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Sunday, December 31, 2017

मैं पीछे मुड़ कर देखूँगा

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मैं पीछे मुड़ कर देखूँगा
और तुम्हारे प्राण
चुक जाएँगे।
मेरा गायन (और मेरा जीवन)
इस में है कि तुम हो,
पर तुम्हारे प्राण इस में हैं
कि मैं गाता रहूँ और बढ़ता जाऊँ,
और मुड़ कर न देखूँ।
कि यह विश्वास मेरा बना रहे
कि तुम पीछे पीछे आ रही हो
कि मेरा गीत तुम्हें
मृत्यु के पाश से मुक्त करता हुआ
प्रकाश में ला रहा है।
प्रकाश!
तुम में नहीं है प्रकाश
प्रकाश! मुझ में भी नहीं है
प्रकाश गीत में है।
पर नहीं
प्रकाश गीत में भी नहीं है;
वह इस विश्वास में है
कि गीत से प्राण मिलते हैं।
कि गीत प्राण फूँकता है।
कि गीत है तो प्राणवत्ता है
और वह है जो प्राणवान है।
क्यों कि सब कुछ तो उसका है
जो प्राणवान् है
वह नहीं है तो क्या है?

गा गया वह गीत खिल गया
वसन्त नीलिम, शुभ्र, वासन्ती।
वह कौन?
पाना मुझे है!
मेरी तड़प है आग
जिसमें वह ढली!
मेरी साँस के बल
चली वह आ रही है।
नहीं, मुड़ कर नहीं देखूँगा।
क्योंकर खिले होते फूल
नीलिम, शुभ्र, वासन्ती
यदि मैं ही न गाता
और सुर की डोर से ही बँधी
पीछे वह न आती

‍~ अज्ञेय


  Dec 31, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मैं भी अंधियारे से समझौता

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मैं भी अंधियारे से समझौता कर लेता,‎
चांदनी न यदि कर जाती मन पर हस्ताक्षर

धर विविध रूप जग में करता है अंधियारा
मैं कई बार अपनी जीती बाज़ी हारा
पर चरण रहे गतिशील ठोकरें खा कर भी
मन तम के हाथों बिका नहीं झुंझला कर भी,‎
चिंतक की लौ देती प्रति क्षण आलोक रही ‎
भटका भरमाया किंतु पा गया पंथ सही ‎
मैं भी पोखर से अपनी प्यास बुझा लेता
उल्लास न यदि अंतर में भर जाता निर्झर।

है महानगर में शोर, शोर में महानगर
बरबस हथेलियाँ बंद कर रहीं कर्ण कुहर
नागरिक नहीं रहते, रहती है भीड़ यहाँ
सारे सराय लगते हैं अपने नीड़ यहाँ
सकुची शरमार्ई यहाँ सहजता रहती है
उल्लसित कुटिलता के हाथों दुख सहती है
मैं भी कौओं के स्वर पर वाह-वाह करता
यदि सुन न लिया होता मैंने कोयल का स्वर।

कोकिला, सारिका पपीहा रहते मौन यहाँ,‎
इनके स्वर अर हर्षाने वाला कौन यहाँ,‎
चिल्लाते हैं सब यहाँ न कोई बतियाता
धीमा स्वर इस बस्ती को रास नहीं आता ‎
कृत्रिमता है यथार्थ की चूनर से सज्जित
भोला यथार्थ आवरणहीन ख़ुद में लज्जित
मैं भी चंदन के बदले शीशम घिस लेता
परिचित अगर न होती चंदन की गंध मुखर।

~ देवराज दिनेश


  Dec 30, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तुम्हारे घर में दरवाज़ा है

तुम्हारे घर में दरवाज़ा है
लेकिन तुम्हें ख़तरे का अंदाज़ा नहीं है
हमें ख़तरे का अंदाज़ा है
लेकिन हमारे घर में दरवाज़ा नहीं है

~ 'नामालूम'


  Dec 28, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि

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मिर्ज़ा ग़ालिज़ की 220वीं जन्म-तिथि पर:

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
मक़्दूर हो तो साथ रखूँ नौहागर को मैं
*मक़्दूर=ताकत; नौहागर=शोक करने वाला

छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
हर इक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं
*रश्क=ईर्ष्या

जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
ऐ काश जानता न तिरे रह-गुज़र को मैं

है क्या जो कस के बाँधिए मेरी बला डरे
क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं

लो वो भी कहते हैं कि ये बे-नंग-ओ-नाम है
ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं
*बे-नंग-ओ-नाम=बिना नाम या पहचान

चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं

ख़्वाहिश को अहमक़ों ने परस्तिश दिया क़रार
क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदाद-गर को मैं
*अहमक़=मूर्ख; परस्तिश=पूजा; बुत-ए-बेदाद-गर=निरंकुश बुत

फिर बे-ख़ुदी में भूल गया राह-ए-कू-ए-यार
जाता वगरना एक दिन अपनी ख़बर को मैं
*राह-ए-कू-ए-या=मित्र की गली

अपने पे कर रहा हूँ क़यास अहल-ए-दहर का
समझा हूँ दिल-पज़ीर मता-ए-हुनर को मैं
*यास=अंदाज़ा; दहर= दुनिया; दिल-पजीर=जो दिल को भाये; मता=सामान

'ग़ालिब' ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-नाज़
देखूँ अली बहादुर-ए-आली-गुहर को मैं
*समन्द-ए-नाज़=कुलीन अश्व

~ मिर्ज़ा ग़ालिब


  Dec 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हटता जाता है नभ से तम

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हटता जाता है नभ से तम
संख्या तारों की होती कम
उषा झांकती उठा क्षितिज से बादल की चादर का कोना
शुरू हुआ उजियाला होना

ओस कणों से निर्मल–निर्मल
उज्ज्वल–उज्ज्वल, शीतल–शीतल
शुरू किया प्रातः समीर ने तरु–पल्लव–तृण का मुँह धोना
शुरू हुआ उजियाला होना

किसी बसे द्रुम की डाली पर
सद्यः जागृत चिड़ियों का स्वर
किसी सुखी घर से सुन पड़ता है नन्हें बच्चों का रोना
शुरू हुआ उजियाला होना

~ हरिवंश राय बच्चन

  Dec 25, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 24, 2017

हर एक बात पे कहते हो



हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
*अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू=बात करने का तरीका

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोख़-ए-तुंद-ख़ू क्या है
*शोख़-ए-तुंद-ख़ू=शरारत, अकड़

ये रश्क है कि वो होता है हम-सुख़न तुम से
वगर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़ी-ए-अदू क्या है
*रश्क़=ईर्ष्या; हम-सुख़न=बातचीत; ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़ी-ए-अदू=दुश्मन के डराने का डर

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारे जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है
*पैराहन=लिबास; हाजत-ए-रफ़ू=रफू की ज़रूरत

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है
*जुस्तुजू=तलाश, इच्छा

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क-बू क्या है
*बहिश्त=स्वर्ग; -ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क-बू =गुलाबी रंग की कस्तूरी जैसी महकती हुई शराब

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा ओ क़दह ओ कूज़ा ओ सुबू क्या है
*खूम=शराब के बैरल; शीशा ओ क़दह ओ कूज़ा ओ सुबू= बोतल, प्याला, सुराही

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है
*ताक़त-ए-गुफ्तार=बोलने की ताक़त

हुआ है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है
*शाह=शंहशाह; मुसाहिब=दरबारी

~ मिर्ज़ा ग़ालिब


  Dec 24, 2017| e-kavya.blogspot.com
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हज़रत ए दिल आप हैं

हज़रत ए दिल आप हैं जिस ध्यान में
मर गये लाखों उसी अरमान में।

~ दाग़ देहलवी

  Dec 23, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 23, 2017

इत्तिफ़ाक़ अपनी जगह


इत्तिफ़ाक़ अपनी जगह ख़ुश-क़िस्मती अपनी जगह
ख़ुद बनाता है जहाँ में आदमी अपनी जगह

कह तो सकता हूँ मगर मजबूर कर सकता नहीं
इख़्तियार अपनी जगह है बेबसी अपनी जगह
*इख़्तियार=काबू; नियंत्रण

कुछ न कुछ सच्चाई होती है निहाँ हर बात में
कहने वाले ठीक कहते हैं सभी अपनी जगह
*निहाँ=छुपा हुआ/हुई

सिर्फ़ उस के होंट काग़ज़ पर बना देता हूँ मैं
ख़ुद बना लेती है होंटों पर हँसी अपनी जगह

दोस्त कहता हूँ तुम्हें शाएर नहीं कहता 'शुऊर'
दोस्ती अपनी जगह है शाएरी अपनी जगह

~ अनवर शऊर

  Dec 23, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 22, 2017

मैं भी काफ़िर, तू भी क़ाफ़िर


मैं भी काफ़िर, तू भी क़ाफ़िर
फूलों की खुशबू भी काफ़िर
शब्दों का जादू भी काफ़िर
यह भी काफिर, वह भी काफिर
फ़ैज़ भी और मंटो भी काफ़िर

नूरजहां का गाना काफिर
मैकडोनैल्ड का खाना काफिर
बर्गर काफिर, कोक भी काफ़िर
हंसी गुनाह, जोक भी काफ़िर
तबला काफ़िर, ढोल भी काफ़िर
प्यार भरे दो बोल भी काफ़िर
सुर भी काफिर, ताल भी काफ़िर
भांगरा, नाच, धमाल भी काफ़िर
दादरा, ठुमरी, भैरवी काफ़िर
काफी और खयाल भी काफ़िर

वारिस शाह की हीर भी काफ़िर
चाहत की ज़ंजीर भी काफ़िर
जिंदा-मुर्दा पीर भी काफ़िर
भेंट नियाज़ की खीर भी काफ़िर
बेटे का बस्ता भी काफ़िर
बेटी की गुड़िया भी काफ़िर
हंसना-रोना कुफ़्र का सौदा
गम काफ़िर, खुशियां भी काफ़िर
जींस भी और गिटार भी काफ़िर

टखनों से नीचे बांधो तो
अपनी यह सलवार भी काफ़िर
कला और कलाकार भी काफ़िर
जो मेरी धमकी न छापे
वह सारे अखबार भी काफ़िर
यूनिवर्सिटी के अंदर काफ़िर
डार्विन भाई का बंदर काफ़िर
फ्रायड पढ़ने वाले काफ़िर
मार्क्स के सब मतवाले काफ़िर

मेले-ठेले कुफ़्र का धंधा
गाने-बाजे सारे फंदा
मंदिर में तो बुत होता है
मस्जिद का भी हाल बुरा है
कुछ मस्जिद के बाहर काफ़िर
कुछ मस्जिद में अंदर काफ़िर
मुस्लिम देश के अक्सर काफ़िर
काफ़िर काफ़िर मैं भी काफ़िर
काफ़िर काफ़िर तू भी काफ़िर

~ सलमान हैदर


  Dec 22, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आए तो यूँ कि जैसे

आए तो यूँ कि जैसे
हमेशा थे मेहरबान
भूले तो यूँ कि गोया
कभी आश्ना न थे

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

  Dec 20, 2017| e-kavya.blogspot.com
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क्या बात निराली है मुझ में

 
क्या बात निराली है मुझ में किस फ़न में आख़िर यकता हूँ
क्यूँ मेरे लिए तुम कुढ़ते हो मैं ऐसा कौन अनोखा हूँ
*यकता=अद्वितीय

वो लम्हा याद करो जब तुम इस क़ल्ब-सरा में आए थे
उस रोज़ से अपना हाल है ये कभी हँसता हूँ कभी रोता हूँ
*क़ल्ब=हृदय;सरा=सराय

कुछ भूली-बिसरी यादों का अलबेला शहर बसाया है
कोई वक़्त मिले तो आ निकलो यहीं मिलता हूँ यहीं रहता हूँ

कुछ और बढ़े इस रस्ते में अन्फ़ास-ए-रिफ़ाक़त की ख़ुश्बू
तुम साथ सही हमराह सही मैं फिर भी तन्हा तन्हा हूँ
*अन्फ़ास-ए-रिफ़ाक़त=साँसों का साथ

मैं ख़ाक-बसर मैं अर्श-नशीं मैं सब कुछ हूँ मैं कुछ भी नहीं
मैं तेरे गुमाँ से पत्थर हूँ मैं तेरे यक़ीं से हीरा हूँ
*ख़ाक-बसर =धूल मे पड़ा हुआ; अर्श-नशीं=आसमान पर बैठने वाला

~ अतहर नफ़ीस


  Dec 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
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ख़्वाहिश परी की है

ख़्वाहिश परी की है न तमन्ना है हूर की
आँखों के आगे बस रहे सूरत हुज़ूर की

~ हमदम अकबराबादी

  Dec 18, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 17, 2017

दर्द

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दर्द का कोई
वर्ग नहीं होता
प्रजाति नहीं होती
जाति नहीं होती
दर्द, बस दर्द होता है

एक-सा स्वाद सबको देता है
सब पर एक-सा असर करता है
चाहे नज़ाकत से करे
या पूरी शिद्दत से
कोई फर्क नहीं करता
हाथ या गहरे कहीं पीठ में
कसमसाते दांत मरोड़ खाते पेट या धकधकाते दिल में
आंख ही रोती है हर दर्द के लिए
सीना ही हिलकता है हर दर्द के लिए

दर्द उठता हो कहीं भी
साझा होता है पूरे आकार में
चाहना एक ही जगाता है सब में
कि बस ढीले हो जाएं बेतरह खिंचे तंतु
बंधनहीन हों मज्जा के गुच्छे
ढूंढता है शरीर
आराम की कोई मुद्रा
इत्मीनान की एक मुद्रा

जीवन दर्द की एक यात्रा है
सैकड़ों दर्द के पड़ावों से गुजरते हैं हम
जैसे पहाड़ों पर मील के पत्थर गिनते
पार करते ऊपर उठते हैं हम
दर्द की यह यात्रा
हर एक की अपनी है
अकेली है
कुव्वत है, काबिलियत है, चाहत है

कहते हैं, दर्द को दर्द से ही राहत है
याद आता है तो रहता है
भटका दो उसे, भुला दो उसे
उलझा दो उसे दुनिया के किसी शगल में
वह भोला रम जाता है उसी में
भुला देता है वह मुझे, मैं उसे
मगर फिर शाम होते-होते जहाज का पंछी
लौट आता है अपने ठौर
ज्यादा अधिकार के साथ
गहराता है, अंधेरे के साथ अथाह सागर सा
तभी कौंधता है एक मोती गुम होने से ठीक पहले
दर्द-रहित मिलती है एक झपकी
सबसे असावधान मुद्रा में
असतर्क, समर्पण की स्थिति में
वह छोटी झपकी
आंखें खुलती हैं और
दर्द से फिर एकाकार
सतर्कता की एक और मुद्रा
राहत पाने की एक और कोशिश
दर्द की एक और मुद्रा

‍ ~ आर. अनुराधा

  Dec 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
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ग़ुनूदगी सी रही तारी

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ग़ुनूदगी सी रही तारी उम्र भर हम पर
ये आरज़ू ही रही थोड़ी देर सो लेते
ख़लिश मिली है मुझे और कुछ नहीं अब तक
तिरे ख़याल से ऐ काश दर्द धो लेते
*ग़ुनूदगी=सुस्ती, नींद; तारी=छायी; ख़लिश=दर्द

मिरे अज़ीज़ो मिरे दोस्तो गवाह रहो
बिरह की रात कटी आमद-ए-सहर न हुई
शिकस्ता-पा ही सही हम-सफ़र रहा फिर भी
उम्मीद टूटी कई बार मुंतशिर न हुई
*आमद-ए-सहर=सुबह का आगमन; शिकस्ता=टूटा हुआ; मुंतशिर=बिखरी

हयूला कैसे बदलता है वक़्त हैराँ हूँ
फ़रेब और न खाए निगाह डरता हूँ
ये ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी है पल पल में
हज़ार बार सँभलता हूँ और मरता हूँ
*हयूला=धातु, तत्व

वो लोग जिन को मुसाफ़िर-नवाज़ कहते थे
कहाँ गए कि यहाँ अजनबी हैं साथी भी
वो साया-दार शजर जो सुना था राह में हैं
सब आँधियों ने गिरा डाले अब कहाँ जाएँ
ये बोझ और नहीं उठता कुछ सबील करो
चलो हँसेंगे कहीं बैठ कर ज़माने पर
*सबील= उपाय; युक्ति

~ अख़्तर-उल-ईमान

  Dec 16, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 15, 2017

माई री! मैं कासे कहूँ

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"माई री! मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की, माई री"
जब भी सुनती हूँ मैं गीत, आपका मीरा बाई,
सोच में पड़ जाती हूँ, वो क्या था
जो माँ से भी आपको कहते नहीं बनता था,

हालांकि संबोधन गीतों का
अकसर वह होती थीं!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में पिछवाड़े का ढाबा!
दस बरस का छोटू प्यालियाँ धोता-चमकाता
क्या सोचकर अपने उस खटारा टेप पर
बार-बार ये ही वाला गीत आपका बजाता है!

लक्षण तो हैं उसमें
क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा,
किसी नन्ही-सी मीरा का मनचीता.
अड़ियल नहीं, ज़रा मीठा!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूँढती ही रह गईं कोई ऐसा
जिन्हें देख मन में जगे प्रेम का हौसला!

लोग मिले - पर कैसे-कैसे -
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ,
वफ़ादार नहीं, दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़ प्रतिज्ञ कहाँ, सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं, मालिक,
सामजिक नहीं, सिर्फ एकांत भीरु
धार्मिक नहीं, केवल कट्टर

कटकटाकर हरदम पड़ते रहे वे
अपने प्रतिपक्षियों पर -
प्रतिपक्षी जो आखिर पक्षी ही थे,
उनसे ही थे.
उनके नुचे हुए पंख
और चोंच घायल!

ऐसों से क्या खाकर हम करते हैं प्यार!
सो अपनी वरमाला
अपनी ही चोटी में गूंथी
और कहा खुद से -
"एकोहऽम बहुस्याम"

वो देखो वो -
प्याले धोता नन्हा घनश्याम!
आत्मा की कोख भी एक होती है, है न!
तो धारण करते हैं
इस नयी सृष्टि की हम कल्पना

जहाँ ज्ञान संज्ञान भी हुआ करे,
साहस सद्भावना!

~ अनामिका


  Dec 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मिलाते हो उसी को ख़ाक में

मिलाते हो उसी को ख़ाक में
जो दिल से मिलता है,
मिरी जाँ चाहने वाला
बड़ी मुश्किल से मिलता है

~ दाग़ देहलवी



  Dec 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 10, 2017

तुम भी रहने लगे ख़फ़ा

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तुम भी रहने लगे ख़फ़ा साहब
कहीं साया मिरा पड़ा साहब

है ये बंदा ही बेवफ़ा साहब
ग़ैर और तुम भले भला साहब

क्यूँ उलझते हो जुम्बिश-ए-लब से
ख़ैर है मैं ने क्या किया साहब
*जुम्बिश-ए-लब=होठों की कम्पन

क्यूँ लगे देने ख़त्त-ए-आज़ादी
कुछ गुनह भी ग़ुलाम का साहब
*ख़त्त-ए-आज़ादी=आज़ादी नामा

हाए री छेड़ रात सुन सुन के
हाल मेरा कहा कि क्या साहब

दम-ए-आख़िर भी तुम नहीं आते
बंदगी अब कि मैं चला साहब

सितम आज़ार ज़ुल्म ओ जौर ओ जफ़ा
जो किया सो भला किया साहब
*आज़ार=बीमारी

किस से बिगड़े थे किस पे ग़ुस्सा था
रात तुम किस पे थे ख़फ़ा साहब

किस को देते थे गालियाँ लाखों
किस का शब ज़िक्र-ए-ख़ैर था साहब

नाम-ए-इश्क़-ए-बुताँ न लो 'मोमिन'
कीजिए बस ख़ुदा ख़ुदा साहब

~ मोमिन

  Dec 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आती बहुत क़रीब से

आती बहुत क़रीब से ख़ुश्बू है यार की
जारी इधर उधर ही कहीं दौर-ए-जाम है

~ अब्दुल हमीद अदम

  Dec 09, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 9, 2017

सूरज डूब चुका है

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सूरज डूब चुका है,
मेरा मन दुनिया से ऊब चुका है ।

सुबह उषा-किरनों ने मुझको यों दुलराया,
जैसे मेरा तन उनके मन को हो भाया,
शाम हुई तो फेरी सब ने अपनी बाँहें,
खत्म हुईं दिन-भर की मेरी सारी चाहें
धरती पर फैला अँधियाला,
रंग-बिरंगी आभा वाला,
सूरज डूब चुका है।

फूलों ने अपनी मुस्कान बिखेरी भू पर
दिया मुझे खुश रहने का सन्देश निरन्तर,
ज़िन्दा रहने की साधें मुझ तक भी आयीं,
शाम हुई, सरसिज की पाँखें क्या मुरझायीं-
मन का सारा मिटा उजाला,
धरती का श्रृंगार निराला,
सूरज डूब चुका है।

सुरभि,फूल,बादल,विहगों के गीत सजीले,
बीते दिन में देखे कितने स्वप्न सजीले,
दिन भर की खुशियों के साथी चले गये यों,
बने और बिगड़े आँखों में ताश-महल ज्यों,
घिरा रात का जादू काला,
राख बनी किरनों की ज्वाला,
सूरज डूब चुका है।

~ अजित कुमार


  Dec 09, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 8, 2017

किसे जाना कहाँ है...

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किसे जाना कहाँ है मुनहसिर होता है इस पर भी
भटकता है कोई बाहर तो कोई घर के भीतर भी
*मुनहसिर=निर्भर

किसी को आस बादल से कोई दरियाओं का तालिब
अगर है तिश्ना-लब सहरा तो प्यासा है समुंदर भी

शिकस्ता ख़्वाब की किर्चें पड़ी हैं आँख में शायद
नज़र में चुभता है जब तब अधूरा सा वो मंज़र भी
*शिकस्ता=टूटी हुई;किर्चें=छोटे छोटे टुकड़े

सुराग़ इस से ही लग जाए मिरे होने न होने का
गुज़र कर देख ही लेता हूँ अपने में से हो कर भी

जिसे परछाईं समझे थे हक़ीक़त में न पैकर हो
परखना चाहिए था आप को उस शय को छू कर भी
* पैकर=आकार

पलट कर मुद्दतों बअ'द अपनी तहरीरों से गुज़रूँ तो
लगे अक्सर कि हो सकता था इस से और बेहतर भी
*तहरीर=लिखावट

~ अखिलेश तिवारी


  Dec 08, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 3, 2017

पहले- पहले प्यार में

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आँखों में फागुन की मस्ती
होठों पर वासंती हलचल
मतवाला मन भीग रहा है
बूंदों के त्यौहार में,
शायद ऐसा ही होता है
पहले- पहले प्यार में।

पैरों की पायल छनकी, कंगन खनका
हर आहट पर चौंक-चौंक जाना मन का
साँसों का देहरी छू - छूकर आ जाना
दर्पण का खुद दर्पण से ही शरमाना
और धड़कना हर धड़कन का
सपनों के संसार में।

भंग चढ़ाकर बौराया बादल डोले
नदिया में दो पाँव हिले हौले-हौले
पहली-पहली बार कोई नन्ही चिड़िया
अम्बर में उड़ने को अपने पर खोले
हिचकोले खाती है नैया
मस्ती से मझधार में।

जिन पैरों में उछला करता था बचपन
कैसी बात हुई कि बदल गया दरपन
होता है उन्मुक्त अनोखा ये बन्धन
रोम रोम पूजा साँसे चन्दन-चन्दन
बिन माँगे सब कुछ मिल जाता
आँखों के व्यापार में।

~ कीर्ति काले

  Dec 03, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 2, 2017

तमन्नाओं को ज़िंदा

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तमन्नाओं को ज़िंदा आरज़ूओं को जवाँ कर लूँ
ये शर्मीली नज़र कह दे तो कुछ गुस्ताख़ियाँ कर लूँ

बहार आई है बुलबुल दर्द-ए-दिल कहती है फूलों से
कहो तो मैं भी अपना दर्द-ए-दिल तुम से बयाँ कर लूँ

हज़ारों शोख़ अरमाँ ले रहे हैं चुटकियाँ दिल में
हया उन की इजाज़त दे तो कुछ बेबाकियाँ कर लूँ

कोई सूरत तो हो दुनिया-ए-फ़ानी में बहलने की
ठहर जा ऐ जवानी मातम-ए-उम्र-ए-रवाँ कर लूँ
*दुनिया-ए-फ़ानी=न:श्वर दुनिया; मातम-ए-उम्र-ए-रवाँ=गुज़रती जा रही उम्र का अफ़सोस

चमन में हैं बहम परवाना ओ शम्अ ओ गुल ओ बुलबुल
इजाज़त हो तो मैं भी हाल-ए-दिल अपना बयाँ कर लूँ
*बहम=मिले हुये

किसे मालूम कब किस वक़्त किस पर गिर पड़े बिजली
अभी से मैं चमन में चल कर आबाद आशियाँ कर लूँ

बर आएँ हसरतें क्या क्या अगर मौत इतनी फ़ुर्सत दे
कि इक बार और ज़िंदा शेवा-ए-इश्क़-ए-जवाँ कर लूँ
*शेवा=आदत

मुझे दोनों जहाँ में एक वो मिल जाएँ गर 'अख़्तर'
तो अपनी हसरतों को बे-नियाज़-ए-दो-जहाँ कर लूँ
*बे-नियाज़-ए-दो-जहाँ =दोनो लोकों की इच्छाओं से मुक्त

‍~ अख़्तर शीरानी


  Dec 02, 2017| e-kavya.blogspot.com
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इधर फ़लक को है ज़िद


इधर फ़लक को है ज़िद बिजलियाँ गिराने की
उधर हमें भी है धुन आशियाँ बनाने की

~ नामालूम

  Dec 01, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 1, 2017

तारों से सोना बरसा था

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तारों से सोना बरसा था, चश्मों से चांदी बहती थी
फूलों पर मोती बिखरे थे, जर्रों की किस्मत चमकी थी
कलियों के लब पर नग्मे थे, शाखों पै वज्द सा तारी था
खुशबू के खजाने लुटते थे, और दुनिया बहकी बहकी थी
ऐ दोस्त तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं

सूरज की नरम सुआओं से कलियों के रूप निखरते हों
सरसों की नाजुक शाखों पर सोने के फूल लचकते हों
जब ऊदे-ऊदे बादल से अमृत की धारें बहती थीं
और हल्की-हल्की खुनकी में दिल धीरे-धीरे तपते थे
ऐ दोस्त तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं

फूलों के सागर अपने थे, शबनम की सहबा अपनी थी
जर्रों के हीरे अपने थे, तारों की माला अपनी थी
दरिया की लहरें अपनी थीं, लहरों का तरन्नुम अपना था
जर्रों से लेकर तारों तक यह सारी दुनिया अपनी थी
ऐ दोस्त तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं

~ 'अज्ञात'


  Dec 01, 2017| e-kavya.blogspot.com
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ये मुमकिन है कि मिल जाएँ

 
ये मुमकिन है कि मिल जाएँ तिरी खोई हुई चीज़ें 
क़रीने से सजा कर रखा ज़रा बिखरी हुई चीज़ें

कभी यूँ भी हुआ है हँसते हँसते तोड़ दी हम ने
हमें मालूम था जुड़ती नहीं टूटी हुई चीज़ें

ज़माने के लिए जो हैं बड़ी नायाब और महँगी
हमारे दिल से सब की सब हैं वो उतरी हुई चीज़ें

दिखाती हैं हमें मजबूरियाँ ऐसे भी दिल अक्सर
उठानी पड़ती हैं फिर से हमें फेंकी हुई चीज़ें

किसी महफ़िल में जब इंसानियत का नाम आया है
हमें याद आ गई बाज़ार में बिकती हुई चीज़ें

~ हस्तीमल हस्ती

  Nov 30, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आहट हुई देखो ज़रा

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आहट हुई देखो ज़रा
कोई नहीं, कोई नहीं!

आना जिन्हें था, आ चुके
गठरी सुखों की लादकर
कुछ द्वार से आए
कई दीवार ऊँची फाँदकर
लेकिन है कोई और ही
जिसकी प्रतीक्षा है मुझे
यों ही गईं रातें कई
मैं नींद भर सोई नहीं!

मेले यहाँ सजते रहे
हँसती रहीं रंगीनियाँ
सादी हँसी को गेह की
डँसती रहीं रंगीनियाँ
बनते गए सब अजनबी
पागल हवस की होड़ में
इक दर्द मेरे साथ था
मैं भीड़ में खोई नहीं!

मेरी चमन की वास
उसके घर गई, अच्छा लगा
उसके अजिर के अश्रु से
मैं भर गई, अच्छा लगा
लेकिन चुभे जब खार
अपने ही दुखों के देह में
आँसू उमड़ भीतर उठे
पर चुप रही, रोई नहीं!

आहट हुई देखो ज़रा
कोई नहीं, कोई नहीं!

~ रामदरश मिश्र


  Nov 23, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे

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मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे
मुक़द्दर में चलना था चलते रहे

मिरे रास्तों में उजाला रहा
दिए उस की आँखों में जलते रहे

कोई फूल सा हाथ काँधे पे था
मिरे पाँव शो'लों पे जलते रहे

सुना है उन्हें भी हवा लग गई
हवाओं के जो रुख़ बदलते रहे

वो क्या था जिसे हम ने ठुकरा दिया
मगर उम्र भर हाथ मलते रहे

मोहब्बत अदावत वफ़ा बे-रुख़ी
किराए के घर थे बदलते रहे

लिपट कर चराग़ों से वो सो गए
जो फूलों पे करवट बदलते रहे

~ बशीर बद्र


  Nov 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 18, 2017

जनम के सिरजे हुए दुख

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जनम के सिरजे हुए दुख
उम्र बन-बनकर कटेंगे
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

कुआँ अँधा बिना पानी
घूमती यादें पुरानी
प्यास का होना वसंती
तितलियों से छेड़खानी
झरे फूलों से पहाड़े
गंध के कब तक रटेंगे?
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

चढ़ गये सारे नसेड़ी
वक़्त की मीनार टेढ़ी
'गिर रही है- गिर रही है'
हवाओं ने तान छेड़ी
मचेगी भगदड़ कि कितने स्वप्न
लाशों से पटेंगे
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

परिंदे फिर चमन में
खेत बागों में कि वन में
चहचहायेंगे
नदी बहती रहेगी उसी धुन में
चप्पुओं के स्वर लहर बनकर
कछारों तक उठेंगे
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

~ दिनेश सिंह


  Nov 18, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 17, 2017

यार को मैं ने मुझे यार ने


यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर ताला'-ए-बेदार ने सोने न दिया
*ताला'-ए-बेदार=जागा हुआ नसीब

ख़ाक पर संग-ए-दर-ए-यार ने सोने न दिया
धूप में साया-ए-दीवार ने सोने न दिया
*संग-ए-दर-ए-यार=यार की दहलीज़ का पत्थर;

शाम से वस्ल की शब आँख न झपकी ता-सुब्ह
शादी-ए-दौलत-ए-दीदार ने सोने न दिया
*शादी-ए-दौलत-ए-दीदार=तेखने की खुशी की दौलत

एक शब बुलबुल-ए-बेताब के जागे न नसीब
पहलु-ए-गुल में कभी ख़ार ने सोने न दिया

जब लगी आँख कराहा ये कि बद-ख़्वाब किया
नींद भर कर दिल-ए-बीमार ने सोने न दिया

दर्द-ए-सर शाम से उस ज़ुल्फ़ के सौदे में रहा
सुब्ह तक मुझ को शब-ए-तार ने सोने न दिया
*शब-ए-तार=काली रात

रात भर कीं दिल-ए-बेताब ने बातें मुझ से
रंज ओ मेहनत के गिरफ़्तार ने सोने न दिया

सैल-ए-गिर्या से मिरी नींद उड़ी मर्दुम की
फ़िक्र-ए-बाम-ओ-दर-ओ-दीवार ने सोने न दिया
*सैल-ए-गिर्या=रोने से आयी बाढ़; मर्दुम=लोग

बाग़-ए-आलम में रहीं ख़्वाब की मुश्ताक़ आँखें
गर्मी-ए-आतिश-ए-गुलज़ार ने सोने न दिया
*बाग़-ए-आलम=दुनिया के बग़ीचे; मुश्ताक़=इच्छुक; गर्मी-ए-आतिश-ए-गुलज़ार=बाग़ीचे के आग की गर्मी

सच है ग़म-ख़्वारी-ए-बीमार अज़ाब-ए-जाँ है
ता-दम-ए-मर्ग दिल-ए-ज़ार ने सोने न दिया
*ग़म-ख़्वारी-ए-बीमार=बीमार से हमदर्दी; अज़ाब-ए-जाँ=कष्ट; ता-दम-ए-मर्ग=आख़िरी समय तक

तकिया तक पहलू में उस गुल ने न रक्खा 'आतिश'
ग़ैर को साथ कभी यार ने सोने न दिया

~ हैदर अली आतिश

  Nov 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, November 12, 2017

देखो, चली जाए न यों ढलकर



देखो,
चली जाए न यों ढलकर।

थमाओ हाथ, बाहर घास ने
कालीन डाला है,
किरन ने कुनकुने जलसे
अभी तो मुँह उजाला है,
हवाएँ यों निकल जाएँ न
हम दो बात तो कर लें,
खिली है ऋतु सुहानी
आँजुरी में, फूल कुछ भर लें।
लताओं से विटप की,
अनकही बातें सुनें चलकर!

पुलकते तट, उठी लहरें
सिमट कर बाँह में सोई,
कमल-दल फूल कर महके
मछलियाँ डूब कर खोई,
लिखी अभिसार की गाथा
कपोती ने मुँडेली पर,
मदिर मधुमास लेकर
घर गई सरसों- हथेली पर।
महकता है कहीं महुआ
किसी, कचनार में घुलकर।

उलझती ऊन सुलझा कर
नया स्वेटर बनाओ तुम,
बिखरते गीत के
खोए हुए-फिर बंध जोड़े हम,
बहुत दिन हो गए हैं
डूब कर जीना नहीं जाना,
कभी तुमने कभी हमने
कोई मौसम नहीं माना।
बहे फिर प्यार की इस
उष्णता में कुहरिका गलकर!

~ यतीन्द्र राही


  Nov 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 11, 2017

बना हूँ मैं आज तेरा मेहमाँ

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बना हूँ मैं आज तेरा मेहमाँ कोई अदू को ख़बर न कर दे
उठा के वो तेरी अंजुमन से कहीं मुझे दर-ब-दर न कर दे
*अदू=दुश्मन

ये वस्ल की रात है ख़ुदारा नक़ाब चेहरे से मत हटाओ
तुम्हारे चेहरे का ये उजाला सहर से पहले सहर न कर दे
*ख़ुदारा=ईश्वर के लिये; सहर=सवेरा

क़सम जिसे ज़ब्त-ए-ग़म की दे कर उठा दिया अपने दर से तू ने
कहीं वो दीवाना उम्र अपनी बग़ैर तेरे बसर न कर दे
*ज़ब्त-ए-ग़म=सहनशीलता

बड़े मज़े से मैं पी रहा हूँ मिरी तरफ़ तुम अभी न देखो
मुझे ये डर है नज़र तुम्हारी शराब को बे-असर न कर दे

सताया जिस को हमेशा तू ने सदा अकेला जो छुप के रोया
वो दिल-जला अपने आँसुओं से तुम्हारा दामन भी तर न कर दे

'क़तील' ये वस्ल के ज़माने हसीन भी हैं तवील भी हैं
मगर लगा है ये, दिल को धड़का इन्हें कोई मुख़्तसर न कर दे
*तवील=लम्बे; मुख्तसर=संक्षिप्त

~ क़तील शिफ़ाई


  Nov 11, 2017| e-kavya.blogspot.com
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पहले इस में इक अदा थी

पहले इस में इक अदा थी नाज़ था अंदाज़ था
रूठना अब तो तिरी आदत में शामिल हो गया

~ आग़ा शाएर क़ज़लबाश

  Nov 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 10, 2017

मेरे पाँव तुम्हारी गति हो


मेरे पाँव तुम्हारी गति हो
फिर चाहे जो भी परिणति हो

*परिणति= किसी प्रकार के परिवर्तन के कारण बननेवाला नया रूप

कोई चलता कोई थमता
दुनिया तो सडकों का मेला
जैसे कोई खेल रहा हो
सीढ़ी और साँप का खेला
मेरे दाँव तुम्हारी मति हो
फिर चाहे जय हो या क्षति हो

पल-पल दिखते पल-पल ओझल
सारे सफर पडावों के छल
जैसे धूप तले मरुथल में
हर प्यासे के हिस्से मृगजल
मेरे नयन तुम्हारी द्युति हो
फिर कोई आकृति अनुकृति हो

*आकृति=स्वरूप; अनुकृति= किसी वस्तु की हूबहू नक़ल

क्या राजाघर क्या जलसाघर
मैं अपनी लागी का चाकर
जैसे भटका हुआ पुजारी
ढूँढ रहा अपना पूजाघर
मेरे प्राण तुम्हारी रति हो
फिर कैसी भी सुरति-निरति हो
*सुरति=युगल का वह प्रेम जो शारीरिक सम्बंध की तृप्ति से उत्पन्न होता है; निरति= आसक्ति

ये सन्नाटे ये कोलाहल
कविता जन्मे साँकल-साँकल
जैसे दावानल में हँस दे
कोई पहली-पहली कोंपल
मेरे शब्द तुम्हारी श्रुति हो
यह मेरी अन्तिम प्रतिश्रुति हो

*श्रुति=सुनने की क्रिया; प्रतिश्रुति=प्रतिध्वनि

~ तारा प्रकाश जोशी


  Nov 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मिरे वहम-ओ-गुमाँ से


मिरे वहम-ओ-गुमाँ से भी ज़ियादा टूट जाता है
ये दिल अपनी हदों में रह के इतना टूट जाता है
*सनक और काल्पनिक

मैं रोऊँ तो दर-ओ-दीवार मुझ पर हँसने लगते हैं
हँसूँ तो मेरे अंदर जाने क्या क्या टूट जाता है
*दर=दरवाज़ा

मैं जिस लम्हे की ख़्वाहिश में सफ़र करता हूँ सदियों का
कहीं पाँव-तले आ कर वो लम्हा टूट जाता है

मिरे ख़्वाबों की बस्ती से जनाज़े उठते जाते हैं
मिरी आँखें जिसे छू लें वो सपना टूट जाता है

न जाने कितनी मुद्दत से है दिल में ये अमल जारी
ज़रा सी ठेस लगती है ज़रा सा टूट जाता है
*अमल=काम

दिल-ए-नादाँ हमारी तो नुमू ही ना-मुकम्मल थी
तो हैरत क्या जो बनते ही इरादा टूट जाता है
*नुमू=बढ़त; ना-मुकम्मल=अधूरी

मुक़द्दर में मिरे 'सागर' शिकस्त-ओ-रेख़्त इतनी है
मैं जिस को अपना कह दूँ वो सितारा टूट जाता है
*शिकस्त-ओ-रेख़्त=बनना और बिगड़ना

~ सलीम साग़र

  Nov 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, November 5, 2017

इतना दूर मुझे मत कर दो

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इतना दूर मुझे मत कर दो
लौटूँ तो पहचान न पाओ।

तन की दूरी दूरी मन की
अग्नि से इच्छा अग्नि शमन की
ध्वनियों की व्याकुलता से ही
उभरी हैं ध्वनियाँ निर्जन की
इतना मान नहीं रखना मन
लोगों से सम्मान न पाओ।

स्वयं से बढ़ के स्वयं से छोटा
सागर बनना बनना लोटा
सपनों ने विस्तार दिए हैं
सपनों ने ही हमें कचोटा
इतना ज्ञान न अर्जित करना
ख़ुद को ही तुम छान न पाओ।

गोद में सुख है गोद में दुख है
गोद का अपना भी एक रुख है
निर्भर करता सफ़र इसी पर
आमुख क्या है क्या सम्मुख है
इतना ऊँचा भी मत होना
नमी ओस की जान न पाओ।

~ देवेन्द्र आर्य


  Nov 5, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आपसी बातों को अख़बार न

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आपसी बातों को अख़बार नहीं होने दिया
हम ने ये कमरा हवा-दार नहीं होने दिया

बद-गुमानी को किया चाय पिला कर रुख़्सत
नाश्ते का भी तलबगार नहीं होने दिया
*बद-गुमानी= शंका, सन्देह

दिल के ज़ख़्मों की ख़बर होने न दी अश्कों को
ग़म का आँखों से सरोकार नहीं होने दिया

सख़्त लफ़्ज़ों में भी देती है मज़ा बात उस की
उस ने लहजे को दिल-आज़ार नहीं होने दिया
*दिल-आज़ार=दिल दुखाने वाला

रख दिए होंटों पे उँगली की तरह होंट उस ने
एक शिकवा भी नुमूदार नहीं होने दिया
*नुमूदार=अंकुरित, उगने देना

उस ने नादान हो, कह कर हमें उकसाया था
उम्र भर उस को समझदार नहीं होने दिया

चाहतें पाईं हैं 'मन्नान' वफ़ाओं के तुफ़ैल
जज़्बा-ए-इश्क़ को अय्यार नहीं होने दिया
*तुफ़ैल= बीच बिचाव; अय्यार=चालाक

~ मन्नान बिजनोरी


  Nov 4, 2017| e-kavya.blogspot.com
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तुम कनक किरन के अंतराल में

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तुम कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों ?

नत मस्तक गर्व वहन करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मौन बने रहते हो क्यो?

अधरों के मधुर कगारों में
कल कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु सरिता सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली
अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते हो क्यों?

~ जयशंकर प्रसाद


  Nov 3, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 29, 2017

जिधर के हो उधर के हो रहो

जिधर के हो उधर के हो रहो दिल से तो बेहतर है
कि लोटा बे-तली का हो तो टोंटी टूट जाती है

~ मन्नान बिजनोरी

  Oct 29, 2017| e-kavya.blogspot.com
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तुम जिस को ढूँडते हो



तुम जिस को ढूँडते हो ये महफ़िल नहीं है वो
लोगों के इस हुजूम में शामिल नहीं है वो

रस्तों के पेच-ओ-ख़म ने कहीं और ला दिया
जाना हमें जहाँ था ये मंज़िल नहीं है वो
*पेच-ओ-ख़म=घुमावदार

दरिया के रुख़ को मोड़ के आए तो ये खुला
साहिल के रंग और हैं साहिल नहीं है वो
साहिल= किनारा

दुनिया में भाग-दौड़ का हासिल यही तो है
हासिल हर एक चीज़ है हासिल नहीं है वो
*हासिल=नफ़ा, प्राप्त होना

'आलम' दिल-ए-असीर को समझाऊँ किस तरह
कम-बख़्त ए'तिबार के क़ाबिल नहीं है वो
*दिल-ए-असीर=प्रेम में डूबा दिल

‍~ आलम ख़ुर्शीद


  Oct 29, 2017| e-kavya.blogspot.com
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जो नहीं हो सके पूर्ण-काम

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जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम।

कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए!
उनको प्रणाम!

जो छोटी-सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि-पार,
मन की मन में ही रही, स्वयं
हो गए उसी में निराकार!
उनको प्रणाम!

जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह-रह नव-नव उत्साह भरे,
पर कुछ ने ले ली हिम-समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे!
उनको प्रणाम

एकाकी और अकिंचन हो
जो भू-परिक्रमा को निकले,
हो गए पंगु, प्रति-पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाव चले!
उनको प्रणाम

कृत-कृत नहीं जो हो पाए,
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल!
उनको प्रणाम!

थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ,
या जन्म-काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहाँत हुआ!
उनको प्रणाम

दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति-मंत?
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत!
उनको प्रणाम!

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
उनको प्रणाम!

~ नागार्जुन


  Oct 28, 2017| e-kavya.blogspot.com
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हो दोस्त या कि वह दुश्मन हो

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हो दोस्त या कि वह दुश्मन हो,
हो परिचित या परिचय विहीन
तुम जिसे समझते रहे बड़ा
या जिसे मानते रहे दीन
यदि कभी किसी कारण से
उसके यश पर उड़ती दिखे धूल,
तो सख्त बात कह उठने की
रे, तेरे हाथों हो न भूल।

मत कहो कि वह ऐसा ही था,
मत कहो कि इसके सौ गवाह,
यदि सचमुच ही वह फिसल गया
या पकड़ी उसने ग़लत राह-
तो सख्त बात से नहीं, स्नेह से
काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह अरे,
देकर देखो।

कितने भी गहरे रहे गत',
हर जगह प्यार जा सकता है,
कितना भी भ्रष्ट ज़माना हो,
हर समय प्यार भा सकता है,
जो गिरे हुए को उठा सके
इससे प्यारा कुछ जतन नहीं,
दे प्यार उठा पाए न जिसे
इतना गहरा कुछ पतन नहीं।

देखे से प्यार भरी आँखें
दुस्साहस पीले होते हैं
हर एक धृष्टता के कपोल
आँसू से गीले होते हैं।
तो सख्त बात से नहीं
स्नेह से काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह
अरे, देकर देखो।

तुमको शपथों से बड़ा प्यार,
तुमको शपथों की आदत है,
है शपथ गलत, है शपथ कठिन,
हर शपथ कि लगभग आफ़त है,
ली शपथ किसी ने और किसी के
आफत पास सरक आई,
तुमको शपथों से प्यार मगर
तुम पर शपथें छायीं-छायीं।

तो तुम पर शपथ चढ़ाता हूँ
तुम इसे उतारो स्नेह-स्नेह,
मैं तुम पर इसको मढ़ता हूँ
तुम इसे बिखेरो गेह-गेह।
हैं शपथ तुम्हें करुणाकर की
है शपथ तुम्हें उस नंगे की
जो भीख स्नेह की माँग-माँग
मर गया कि उस भिखमंगे की।

है सख़्त बात से नहीं
स्नेह से काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह
अरे, देकर देखो।

~ भवानी प्रसाद मिश्र


  Oct 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
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रस्ते की कड़ी धूप को

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रस्ते की कड़ी धूप को इम्कान में रखिये
छालों को सफ़र के सर-ओ-सामान में रखिये
*इम्कान=संभावना; सर-ओ-सामान=ज़रूरी चीज़ें

वो दिन गए जब फिरते थे हाथों में लिये हाथ
अब उनकी निगाहों को भी एहसान में रखिये

ये जो है ज़मीर आपका, जंज़ीर न बन जाए
ख़ुद्दारी को छूटे हुए सामान में रखिये

जैसे नज़र आते हैं कभी वैसे बनें भी
अपने को कभी अपनी ही पहचान में रखिये

चेहरा जो कभी दोस्ती का देखना चाहें
काँटों को सजा कर किसी गुलदान में रखिये

लेना है अगर लुत्फ़ समंदर के सफ़र का
कश्ती को मुसलसल किसी तूफ़ान में रखिये
*मुसलसल=लगातार

ये वक़्त है रहता नहीं इक जैसा हमेशा
ये बात हमेशा के लिए ध्यान में रखिये

जब छोड़ के जाएँगे इसे ये न छुटेगी
दुनिया को न भूले से भी अरमान में रखिये

~ राजेश रेड्डी


  Oct 22, 2017| e-kavya.blogspot.com
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कब कब कितने फूल झरे

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कब कब कितने फूल झरे
यह उपवन को ही ज्ञात नहीं।

कितने छले गए
मृगजल को इसकी खबर नहीं
कितने पथ भटके
जंगल को इसकी खबर नहीं

तन पर कितने साँप घिरे
यह चंदन को ही ज्ञात नहीं।

कितने सपने टूटे
उसकी ही पाँखों से पूछो
बिछड़े कितने लोग
चिता की राखों से पूछो

कितनी गिरी बिजलियाँ
यह सावन को ही ज्ञात नहीं।

कब कब कितने फूल झर
यह उपवन को ही ज्ञात नहीं।

‍~ यतीन्द्र राही


  Oct 21, 2017| e-kavya.blogspot.com
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जल, रे दीपक, जल तू


जल, रे दीपक, जल तू
जिनके आगे अँधियारा है,
उनके लिए उजल तू।

जोता, बोया, लुना जिन्होंने
श्रम कर ओटा, धुना जिन्होंने
बत्ती बँटकर तुझे संजोया,
उनके तप का फल तू।
जल, रे दीपक, जल तू।

अपना तिल-तिल पिरवाया है
तुझे स्नेह देकर पाया है
उच्च स्थान दिया है घर में
रह अविचल झलमल तू।
जल, रे दीपक, जल तू।

चूल्हा छोड़ जलाया तुझको
क्या न दिया, जो पाया, तुझका
भूल न जाना कभी ओट का
वह पुनीत अँचल तू।
जल, रे दीपक, जल तू।

कुछ न रहेगा, बात रहेगी
होगा प्रात, न रात रहेगी
सब जागें तब सोना सुख से
तात, न हो चंचल तू।
जल, रे दीपक, जल तू!

जल, रे दीपक, जल तू।

~ मैथिलीशरण गुप्त


  Oct 20, 2017| e-kavya.blogspot.com
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उन्हीं लोगों की बदौलत

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उन्हीं लोगों की बदौलत ये हसीं अच्छे हैं
चाहने वाले इन अच्छों से कहीं अच्छे हैं

कूचा-ए-यार से यारब न उठाना हम को
इस बुरे हाल में भी हम तो यहीं अच्छे हैं
*कूचा=गली

न कोई दाग़ न धब्बा न हरारत न तपिश
चाँद-सूरज से भी ये माह-जबीं अच्छे हैं
*माह-जबीं=चाँद जैसे माथे वाले

कोई अच्छा नज़र आ जाए तो इक बात भी है
यूँ तो पर्दे में सभी पर्दा-नशीं अच्छे हैं

तेरे घर आएँ तो ईमान को किस पर छोड़ें
हम तो का'बे ही में ऐ दुश्मन-ए-दीं अच्छे हैं
*दीं=धर्म, आस्था

हैं मज़े हुस्न-ओ-मोहब्बत के इन्हीं को हासिल
आसमाँ वालों से ये अहल-ए-ज़मीं अच्छे हैं
अहल-ए-ज़मीं=धरती पर बसने वाले लोग

एक हम हैं कि जहाँ जाएँ बुरे कहलाएँ
एक वो वो हैं कि जहाँ जाएँ वहीं अच्छे हैं

कूचा-ए-यार से महशर में बुलाता है ख़ुदा
कह दो 'मुज़्तर' कि न आएँगे यहीं अच्छे हैं
*महशर=कयामत का दिन

~ मुज़्तर ख़ैराबादी

  Oct 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 15, 2017

उन्हीं लोगों की बदौलत

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उन्हीं लोगों की बदौलत ये हसीं अच्छे हैं
चाहने वाले इन अच्छों से कहीं अच्छे हैं

कूचा-ए-यार से यारब न उठाना हम को
इस बुरे हाल में भी हम तो यहीं अच्छे हैं
*कूचा=गली

न कोई दाग़ न धब्बा न हरारत न तपिश
चाँद-सूरज से भी ये माह-जबीं अच्छे हैं
*माह-जबीं=चाँद जैसे माथे वाले

कोई अच्छा नज़र आ जाए तो इक बात भी है
यूँ तो पर्दे में सभी पर्दा-नशीं अच्छे हैं

तेरे घर आएँ तो ईमान को किस पर छोड़ें
हम तो का'बे ही में ऐ दुश्मन-ए-दीं अच्छे हैं
*दीं=धर्म, आस्था

हैं मज़े हुस्न-ओ-मोहब्बत के इन्हीं को हासिल
आसमाँ वालों से ये अहल-ए-ज़मीं अच्छे हैं
अहल-ए-ज़मीं=धरती पर बसने वाले लोग

एक हम हैं कि जहाँ जाएँ बुरे कहलाएँ
एक वो वो हैं कि जहाँ जाएँ वहीं अच्छे हैं

कूचा-ए-यार से महशर में बुलाता है ख़ुदा
कह दो 'मुज़्तर' कि न आएँगे यहीं अच्छे हैं
*महशर=कयामत का दिन

~ मुज़्तर ख़ैराबादी


  Oct 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, October 14, 2017

कैसी है पहचान तुम्हारी

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कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

पथरा चलीं पुतलियाँ मैंने विविध धुनों में कितना गाया
दायें बायें ऊपर नीचे दूर पास तुमको कब पाया
धन्य कुसुम, पाषाणों पर ही तुम खिलते हो तो खिलते हो
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

किरणों से प्रगट हुए सूरज के सौ रहस्य तुम खोल उठे से
किन्तु अतड़ियों में गरीब की कुम्हलाए स्वर बोल उठे से
काँच कलेजे में भी करूणा के डोरे से ही खिलते हो
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

प्रणय और पुरुषार्थ तुम्हारा मनमोहिनी धरा के बल है
दिवस रात्रि बीहड़ बस्ती सब तेरी ही छाया के छल हैं
प्राण कौन से स्वप्न दिख गए जो बलि के फूलों खिलते हो
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

~ माखनलाल चतुर्वेदी


  Oct 14, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आप निगलते सूर्य समूचा

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आप निगलते सूर्य समूचा
अपने मुँह मिट्ठू बनते हैं,
हमने माना
आप बड़े हैं!

पुरखों की
उर्वरा भूमि से यश की फसल आपने पायी,
अपनी महनत से, बंजर में हमने थोड़ी फसल उगाई।
हम ज़मीन पर पाँव रखे हैं,
पर, काँधों पर
आप चढ़े हैं!

किंचित किरणों
को हम तरसे आप निगलते सूर्य समूचा,
बाँह पसारे मिला अँधेरा उजियारे ने हाल न पूछा।
आप मनाते दीपावलियाँ
लेकिन हमने
दीप गढ़े हैं!

भ्रष्ट, घिनौनी
करतूतों से तुमने अर्जित कीं उपाधियाँ,
भूख, गरीबी, लाचारी की हमें पैतृक मिलीं व्याधियाँ।
तुमने, ग्रन्थ सूदखोरी के
हमने तो बस
कर्ज़ पढ़े हैं!

‍~ आचार्य भगवत दुबे

  Oct 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
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हज़ारों मंज़िलें फिर भी

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हज़ारों मंज़िलें फिर भी मिरी मंज़िल है तू ही तू
मोहब्बत के सफ़र का आख़िरी हासिल है तू ही तू

बला से कितने ही तूफ़ाँ उठे बहर-ए-मोहब्बत में
हर इक धड़कन ये कहती है मिरा साहिल है तू ही तू
*बहर-ए-मोहब्बत=प्यार का समंदर

मुझे मालूम है अंजाम क्या होगा मोहब्बत का
मसीहा तू ही तू है और मिरा क़ातिल है तू ही तू

किया इफ़्शा मोहब्बत को मिरी बेबाक नज़रों ने
ज़माने को ख़बर है मुझ से बस ग़ाफ़िल है तू ही तू
*इफ़्शा=खुलासा; गाफ़िल=अनभिग्य

तिरे बख़्शे हुए रंगों से है पुर-नूर हर मंज़र
यक़ीनन बहर ओ बर की रूह में शामिल है तू ही तू
*पुर-नूर=रौशन

तुझी से गुफ़्तुगू हर दम तिरी ही जुस्तुजू हर दम
मिरी आसानियाँ तुझ से मिरी मुश्किल है तू ही तू

जिधर जाऊँ जिधर देखूँ तिरे क़िस्से तिरी बातें
सर-ए-महफ़िल है तू ही तू पस-ए-महमिल है तू ही तू

~ अमीता परसुराम 'मीता'

  Oct 9, 2017| e-kavya.blogspot.com
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वह फ़िर जलाती है

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वह फ़िर जलाती है
दिल के फांसलों के दरम्यां
उसकी लम्बी उम्र का दीया

कुछ खूबसूरती के मीठे शब्द
निकालती है झोली से
टांक लेती है माथे पे ,
कलाइयों पे, बदन पे
घर के हर हिस्से को
करीने से सजाती है
फ़िर....गौर से देखती है
शायद कोई और जगह मिल जाए
जहाँ बीज सके कुछ मोहब्बत के फूल

पर सोफे की गर्द में
सारे हर्फ़ बिखर जाते हैं
झनझना कर फेंके गए लफ्जों में
दीया डगमगाने लगता है
हवा दर्द और अपमान से
काँपने लगती है
आसमां फ़िर
दो टुकडों में बंट जाता है

वह जला देती है सारे ख्वाब
रोटी के साथ जलते तवे पर
छौक देती है सारे ज़ज्बात
कढाही के गर्म तेल में
मोहब्बत जब दरवाजे पे
दस्तक देती है
वह चढा देती है सांकल

दिनभर की कशमकश के बाद
रात जब कमरे में कदम रखती है
वह बिस्तर पर औंधी पड़ी
मन की तहों को
कुरेदने लगती है ....

बहुत गहरे में छिपी
इक पुरानी तस्वीर
उभर कर सामने आती है
वह उसे बड़े जतन से
झाड़ती है ,पोंछती है
धीरे -धीरे नक्श उभरते हैं
रोमानियत के कई हसीं पल
बदन में साँस लेने लगते हैं

वह धीमें से ....
रख देती है अपने तप्त होंठ
उसके लबों पे और कहती है
आज करवा चौथ है जान
खिड़की से झांकता चौथ का चाँद
हौले -हौले मुस्कुराने लगता है !

~ हरकीरत ' हीर'

  Oct 8, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, October 7, 2017

तोड़कर चट्टान फूटे सैकड़ों झरने

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तोड़कर चट्टान फूटे सैकड़ों झरने
टेसुओं में खिल गये दहके हुए अंगार
फिर उठे सोए समन्दर में महकती
खुशबुओं के ज्वार

रंग उभरा कल्पनाओं में
घुल गया चन्दन हवाओं में
मिल गयीं बेहोशियाँ आकर
होश की सारी दवाओं में
भावनाओं की उठी जयमाल के आगे
आज संयम सिर झुकाने
को हुआ लाचार

छू लिया जो रेशमी पल ने
बिजलियाँ जल में लगीं जलने
प्रश्न सारे कर दिए झूठे
दो गुलाबों के लिखे हल ने
तितलियों ने आज मौसम के इशारे पर
फूल की हर पंखुड़ी का
कर दिया शृंगार

लड़खड़ाई साँस की सरगम
गुनगुना कर गीत गोविन्दम्
झिलमिलाकर झील के जल में
और उजली हो गई पूनम
रंग डाला फिर हठीले श्याम ने आकर
राधिका का हर बहाना
हो गया बेकार

~ कीर्ति काले


  Oct 7, 2017| e-kavya.blogspot.com
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गहन है यह अंधकारा

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गहन है यह अंधकारा
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।

खड़ी है दीवार जड़ की घेर कर
बोलते हैं लोग ज्यों मुँह फेर कर
इस गहन में नहीं दिनकर
नहीं शशघर नहीं तारा।

कल्पना का ही अपार समुद्र यह
गरजता है घेर कर तनु रुद्र यह
कुछ नहीं आता समझ में
कहाँ है श्यामल किनारा।

प्रिय मुझे यह चेतना दो देह की
याद जिससे रहे वंचित गेह की
खोजता फिरता न पाता हुआ
मेरा हृदय हारा।

~ सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

  Oct 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
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कि तुमने जन्‍म गाँधी को

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कि तुमने जन्‍म गाँधी को दिया था,

जिस समय हिंसा,
कुटिल विज्ञान बल से हो समंवित,
धर्म, संस्‍कृति, सभ्‍यता पर डाल पर्दा,
विश्‍व के संहार का षड्यंत्र रचने में लगी थी,
तुम कहाँ थे? और तुमने क्‍या किया था!

एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्‍म गाँधी को दिया था,
जिस समय अन्‍याय ने पशु-बल सुरा पी-
उग्र, उद्धत, दंभ-उन्‍मद-
एक निर्बल, निरपराध, निरीह को
था कुचल डाला
तुम कहाँ थे? और तुमने क्‍या किया था?

एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्‍म गाँधी को दिया था,
जिस समय अधिकार, शोषण, स्‍वार्थ
हो निर्लज्‍ज, हो नि:शंक, हो निर्द्वन्‍द्व
सद्य: जगे, संभले राष्‍ट्र में घुन-से लगे
जर्जर उसे करते रहे थे,
तुम कहाँ थे? और तुमने क्‍या किया था?

क्‍यों कि गाँधी व्‍यर्थ
यदि मिलती न हिंसा को चुनौ‍ती,
क्‍यों कि गाँधी व्‍यर्थ
यदि अन्‍याय की ही जीत होती,
क्‍यों कि गाँधी व्‍यर्थ
जाति स्‍वतंत्र होकर
यदि न अपने पाप धोती!

~ हरिवंशराय बच्‍चन


  Oct 1, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 1, 2017

ओ मेरे जीवन के संचित सपने


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मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो।

तुमने ही मेरे प्राणों को जलने की रीति सिखाई है,
तुममें ही मेरे गीतों ने विश्वासमयी गति पाई है,
मेरे डूबे-डूबे मन का तुम ही तो ठौर-ठिकाना हो
मेरी आवारा आँखों ने तुमसे ही लगन लगाई है
काँटों से भरी विफलता में आधार न जीने का लूटो
मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो!

तुमको मनुहारा करती है ये दर्दीली प्यासे मेरी
तुम तक न पहुँच क्या पाती है उत्पीड़ित अभिलाषें मेरी
मेरी संतप्त पुकारे तुमको अब तक पूज नहीं पाई
मेरी नश्वरता को क्या जीवन दे न सकीं सांसें मेरी
तुम रीते-रीते ही बीतो - मेरे सुख के घट मत फूटो
मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो!

जीवन भर मैं पथ में भटका, तुमने मुझको खोने न दिया
अर्पण में भी असमर्थ रहा लेकिन तुमने रोने न दिया
मन में जैसी उत्कंठा थी वैसा तो जाग नहीं पाया
लेकिन तुमने क्षण-भर मुझको अपना होकर सोने न दिया
मत मंत्रित मन का दीप बुझा अंधियारी रजनी में छूटो
मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो!

नभ में उग आया शुक्र नया, जीवन की आधी रात ढली
सब दिन सुख दुख में होड़ रही सब दिन पीड़ा में प्रीत पली
उतरी माला-सी सकुचाई मेरी ममता छाया-छल में
इस मध्य निशा में भोर छिपा, इसमें किरणों की बंद गली
कल्पित रस जी भर घूँट चुके अब जीवन के विष भी घूँटो
मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो!

~ रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

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