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Saturday, January 31, 2015

लालाजी ने कुत्ते पाले !

Photo: लालाजी ने कुत्ते पाले !
ये झबरे हैं, चितकबरे हैं,
कुछ थुल-थुल, कुछ मरगिल्ले हैं
बनते हैं बुलडॉग दोगले,
लेकिन सब देसी पिल्ले हैं।
ये टुकड़ों पर पलने वाले,
बोटी देख मचलने वाले।
अपने को ही छलने वाले,
महावीर हैं, बड़े उग्र हैं,
मन के मैले, तन के काले !
लालाजी ने कुत्ते पाले !

लालाजी ने कहा कि गाओ,
तो भूं-भूं भुंकियाने वाले।
लालाजी ने कहा कि रोओ,
तो कूं-कूं किकियाने वाले।
लालाजी ने कहा कि काटो,
तो पीछे पिल जाने वाले।
लालाजी ने कहा कि चाटो,
तो थूथरी हिलाने वाले।
घर के शेर, शहर के गीदड़,
पिटकर पूंछ हिलाने वाले,
लालाजी ने कुत्ते पाले ! 

लालाजी के सम्मुख इनका,
आओ, पूंछ हिलाना देखो।
लालाजी के घर पर इनका,
शेरों-सा गुर्राना देखो।
आओ ठाठ जनाना देखो।
लगते ही लकड़ी खुपड़ी पर,
पूछ दबा भग जाना देखो।
ये उनके ही संगी-साथी,
जो इनको नित टुकड़े डाले।
लालाजी ने कुत्ते पाले !

बुद्धिमान हैं, हर खटके पर
आंख खोल चौंका करते हैं।
समझदार हैं, पहले से ही
ये ताका मौका करते हैं।
बड़े विचारक, बात-बात में,
ये अपनी छौंका करते हैं।
पूंजी वालों के प्रहरी हैं
हमको सदा सताते साले,
लालाजी ने कुत्ते पाले ! 

~ गोपालप्रसाद व्यास

लालाजी ने कुत्ते पाले !
ये झबरे हैं, चितकबरे हैं,
कुछ थुल-थुल, कुछ मरगिल्ले हैं
बनते हैं बुलडॉग दोगले,
लेकिन सब देसी पिल्ले हैं।
ये टुकड़ों पर पलने वाले,
बोटी देख मचलने वाले।
अपने को ही छलने वाले,
महावीर हैं, बड़े उग्र हैं,
मन के मैले, तन के काले !
लालाजी ने कुत्ते पाले !

लालाजी ने कहा कि गाओ,
तो भूं-भूं भुंकियाने वाले।
लालाजी ने कहा कि रोओ,
तो कूं-कूं किकियाने वाले।
लालाजी ने कहा कि काटो,
तो पीछे पिल जाने वाले।
लालाजी ने कहा कि चाटो,
तो थूथरी हिलाने वाले।
घर के शेर, शहर के गीदड़,
पिटकर पूंछ हिलाने वाले,
लालाजी ने कुत्ते पाले !

लालाजी के सम्मुख इनका,
आओ, पूंछ हिलाना देखो।
लालाजी के घर पर इनका,
शेरों-सा गुर्राना देखो।
आओ ठाठ जनाना देखो।
लगते ही लकड़ी खुपड़ी पर,
पूछ दबा भग जाना देखो।
ये उनके ही संगी-साथी,
जो इनको नित टुकड़े डाले।
लालाजी ने कुत्ते पाले !

बुद्धिमान हैं, हर खटके पर
आंख खोल चौंका करते हैं।
समझदार हैं, पहले से ही
ये ताका मौका करते हैं।
बड़े विचारक, बात-बात में,
ये अपनी छौंका करते हैं।
पूंजी वालों के प्रहरी हैं
हमको सदा सताते साले,
लालाजी ने कुत्ते पाले !

~ गोपालप्रसाद व्यास


   Jan 31, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

प्रकृति नहीं डरकर झुकती है

प्रकृति नहीं डरकर झुकती है
कभी भाग्य के बल से,
सदा हारती वह मनुष्य के
उद्यम से, श्रमजल से ।

~ रामधारी सिंह दिनकर


   Jan 30, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

इलाही कैसी - कैसी सूरतें

इलाही कैसी - कैसी सूरतें तूने बनाई है,
कि हर सूरत कलेजे से लगा लेने के काबिल है।

~ अकबर इलाहाबादी


   Jan 29, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh
 

Sunday, January 25, 2015

तमाम उम्र तेरा इन्तज़ार





































तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार हम ने किया
इस इंतिज़ार में किस किस से प्यार हम ने किया

तलाश-ए-दोस्त को इक उम्र चाहिए ऐ दोस्त
कि एक उम्र तिरा इंतिज़ार हम ने किया
*तलाश-ए-दोस्त=मित्र की खोज

तेरे ख़याल में दिल शादमाँ रहा बरसों
तिरे हुज़ूर उसे सोगवार हम ने किया
*शादमाँ=आनंदित; सोगवार=दुखी

ये तिश्नगी है के उन से क़रीब रह कर भी
'हफ़ीज़' याद उन्हें बार बार हम ने किया
*तिश्नगी=प्यास

~ हफ़ीज़ होशियारपुरी

   Jan 25, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Saturday, January 24, 2015

ऋतुराज तुम्हारा अभिनन्दन!

Photo: ऋतुराज तुम्हारा अभिनन्दन! 

मस्ती से भरके जबकि हवा
सौरभ से बरबस उलझ पड़ी
तब उलझ पड़ा मेरा सपना
कुछ नये-नये अरमानों से;

गेंदा फूला जब बागों में
सरसों फूली जब खेतों में
तब फूल उठी सहस उमंग
मेरे मुरझाये प्राणों में;

कलिका के चुम्बन की पुलकन
मुखरित जब अलि के गुंजन में
तब उमड़ पड़ा उन्माद प्रबल
मेरे इन बेसुध गानों में;

ले नई साध ले नया रंग
मेरे आंगन आया बसंत
मैं अनजाने ही आज बना
हूँ अपने ही अनजाने में!

जो बीत गया वह बिभ्रम था,
वह था कुरूप, वह था कठोर,
मत याद दिलाओ उस काल की,
कल में असफलता रोती है!

जब एक कुहासे-सी मेरी
सांसें कुछ भारी-भारी थीं,
दुख की वह धुंधली परछाँही
अब तक आँखों में सोती है।

है आज धूप में नई चमक
मन में है नई उमंग आज
जिससे मालूम यही दुनिया
कुछ नई-नई सी होती है;

है आस नई, अभिलास नई
नवजीवन की रसधार नई
अन्तर को आज भिगोती है!
तुम नई स्फूर्ति इस तन को दो,
तुम नई नई चेतना मन को दो,
तुम नया ज्ञान जीवन को दो,
ऋतुराज तुम्हारा अभिनन्दन! 

~ भगवतीचरण वर्मा

ऋतुराज तुम्हारा अभिनन्दन!

मस्ती से भरके जबकि हवा
सौरभ से बरबस उलझ पड़ी
तब उलझ पड़ा मेरा सपना
कुछ नये-नये अरमानों से;

गेंदा फूला जब बागों में
सरसों फूली जब खेतों में
तब फूल उठी सहस उमंग
मेरे मुरझाये प्राणों में;

कलिका के चुम्बन की पुलकन
मुखरित जब अलि के गुंजन में
तब उमड़ पड़ा उन्माद प्रबल
मेरे इन बेसुध गानों में;

ले नई साध ले नया रंग
मेरे आंगन आया बसंत
मैं अनजाने ही आज बना
हूँ अपने ही अनजाने में!

जो बीत गया वह बिभ्रम था,
वह था कुरूप, वह था कठोर,
मत याद दिलाओ उस काल की,
कल में असफलता रोती है!

जब एक कुहासे-सी मेरी
सांसें कुछ भारी-भारी थीं,
दुख की वह धुंधली परछाँही
अब तक आँखों में सोती है।

है आज धूप में नई चमक
मन में है नई उमंग आज
जिससे मालूम यही दुनिया
कुछ नई-नई सी होती है;

है आस नई, अभिलास नई
नवजीवन की रसधार नई
अन्तर को आज भिगोती है!
तुम नई स्फूर्ति इस तन को दो,
तुम नई नई चेतना मन को दो,
तुम नया ज्ञान जीवन को दो,
ऋतुराज तुम्हारा अभिनन्दन!

~ भगवतीचरण वर्मा


   Jan 24, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

हम पर तुम्हारी चाह का

हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
दुशनाम तो नहीं है ये इकराम ही तो है
दिल नाउम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है

*दुशनाम=दुर्वचन; इकराम=इज्जत;

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


   Jan 23, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

जिसे भी देखिये नाराज़ है

जिसे भी देखिये नाराज़ है इस दौरे-हाज़िर से
मगर इस दौरे-हाज़िर से बगावत कौन करता है

बना लेते हैं अपनी-अपनी जन्नत को सभी दोज़ख़
मगर दोज़ख़ से पैदा अपनी जन्नत कौन करता है

कोई दैरो-हरम में जाये या बाहर रहे उनसे
उसे मालूम है उसकी इबादत कौन करता है

खुदा का घर बचाने के लिए लड़ते हैं सब लेकिन
जो घर बन्दों के हैं उनकी हिफ़ाज़त कौन करता है

~ राजेश रेड्डी


   Jan 23, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

तीर पहुंचे नहीं निशानों पर

तीर पहुंचे नहीं निशानों पर
ये भी इल्ज़ाम है कमानों पर

जिस ने लब सी लिए सदा के लिए
उसका चर्चा है सब ज़बानों पर

सर झुकाये खड़े हैं सारे पेड़
और फल सज गए दुकानों पर

सच की दौलत न हाथ आई कभी
उम्र कटती रही बहानों पर

~ सलमान अख़्तर


   Jan 22, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

यें तीरगी, यें अब्तरी

यें तीरगी, यें अब्तरी, यें निकहतें, यें मस्तियाँ
कि खुल पड़ी हो जैसे, वो जुल्फे-अंबरीं कहीं !

*तीरगी=अन्धकार; अब्तरी=अस्त-व्यस्तता; निकहतें=खुशबू; अंबरीं=ख़ुशबूदार

~ 'नामालूम'


   Jan 20, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

आज बसंत की रात



आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!

धूप बिछाए फूल-बिछौना,
बगिय़ा पहने चांदी-सोना,
कलियां फेंके जादू-टोना,
महक उठे सब पात,
हवन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!

बौराई अंबवा की डाली,
गदराई गेहूं की बाली,
सरसों खड़ी बजाए ताली,
झूम रहे जल-पात,
शयन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

खिड़की खोल चंद्रमा झांके,
चुनरी खींच सितारे टांके,
मन करूं तो शोर मचाके,
कोयलिया अनखात,
गहन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

नींदिया बैरिन सुधि बिसराई,
सेज निगोड़ी करे ढिठाई,
तान मारे सौत जुन्हाई,
रह-रह प्राण पिरात,
चुभव की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

यह पीली चूनर, यह चादर,
यह सुंदर छवि, यह रस-गागर,
जनम-मरण की यह रज-कांवर,
सब भू की सौगा़त,
गगन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना। 



*कांवर=क (ब्रह्म, जीव)+अवर अर्थात ब्रह्म और जीव का मिलन यानी जीवत्व का त्याग करके ब्रह्मत्व की प्राप्ति

~ गोपालदास नीरज


   Jan 18, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

कितना कोमल, कितना वत्सल

कितना कोमल, कितना वत्सल,
रे! जननी का वह अंतस्तल,
जिसका यह शीतल करुणा जल,
बहता रहता युग-युग अविरल

~ गोपाल सिंह नेपाली


   Jan 17, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

मुद्दत से उस की छांव में

मुद्दत से उस की छांव में बैठा नहीं कोई
वो सायादार पेड़ इसी ग़म में मर गया ।

~ गुलज़ार


   Jan 15, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

Thursday, January 15, 2015

गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले


 Photo: फ़ैज़ को ग़ालिब का सच्चा उत्तराधिकारी समझा जाता है। इन दोनों के शायरी में, जीवन की कोई भी ऐसी परिस्थिति नहीं होगी, जिसके लिए उपयुक्त शेर या भाव की अभिव्यक्ति आपको न मिल सके। फ़ैज़ की बेहद मशहूर गजल, और एक कोशिश कि यह बेहतरीन गज़ल आप सब तक इसके अनुवाद और अर्थ सहित पहुँचे: 

गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
*बाद-ए-नौबहार=ताज़ा बसंत की बयार; गुलशन=बाग; कारोबार=काम-काज 

##महबूबा से एक फ़रियाद है। 
फूलों में रंग भरने शुरू हों, बसंत की ताज़ी नई हवा चलना शुरू करे, तुम यहाँ आ भी जाओ, एक ठहराव से निकल के बगीचे के रोज़मर्रा के काम तो शुरू हो सकें। 

कफ़स उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बह्र-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
*क़फ़स=पिंजरे (का क़ैदी - शायर); सबा=नर्म हवा; बहरे-खुदा=ईश्वर के लिए; ज़िक्रे-यार=प्रेयसी के बारे में बात
##इस शरीर रूपी पिंजरे का क़ैदी बहुत उदास है, कोई उपाय ऐसा निकले कि ये बंदी जीवन किसी तरह से जीने जैसा बन जाये। मेरे दोस्तों, कोई तो इस ठंडी बयार से कुछ कहो। 
कहीं, किसी तरह, ईश्वर के लिए, मेरी प्रेयसी के बारे में कोई बात शुरू हो 

कभी तो सुब्ह तेरे कुन्ज-ए-लब से हो आगाज़
कभी तो शब् सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले
*आगाज़=शुरुआत; कुन्ज-ए-लब=होंठों (की मुस्कान या चुंबन); शब=रात; सरे-काकुल से मुश्कबार=ज़ुल्फों की कस्तूरी खुशबू
##कभी तो ऐसा हो कि सुबह तुम्हारे होंठो के हल्के स्पर्श या मुस्कान से शुरू हो या कभी रात तुम्हारे कस्तूरी खुशबू से महकती हुयी ज़ुल्फ़ों से मदमस्त हो जाये। 

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे, आयेंगे ग़मगुसार चले
*गमगुसार=दर्द बटाने वाले
##ये दर्द का रिश्ता भी अजीब है, बेवफ़ाई में सब कुछ लुटा देने के बाद भी तुम्हारा दुख बटाने के लिए, तुम्हारे नाम पर तुम्हारे सारे दीवाने चले आएंगे 

जो हम पे गुज़री है सो गुज़री, मगर शब्-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आकबत संवार चले 
*शब्-ए-हिज्राँ=वियोग की रातें; अश्क=आँसू; आक़बत=भविष्य, अगला जन्म 
##जुदाई की रात तो हमने जैसे तैसे गुज़र कर ली, 
लेकिन मेरे आँसू और उनमें निहित तुम्हारे लिए सद्भावना, ज़रूर तुम्हारा आने वाला कल संवार देंगे

हुजूर-ए-यार हुई दफ्तर-ए-जुनून की तलब
गिरह में ले के गरेबान का तार तार चले
*दफ्तर-ए-जुनून=प्रेमासक्ति दस्तावेज़; तलब=बुलावा; गिरह=गाँठ; गरेबान=सिले हुए कपड़े का वह अंश जो गले के चारों ओर पड़ता है
##प्रेयसी की प्रेम अदालत ने दीवानगी के कागजात की तलब की है, एक गाँठ में अपने फटे हाल हुये वज़ूद को बांध कर हम चल पड़े। 

मक़ाम कोई फैज़ राह मे जचा ही नही
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
*मक़ाम=जगह; कू-ए-यार=प्प्रियतमा की गली; सू-ए-दार=मौत या सूली की तरफ़
##प्रेयसी मे ऐसी आसक्ति हो गई है कि अब कोई और ठिकाना मन को भाता ही नहीं है अगर प्रियतमा कि गली नहीं है तो जीवन या मौत में कोई फरक नहीं है 

~ फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'
फ़ैज़ को ग़ालिब का सच्चा उत्तराधिकारी समझा जाता है। इन दोनों की शायरी में, जीवन की कोई भी ऐसी परिस्थिति नहीं होगी, जिसके लिए उपयुक्त शेर या भाव की अभिव्यक्ति आपको न मिल सके। फ़ैज़ की बेहद मशहूर गजल, और एक कोशिश कि यह बेहतरीन गज़ल आप सब तक इसके अनुवाद और अर्थ सहित पहुँचे:

गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
*बाद-ए-नौबहार=ताज़ा बसंत की बयार; गुलशन=बाग; कारोबार=काम-काज
##महबूबा से एक फ़रियाद है।
फूलों में रंग भरने शुरू हों, बसंत की ताज़ी नई हवा चलना शुरू करे, तुम यहाँ आ भी जाओ, एक ठहराव से निकल के बगीचे के रोज़मर्रा के काम तो शुरू हो सकें।

कफ़स उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बह्र-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
*क़फ़स=पिंजरे (का क़ैदी - शायर); सबा=नर्म हवा; बहरे-खुदा=ईश्वर के लिए; ज़िक्रे-यार=प्रेयसी के बारे में बात
##इस शरीर रूपी पिंजरे का क़ैदी बहुत उदास है, कोई उपाय ऐसा निकले कि ये बंदी जीवन किसी तरह से जीने जैसा बन जाये। मेरे दोस्तों, कोई तो इस ठंडी बयार से कुछ कहो।
कहीं, किसी तरह, ईश्वर के लिए, मेरी प्रेयसी के बारे में कोई बात शुरू हो

कभी तो सुब्ह तेरे कुन्ज-ए-लब से हो आगाज़
कभी तो शब् सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले
*आगाज़=शुरुआत; कुन्ज-ए-लब=होंठों (की मुस्कान या चुंबन); शब=रात; सरे-काकुल से मुश्कबार=ज़ुल्फों की कस्तूरी खुशबू
##कभी तो ऐसा हो कि सुबह तुम्हारे होंठो के हल्के स्पर्श या मुस्कान से शुरू हो या कभी रात तुम्हारे कस्तूरी खुशबू से महकती हुयी ज़ुल्फ़ों से मदमस्त हो जाये।

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे, आयेंगे ग़मगुसार चले
*गमगुसार=दर्द बटाने वाले
##ये दर्द का रिश्ता भी अजीब है, बेवफ़ाई में सब कुछ लुटा देने के बाद भी तुम्हारा दुख बटाने के लिए, तुम्हारे नाम पर तुम्हारे सारे दीवाने चले आएंगे

जो हम पे गुज़री है सो गुज़री, मगर शब्-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आकबत संवार चले
*शब्-ए-हिज्राँ=वियोग की रातें; अश्क=आँसू; आक़बत=भविष्य, अगला जन्म
##जुदाई की रात तो हमने जैसे तैसे गुज़र कर ली,
लेकिन मेरे आँसू और उनमें निहित तुम्हारे लिए सद्भावना, ज़रूर तुम्हारा आने वाला कल संवार देंगे

हुजूर-ए-यार हुई दफ्तर-ए-जुनून की तलब
गिरह में ले के गरेबान का तार तार चले
*दफ्तर-ए-जुनून=प्रेमासक्ति दस्तावेज़; तलब=बुलावा; गिरह=गाँठ; गरेबान=सिले हुए कपड़े का वह अंश जो गले के चारों ओर पड़ता है
##प्रेयसी की प्रेम अदालत ने दीवानगी के कागजात की तलब की है, एक गाँठ में अपने फटे हाल हुये वज़ूद को बांध कर हम चल पड़े।

मक़ाम कोई फैज़ राह मे जचा ही नही
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
*मक़ाम=जगह; कू-ए-यार=प्प्रियतमा की गली; सू-ए-दार=मौत या सूली की तरफ़
##प्रेयसी मे ऐसी आसक्ति हो गई है कि अब कोई और ठिकाना मन को भाता ही नहीं है अगर प्रियतमा कि गली नहीं है तो जीवन या मौत में कोई फरक नहीं है

~ फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'


   Jan 14, 2015  | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh