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Friday, February 27, 2015

मन तुम्हारा हो गया,





मन तुम्हारा हो गया,
तो हो गया !

एक तुम थे जो सदा से अर्चना के गीत थे,
एक हम थे जो सदा से धार के विपरीत थे,
ग्राम्य-स्वर कैसे कठिन आलाप नियमित साध पाता,
द्वार पर संकल्प के लखकर पराजय कंपकंपाता,
क्षीण सा स्वर खो गया, तो खो गया
मन तुम्हारा हो गया

तो हो गया !

लाख नाचे मोर सा मन लाख तन का सीप तरसे,
कौन जाने किस घड़ी तपती धरा पर मेघ बरसे,
अनसुने चाहे रहे तन के सजग शहरी बुलावे,
प्राण में उतरे मगर जब सृष्टि के आदिम छलावे,
बीज बादल बो गया, तो बो गया,
मन तुम्हारा हो गया
तो हो गया !

~ कुमार विश्वास
   Feb 26, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

ख़ुशी जिस ने खोजी

ख़ुशी जिस ने खोजी वो धन ले के लौटा
हँसी जिस ने खोजी चमन ले के लौटा
मगर प्यार को खोजने जो गया वो,
न तन ले के लौटा न मन ले के लौटा

~ गोपाल दास नीरज
   Feb 26, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

उसने नज़र नज़र में ही

उसने नज़र नज़र में ही ऐसे भले सुखन कहे
मैं ने तो उसके पांव में सारा कलाम रख दिया

*सुखन=शेर/गज़ल

~ अहमद फराज़

   Feb 25, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Wednesday, February 25, 2015

कहाँ है वो चेहरा, गुलाबी चेहरा



कहाँ है वो चेहरा, गुलाबी चेहरा
जिसको देखकर चाँद भी रश्क़ करता है
कहाँ हैं वो ज़ुल्फों की लटें
जो तेरे माथे पे सबा के साथ मचलती हैं
उन्स करती हैं
*रश्क़=ईर्ष्या; सबा=हवा; उन्स=लगाव

कहाँ है वो तेरे माथे की छोटी-सी बिंदिया
जिसका गहरा रंग तेरे हुस्न में चार चाँद लगाता है
कहाँ हैं वो आँखें झील-सी गहरी आँखें
जिनकी खा़हिश में हर रात ख़्वाबीदा हुआ करती है
*ख़्वाहिश=तमन्ना; ख़्वाबीदा: स्वप्निल

कहाँ हैं वो लब जो तितलियों के परों से नाज़ुक़ हैं
छोटी-छोटी बात पे खिलते हैं
कहाँ हैं वो गुलाबी रोशनाइयाँ
जिनसे सुबह होती है, कलियाँ चटकती हैं’ महकती हैं

कहाँ हैं वो हाथ, मरमरीं हाथ
जिन्हें मेरे हाथों में होना चाहिए
कहाँ हैं वो पाँव, हसीन पाँव
जिन्हें मेरे घर की फ़र्श पर होना चाहिए

कहाँ हैं तू, आज तू कहाँ है?
मेरे जिस्मो-ज़हन के सिवा तू कहीं दिखती ही नहीं
खा़मोश ये लब आज भी बेक़रार हैं
तुमसे कुछ कहने के लिए…
*जिस्मो-ज़हन=शरीर (दिल) और दिमाग

गर जो तुमसे मुनासिब हो
तुम आज ही लौट आओ

~ विनय प्रजापति 'नज़र'


   Feb 25, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

रहता सुखन से नाम

रहता सुखन से नाम क़यामत तलक है ज़ौक़
औलाद से रहे यही दो पुश्त, चार पुश्त।

*सुखन=शेर/गज़ल

~ शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

   Feb 24, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

किस किस का नाम लाऊँ ज़बाँ पर

किस किस का नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे साथ
हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं

~ क़तील शिफ़ाई

   Feb 23, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Monday, February 23, 2015

वो दर खुला मेरे गमकदे का


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वो दर खुला मेरे गमकदे का
वो आ गए मेरे मिलनेवाले
वो आ गयी शाम, अपनी राहों में
फ़र्शे-अफ़सुर्दगी बिछाने
*फ़र्शे-अफ़सुर्दगी=उदासी का फ़र्श


वो आ गयी रात चाँद-तारों को
अपनी आज़ुर्दगी सुनाने
वो सुब्ह आयी दमकते नश्तर से
याद के ज़ख्म को मनाने
वो दोपहर आयी, आस्तीं में
छुपाये शोलों के ताज़याने 


*आज़ुर्दगी=उदासी; ताज़ियाना=चाबुक

ये आये सब मेरे मिलने वाले
कि जिन से दिन-रात वास्ता है
ये कौन कब आया, कब गया है
निगाहो-दिल को खबर कहाँ है

ख़याल सू-ए-वतन रवाँ है
समन्दरों की अयाल थामे
हज़ार वहमो-गुमाँ सँभाले
कई तरह के सवाल थामे 


*सू-ए-वतन=वतन की ओर; अयाल= घोड़े की गर्दन के लंबे बाल


~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


   Feb22, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

ऎसा तेरा लोक, वेदना

ऎसा तेरा लोक, वेदना
नहीं, नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं
जिसने जाना मिटने का स्वाद!

क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरे मिटने क अधिकार!

~ महादेवी वर्मा
   Feb22, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Saturday, February 21, 2015

करते हैं तन-मन से वंदन




अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस २१ फ़रवरी:

करते हैं तन-मन से वंदन, जन-गण-मन की अभिलाषा का
अभिनंदन अपनी संस्कृति का, आराधन अपनी भाषा का।

यह अपनी शक्ति सर्जना के माथे की है चंदन रोली
माँ के आँचल की छाया में हमने जो सीखी है बोली
यह अपनी बँधी हुई अंजुरी ये अपने गंधित शब्द सुमन
यह पूजन अपनी संस्कृति का यह अर्चन अपनी भाषा का।

अपने रत्नाकर के रहते किसकी धारा के बीच बहें
हम इतने निर्धन नहीं कि वाणी से औरों के ऋणी रहें
इसमें प्रतिबिंबित है अतीत आकार ले रहा वर्तमान
यह दर्शन अपनी संस्कृति का यह दर्पण अपनी भाषा का।

यह ऊँचाई है तुलसी की यह सूर-सिंधु की गहराई
टंकार चंद वरदाई की यह विद्यापति की पुरवाई
जयशंकर की जयकार निराला का यह अपराजेय ओज
यह गर्जन अपनी संस्कृति का यह गुंजन अपनी भाषा का।

करते हैं तन-मन से वंदन, जन-गण-मन की अभिलाषा का
अभिनंदन अपनी संस्कृति का, आराधन अपनी भाषा का।

~ सोम ठाकुर


   Feb 21, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

देवता है कोई हम-में

देवता है कोई हम-में, न फरिश्ता कोई
छू के मत देखना, हर रंग उतर जाता है।

मिलने-जुलने का सलीक़ा है ज़रूरी, वरना
आदमी चन्द मुलाक़ातों में मर जाता है।।

~ निदा फाज़ली

   Feb 19, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Thursday, February 19, 2015

मैं आज के इन्सानों की बात कहूं



मैं आज के इन्सानों की बात कहूं
ये सब हैं करंसी नोटों की तरह
कोई पाऊंड या चांदी का सिक्का नहीं
जज़बात से खाली हैं मशीनों की तरह

सुबह से शाम तक ये मेज़ों पे झुके रहते हैं
कुछ भी इन्हें मालूम नहीं दिन की कहानी
कब रात ने सूरज को सुलाया अपने आंचल में
ज़िन्दगी यूं मिटा दी काग़ज़ में लुटा दी जवानी

~ कृष्ण बेताब
   Feb 15, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

थूक दो ग़ुस्सा,

थूक दो ग़ुस्सा, फिर ऐसा वक़्त आए या न आए
आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की

~ अकबर इलाहाबादी
   Feb 15, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

यूँ तो बरसों न पिलाऊँ

यूँ तो बरसों न पिलाऊँ, न पीऊँ ऐ ज़ाहिद
तौबा करते ही बदल जाती है नीयत मेरी ।

*ज़ाहिद=भक्त,नेक व्यक्ति

~ दाग़

   Feb 15, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Friday, February 13, 2015

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।



आज तुम मेरे लिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।

मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब,
मैं समय के शाप से डरता नहीं अब,
आज कुंतल छाँह मुझपर तुम किए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।


रात मेरी, रात का श्रृंगार मेरा,
आज आधे विश्व से अभिसार मेरा,
तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।

वह सुरा के रूप से मोहे भला क्या,
वह सुधा के स्वाद से जाए छला क्या,
जो तुम्हारे होंठ का मधु-विष पिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।

मृत-सजीवन था तुम्हारा तो परस ही,
पा गया मैं बाहु का बंधन सरस भी,
मैं अमर अब, मत कहो केवल जिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।

~ हरिवंशराय बच्चन
   Feb 13, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

आँसू निकल आए तो


गर पोंछने आए तो फिर, सौदा करेंगे हम।

~ नामालूम
  Feb 13, 2015 | e-kavya.blogspot.com
  Ashok Singh

मुझे दे के मय मेरे साक़िया



मुझे दे के मय मेरे साक़िया, मेरी तिश्नगी को हवा न दे
मेरी प्यास पर भी तो कर नज़र, मुझे मयकशी की सज़ा न दे
*तिश्नगी=प्यास; मयकशी=मद्य-पान

मेरा साथ ऐ मेरे हमसफ़र नहीं चाहता है तो जाम दे
मगर इस तरह सर-ए-रहगुज़र मुझे हर कदम पे सदा न दे
*सर-ए-रहगुज़र=रास्ते में; सदा=पुकार 


मेरा ग़म न कर मेरे चारागर तेरी चाराजोई बजा मगर
मेरा दर्द है मेरी ज़िन्दगी मुझे दर्द-ए-दिल की दवा न दे
*चारागर=चिकित्सक; चाराजोई=फरियाद; बजा=उचित

मैं वहां हूँ अब मेरे नासेहा कि जहाँ खुशी का गुज़र नहीं
मेरा ग़म हदों से गुज़र गया मुझे अब खुशी की दुआ न दे
*नासेहा=धर्मोपदेशक

वो गिराएं शौक़ से बिजलियाँ ये सितम करम है सितम नहीं
के वो 'तर्ज़' बर्क-ए-ज़फ़ा नहीं जो चमक ने नूर-ए-वफ़ा न दे
*ज़फ़ा=बेवफ़ाई; नूर=प्रकाश, आभा; वफ़ा=निष्ठा

~ गणेश बिहारी 'तर्ज़'
   Feb 9, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

निकल आते हैं आंसू हँसते

निकल आते हैं आंसू हँसते - हँसते
ये किस ग़म की कसक है, हर ख़ुशी में
गुज़र जाती है यूँ ही उम्र सारी
किसी को ढूंढते हैं हम, किसी में
सुलगती रेत में पानी कहाँ था
कोई बादल छुपा था, तिश्नगी में
बहुत मुश्किल है बंजारा मिज़ाजी
सलीका चाहिए, आवारगी में

~ निदा फ़ाज़ली
   Feb 9, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

जब तक था दम में दम

जब तक था दम में दम न दबे आसमाँ से हम
जब दम निकल गया तो ज़मीं ने दबा लिया l

~ आबिद जलालपुरी

   Feb 7, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

लग जा गले से

लग जा गले से, ताब ऐ नाज़नी नहीं
हय-हय ख़ुदा के वास्ते, मत कर नहीं नहीं

*ताब=ताकत, विरोध करने की शक्ति; नाज़नी=सुंदर स्त्री

~ जुरअत

   Feb 7, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Saturday, February 7, 2015

प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले



Posted by Ashok Singh
14 mins ·

प्राणों के पाहुन आए औ' चले गए इक क्षण में
हम उनकी परछाईं ही से छले गए इक क्षण में l

कुछ गीला-सा, कुछ सीला-सा अतिथि-भवन जर्जर-सा
आँगन में पतझर के सूखे पत्तों का मर्मर-सा,
आतिथेय के रुद्ध कंठ में स्वागत का घर्घर-सा,
यह स्थिति लखकर अकुलाहट हो क्यों न अतिथि के मन में ?
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले इक क्षण में l

शून्य अतिथिशाळा यह हमने रच-पच क्यों न बनाई ?
जंग को अपनी शिल्प-चातुरी हमने क्यों न जनाई ?
उनके चरणागमन-स्मरण में हमने उमर गँवाई ;
अर्घ्य-दान कर कीच मचा दी हमने अतिथि-सदन में ;
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट पड़े इक क्षण में l

वे यदि रंच पूछते : क्यों है अतिथि-कक्ष यह सीला ?
वे यदि तनिक पूछते : क्यों है स्फुरित वक्ष यह गीला ?
तो हो जाता ज्ञात उन्हें : है यह उनकी ही लीला ;
है पंकिलता आज हमारी माटी के कण-कण में,
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले इक क्षण में l

अतिथि निहारें आज हमारी रीती पतझड़-बेला,
आज दृगों में निपट दुर्दिनों का है जमघट-मेला ;
झड़ी और पतझड़ से ताड़ित जीवन निपट अकेला ;
हम खोए-से खड़े हुए हैं एकाकी आँगन में,
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले इक क्षण में l

~ बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'


   Feb 07, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

या दुपट्टा न लीजिए सर पर

या दुपट्टा न लीजिए सर पर
या दुपट्टा सँभाल कर चलिए

~ अब्दुल हमीद अदम
   Feb 06, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Thursday, February 5, 2015

आइए तकलीफ़ इतनी कीजिए

आइए तकलीफ़ इतनी कीजिए
चाय मेरे साथ ही पी लीजिए

~ असरार जामई

   Feb 05, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

एक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है



दिल में अब तक तेरी उल्फ़त का निशाँ बाक़ी है

जुर्म-ए-तौहीन-ए-मोहब्बत की सज़ा दे मुझको
कुछ तो महरूम-ए-उल्फ़त का सिला दे मुझको
जिस्म से रूह का रिश्ता नहीं टूटा है अभी
हाथ से सब्र का दामन नहीं छूटा है अभी
अभी जलते हुये ख़्वाबों का धुंआ बाक़ी है
* महरूम-ए-उल्फ़त का सिला=प्रेम से दूर रखने की सज़ा; रूह=आत्मा

अपनी नफ़रत से मेरे प्यार का दामन भर दे
दिल-ए-गुस्ताख़ को महरूम-ए-मोहब्बत कर दे
देख टूटा नहीं चाहत का हसीन ताजमहल
आ के बिखरे नहीं महकी हुयी यादों के कँवल
अभी तक़दीर के गुलशन में ख़िज़ा बाकी है
*कँवल=फूल; ख़िज़ा=पतझड़

एक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है
दिल में अबतक तेरी उल्फ़त का निशाँ बाक़ी है

~ मसरूर अनवर


   Feb 05, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Wednesday, February 4, 2015

आज के बिछुड़े न जाने

सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधूँ,
किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ !
जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे !
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

~ नरेन्द्र शर्मा


   Feb 3, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ

Photo: किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

बड़े-बड़े घरों के कचरे पर डोल रहीं,
पता  नहीं कहाँ-कहाँ गंदे पर खोल रहीं,
हर अपाच्य पाच्य इन्हें,
ऐसी हैं प्रचुरगियाँ l 

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

साहस  है, आपस में लड़ना हैं जानतीं,
हैं स्वतन्त्र, दरबे को मात्र कवच मानतीं,
गूदा सब उतर गया,
दीख रही चियाँ-चियाँ l 

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

जिसकी ऊँची कलगी सब उसके साथ लगीं,
उसकी ही चमक-दमक के हैं अनुराग-रँगी,
अंडे कितने देंगी 
जोड़ रहे बैठ मियाँ l 

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l

बड़े-बड़े घरों के कचरे पर डोल रहीं,
पता नहीं कहाँ-कहाँ गंदे पर खोल रहीं,
हर अपाच्य पाच्य इन्हें,
ऐसी हैं प्रचुरगियाँ l

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l

साहस है, आपस में लड़ना हैं जानतीं,
हैं स्वतन्त्र, दरबे को मात्र कवच मानतीं,
गूदा सब उतर गया,
दीख रही चियाँ-चियाँ l

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l

जिसकी ऊँची कलगी सब उसके साथ लगीं,
उसकी ही चमक-दमक के हैं अनुराग-रँगी,
अंडे कितने देंगी
जोड़ रहे बैठ मियाँ l

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


   Feb 03, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

मुद्दत के बाद उसने

मुद्दत के बाद उसने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े ।

*लुत्फ़=प्रेम

~ कैफ़ी आज़मी


   Jan 31, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh