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Sunday, January 28, 2018

गीत तेरा मन कँपाता है

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गीत तेरा मन कँपाता है।
शक्ति मेरी आजमाता है।

न गा यह गीत,
जैसे सर्प की आँखें
कि जिनका मौन सम्मोहन
सभी को बाँध लेता है,
कि तेरी तान जैसे एक जादू सी
मुझे बेहोश करती है,
कि तेरे शब्द
जिनमें हूबहू तस्वीर
मेरी ज़िंदगी की ही उतरती है;
न गा यह ज़िंदगी मेरी न गा,
प्राण का सूना भवन हर स्वर गुँजाता है,
न गा यह गीत मेरी लहरियों में ज्वार आता है।

हमारे बीच का व्यवधान कम लगने लगा
मैं सोचती अनजान तेरी रागिनी में
दर्द मेरे हृदय का जगने लगा;
भावना की मधुर स्वप्निल राह--
‘इकली नहीं हूँ मैं आह!’
सोचती हूँ जब, तभी मन धीर खोता है,
कि कहती हूँ न जाने क्या
कि क्या कुछ अर्थ होता है?
न जाने दर्द इतना किस तरह मन झेल पाता है?
न जाने किस तरह का गीत यौवन तड़फड़ाता है?
न गा यह गीत मुझको दूर खींचे लिए जाता है।

गीत तेरा मन कँपाता है।
हृदय मेरा हार जाता है।

~ दुष्यंत कुमार

  Jan 28, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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शिकायत उन से करना गो

शिकायत उन से करना गो
मुसीबत मोल लेना है
मगर 'आजिज़' ग़ज़ल हम
बे-सुनाए दम नहीं लेंगे

~ कलीम आजिज़

  Jan 27, 2018| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, January 27, 2018

मुझे रंग दे न सुरूर दे


मुझे रंग दे न सुरूर दे मिरे दिल में ख़ुद को उतार दे,
मिरे लफ़्ज़ सारे महक उठें मुझे ऐसी कोई बहार दे।

मुझे धूप में तू क़रीब कर मुझे साया अपना नसीब कर,
मिरी निकहतों को उरूज दे मुझे फूल जैसा वक़ार दे।
*निकहत=ख़ुशबू; उरूज=बुलंदी; वक़ार=मर्यादा

मिरी बिखरी हालत-ए-ज़ार है न तो चैन है न क़रार है,
मुझे लम्स अपना नवाज़ के मिरे जिस्म-ओ-जाँ को निखार दे।
ज़ार=फटे हाल; लम्स=स्पर्श

तिरी राह कितनी तवील है मिरी ज़ीस्त कितनी क़लील है,
मिरा वक़्त तेरा असीर है मुझे लम्हा लम्हा सँवार दे।
*तवील=लम्बी; ज़ीस्त=ज़िंदगी; क़लील=छोटी

मिरे दिल की दुनिया उदास है न तो होश है न हवास है,
मिरे दिल में आ के ठहर कभी मिरे साथ उम्र गुज़ार दे।

मिरी नींद मूनिस-ए-ख़्वाब कर मिरी रत-जगों का हिसाब कर,
मिरे नाम फ़स्ल-ए-गुलाब कर कभी ऐसा मुझ को भी प्यार दे।
*मूनिस=साथी

शब-ए-ग़म अँधेरी है किस क़दर करूँ कैसे सुब्ह का मैं सफ़र,
मिरे चाँद आ मिरी ले ख़बर मुझे रौशनी का हिसार दे।
*हिसार=दुर्ग, क़िला

~ इन्दिरा वर्मा
  Jan 27, 2018| e-kavya.blogspot.com
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ऐ शांति अहिंसा की उड़ती हुई परी

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ऐ शांति अहिंसा की उड़ती हुई परी
आ तू भी आ कि आ गई छब्बीस जनवरी

सर पर बसंत घास ज़मीं पर हरी हरी
फूलों से डाली डाली चमन की भरी भरी
आई न तू तो सब की सुनूँगा खरी खरी
तुझ बिन उदास है मिरी खेती हरी-भरी
आ जल्द आ कि आ गई छब्बीस जनवरी

घूँघट उलट रही है चमन की कली कली
शाख़ें तो टेढ़ी-मेढ़ी हैं सूरत भली भली
रंगीनियाँ हैं बाग़ में ख़ुशबू गली गली
शबनम से है कली की पियाली भरी भरी
आ तू भी आ कि आ गई छब्बीस जनवरी

मुस्का रही है मुझ पे मिरे बाग़ की कली
आँखें दिखा रही है मुझे कल की छोकरी
ऐसा न हो कि फूल उड़ाएँ मिरी हँसी
अब तैरने लगी मिरी आँखों में जल-परी
आ जल्द आ कि आ गई छब्बीस जनवरी

काँटे हों चाहे फूल हों फ़स्ल-ए-बहार के
पाले हैं दोनों एक ही परवरदिगार के
हम भारती शिकार हैं अपने ही वार के
ऐ शांति अहिंसा की उड़ती हुई परी
धरती पे आ कि आ गई छब्बीस जनवरी

~ नज़ीर बनारसी


  Jan 26, 2018| e-kavya.blogspot.com
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कहना सुनना और समझ पाना

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कहना सुनना
और समझ पाना
संभव हो
इसीलिये तो
रची गई थी सृष्टि

इसीलिये
छत की मुंडेर तक
आतीं आम-नीम की डालें
झाँक सकें आँगन में
जानें
घर में बंद बहू का
सुख-दुख

इसीलिये तो आते झोंके
बहती हवा, झूमती डालें
झरते हैं पत्ते आँगन में,
दुख से लड़कर जब थक जाती
उन पत्तों पर लिखती पाती
बहू,
हवा फिर उन्हें उड़ाती
उसके बाबुल तक ले जाती

इसीलिये आती है कविता
भीतर पैठे
उन जगहों को छुए
जहाँ तक
नहीं पहुँच पाती हैं डालें
नहीं पहुँच पाता प्रकाश
या पवन झकोश
संदेशों के पंछी भी
पर मार न पाते
जिन जगहों पर

घुस कर गहन अँधेरे में भी
सभी तरह के
बन्दीगृह की काली चीकट दीवारों पर
कविता भित्तिचित्र लिखती है

लोहे के हों
या तिलिस्म के
सारे वज्र-कपाट तोड़ती
इसीलिये
धारा जैसी आती है कविता
प्रबल वेग से।

~ दिनेश कुमार शुक्ल

  Jan 25, 2018| e-kavya.blogspot.com
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रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ

रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ
तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं
इतनी कि आसाँ हो गईं।

*रंज=दुख; ख़ूगर=आदी, अभ्यस्थ

~ मिर्ज़ा ग़ालिब

  Jan 24, 2018| e-kavya.blogspot.com
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ज़मीं का हुस्न सब्ज़ा है

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ज़मीं का हुस्न सब्ज़ा (हरियाली) है
मगर अब सब्ज़ (हरे) पत्ते ज़र्द (पीले) हो कर झड़ते जाते हैं
बहारें देर से आती हैं
जुगनू है न तितली
ख़ुशबुओं... से रंग रूठे हैं
जहाँ जंगल हुआ करते थे
और बारिश धनक (इंद्रधनुष) ले कर उतरती थी
जहाँ बरसात में कोयल, पपीहे चहचहाते थे
वहाँ अब ख़ाक उड़ती है
दरख़्तों की कमी से आ गई है धूप में शिद्दत (कठोरता)
फ़ज़ा का मेहरबाँ हाला (किरणों का पुंज)पिघलता जा रहा है
आसमाँ ताँबे में ढलता जा रहा है
इस लिए बे-मेहर (प्रेम-विहीन) मौसम अब सताते हैं
धुएँ के, गर्द के, आलूदगी (दूषण) के, शोर के मौसम
गली, कूचों, घरों में कार-ख़ानों में बस अब
सड़क पर शोर बहता है

सुनाई ही नहीं देता हमारा दिल जो कहता है
मोहब्बत का परिंदा आज-कल ख़ामोश रहता है
परिंदे प्यास में डूबे हैं और पानी नहीं पीते
कि दरियाओं की शिरयानों (शिराओं) में
अब शफ़्फ़ाफ़ (निर्मल) पानी की जगह आलूदगी का ज़हर है
हमें जब बहर ओ बर (जमीं और पानी) की हुक्मरानी दी गई है तो
ये हम को सोचना होगा
ज़मीनों, पानियों, माहौल की बीमारियों का कोई मुदावा (इलाज) है
कहीं इन का सबब हम तो नहीं बनते?

सबब कोई भी हो आख़िर मुदावा कुछ तो करना है
ये तस्वीर-ए-जहाँ (दुनिया के ख़ाके) है रंग इस में हम को भरना है

~ ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर


  Jan 24, 2018| e-kavya.blogspot.com
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ग़म में डूबे ही रहे

ग़म में डूबे ही रहे
दम न हमारा निकला,
बहर-ए-हस्ती का बहुत
दूर किनारा निकला।

*बहर-ए-हस्ती=जीवन का समुद्र

~ बेख़ुद देहलवी

  Jan 23, 2018| e-kavya.blogspot.com
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न जाने किस की

न जाने किस की हमें उम्र भर तलाश रही,
जिसे क़रीब से देखा वो दूसरा निकला

~ ख़लील-उर-रहमान आज़मी


  Jan 22, 2018| e-kavya.blogspot.com
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आज है मधुमास रे मन

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आज है मधुमास रे मन!

आज फूलों से सुवासित हो उठी तृष्णा विजन की
आज पीले मधुकणों से भर गई छाती पवन की
आज पुरवाई घने वन में चली परिमल भरी-सी
स्वर्ण कलशों में सजल केसर लिए चंपापरी-सी
आज है मधुमास रे मन!

नील पुलकों में तरंगित चित्रलेखा बन गई छवि
दूर तक सहकार श्यामल रेणुका से घिर चला कवि
लो प्रखर सन सन सुरभि से नागकेशर रूप विह्वल
बज उठी किंकिणि मधुप रव से हुई वनबाल चंचल
आज है मधुमास रे मन!

नील सागर से उठी है कुंतलों में कौन अपने
स्निग्ध नीलाकाश प्राणों में जगाता नील सपने
आज किसके रूप से जलसिक्त धूसित कामिनी वन
आज संगीहीन मेरे प्राण पुलकित हैं अचेतन
आज है मधुमास रे मन!

अनमने फागुन दिवस ये हो रहे हैं प्राण कैसे
आज संध्या से प्रथम ही भर चला मन लालसा से
आज आँधी-सा प्रखर है वेग पिक की काकली में
एक अंगूरी पिपासा मुक्त अंगों की गली में
आज है मधुमास रे मन!

~ रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'


  Jan 22, 2018| e-kavya.blogspot.com
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हद से बढ़े जो इल्म तो

हद से बढ़े जो इल्म तो है जहल दोस्तो
सब कुछ जो जानते हैं वो कुछ जानते नहीं

*जहल=जड़ता, जहालत

~ ख़ुमार बाराबंकवी

  Jan 21, 2018| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, January 21, 2018

आज केतकी फूली

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आज केतकी फूली।
नभ के उज्ज्वल तारों से हो,
निर्मित जग में झूली।
आज केतकी फूली।


अन्तरिक्ष का बिखरा वैभव
पृथ्वी पर संचित है,
इसीलिए यह कलिका नभ-छवि
ले भू पर कुसुमित है,
पवन चूम जाता है, मेरी
इच्छा से परिचित है,
इस मिलाप मे ही सारे
जीवन का सुख अंकित है,
मैंने आज प्रेम की उँगली से
वह चिर छवि छू ली।
आज केतकी फूली।


नभ के उज्ज्वल तारों से हो
निर्मित जग में झूली,
आज केतकी फूली।

~ रामकुमार वर्मा

  Jan 21, 2018| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, January 20, 2018

पीछे मुड़ के देखना अच्छा लगा

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पीछे मुड़ के देखना अच्छा लगा
घर का ख़ाली रास्ता अच्छा लगा

साहिलों पर हाथ लहराने लगे
मुझ को अपना डूबना अच्छा लगा

शाम जैसे आँखें झपकाने लगी
उस के हाथों में दिया अच्छा लगा

बच्चे ने तितली पकड़ कर छोड़ दी
आज मुझ को भी ख़ुदा अच्छा लगा

हल्की बारिश थी हवा थी शाम थी
हम को अपना भीगना अच्छा लगा

वो दरीचे में खड़ी अच्छी लगी
हार बिस्तर पर पड़ा अच्छा लगा

जानती थी वो मैं रुक सकता नहीं
लेकिन उस का रोकना अच्छा लगा

वो तो 'क़ैसर' मर मिटी मेरे लिए
जाने उस को मुझ में क्या अच्छा लगा

~ नज़ीर क़ैसर


  Jan 20, 2018| e-kavya.blogspot.com
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Friday, January 19, 2018

आप उसे फोन करें, तो

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आप उसे फोन करें, तो
कोई जरूरी नहीं कि
उसका फोन खाली हो।
हो सकता है उस वक्त
वह चाँद से बतिया रही हो
या तारों को फोन लगा रही हो।

वह थोड़ा धीरे बोल रही है
संभव है इस वक्त वह किसी भौंरे से
कह रही हो अपना संदेश,
हो सकता है वह लंबी, बहुत लंबी बातों में
मशगूल हो,
हो सकता है
एक कटा पेड़
कटने पर होने वाले अपने
दुखों का उससे कर रहा हो बयान।
बाणों से विंधा पखेरू
मरने के पूर्व उससे अपनी अंतिम
बात कह रहा हो।

आप फोन करें तो हो सकता है
एक मोहक गीत आपको थोड़ी देर
चकमा दे और थोड़ी देर बाद
नेटवर्क बिजी बताने लगे,
यह भी हो सकता है एक छली
उसके मोबाइल पर फेंक रहा हो
छल का पासा।

पर यह भी हो सकता है कि एक फूल
उससे काँटे से होने वाली
अपनी रोज रोज की लड़ाई के
बारे में बतिया रहा हो,
या कि रामगिरि पर्वत से
चल कोई हवा
उसके फोन से होकर आ रही हो,
याकि चातक, चकवा, चकोर उसे
बार बार फोन कर रहे हों।

यह भी संभव है कि
कोई गृहणी रोटी बनाते वक्त भी,
उससे बातें करने का लोभ संवरण
न कर पाये,
और आपके फोन से उसका फोन टकराये
आपका फोन कट जाये।

हो सकता है उसका फोन
आपसे ज्यादा
उस बच्चे के लिए जरूरी हो,
जो उसके साथ हँस-हँस
मलय नील में बदल जाना चाहता हो,
वह गा रही हो किसी साहिल का गीत।

या हो सकता है कोई साहिल उसके
फोन पर, गा रहा हो,
उसके लिए प्रेमगीत
या कि कोई पपीहा
कर रहा हो उसके फोन पर
पीउ-पीउ,
आप फोन करें तो कोई जरूरी
नहीं कि
उसका फोन खाली हो।

~‍ बद्री नारायण

  Jan 19, 2018| e-kavya.blogspot.com
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रि-मिक्स

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वह बहुत पुराने,
यादगार गीत पर नृत्य कर रही
गीत के बोल- शब्द वही पुराने
अर्थ वही नहीं

गायन से गायब
गायिकी-अंदाज

संगीत से राग
सुरताल-थाप
झंकार

नृत्य से
उस वक़्त की अभिनेत्री के
पाँव की थिरकन
चेहरे से भाव-भंगिमाएँ

देह से रिदम की संगत
आवश्यक वस्त्र

सब से अहम छूमंतर
नृत्य सम्मोहन
मनभावन!

~ नासिर अहमद सिकंदर


  Jan 18, 2018| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, January 17, 2018

मैं वो सहरा जिसे

मैं वो सहरा जिसे
पानी की हवस ले डूबी,
तू वो बादल जो कभी
टूट के बरसा ही नहीं।
*सहरा=रेगिस्तान, जंगल
~ सुल्तान अख़्तर

  Jan 17, 2018| e-kavya.blogspot.com
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Monday, January 15, 2018

तेरे बचपन को जवानी की

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तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ
और दुआ दे के परेशान सी हो जाती हूँ

मेरे मुन्ने मेरे गुलज़ार के नन्हे पौधे
तुझको हालत की आंधी से बचाने के लिये
आज मैं प्यार के आंचल में छुपा लेती हूँ
कल ये कमज़ोर सहारा भी न हासिल होगा
कल तुझे कांटों भरी राहों पे चलना होगा
ज़िंदगानी की कड़ी धूप में जलना होगा
तेरे बचपन को जवानी ...।

तेरे माथे पे शराफ़त की कोई मोहर नहीं
चंद होते हैं मुहब्बत के सुकून ही क्या हैं
जैसे माओं की मुहब्बत का कोई मोल नहीं
मेरे मासूम फ़रिश्ते तू अभी क्या जाने
तुझको किस-किसकी गुनाहों की सज़ा मिलनी है
दीन और धर्म के मारे हुए इंसानों की
जो नज़र मिलनी है तुझको वो खफ़ा मिलनी है
तेरे बचपन को जवानी ...।

बेड़ियाँ लेके लपकता हुआ कानून का हाथ
तेरे माँ-बाप से जब तुझको मिली ये सौगात
कौन लाएगा तेरे वास्ते खुशियों की बारात
मेरे बच्चे तेरे अंजाम से जी डरता है
तेरी दुश्मन ही न साबित हो जवानी तेरी
खाक जाती है जिसे सोचके ममता मेरी
उसी अंजाम को पहुंचे न कहानी तेरी
तेरे बचपन को जवानी ...।

~ साहिर लुधियानवी


  Jan 15, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, January 14, 2018

जन पर्व मकर संक्रांति आज

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जन पर्व मकर संक्रांति आज
उमड़ा नहान को जन समाज, गंगा तट पर सब छोड़ काज।

नारी नर कई कोस पैदल
आरहे चले लो, दल के दल, गंगा दर्शन को पुण्योज्वल।
लड़के, बच्चे, बूढ़े, जवान,
रोगी, भोगी, छोटे, महान,
क्षेत्रपति, महाजन औ’ किसान।

दादा, नानी, चाचा, ताई,
मौसा, फूफी, मामा, माई, मिल ससुर, बहू, भावज, भाई।
गा रहीं स्त्रियाँ मंगल कीर्तन,
भर रहे तान नव युवक मगन,
हँसते, बतलाते बालक गण।

अतलस, सिंगी, केला औ’ सन
गोटे गोखुरू टँगे,--स्त्री जन, पहनीं, छींटें, फुलवर, साटन।
बहु काले, लाल, हरे, नीले,
बैगनीं, गुलाबी, पट पीले,
रँग रँग के हलके, चटकीले।

सिर पर है चँदवा शीशफूल,
कानों में झुमके रहे झूल, बिरिया, गलचुमनी, कर्णफूल।
माँथे के टीके पर जन मन,
नासा में नथिया, फुलिया, कन,
बेसर, बुलाक, झुलनी, लटकन।

गल में कटवा, कंठा, हँसली,
उर में हुमेल, कल चंपकली, जुगनी, चौकी, मूँगे नक़ली।
बाँहों में बहु बहुँटे, जोशन,
बाजूबँद, पट्टी, बाँक सुषम,
गहने ही गँवारिनों के धन!

कँगने, पहुँची, मृदु पहुँचों पर
पिछला, मँझुवा, अगला क्रमतर, चूड़ियाँ, फूल की मठियाँ वर।
हथफूल पीठ पर कर के धर,
उँगलियाँ मुँदरियों से सब भर,
आरसी अँगूठे में दे कर।

वे कटि में चल करधनी पहन,
पाँवों में पायज़ेब, झाँझन, बहु छड़े, कड़े, बिछिया शोभन।
यों सोने चाँदी से झंकृत,
जातीं वे पीतल गिलट खचित,
बहु भाँति गोदना से चित्रित।

ये शत, सहस्र नर नारी जन
लगते प्रहृष्ट सब, मुक्त, प्रमन, हैं आज न नित्य कर्म बंधन।
विश्वास मूढ़, निःसंशय मन,
करने आये ये पुण्यार्जन,
युग युग से मार्ग भ्रष्ट जनगण।

इनमें विश्वास अगाध, अटल,
इनको चाहिए प्रकाश नवल, भर सके नया जो इनमें बल।
ये छोटी बस्ती में कुछ क्षण
भर गये आज जीवन स्पंदन, प्रिय लगता जनगण सम्मेलन।

~ सुमित्रानंदन पंत


  Jan 14, 2018| e-kavya.blogspot.com
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Friday, January 12, 2018

किसी की याद सताती है


किसी की याद सताती है रात दिन तुम को
किसी के प्यार से मजबूर हो गई हो तुम
तुम्हारा दर्द मुझे भी उदास रखता है
क़रीब आ के बहुत दूर हो गई हो तुम
 
तुम्हारी आँखें सदा सोगवार रहती हैं
तुम्हारे होंट तरसते हैं मुस्कुराने को
तुम्हारी रूह को तन्हाइयाँ अता कर के
ये सोचती हो कि क्या मिल गया ज़माने को
*सोगवार=दुखी; अता=बखि़्शश, प्रदान करना

गिला करो न ज़माने की सर्द-मेहरी का
कि इस ख़ता में ज़माने का कुछ क़ुसूर नहीं
तुम्हारे दिल ने उसे मुंतख़ब किया कि जिसे
तुम्हारे ग़म को समझने का भी शुऊर नहीं
*सर्द-मेहरी=क्रूरता; मितखब=चुना, पसंद किया

तुम उस की याद भुला दो कि बेवफ़ा है वो
हर एक दिल नहीं होता तुम्हारे दिल की तरह
तुम अपने प्यार को रुस्वा करो न रो रो कर
तुम्हारा प्यार मुक़द्दस है बाइबल की तरह
*मुक़द्दस=पवित्र

अब उस के वास्ते ख़ुद को न यूँ तबाह करो
अब इम्तिहाँ की तमन्ना से फ़ाएदा क्या है
वो आसमाँ कि जिसे तुम न छू सकोगी कभी
उस आसमाँ की तमन्ना से फ़ाएदा क्या है

~ कफ़ील आज़र अमरोहवी


  Jan 13, 2018| e-kavya.blogspot.com
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कोई और छाँव देखेंगे

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कोई और छाँव देखेंगे,
लाभों घाटों की नगरी तज,
कोई और और गाँव देखेंगे।

सुबह सुबह के सपने लेकर,
हाटों हाटों खाए फेरे
ज्यों कोई भोला बंजारा, पहुँचे कहीं ठगों के डेरे,
इस मंडी में ओछे सौदे,
कोई और भाव देखेंगे।

भरी दुपहरी गाँठ गँवाई,
जिससे पूछा बात बनाई
जैसी किसी गाँव वासी की महानगर ने हँसी उड़ाई,
ठौर ठिकाने विष के दागे,
कोई और ठाँव देखेंगे।

दिन ढल गया उठ गया मेला,
खाली रहा उम्र का ठेला
ज्यों पुतलीघर के पर्दे पर खेला रह जाए अनखेला,
हार गए यह जनम जुए में,
कोई और दाँव देखेंगे।

किसे बताएँ इतनी पीड़ा,
किसने मन आँगन में बोई
मोती के व्यापारी को क्या, सीप उम्र भर कितना रोई,
मन के गोताखोर मिलेंगे,
कोई और नाव देखेंगे।

~ तारा प्रकाश जोशी


  Jan 12, 2018| e-kavya.blogspot.com
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इक बगल में चाँद होगा,

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इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ
इक बगल में नींद होगी, इक बगल में लोरियाँ
हम चाँद पे, हम चाँद पे,
रोटी की चादर डाल कर सो जाएँगे
और नींद से, और नींद से कह देंगे
लोरी कल सुनाने आएँगे

एक बगल में खनखनाती, सीपियाँ हो जाएँगी
एक बगल में कुछ रुलाती सिसकियाँ हो जाएँगी
हम सीपियो में, हम सीपियो में भर के सारे
तारे छू के आएँगे
और सिसकियो को, और सिसकियो को
गुदगुदी कर कर के यूँ बहलाएँगे
और सिसकियों को, गुदगुदी कर कर के यूँ बहलाएँगे

अब न तेरी सिसकियों पे कोई रोने आएगा
गम न कर जो आएगा वो फिर कभी ना जाएगा
याद रख पर कोई अनहोनी नहीं तू लाएगी
लाएगी तो फिर कहानी और कुछ हो जाएगी
याद रख पर कोई अनहोनी नहीं तू लाएगी
लाएगी तो फिर कहानी और कुछ हो जाएगी

होनी और अनहोनी की परवाह किसे है मेरी जान
हद से ज़्यादा ये ही होगा कि यहीं मर जाएँगे
हम मौत को, हम मौत को सपना बता कर
उठ खड़े होंगे यहीं
और होनी को, और होनी को ठेंगा दिखा कर
खिलखिलाते जाएँगे ,
और होनी को ठेंगा दिखा कर खिलखिलाते जाएँगे
और होनी को ठेंगा दिखा कर खिलखिलाते जाएँगे
और नींद से कह देंगे
लोरी कल सुनाने आएँगे

~ पीयूष मिश्र


  Jan 09, 2018| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, January 7, 2018

अच्छा है उन से कोई तक़ाज़ा

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अच्छा है उन से कोई तक़ाज़ा किया न जाए
अपनी नज़र में आप को रुस्वा किया न जाए
*तक़ाज़ा=माँगना, पूछना

हम हैं तिरा ख़याल है तेरा जमाल है
इक पल भी अपने आप को तन्हा किया न जाए
*जमाल=सुंदरता

उठने को उठ तो जाएँ तिरी अंजुमन से हम
पर तेरी अंजुमन को भी सूना किया न जाए
*अंजुमन=सभा

उन की रविश जुदा है हमारी रविश जुदा
हम से तो बात बात पे झगड़ा किया न जाए
*रविश= अंदाज़, मिज़ाज

हर-चंद ए'तिबार में धोके भी हैं मगर
ये तो नहीं किसी पे भरोसा किया न जाए

लहजा बना के बात करें उन के सामने
हम से तो इस तरह का तमाशा किया न जाए

इनआ'म हो ख़िताब हो वैसे मिले कहाँ
जब तक सिफ़ारिशों को इकट्ठा किया न जाए

इस वक़्त हम से पूछ न ग़म रोज़गार के
हम से हर एक घूँट को कड़वा किया न जाए

~ जाँ निसार अख़्तर


  Jan 07, 2018| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, January 6, 2018

न अब वो यादों का चढ़ता दरिया

न अब वो यादों का चढ़ता दरिया
न फ़ुर्सतों की उदास बरखा,
यूँ ही ज़रा सी कसक है दिल में
जो ज़ख़्म गहरा था भर गया वो

~ नासिर काज़मी

  Jan 06, 2018| e-kavya.blogspot.com
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पुन: शीत का आँचल फहरा

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पुन: शीत का आँचल फहरा...

जैसे मोती पात जड़े हैं,
हीरक कण झरते, बिखरे हैं,
डाली-डाली लुक-छुप, लुक-छुप
दल किरणों के खेल रहे हैं,
गोरे आसमान के सर पर
धूप ने बाँधा झिलमिल सेहरा |

पुन: शीत का आँचल फहरा।

बूढ़ी सर्दी हवा सुखाती,
कलफ़ लगा कर कड़क बनाती,
छटपट उसमें फँसी दुपहरी
समय काटने ठूँठ उगाती,
चमक रहा है सूर्य प्राणपण,
देखो हारा सा वह चेहरा |

पुन: शीत का आँचल फहरा।

रात कँटीली काली डायन,
सहमे घर औ’ राहें निर्जन,
है अधीन जादू निद्रा के
सभी दिशायें, जड़ औ’ जीवन,
अट्टहास करती रानी जब
सारा जग ज्यों जम कर ठहरा |

पुन: शीत का आँचल फहरा |

‍~ मानोशी चैटर्जी


  Jan 06, 2018| e-kavya.blogspot.com
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इन्हीं पत्थरों पे चल कर

इन्हीं पत्थरों पे चल कर, अगर आ सको तो आओ
मिरे घर के रास्ते में, कोई कहकशाँ नहीं है

*कहकशाँ=आकाशगंगा

~ मुस्तफ़ा ज़ैदी

  Jan 04, 2018| e-kavya.blogspot.com
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बाद मुद्दत उन्हें देख कर


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बाद मुद्दत उन्हें देख कर यूँ लगा
जैसे बेताब दिल को क़रार आ गया
आरज़ूओं के गुल मुस्कुराने लगे
जैसे गुलशन में जाने बहार आ गया

तिश्ना नज़रें मिली शोख़ नज़रों से जब
मय बरसने लगी जाम भरने लगे
साक़िया आज तेरी ज़रूरत नहीं
बिन पिये बिन पिलाये ख़ुमार आ गया

रात सोने लगी सुबह होने लगी
शम्अ बुझने लगी दिल मचलने लगे
वक़्त की रौशनी में नहायी हुई
ज़िन्दगी पे अजब सा निखार आ गया

हर तरफ मस्तियाँ हर तरफ दिलकशी
मुस्कुराते दिलों में खुशी ही खुशी
कितना चाहा मगर फिर भी उठ न सका
तेरी महफ़िल में जो एक बार आ गया

~ अली सरदार जाफ़री

  Jan 02, 2018| e-kavya.blogspot.com
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Monday, January 1, 2018

अभी होने दो समय को

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अभी होने दो
समय को
गीत फिर कुछ और

वक्त के बूढ़े कैलेंडर को
हटा दो,
नया टाँगों
वर्ष की पहली सुबह से
बाँसुरी की धुनें माँगो

सुनो निश्चित
आम्रवन में
आएगा फिर बौर

बर्फ की घटनाएँ
थोड़ी देर की हैं
धूप होंगी
खुशबुओं के टापुओं पर
टिकेगी फिर परी-डोंगी

साँस की
यात्राओं को दो
वेणुवन की ठौर

अभी बाकी
है अलौकिकता
हमारे शंख में भी
और बाकी हैं उड़ानें
सुनो, बूढ़े पंख में भी

इन थकी
पिछली लयों पर भी
करो तुम गौर

~ कुमार रवीन्द्र


  Jan 01, 2018| e-kavya.blogspot.com
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