबकी पीली हैं,
सीना ढांप दुपट्टे से, सर को आँचल दे मालिक

~ श
कील आज़मी

  Nov 10, 2015| e-kavya.blogspot.com
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सरसरी तुम जहान से गुज़रे

सरसरी तुम जहान से गुज़रे
वरना हर जा, जहान-ए-दीगर था

*सरसरी=बेपरवाह; जहान=दुनिया; जा=तरफ; दीगर=दूसरी

~ मीर तक़ी मीर

  Nov 9, 2015| e-kavya.blogspot.com
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श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन



श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन, हरण भव भय दारुणं।
नवकंज-लोचन कंज मुख, कर कंज, पद कंजारुणं॥१॥

हे मन, कृपा करने वाले श्रीराम का भजन करो जो कष्टदायक जन्म-मरण के भय का नाश करने वाले हैं, जो नवीन कमल के समान आँखों वाले हैं, जिनका मुख कमल के समान है, जिनके हाथ कमल के समान हैं, जिनके चरण रक्तिम (लाल) आभा वाले कमल के समान हैं॥१॥

कन्दर्प अगणित अमित छवि, नवनील-नीरद सुन्दरं।
पटपीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं॥२॥

जो अनगिनत कामदेवों के समान तेजस्वी छवि वाले हैं, जो नवीन नील मेघ के समान सुन्दर हैं, जिनका पीताम्बर सुन्दर विद्युत् के समान है, जो पवित्रता की साकार मूर्ति सीता जी के पति हैं॥२॥

भजु दीनबन्धु दिनेश, दानव दैत्यवंश-निकन्दनं।
रघुनन्द आनन्द कंद, कौशलचन्द दशरथ-नन्दनं॥३॥

हे मन, दीनों के बन्धु, सूर्यवंशी, दानवों और दैत्यों के वंश का नाश करने वाले, रघु के वंशज, सघन आनंद रूप, अयोध्याधिपति श्रीदशरथ के पुत्र श्रीराम को भजो ॥३॥

सिर मुकट कुण्डल तिलक, चारु उदारु अंग विभूषणं।
आजानु-भुज-शर-चाप-धर, संग्राम जित-खरदूषणं॥४॥

जिनके मस्तक पर मुकुट, कानों में कुंडल और माथे पर तिलक है, जिनके अंग प्रत्यंग सुन्दर, सुगठित और भूषण युक्त हैं, जो घुटनों तक लम्बी भुजाओं वाले हैं, जो धनुष और बाण धारण करते हैं, जो संग्राम में खर और दूषण को जीतने वाले हैं॥४॥

इति वदति तुलसीदास, शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं।
मम हृदय-कंज निवास कुरु, कामादि खलदल-गंजनं॥५॥

श्रीतुलसीदास जी कहते हैं, हे शंकर, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले, काम आदि दुर्गुणों के समूह का नाश करने वाले श्रीराम जी आप मेरे हृदय कमल में निवास कीजिये॥५॥

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि, सो बरु सहज सुंदर सांवरो।
करुणा निधान सुजान, सील सनेह जानत रावरो॥६॥

जो तुम्हारे मन को प्रिय हो गया है, वह स्वाभाविक रूप से सुन्दर सांवला वर ही तुमको मिलेगा। वह करुणा की सीमा और सर्वज्ञ है और तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है॥६॥

एहि भांति गौरि असीस सुनि, सिय सहित हियं हरषी अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि-पुनि, मुदित मन मंदिर चली॥७॥

इस प्रकार श्रीपार्वती जी का आशीर्वाद सुनकर श्री सीता जी सहित सभी सखियाँ प्रसन्न हृदय वाली हो गयीं। श्रीतुलसीदास जी कहते हैं - श्रीपार्वती जी की बार बार पूजा करके श्रीसीता जी प्रसन्न मन से महल की ओर चलीं॥७॥

जानि गौरी अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल, वाम अंग फरकन लगे॥८॥

श्रीपार्वती जी को अनुकूल जान कर, श्रीसीता जी के ह्रदय की प्रसन्नता का कोई ओर-छोर नहीं है। सुन्दर और मंगलकारी लक्षणों की सूचना देने वाले उनके बाएं अंग फड़कने लगे॥८॥

~ गोस्वामी तुलसीदास

  Nov 9, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, November 8, 2015

देव तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से



देव तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं

धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं
मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं

मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं

कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं

नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आयी

पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो

मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ

चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो

~ सुभद्राकुमारी चौहान


  Nov 8, 2015| e-kavya.blogspot.com
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ताइर को चहकने की सज़ा देते हो

ताइर को चहकने की सज़ा देते हो
शोलों को दहकने की सज़ा देते हो
अफ़कार पे ताज़ीर बिठाने वालो -
फूलों को महकने की सज़ा देते हो।

*ताइर=पक्षी; अफ़कार=फ़िक्र का बहुवचन, चिंताएँ; ताज़ीर=सज़ा

~ अख़्तर पयामी


  Nov 7, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 7, 2015

क्यों इन तारों को उलझाते?



क्यों इन तारों को उलझाते?
अनजाने ही प्राणों में क्यों,
आ आ कर फिर जाते?

पल में रागों को झंकृत कर,
फिर विराग का अस्फुट स्वर भर,
मेरी लघु जीवन वीणा पर,
क्या यह अस्फुट गाते?

लय में मेरा चिर करुणा-धन,
कम्पन में सपनों का स्पन्दन,
गीतों में भर चिर सुख, चिर दुख,
कण कण में बिखराते!

मेरे शैशव के मधु में घुल,
मेरे यौवन के मद में ढुल,
मेरे आँसू स्मित में हिल मिल,
मेरे क्यों न कहाते?

~ महादेवी वर्मा

  Nov 7, 2015| e-kavya.blogspot.com
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बेपर्दा नज़र आयीं जो कल

बेपर्दा नज़र आयीं जो कल चंद बीवियाँ
अकबर ज़मीं में ग़ैरते-क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो उनसे आपका पर्दा किधर गया
बोली वो यों कि अक्ल पे मर्दों की पड़ गया।

*ग़ैरत=स्वाभिमान; क़ौमी=जिसका संबंध देश से हो

~ अकबर इलाहाबादी

  Nov 6, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 6, 2015

मेरी आँखों की पुतली में



मेरी आँखों की पुतली में
तू बनकर प्राण समा जा रे!

जिसके कन-कन में स्पन्दन हो,
मन में मलयानिल चन्दन हो,
करुणा का नव-अभिनन्दन हो
वह जीवन गीत सुना जा रे!

खिंच जाये अधर पर वह रेखा
जिसमें अंकित हो मधु लेखा,
जिसको वह विश्व करे देखा,
वह स्मिति का चित्र बना जा रे!

मेरी आँखों की पुतली में
तू बनकर प्राण समा जा रे!

~ जयशंकर प्रसाद


  Nov 6, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, November 5, 2015

कब कहा मैंने कि यह पहचान

कब कहा मैंने कि यह पहचान दो दिन की अमर हो
सांस इन बेहोश घड़ियों की न लौटे, बे - ख़बर हो
कब कहा मैंने कि मेरी याद की बुझती शमा पर
एक क्षण को भी तुम्हारी लाज से नीची नज़र हो

~ रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

  Nov 5, 2015| e-kavya.blogspot.com
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ग़ैर को मुंह लगा के देख लिया



ग़ैर को मुंह लगा के देख लिया
झूठ-सच आज़मा के देख लिया

कितनी फ़रहत-फ़ज़ा थी बू-ए-वफ़ा
उसने दिल को जला के देख लिया
*फ़रहत-फ़ज़ा=सुहानी; बू-ए-वफ़ा=वफ़ा की सुगंध

जाओ भी, क्या करोगे मेह्रो-वफ़ा
बारहा, आज़मा के देख लिया
*मेह्रो-वफ़ा=कृपा व प्रेम निर्वाह

है इधर आइना, उधर दिल है
जिसको चाहा, उठा के देख लिया

उसने सुबहे-शबे-विसाल मुझे
जाते जाते भी आ के देख लिया
*सुबहे-शबे-विसाल=मिलन रात्रि के बाद का सवेरा

'दाग़' ने ख़ूब आशिक़ी का मज़ा
जल के देखा, जला के देख लिया

~ दाग़ देहलवी


  Nov 5, 2015| e-kavya.blogspot.com
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सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर

सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर, ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं
हाय क्या अच्छी कही, ज़ालिम हूँ मैं जाहिल हूँ मैं

*सख़्तियाँ=पाबंदी लगाना; ग़ाफ़िल=असावधान; ज़ालिम=क्रूर; जाहिल=मूर्ख

~ इक़बाल


  Nov 4, 2015| e-kavya.blogspot.com
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देवता हैं नहीं




देवता हैं नहीं,
तुम्हें दिखलाऊँ कहाँ ?
सूना है सारा आसमान,
धुएँ में बेकार भरमाऊँ कहाँ ?

इसलिए, कहता हूँ,
जहाँ भी मिले मौज, ले लो ।
जी चाहता हो तो टेनिस खेलो
या बैठ कर घूमो कार में
पार्कों के इर्द-गिर्द अथवा बाजार में ।
या दोस्तों के साथ मारो गप्प,
सिगरेट पियो ।
तुम जिसे मौज मानते हो, उसी मौज से जियो ।
मस्ती को धूम बन छाने दो,
उँगली पर पीला-पीला दाग पड़ जाने दो ।

लेकिन, देवता हैं नहीं,
तुम्हारा जो जी चाहे, करो ।
फूलों पर लोटो
या शराब के शीशे में डूब मरो ।

मगर, मुझ अकेला छोड़ दो ।
मैं अकेला ही रहूँगा ।
और बातें जो मन पर बीतती हैं,
उन्हें अवश्य कहूँगा ।

मसलन, इस कमरे में कौन है
जिसकी वजह से हवा ठंडी है,
चारों ओर छायी शान्ति मौन है ?
कौन यह जादू करता है ?
मुझमें अकारण आनन्द भरता है ।

कौन है जो धीरे से
मेरे अन्तर को छूता है ?
किसकी उँगलियों से
पीयूष यह चूता है ?

दिल की धड़कनों को
यह कौन सहलाता है ?
अमृत की लकीर के समान
हृदय में यह कौन आता-जाता है ?

कौन है जो मेरे बिछावन की चादर को
इस तरह चिकना गया है,
उस शीतल, मुलायम समुद्र के समान
बना गया है,
जिसके किनारे, जब रात होती है
मछलियाँ सपनाती हुई सोती हैं ?

कौन है, जो मेरे थके पावों को
धीरे-धीरे सहलाता और मलता है,
इतनी देर कि थकन उतर जाए,
प्राण फिर नयी संजीवनी से भर जाए ?

अमृत में भींगा हुआ यह किसका
अंचल हिलता है ?
पाँव में भी कमल का फूल खिलता है ।

और विश्वास करो,
यहाँ न तो कोई औरत है, न मर्द;
मैं अकेला हूँ ।

अकेलेपन की आभा जैसे-जैसे गहनाती है,
मुझे उन देवताओं के साथ नींद आ जाती है,
जो समझो तो हैं, समझो तो नहीं हैं;
अभी यहाँ हैं, अभी और कहीं हैं ।

देवता सरोवर हैं, सर हैं, समुद्र हैं ।
डूबना चाहो
तो जहाँ खोजो, वहीं पानी है ।
नहीं तो सब स्वप्न की कहानी है ।

~ डी० एच० लारेंस
अनुवाद-रामधारी सिंह 'दिनकर


  Nov 4, 2015| e-kavya.blogspot.com
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पंच तत्व के सत, रज, तम से

पंच तत्व के सत, रज, तम से बनी जिन्दगी
अर्थ-काम रत, धर्म - मोक्ष से डरी जिन्दगी
आवागमन, अव्यक्त, अनेक रूप है तेरे,
कुछ तो अपना अता-पता दे, अरी जिन्दगी

~ नीरज

  Nov 3, 2015| e-kavya.blogspot.com
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वो पैमान भी टूटे जिनको



वो पैमान (वचन) भी टूटे जिनको
हम समझे थे पाइंदा (अनश्वर)
वो शम्एं भी दाग (जल चुकी हुई) हैं जिनको
बरसों रक्खा ताबिंदा (प्रकाशमान)
दोनों वफ़ा करके नाख़ुश हैं
दोनों किए पर शर्मिन्दा।

प्यार से प्यारा जीवन प्यारे,
क्या माज़ी (अतीत) क्या आइंदा (भविष्य)
हम दोनों अपने क़ातिल हैं,
हम दोनों अब तक ज़िन्दा।

~ अहमद फ़राज़


  Nov 3, 2015| e-kavya.blogspot.com
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रंगो-हर्फो-सदा की दुनिया में

रंगो-हर्फो-सदा की दुनिया में
ज़िंदगी क़त्ल हो गई है कहीं
मर गया लफ़्ज़, उड़ गया मफ़हूम
और आवाज़ खो गई है कहीं।

*रंगो-हर्फो-सदा=चित्रकला, लेखन और गायन (शायद फिल्मी से मतलब हो?); मफ़हूम=अर्थ

~ अहमद नदीम क़ासमी

  Nov 2, 2015| e-kavya.blogspot.com
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अकेलेपन से जो लोग दुखी हैं,



अकेलेपन से जो लोग दुखी हैं,
वृत्तियाँ उनकी,
निश्चय ही, बहिर्मुखी हैं ।
सृष्टि से बाँधने वाला तार
उनका टूट गया है;
असली आनन्द का आधार
छूट गया है ।

उदगम से छूटी हुई नदियों में ज्वार कहाँ ?
जड़-कटे पौधौं में जीवन की धार कहाँ ?

तब भी, जड़-कटे पौधों के ही समान
रोते हैं ये उखड़े हुए लोग बेचारे;
जीना चाहते हैं भीड़ - भभ्भड़ के सहारे ।

भीड़, मगर, टूटा हुआ तार
और तोड़ती है
कटे हुए पौधों की
जड़ नहीं जोड़ती है ।

बाहरी तरंगो पर जितना ही फूलते हैं,
हम अपने को उतना ही और भूलते हैं ।

जड़ जमाना चाहते हो
तो एकान्त में जाओ ;
अगम-अज्ञात में अपनी बाहें फैलाओ ।
अकेलापन है राह
अपने आपको पाने की;
जहाँ से तुम निकल चुके हो,
उस घर में वापस जाने की ।

~ (डी० एच० लारेंस)
अनुवाद-रामधारी सिंह 'दिनकर'


  Nov 2, 2015| e-kavya.blogspot.com
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अरमाँ तमाम उम्र के

अरमाँ तमाम उम्र के सीने में दफ़्न हैं
हम चलते फिरते लोग मज़ारों से कम नहीं ।

~ 'नामालूम'

  Nov 1, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, November 1, 2015

उसने फूल भेजे हैं



उसने फूल भेजे हैं
फिर मेरी अयादत (बीमार का हाल-चाल पूछना) को
एक-एक पत्ती में
उन लबों की नरमी है
उन जमील (सुन्दर) हाथों की
ख़ुशगवार हिद्दत (प्रबलता) है
उन लतीफ़ (रसमय) साँसों की
दिलनवाज़ (दिल को सुख देने वाली) ख़ुशबू है

दिल में फूल खिलते हैं
रुह में चिराग़ां है
ज़िन्दगी मुअत्तर (सुगंधित) है

फिर भी दिल यह कहता है,
बात कुछ बना लेना
वक़्त के खज़ाने से
एक पल चुरा लेना,
काश! वो ख़ुद आ जाता..!

~ परवीन शाकिर


  Nov 1, 2015| e-kavya.blogspot.com
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उस एक चेहरे में आबाद थे


उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे
उस एक शख़्स में किस किस को देखता था मैं।

~ सलीम अहमद

  Oct 31, 2015| e-kavya.blogspot.com
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अकेलेपन की शिकायत



लोग अकेलेपन की शिकायत करते हैं ।
मैं समझ नहीं पाता ,
वे किस बात से डरते हैं ।

अकेलापन तो जीवन का चरम आनन्द है ।
जो हैं निःसंग,
सोचो तो, वही स्वच्छंद है ।

अकेला होने पर जगते हैं विचार;
ऊपर आती है उठकर
अंधकार से नीली झंकार ।

जो है अकेला,
करता है अपना छोटा-मोटा काम,
या लेता हुआ आराम,
झाँक कर देखता है आगे की राह को,
पहुँच से बाहर की दुनिया अथाह को;

तत्वों के केन्द्र-बिन्दु से होकर एकतान
बिना किसी बाधा के करता है ध्यान
विषम के बीच छिपे सम का,
अपने उदगम का।

अकेलेपन से बढ़कर
आनन्द नहीं , आराम नहीं ।
स्वर्ग है वह एकान्त,
जहाँ शोर नहीं, धूमधाम नहीं ।

देश और काल के प्रसार में,
शून्यता, अशब्दता अपार में
चाँद जब घूमता है, कौन सुख पाता है ?
भेद यह मेरी समझ में तब आता है,
होता हूँ जब मैं अपने भीतर के प्रांत में,
भीड़ से दूर किसी निभृत (निर्जन), एकान्त में ।

और तभी समझ यह पाता हूँ
पेड़ झूमता है किस मोद में
खड़ा हुआ एकाकी पर्वत की गोद में ।

बहता पवन मन्द-मन्द है ।
पत्तों के हिलने में छन्द है ।
कितना आनन्द है !

~ (डी० एच० लारेंस)
अनुवाद-रामधारी सिंह 'दिनकर'


  Oct 31, 2015| e-kavya.blogspot.com
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अजब तेरी है ऐ महबूब सूरत

अजब तेरी है ऐ महबूब सूरत,
नज़र से गिर गए सब ख़ूबसूरत।

~ हैदर आली आतिश

  Oct 30, 2015| e-kavya.blogspot.com
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देर तक, दूर तक रहती है महक



देर तक, दूर तक
रहती है महक
जब तू चला जाता है,
कहाँ घटता है असर,
जब तू चला जाता है…

वो बेमिसाल सा लफ़्ज़ों का जाल,
खिजाँ को जो बना दे
जाँफिज़ा (आत्मिक सुख देने वाला)!

तमाम वो कलाम,
तेरे फुर्क़त (जुदाई) के काम...
जो भेजे मेरे नाम,
वो सारे ही पयाम,
बने रहते हैं बदस्तूर (पहले जैसे),
सब अपनी ही जगह!

उम्र कटती रहे,
घटती है कब कशिश (मोहकता) तेरी?
वक़्त जाता रहे,
बदली है कब रविश (चाल) तेरी?

कब उतरता है नशा,
जब तू चला जाता है
कहाँ होती है बसर,
कहाँ घटता है असर,
जब तू चला जाता है!

~ रेशमा हिंगोरानी


  Oct 30, 2015| e-kavya.blogspot.com
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ये अहद किया था कि ब-ई-हाले



ये अहद किया था कि ब-ई-हाले-तबाह
अब कभी प्यार भरे गीत नहीं गाऊंगा
किसी चिलमन ने पुकारा भी तो बढ़ जाऊँगा
कोई दरवाज़ा खुला भी तो पलट आऊंगा

*अहद=वादा; ब-ई-हाले-तबाह=यों तबाह-हाल होने पर भी; 

  चिलमन=बाँस की फटि्टयों का परदा

फिर तिरे कांपते होंटों की फ़ुन्सूकार हंसी
जाल बुनने लगी, बुनती रही, बुनती ही रही
मैं खिंचा तुझसे, मगर तू मिरी राहों के लिए
फूल चुनती रही, चुनती रही, चुनती ही रही

*फ़ुन्सूकार=जादू-भरी

~ साहिर लुधियानवी


  Oct 29, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh