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Friday, February 15, 2019

सिपाही

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वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,
ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्योंही, कभी न मोह हुआ।
जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैंने पहचाना,
सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना।

मसि की तो क्या बात, गली की ठिकरी मुझे भुलाती है,
जीते जी लड़ मरूं, मरे पर याद किसे फिर आती है?
इतिहासों में अमर रहूँ, है ऐसी मृत्यु नहीं मेरी,
विश्व छोड़ जब चला, भूलते लगती फिर किसको देरी?

जग भूले, पर मुझे एक, बस, सेवा-धर्म निभाना है,
जिसकी है यह देह उसीमें इसे मिला मिट जाना है।
विजय-विटप को विकच देख जिस दिन तुम हृदय जुड़ाओगे,
फूलों में शोणित की लाली कभी समझ क्या पाओगे?

वह लाली हर प्रात क्षितिज पर आकर तुम्हें जगायेगी,
सायंकाल नमन कर माँ को तिमिर-बीच खो जायेगी।
देव करेंगे विनय, किन्तु, क्या स्वर्ग-बीच रुक पाऊँगा?
किसी रात चुपके उल्का बन कूद भूमि पर आऊँगा।

तुम न जान पाओगे, पर, मैं रोज खिलूँगा इधर-उधर,
कभी फूल की पंखुड़ियाँ बन, कभी एक पत्ती बनकर:
अपनी राह चली जायेगी वीरों की सेना रण में,
रह जाऊँगा मौन वृन्त पर सोच, न जाने, क्या मन में?

तप्त वेग धमनी का बनकर कभी संग मैं हो लूँगा,
कभी चरण- तल की मिट्टी में छिपकर जय-जय बोलूँगा।
अगले युग की अनी कपिध्वज जिस दिन प्रलय मचायेगी,
मैं गरजूंगा ध्वजा-श्रृंग पर, वह पहचान न पायेगी।

'न्योछावर में एक फूल', पर, जग की ऐसी रीत कहाँ?
एक पंक्ति मेरी सुधि में भी, सस्ते इतने गीत कहाँ?
कविते ! देखो विजन विपिन में वन्य-कुसुम का मुरझाना;
व्यर्थ न होगा इस समाधि पर दो आँसू-कण बरसाना।

~ रामधारी सिंह 'दिनकर'


 Feb 15, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, February 10, 2019

बौरे आमों पर बौराए



बौरे आमों पर बौराए
भौंर न आए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

माना अब आकाश खुला-सा और धुला-सा
फैला-फैला नीला-नीला,
बर्फ़ जली-सी, पीली-पीली दूब हरी फिर,
जिस पर खिलता फूल फबीला
तरु की निवारण डालों पर मूँगा, पन्‍ना
औ' दखिनहटे का झकझोरा,
बौरे आमों पर बौराए
भौंर न आए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

माना, गाना गानेवाली चि‍ड़ियाँ आईं,
सुन पड़ती कोकिल की बोली,
चली गई थी गर्म प्रदेशों में कुछ दिन को
जो, लौटी हंसों की टोली,
सजी-बजी बारात खड़ी है रंग-बिरंगी,
किंतु न दुल्‍हे के सिर जब तक
मंजरियों का मौर-मुकुट
कोई पहनाए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

डार-पात सब पीत पुष्‍पमय कर लेता
अमलतास को कौन छिपाए,
सेमल और पलाशों ने सिंदूर-पताके
नहीं गगन में क्‍यों फहराए?
छोड़ नगर की सँकड़ी गलियाँ, घर-दर, बाहर
आया, पर फूली सरसों से
मीलों लंबे खेत नहीं
दिखते पयराए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

प्रात: से संध्‍या तक पशुवत् मेहनत करके
चूर-चूर हो जाने पर भी,
एक बार भी तीन सैकड़े पैंसठ दिन में
पूरा पेट न खाने पर भी
मौसम की मदमस्‍त हवा पी जो हो उठते
हैं मतवाले, पागल, उनके
फाग-राग ने रातों रक्‍खा
नहीं जगाए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

बौरे आमों पर बौराए
भौंर न आए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

~ हरिवंशराय बच्चन


 Feb 10, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, February 9, 2019

ऐ मिरे गीत! कहीं और ही चलना होगा

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मेरे गीतों में मोहब्बत ने जलाए हैं चराग़
और यहाँ ज़ुल्मत-ए-ज़रदार के घेरे हैं तमाम
सब के होंटों पे हवसनाक उमीदों की बरात
कोई लेता नहीं उल्फ़त भरे गीतों का सलाम
ऐ मिरे गीत! कहीं और ही चलना होगा

*
ज़ुल्मत-ए-ज़रदार=पैसेवालों की यातना; हवसनाक=चाहतों से भरी

तुझ को मालूम नहीं आदम ओ हव्वा की ज़मीं
अपने नासूर को पर्दे में छुपाने के लिए
गुल किए देती है अफ़्कार के मासूम चराग़
हर नफ़स अपने गरेबान पे रखती है नज़र
जिस में इक तार भी बाक़ी नहीं पर्दे के लिए
ऐ मिरे गीत! कहीं और ही चलना होगा

*अफ़्कार=चिंताएँ; नफ़स=रूह

आ कहीं और किसी देश को ढूँडें चल कर
हो जहाँ भूक न अफ़्कार के पर्दों पे मुहीत
वक़्त डाले न जहाँ क़ैद में फ़िक्रों का जमाल
प्यार के बोल को अपनाए जहाँ सारी ज़मीं
आ उसी देश में फैलाऊँ तिरे प्यार का नूर
ऐ मिरे गीत! कहीं और ही चलना होगा

*मुहीत=व्याप्त, फैला हुआ

ये भी मुमकिन है कि झोली में अमल की इक रोज़
यास की ख़ाक हो और दूर हो अपनी मंज़िल
आरज़ूओं का कोई देश न मिल पाए अगर
मेरे सीने में उतर जा कि यहाँ कोई नहीं
जो तिरे नूर को पैग़ाम को समझे आ कर
ऐ मिरे गीत कहीं और ही चलना होगा

*रोज़ के काम; यास=निराशा

~ अनवर नदीम


 Feb 9, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, February 3, 2019

सुना है लोग उसे आँख भर के

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सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं
*रब्त=लगाव

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उस की
सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं
*चश्म-ए-नाज़= प्रेयसी की 
आँखें

सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़
सो हम भी मो'जिज़े अपने हुनर के देखते हैं
*शग़फ़=लगाव; मो’जिज़े=चमत्कार

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की
सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं
*काकुलें=लटें

सुना है उस की सियह-चश्मगी क़यामत है
सो उस को सुरमा-फ़रोश आह भर के देखते हैं
*सियह-चश्मगी=काली आँखें; सुरमा-फ़रोश=सुरमा बेचने वाले

सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की
जो सादा दिल हैं उसे बन-सँवर के देखते हैं
*तिमसाल=तस्वीर; जबीं=माथा

सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं
*हमाइल=गले मे पहनी हुई; लाल ओ गुहर=मणिक और मोती

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं
*चश्म-ए-तसव्वुर=कल्पना करने वाली आँखें; दश्त-ए-इम्काँ=सम्भावनाओं का जंगल; पलंग=पतली कमर वाला एक जंगली जानवर, तेंदुआ; ज़ाविए=नज़रिये से 

सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं
*क़बाएँ=पहनावा

वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
*सर्व-क़द=लम्बे कद वाला; बे-गुल-ए-मुराद=बिना संतुष्टि के फल के; समर=फल

बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं
* रह-रवान-ए-तमन्ना=तमन्ना के सह-यात्री

सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं
*शबिस्ताँ=शयनग्रह; मुत्तसिल=पास; बहिश्त=स्वर्ग; मकीं=मकान में रहने वाला

रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं
*तवाफ़=परिक्रमा

किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे
कभी कभी दर ओ दीवार घर के देखते हैं
*बे-पैरहन=निर्वस्त्र

कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
*मुबालग़े=अतिश्योक्ति

अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ
'फ़राज़' आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

~ अहमद फ़राज़


 Feb 3, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, February 2, 2019

तुम ऐसी सुब्हों, तुम ऐसी शामों


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तुम ऐसी सुब्हों, तुम ऐसी शामों में
अपने घर से कभी न निकलो
कि जब हवाएँ सुपुर्दगी से निहाल हो कर
तुम्हारे पहलू में डोलती हों
तुम्हारे आँचल से खेलती हों

तुम ऐसी सुब्हों, तुम ऐसी शामों में
अपने घर से कभी न निकलो
कि हवाएँ उदास लहजे में तुम से पूछें
तुम्हारे आँखों को क्या हुआ है
तुम्हारे चेहरे पे क्या लिखा है
तुम्हारे उठते हुए क़दम पर
ये लड़खड़ाहट सी किस लिए है

तुम ऐसी सुब्हों, तुम ऐसी शामों में
अपने घर से कभी न निकलो
कि जब हवाएँ
बदलते मौसम की साज़िशें में शरीक हो कर
तुम्हारे जी में ग़लत-बयानी का ज़हर घोलें
सुनो ऐ प्यारी-सी साँवली-सी सजीली लड़की
यही हवाएँ तो आते-जाते
मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-वफ़ा पर
ग़ुबार-ए-तोहमत उछालती है
मोहब्बतों पर यक़ीं न हो तो
दिलों में पैहम
हज़ार वहमों को डालती है

तुम ऐसी सुब्हों, तुम ऐसी शामों में
अपने घर से कभी न निकलो, कभी न निकलो, कभी न निकलो

~ ख़ालिद मोईन


 Feb 2, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, February 1, 2019

होंठ

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हर सुबह
होंठों को चाहिए कोई एक नाम
यानी एक खूब लाल और गाढ़ा-सा शहद
जो सिर्फ मनुष्य की देह से टपकता है

कई बार
देह से अलग
जीना चाहते हैं होंठ
वे थरथराना-छटपटाना चाहते हैं
देह से अलग
फिर यह जानकर
कि यह संभव नहीं
वे पी लेते हैं अपना सारा गुस्सा
और गुनगुनाने लगते हैं
अपनी जगह

कई बार सलाखों के पीछे
एक आवाज
एक हथेली
या सिर्फ एक देहरी के लिए
तरसते हुए होंठ
धीरे-धीरे हो जाते हैं
पत्थर की तरह सख्त
और पत्थर के भी होंठ होते हैं
बालू के भी
राख के भी
पृथ्वी तो यहाँ से वहाँ तक
होंठ ही होंठ है

चाहे जैसे भी हो

होंठों को हर शाम चाहिए ही चाहिए
एक जलता हुआ सच
जिसमें हजारों-हजार झूठ
जगमगा रहे हों
होंठों को बहुत कुछ चाहिए
उन्हें चाहिए 'हाँ' का नमक
और 'ना' का लोहा
और कई बार दोनों
एक ही समय

पर असल में
अपना हर बयान दे चुकने के बाद
होंठों को चाहिए
सिर्फ दो होंठ
जलते हुए
खुलते हुए
बोलते हुए होंठ

~ केदारनाथ सिंह


 Feb 1, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh