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Friday, September 30, 2016

हम तो हैं परदेस में



हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चांद
अपनी रात की छत पर, कितना तनहा होगा चांद

जिन आँखों में काजल बनकर, तैरी काली रात
उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चांद

रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम में जाकर, अटका होगा चांद

चांद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चांद

~ राही मासूम रज़ा


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Thursday, September 29, 2016

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं



सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं

सच है , विपत्ति जब आती है ,
कायर को ही दहलाती है ,
सूरमा नहीं विचलित होते ,
क्षण एक नहीं धीरज खोते ,
विघ्नों को गले लगाते हैं ,
कांटों में राह बनाते हैं ।

मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं ,
संकट का चरण न गहते हैं ,
जो आ पड़ता सब सहते हैं ,
उद्योग - निरत नित रहते हैं ,
शुलों का मूळ नसाते हैं ,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं ।

है कौन विघ्न ऐसा जग में ,
टिक सके आदमी के मग में ?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़ ,
मानव जब जोर लगाता है ,
पत्थर पानी बन जाता है ।

गुन बड़े एक से एक प्रखर ,
हैं छिपे मानवों के भीतर ,
मेंहदी में जैसी लाली हो ,
वर्तिका - बीच उजियाली हो ,
बत्ती जो नहीं जलाता है ,
रोशनी नहीं वह पाता है ।

~ रामधारी सिंह 'दिनकर'


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Wednesday, September 28, 2016

अजनबी अजनबी



हमसफ़र बन के हम साथ हैं आज भी
फिर भी है ये सफ़र अजनबी अजनबी,
राह भी अजनबी मोड़ भी अजनबी
जाएँगे हम किधर अजनबी अजनबी

ज़िन्दगी हो गयी है सुलगता सफ़र
दूर तक आ रहा है धुआँ सा नज़र
जाने किस मोड़ पर खो गयी हर ख़ुशी
देके दर्द-ऐ-जिगर अजनबी अजनबी

हमने चुन चुन के तिनके बनाया था जो
आशियाँ हसरतों से सजाया था जो
है चमन में वही आशियाँ आज भी
लग रहा है मगर अजनबी अजनबी

किसको मालूम था दिन ये भी आयेंगे
मौसमों की तरह दिल बदल जायेंगे
दिन हुआ अजनबी रात भी अजनबी
हर घडी हर पहर अजनबी अजनबी

~ मदन पाल


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Tuesday, September 27, 2016

आप मिले तो लगा जिंदगी



आप मिले तो लगा जिंदगी
अपनी आज निहाल हुई
मन जैसे कश्मीर हुआ है
आँखें नैनीताल हुईं।

तन्हाई का बोझा ढो–ढो
कमर जवानी की टूटी
चेहरे का लावण्य बचाये
नहीं मिली ऐसी बूटी
आप मिले तो उम्र हमारी
जैसे सोलह साल हुई।

तारों ने सन्यास लिया था
चाँद बना था वैरागी
रात साध्वी बनकर काटी
दिन काटा बनकर त्यागी
आप मिले तो एक भिखारिन
जैसे मालामाल हुई।

कल तक तो सपनों की बग़िया
में पतझड़ का शासन था
कलियाँ थीं लाचार द्रोपदी
मौसम बना दुःशासन था
आप मिले तो लगा सुहागिन
हर पत्ती, हर डाल हुई।

बस्ती में रह कर भी हमने
उम्र पहाड़ों में काटी
कभी मिलीं हैं हमें ढलानें
कभी मिली ऊँची घाटी
आप मिले तो धूल राह की
चंदन और गुलाल हुई।

अंधे को मिल गई आँख
भूखे को आज मिली रोटी
जीवन की ऊसर धरती में
दूब उगी छोटी–छोटी
आप मिले तो सभी निलंबित
खुशियाँ आज बहाल हुईं
मन जैसे कश्मीर हुआ है
आँखें नैनीताल हुईं।

~ दिनेश प्रभात


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Monday, September 26, 2016

केवल मन के चाहे से ही



केवल मन के चाहे से ही
मनचाही होती नहीं किसी की।
बिना चले कब कहाँ हुई है
मंज़िल पूरी यहाँ किसी की।।

पर्वत की चोटी छूने को
पर्वत पर चढ़ना पड़ता है।
सागर से मोती लाने को
गोता खाना ही पड़ता है।।

उद्यम किए बिना तो चींटी
भी अपना घर बना न पाती।
उद्यम किए बिना न सिंह को
भी अपना शिकार मिल पाता।।

इच्‍छा पूरी होती तब, जब
उसके साथ जुड़ा हो उद्यम।
प्राप्‍त सफलता करने का है,
मूल-मंत्र उद्योग परिश्रम।।

~ द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी


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Sunday, September 25, 2016

बिन बुलाए आ गया मैं फिर



दो सजा मुझको असंयत कामना के ज्वार पर,
बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।

दो सजा मुझको, गड़ाऊँ आँख चरणों पर कभी
अनसुनी कर दो मिलन की धड़कने मेरी सभी,
तुम अनुत्तर बन सदा मेरी पुकारों से बचो
अब न तुम मुझमें नए विश्वास का सपना रचो,
प्राण पर मेरे तुम्हारी ही छलक छाई हुई
चेतना मेरी तुम्हीं में डूब उतराई हुई,
पंख-अध-कतरा पखेरू चंद्रमा से होड़ ले!
चाहता आकाश का नीला सितारा तोड़ ले!

तुम न मिटने भी मुझे दो अनगहे आधार पर,
बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।

दो सजा मुझको तनिक जो आस्था मेरी गले
मर गई जो ज्योति घुलघुल कर अगर फिर से जले,
दो सजा यदि मैं तुम्हारी छाँह को भी प्यार दूँ
यदि तुम्हारे संगदिल को एक भी झंकार दूँ,
यदि प्रकंपित कंठ से कुछ पास आने को कहूँ
मैं तुम्हारी एक भी मुस्कान पाने को कहूँ,
दो सज़ा मुझको तुम्हारा नाम होठों से चुए
हाथ भी मेरा तुम्हारी बादली वेणी छुए

चढ़ चुका अपनत्व सब मेरा पराई धार पर,
बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।

दो सज़ा मुझको कहूँ तुमसे मुझे बूझो तनिक
वेदनाओं की विपुलता में तुम्हीं सूझे तनिक,
दो सज़ा तुमसे तनिक भी शक्ति ले जीवित रहूँ
यदि तुम्हारे आसरे दुख की तरंगों में बहूँ
आँसुओं में भी कभी माँगू सहारा स्नेह का
स्वप्न भी देखूँ तुम्हारी देवदुर्लभ देह का,
मैं तुम्हें बाँधूँ तरसती चितवनों में निष्पलक
दो सजा पीता रहूँ मधु स्वर तुम्हारा देर तक,

गीत लिखने को तुम्हारे दर्प की दीवार पर,
बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।

मूँद दो दोनों नयन, दम तोड़ दो मेरा अभी
दो मुझे तुम दंड, है स्वीकार सिर माथे सभी,
मैं तुम्हारे रूप का उन्माद तन-मन में भरे
मैं तुम्हारी वज्रता का दर्द छाती में धरे,
यदि तुम्हें पीने लगूँ अपनी समूची प्यास भर
दो सजा मुझको - न सहने में रहे कोई कसर,
दो सजा यदि मैं तुम्हारा मन बहुत-सा घेर लूँ
दो सजा कुछ भी तुम्हारी मानता यदि फेर लूँ,

पूजता तुमको सुलगता दिल इसी अधिकार पर,
बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।

~ रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

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Saturday, September 24, 2016

फूल महकें मेरे आँगन में..



फूल महकें मेरे आँगन में सबा भी आये
तू जो आये तो मेरे घर में ख़ुदा भी आये।
*सबा= पूरब की सुगंधित हवा

इस क़दर ज़ख़्म लगाये हैं ज़माने ने कि बस
अब के शायद तेरे कूचे की हवा भी आये।
*कूचे=गली

ये भी कूचा-ए-जानां कि रिवायत कि यहाँ
लब पे शिकवा अगर आये तो दुआ भी आये।
*कूचा-ए-जानां=प्रेमिका की गली; रिवायत=रिवाज़

मैंने सौ तरहा जिसे दिल में छुपाये रखा
लोग वो ज़ख़्म ज़माने को दिखा भी आये।

क्या क़यामत है जो सूरज उतर आया सर पर
मेरी आँखों में दर आये, तो मज़ा भी आये।
*दर=घुस जाना

पिछले मौसम तो बड़ा कहत रहा ख़्वाबों का
अब के शायद कोई एहसास नया भी आये।
*कहत=कमी, अभाव; अहसास=अनुभूति

~ इफ़्तेख़ार आरिफ़


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Friday, September 23, 2016

बावरा मन देखने चला एक सपना



बावरा मन देखने चला एक सपना।

बावरे से मन की देखो बावरी हैं बातें
बावरी सी धड़कने हैं, बावरी हैं साँसें
बावरी सी करवटों से निंदिया दूर भागे
बावरे से नैन चाहे, बावरे झरोकों से, बावरे नजारों को तकना।
बावरा मन देखने चला एक सपना।।

बावरे से इस जहां मैं बावरा एक साथ हो
इस सयानी भीड़ मैं बस हाथों में तेरा हाथ हो
बावरी सी धुन हो कोई, बावरा एक राग हो
बावरे से पैर चाहें बावरें तरानों के, बावरे से बोल पे थिरकना।
बावरा मन देखने चला एक सपना।।

बावरा सा हो अंधेरा, बावरी खामोशियाँ
थरथराती लौ हो मद्धम, बावरी मदहोशियाँ
बावरी सी बंधनों मे हों, सनम की गलबाहियाँ
बावरा एक घुंघटा चाहे, हौले हौले बिन बताये, बावरे से मुखड़े से सरकना।
बावरा मन देखने चला एक सपना।।

~ स्वानन्द किरकिरे


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Thursday, September 22, 2016

लिख दिया तुम्‍हारा भाग्‍य समय ने



लिख दिया तुम्‍हारा भाग्‍य समय ने
उसी पुरानी कलम, पुराने शब्‍द-अर्थ से।
उसी पुराने हास-रुदन, जीवन-बंधन में,
उन्‍हीं पुराने केयूरों में
बँधा हुआ है नया स्‍वस्‍थ मन
नयी उमंगें, नव आशाएँ
नये स्‍नेह, उल्‍लास सृष्टि के संवेदन के।

उन्‍हीं जीर्ण-जर्जर वस्‍त्रों में नये आप को ढाँक न पाती
तुम अभिनव विंशति शताब्दि की
जागृत नारी,
जिस की साड़ी के अंचल में
बँधा हुआ है वही पुराना पाप-पंक
अविजेय पुरुष का।
नव जीवन के भिनसारे में
इस मैली सज्जा में तुमको
हुई नयी अनुभूति जगत की।

बड़े वेग से आज समय की नदी गिर रही
नव जीवन की आग तिर रही।
तुम इस में हो स्‍वयं समर्पित बही जा रही।
मैं नवीन आलोक बँधा हूँ तुम से
उसी पुरानी क्षुद्र गाँठ में
जीवन का सन्देश, भार बन इस यात्रा का।

~ हरिनारायण व्यास


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Wednesday, September 21, 2016

फूल से बोली कली



फूल से बोली कली क्यों व्यस्त मुरझाने में है
फ़ायदा क्या गंध औ मकरंद बिखराने में है
तूने अपनी उम्र क्यों वातावरण में घोल दी
अपनी मनमोहक पंखुरियों की छटा क्यों खोल दी

तू स्वयं को बाँटता है जिस घड़ी से तू खिला
किन्तु इस उपकार के बदले में तुझको क्या मिला
मुझको देखो मेरी सब ख़ुशबू मुझ ही में बंद है
मेरी सुन्दरता है अक्षय अनछुआ मकरंद है

मैं किसी लोलुप भ्रमर के जाल में फँसती नहीं
मैं किसी को देख कर रोती नहीं हँसती नहीं
मेरी छवि संचित जलाशय है सहज झरना नहीं
मुझको जीवित रहना है तेरी तरह मरना नहीं

मैं पली काँटो में जब थी दुनिया तब सोती रही
मेरी ही क्या ये किसी की भी कभी होती नहीं
ऐसी दुनिया के लिए सौरभ लुटाऊँ किसलिए
स्वार्थी समुदाय का मेला लगाऊँ किसलिए

फूल उस नादान की वाचालता पर चुप रहा
फिर स्वयं को देखकर भोली कली से ये कहा
ज़िंदगी सिद्धांत की सीमाओं में बँटती नहीं
ये वो पूंजी है जो व्यय से बढ़ती है घटती नहीं

चार दिन की ज़िन्दगी ख़ुद को जीए तो क्या जिए
बात तो तब है कि जब मर जाएँ औरों के लिए
प्यार के व्यापार का क्रम अन्यथा होता नहीं
वह कभी पता नहीं है जो कभी खोता नहीं

आराम की पूछो अगर तो मृत्यु में आराम है
ज़िन्दगी कठिनाइयों से जूझने का नाम है
स्वयं की उपयोगिता ही व्यक्ति का सम्मान है
व्यक्ति की अंतर्मुखी गति दम्भमय अज्ञान है

ये तुम्हारी आत्म केन्द्रित गंध भी क्या गंध है
ज़िन्दगी तो दान का और प्राप्ति का अनुबंध है
जितना तुम दोगे समय उतना संजोयेगा
तुम्हें पूरे उपवन में पवन कंधो पे ढोएगा तुम्हें

चाँदनी अपने दुशाले में सुलायेगी तुम्हें
ओस मुक्ता हार में अपने पिन्हायेगी तुम्हें
धूप अपनी अँगुलियों से गुदगुदाएगी तुम्हें
तितलियों की रेशमी सिहरन जगाएगी तुम्हें

टूटे मन वाले कलेजे से लगायेंगे तुम्हें
मंदिरों के देवता सिर पर चढ़ाएँगे तुम्हें
गंध उपवन की विरासत है इसे संचित न कर
बाँटने के सुख से अपने आप को वंचित न कर

यदि संजोने का मज़ा कुछ है तो बिखराने में है
ज़िन्दगी की सार्थकता बीज बन जाने में है
दूसरे दिन मैंने देखा वो कली खिलने लगी
शक्ल सूरत में बहुत कुछ फूल से मिलने लगी 

~ उदयप्रताप सिंह

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Tuesday, September 20, 2016

चाँदनी रात है जवानी भी




चाँदनी रात है जवानी भी,
कैफ़ परवर भी और सुहानी भी ।

हल्का-हल्का सरूर रहता है,
ऐश है ऐश ज़िन्दगानी भी ।

दिल किसी का हुआ, कोई दिल का,
मुख्तसर-सी है यह कहानी भी ।

दिल में उलफ़त, निगाह में शिकवे
लुत्फ़ देती है बदगुमानी भी ।

बारहा बैठकर सुना चुपचाप,
एक नग़मा है बेज़बानी भी ।

बुत-परस्ती की जो नहीं कायल
क्या जवानी है वो जवानी भी ।

इश्क़ बदनाम क्यों हुआ 'रहबर
कोई सुनता नहीं कहानी भी ।

~ हंसराज 'रहबर'

(एक वामपंथी लेखक, यह कविता 15 नवम्बर 1941, सेंट्रल जेल, संगरूर में लिखी गयी थी)
 
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Monday, September 19, 2016

मिलती जुलती बातें अपनी



मिलती जुलती बातें अपनी मसला एक रुहानी बाबा
तुम हो रमता जोगी - साधु, हम हैं बहता पानी बाबा

कठिन तपस्या है यह जीवन, राग-विराग तपोवन है
तुम साधक हो हम साधन हैं, दुनिया आनी-जानी बाबा

तुमने दुनिया को ठुकराया, हमको दुनिया वालों ने
हम दोनों की राह जुदा है, लेकिन एक कहानी बाबा

धुनी रमाये तुम बैठे हो, हम जलते अंगारों पर
तप कर और निखर जाने की हम दोनों ने ठानी बाबा

हृदय मरुस्थल बना हुआ है, और नयन में पानी है,
मौन साधकर ही झेलेंगे, मौसम की मनमानी बाबा।

रिश्ते नातों के बंधन से मुक्त हुए तुम भी हम भी,
अनुभव की बातें हैं अपनी अधरों पर क्यों लानी बाबा

~ अजय पाठक


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Sunday, September 18, 2016

मैं अकेला और पानी बरसता है



मैं अकेला और पानी बरसता है

प्रीती पनिहारिन गई लूटी कहीं है,
गगन की गगरी भरी फूटी कहीं है,
एक हफ्ते से झड़ी टूटी नहीं है,
संगिनी फिर यक्ष की छूटी कहीं है,
फिर किसी अलकापुरी के शून्य नभ में
कामनाओं का अँधेरा सिहरता है।

मोर काम-विभोर गाने लगा गाना,
विधुर झिल्ली ने नया छेड़ा तराना,
निर्झरों की केलि का भी क्या ठिकाना,
सरि-सरोवर में उमंगों का उठाना,
मुखर हरियाली धरा पर छा गई जो
यह तुम्हारे ही हृदय की सरसता है।

हरहराते पात तन का थरथराना,
रिमझिमाती रात मन का गुनगुनाना,
क्या बनाऊँ मैं भला तुमसे बहाना,
भेद पी की कामना का आज जाना,
क्यों युगों से प्यास का उल्लास साधे
भरे भादों में पपीहा तरसता है।
मैं अकेला और पानी बरसता है।

~ शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

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Saturday, September 17, 2016

पचास साल का इंसान



पचास साल का इंसान
न बूढ़ा होता है न जवान
न वो बच्चा होता है
न बच्चों की तरह
कच्चा होता है।
वो पके फलों से लदा
एक पेड़ होता है,
आधी उम्र पार करने के कारण
अधेड़ होता है।

पचास साल का इंसान
चुका हुआ नहीं होता
जो उसे करना है
कर चुका होता है,
जवानों से मीठी ईर्ष्या करता है
सद्भावना में फुका होता है

शामिल नहीं होता है
बूढ़ों की जमात में,
बिदक जाता है
ज़रा सी बात में।
बच्चे उससे कतराते हैं
जवान सुरक्षित दूरी अपनाते हैं,
बूढ़े उसके मामलों में
अपना पांव नहीं फंसाते हैं।
क्योंकि वो वैल कैलकुलेटैड
कल्टीवेटैड
पूर्वनियोजित और बार बार संशोधित
पंगे लेता है,
अपने पकाए फल,
अपनी माया, अपनी छाया
आसानी से नहीं देता है।
वो बरगद नहीं होता
बल्कि अगस्त महीने का
मस्त लेकिन पस्त
आम का पेड़ होता है,
जी हां, पचास का इंसान अधेड़ होता है।

यही वह उमर है जब
जब कभी कभी अंदर
बहुत अंदर कुछ क्रैक होता है,
हिम्मत न रखे तो
पहला हार्ट-अटैक होता है।
झटके झेल जाता है,
ज़िन्दगी को खेल जाता है।
क्योंकि उसके सामने
उसी का बनाया हुआ
घौंसला होता है,
इसीलिए जीने का हौसला होता है।

बौड़म जी बोले-
पचास का इंसान
चुलबुले बुलबुलों का एक बबाल है,
पचास की उमर
उमर नहीं है
ट्रांज़ीशन पीरियड है
संक्रमण काल है।

~ अशोक चक्रधर


Sep 17, 2015|e-kavya.blogspot.com
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सोचते सोचते फिर मुझको ख़्याल आता है



सोचते सोचते फिर मुझको ख़्याल आता है
वो मेरे रंजो-मसाइब का मदावा तो न थी
रंग अफ़्शा थी मेरे दिल के खलाओं में मगर
एक औरत थी इलाजे गम दुनिया तो न थी
*रंजो-मसाइब=दुःख-दर्द; मदावा=इलाज; रंग अफ़्शा=रँग भरती; खलाओं=रिक्त स्थानों

मेरे इदराक के नासूर तो रिसते रहते
मेंरी होकर भी वो मेरे लिए क्या कर लेती
हसरत ओ यास के गम्भीर अँधेरे में भला
एक नाज़ुक सी किरण साथ कहाँ तक देती
*इदराक=सोच/अक्ल; हसरत-ओ-यास=आशा-निराशा

उसको रहना था ज़र-ओ-सीम के एवानों में
रह भी जाती वो मेरे साथ तो रहती कब तक
एक मगरूर साहूकार की प्यारी बेटी
भूख और प्यास की तकलीफ सहती कब तक
*ज़र-ओ-सीम के एवानों=सोने चांदी के महलों; मगरूर=घमंडी

एक शायर की तमन्नाओं को धोखा देकर
उसने तोड़ी है अगर प्यार भरे गीत की लय
उस पे अफ़सोस है क्यों उस पे ताज्जुब कैसा
यह मुहब्बत भी तो अहसास का इक धोखा है

~ नरेश कुमार शाद


Sep 16, 2015|e-kavya.blogspot.com
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मैं बज़्म-ए-तसव्वुर में उसे




मैं बज़्म-ए-तसव्वुर में उसे लाए हुए था
जो साथ न आने की क़सम खाए हुए था

दिल जुर्म-ए-मोहब्बत से कभी रह न सका बाज़
हालांकि बहुत बार सज़ा पाए हुए था

हम चाहते थे कोई सुने बात हमारी
ये शौक़ हमें घर से निकलवाए हुए था

होने न दिया ख़ुद पे मुसल्लत उसे मैं ने
जिस शख़्स को जी जान से अपनाए हुए था

बैठे थे 'शऊर' आज मेरे पास वो गुम-सुम
मैं खोए हुए था न उन्हें पाए हुए था

~ अनवर शऊर


Sep 15, 2015|e-kavya.blogspot.com
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है प्यार की भाषा हिंदी



घर-बार की भाषा हिंदी
व्यवहार की भाषा हिँदी
सारी दुनिया कहती है
है प्यार की भाषा हिंदी ।

हर वर्ण वर्ण-माला का
है द्वार पाठशाला का
हर शब्द तपस्या गृह है
है आसन मृगछाला का

मधु प्यार की भाषा हिंदी
मनुहार की भाषा हिंदी
सारी दुनिया कहती है
है प्यार की भाषा हिंदी ।

हिंदी का अक्षर-अक्षर
है वीणा पाणी का स्वर
गूँजी है जिससे धरती
गूँजा है जिससे अम्बर

उपहार की भाषा हिंदी
त्योहार की भाषा हिंदी
सारी दुनिया कहती है
है प्यार की भाषा हिंदी

हिंदी की बोली-बानी
जाने है प्रीत निभानी
सब को ही गले लगाया
बनकर खुद हिंदुस्तानी

उपकार की भाषा हिंदी
सत्कार की भाषा हिंदी
सारी दुनिया कहती है
है प्यार की भाषा हिंदी ।

~ कुँअर बेचैन


Sep 14, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

धनिकों के तो धन हैं लाखों



धनिकों के तो धन हैं लाखों
मुझ निर्धन के धन बस तुम हो!

कोई पहने माणिक माल
कोई लाल जड़ावे
कोई रचे महावर मेंहदी
मोतियन मांग भरावे
सोने वाले चांदी वाले
पानी वाले पत्थर वाले

तन के तो लाखों सिंगार हैं
मन के आभूषण बस तुम हो!
धनिकों के तो धन हैं लाखों
मुझ निर्धन के धन बस तुम हो!

कोई जावे पुरी द्वारिका
कोई ध्यावे काशी
कोई तपे त्रिवेणी संगम
कोई मथुरा वासी
उत्तर-दक्खिन, पूरब-पच्छिम
भीतर बाहर, सब जग जाहर

संतों के सौ-सौ तीरथ हैं
मेरे वृन्दावन बस तुम हो!
धनिकों के तो धन हैं लाखों
मुझ निर्धन के धन बस तुम हो!

कोई करे गुमान रूप पर
कोई बल पर झूमे
कोई मारे डींग ज्ञान की
कोई धन पर घूमे
काया-माया, जोरू-जाता
जस-अपजस, सुख-दुःख, त्रिय-तापा

जीता मरता जग सौ विधि से
मेरे जन्म-मरण बस तुम हो!
धनिकों के तो धन हैं लाखों
मुझ निर्धन के धन बस तुम हो!

~ गोपाल दास 'नीरज'


Sep 13, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

सबको मालूम है मैं शराबी नहीं





सबको मालूम है मैं शराबी नहीं
फिर भी कोई पिलायें तो मैं क्या करूँ
सिर्फ़ इक बार नज़रों से नज़रें मिलें
और कसम टूट जाये तो मैं क्या करूँ

मुझ को मयकश समझते हैं सब वादाकश
क्यों की उनकी तरह लड़खड़ाता हूँ मैं
मेरी रग रग में नशा मोहब्बत का है
जो समझ में ना आये तो मैं क्या करूँ

मैंने माँगी थी मस्जिदों में दुआ
मैं जिसे चाहता हूँ वो मुझको मिले
मेरा जो फ़र्ज़ था मैंने पूरा किया
अब ख़ुदा ही न चाहे तो मैं क्या करूँ

हाल सुनकर मेरा सहमे सहमे हैं वो
कोई आया है ज़ुल्फें बिखेरे हुये
मौत और ज़िंदगी दोनो हैरान हैं
दम निकलने ना पाये तो मैं क्या करूँ

कैसी लत, कैसी चाहत, कहाँ की ख़ता
बेख़ुदी में है अनवर ख़ुद ही का नशा
ज़िंदगी एक नशे के सिवा कुछ नहीं
तुमको पीना ना आये तो मैं क्या करूँ

~ अनवर फरूख़ाबादी


Sep 12, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

कभी तो खुल के बरस अब्र-ए-मेहरबाँ



कभी तो खुल के बरस अब्र-ए-मेहरबाँ की तरह,
मेरा वजूद है जलते हुए मकाँ की तरह
*अब्र-ए-मेहरबाँ=मेहरबान बादल; वजूद=आस्तित्व

भरी बहार का सीना है ज़ख़्म ज़ख़्म मगर
सबा ने गाई हैं लोरी शफ़ीक़ मन की तरह
*सबा=हवा; शफ़ीक़=दयालु

वो कौन था जो बरहना बदन चट्टानों से
लिपट गया था कभी बह्र-ए-बेकराँ की तरह
*बरहना=नंगे; बह्र-ए-बेकराँ=अंतहीन समुद्र

सकूत-ए-दिल तो जज़ीरा है बर्फ़ का लेकिन
तेरा ख़ुलूस है सूरज के सायेबाँ की तरह
*सकूत-ए-दिल=दिल की ख़ामोशी; जज़ीरा=द्धीप, टापू; ख़ुलूस=सरलता, निष्ठां; सायेबाँ=छाया देने वाला

मैं इक ख़्वाब सही आपकी अमानत हूँ,
मुझे संभाल के रखियेगा जिस्म-ओ-जाँ की तरह

कभी तो सोच के वो शख़्स किस कदर था बुलंद,
जो बिछ गया तेरे क़दमों में आस्माँ की तरह

बुला रहा है मुझे फिर किसी बदन का बसंत,
गुज़र न जाए ये रुत भी कहीं ख़िज़ाँ की तरह
*ख़िज़ाँ=पतझड़

लहू है निस्फ़ सदी का जिस के आबगीने में
न देख 'प्रेम' उसे चश्म-ए-अर्ग़वाँ की तरह
*निस्फ़=आधा; आबगीना=बोतल; अर्ग़वाँ=एक लाल फूल; चश्म-ए-अर्ग़वाँ=लाल आँखें

~ प्रेम वरबारतोनी


Sep 5, 2015|e-kavya.blogspot.com
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तेरे देस में जाने क्या हो



तेरे देस में जाने क्या हो
रुत कैसी हो कैसी हवा हो
लेकिन मेरे देस में अबके
अब्र बहुत खुल कर बरसा है
जंगल, पर्बत, शहर, बयाँबाँ
वीराने, मयख़ाने, गलियाँ
हर पैरहन भीग चुका है

रातें कितनी बार न जानें
जाम लिए आई थीं लेकिन
जाम ने तेरी बात नहीं की
रात ने तेरे ग़म न जगाए
पलकों पर एक बून्द न आई

पीले-पीले अब्र भी अबके
तेरे गेसू भूल गया था
पीली-पीली सर्द हवाएँ
मेरे दामन जला न सकी थीं

सूरज ने अब्र की चौखट पर
तेरे रूख़सारों की ज़ियाँ को
जाने क्यों आवाज़ नहीं दी
किस धुन में था चाँद न जाने
तेरा माथा याद ना आया

आबादी को तेरी आँखें
वीरानों को तेरा तबस्सुम
अब के कुछ भी याद नहीं है
मैं कुछ इतना ख़ुश तो नहीं था
न जाने क्यूँ अब के बरखा रुत
क्यूँ इतनी अनजान गई है

सोच रहा हूँ शायद दिल को
और भी कुछ जीने के बहाने
दर्द दे जहाँ ने बख़्श दिए हैं
और मैं इस आबाद जहाँ में
तेरा चेहरा भूल गया हूँ

~ अज़ीज़ क़ैसी


Sep 4, 2015|e-kavya.blogspot.com
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मृषा मृत्यु का भय है



मृषा मृत्यु का भय है
जीवन की ही जय है ।

जीव की जड़ जमा रहा है
नित नव वैभव कमा रहा है
यह आत्मा अक्षय है
जीवन की ही जय है।

नया जन्म ही जग पाता है
मरण मूढ़-सा रह जाता है
एक बीज सौ उपजाता है
सृष्टा बड़ा सदय है
जीवन की ही जय है।

जीवन पर सौ बार मरूँ मैं
क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं
यदि न उचित उपयोग करूँ मैं
तो फिर महाप्रलय है
जीवन की ही जय है।

~ मैथिलीशरण गुप्त


Sep 3, 2015|e-kavya.blogspot.com
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सत्तर सीढ़ी उमर चढ़ गयी

सत्तर सीढ़ी उमर चढ़ गयी
बचपन नहीं भुलाये भूला

झुकी कमर पर मुझे बिठाना
बाबा का घोड़ा बन जाना
अजिया का आशीष, पिता का
गंडे ताबीजें पहनाना

अम्मा के हाथों माथे का
अनखन नहीं भुलाये भूला

कागज़ की नावें तैराना
जल उछालना, नदी नहाना
माटी की दीवारें रचकर
जग से न्यारे भवन बनाना

सरकंडों, सिलकौलों वाला
छाजन नहीं भुलाये भूला
सत्तर सीढ़ी उमर चढ़ गयी
बचपन नहीं भुलाये भूला

~ शिव बहादुर सिंह भदौरिया


Sep 2, 2015|e-kavya.blogspot.com
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प्यारी, बड़े मीठे लगते हैं मुझे तेरे बोल



प्यारी,
बड़े मीठे लगते हैं मुझे तेरे बोल !
अटपटे और ऊल-जुलूल
बेसर-पैर कहाँ से कहाँ तेरे बोल !

कभी पहुँच जाती है अपने बचपन में
जामुन की रपटन-भरी डालों पर
कूदती हुई फल झाड़ती
ताड़का की तरह गुत्थम-गुत्था अपने भाई से
कभी सोचती है अपने बच्चे को
भाँति-भाँति की पोशाकों में
मुदित होती है

हाई स्कूल में होमसाइंस थी
महीने में जो कहीं देख लीं तीन फ़िल्में तो धन्य ,
प्यारी
गुस्सा होती है तो जताती है अपना थक जाना
फूले मुँह से उसाँसे छोड़ती है फू-फू
कभी-कभी बताती है बच्चा पैदा करना कोई हँसी-खेल नहीं
आदमी लोग को क्या पता
गर्व और लाड़ और भय से चौड़ी करती ऑंखें
बिना मुझे छोटा बनाए हल्का-सा शर्मिन्दा कर देती है
प्यारी

दोपहर बाद अचानक उसे देखा है मैंने
कई बार चूड़ी समेत कलाई को माथे पर
अलसाए
छुप कर लेटे हुए जाने क्या सोचती है
शोक की लौ जैसी एकाग्र

यों कई शताब्दियों से पृथ्वी की सारी थकान से भरी
मेरी प्यारी !

~ वीरेन डंगवाल


Sep 2, 2015|e-kavya.blogspot.com
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अपने होने का सुबूत और निशाँ




अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है
रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है

नशे में डूबे कोई, कोई जिए, कोई मरे
तीर क्या-क्या तेरी आँखों की कमाँ छोड़ती है

ख़ुद भी खो जाती है, मिट जाती है, मर जाती है
जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बाँ छोड़ती है

आत्मा नाम ही रखती है न मज़हब कोई
वो तो मरती भी नहीं सिर्फ़ मकाँ छोड़ती है

एक दिन सब को चुकाना है अनासिर का हिसाब
ज़िन्दगी छोड़ भी दे मौत कहाँ छोड़ती है
*अनासिर=पंच-तत्व

मरने वालों को भी मिलते नहीं मरने वाले
मौत ले जा के ख़ुदा जाने कहाँ छोड़ती है

~ कृष्ण बिहारी नूर


Sep 1, 2015|e-kavya.blogspot.com
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तू जहाँ तक कहे उम्मीद


तू जहाँ तक कहे उम्मीद वहाँ तक रखूँ
पर, हवाओं पे घरौंदे मैं कहाँ तक रखूँ।

दिल की वादी से ख़िज़ाओं का अजब रिश्ता है
फूल ताज़ा तेरी यादों के कहाँ तक रखूँ।

~ आलोक श्रीवास्तव

Aug 31, 2015|e-kavya.blogspot.com
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धीरज रखना भाई नीले आसमान



धीरज रखना
भाई नीले आसमान
फिर कोई बिजली मत गिरा देना
बिना घनों के

क्योंकि संकल्प हमारे मनों के
इस समय ज़रा अलग हैं

हम धूलिकणों के बने हुये
रसाल-फलों में
बदल रहे हैं अपने-अपने
छोटे-बड़े सपने

धीरज रखना
भाई नीले आसमान
फिर कोई बिजली मत गिरा देना
बिना घनों के

~ भवानी प्रसाद मिश्र


Aug 31, 2015|e-kavya.blogspot.com
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फिर मेरे हाथों में गुलाब की कली है



फिर मेरे हाथों में गुलाब की कली है,
फिर मेरे आँखों में वही उत्सुक चपलता है।

सोचा था यहाँ
तुमसे बहुत दूर
शयद सुकून मिले
....पर यहाँ लम्बे - सड़क कोठियों में
गुलाबों के पौधे हैं
और रास्ता चलते
बँगलों में लगे गुलाबों को तोड़ लेने जैसा मेरा मन है
..... और फिर तुम तो
सूना जूड़ा दिखाती हुई
अनायास सैकडों मील दूरी से पास आती हुई...।

और फिर...
फिर वही दिशा है गंतव्य
जो तुम्हारी है
फिर वही दर्शन है, आत्मीय
फिर वही विष है उपभोग्य
मेरा उपजीव्य आह!
फिर वही दर्द है - अकेलापन !

~ दुष्यंत कुमार


Aug 29, 2015|e-kavya.blogspot.com
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कहीं शांति से मुझे न रहने दे




कहीं शांति से मुझे न रहने देगा मानव!
अकर्मण्यता मुझे, न सहने देगा मानव!

दूर वनों में सरिताओं के शीश तटों पर
सूनी छायाओं के नीचे लेट मनोहर
विहगों के स्वर मुझे न सुनने देगा मानव!

यौवन के प्रभात में पुष्पों के उपवन में
खड़ी किसी मृदु मुखी मृगी के प्रिय चिंतन में
मुझे नयन भर खड़ा न रहने देगा मानव!

शोषित-पीडि़त अत्याचार सहस्त्र सहन कर
चला जा रहा अविराम विजय के पथ पर
अकर्मण्यता मुझे, न सहने देगा मानव!

बज्रों की, भूकंपों की, उल्कापातों की
रौद्र शक्तियों से कठोर रण कर पग पग पर
मुझे शांति से कहीं न रहने देगा मानव!

ऐसे समय घाटियों में लेटे जीवन की
अकर्मण्यता मुझे, न सहने देगा मानव!

~ चंद्रकुँवर बर्त्वाल


Aug 28, 2015|e-kavya.blogspot.com
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कोई अटका हुआ है पल शायद



कोई अटका हुआ है पल शायद
वक़्त में पड़ गया है बल शायद

लब पे आई मिरी ग़ज़ल शायद
वो अकेले हैं आजकल शायद

दिल अगर है तो दर्द भी होगा
इसका कोई नहीं है हल शायद

जानते हैं सबाब-ए-रहम-ओ-करम
उन से होता नहीं अमल शायद
*सबाब-ए-रहम-ओ-करम=अच्छे कर्मो का पुण्य

आ रही है जो चाप क़दमों की
खिल रहे हैं कहीं कँवल शायद

राख़ को भी कुरेद कर देखो
अभी जलता हो कोई पल शायद

चाँद डूबे तो चाँद ही निकले
आप के पास होगा हल शायद

~ गुलज़ार


Aug 26, 2015|e-kavya.blogspot.com
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प्रेम रंग तो एक है


प्रेम रंग तो एक है, विस्तृत कान्हा रूप
कोई रस बस जाइये इतने प्रभु स्वरूप।

‍~ अशोक सिंह

Aug 25, 2015|e-kavya.blogspot.com
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कृष्ण उठत, कृष्ण चलत




कृष्ण उठत, कृष्ण चलत, कृष्ण शाम-भोर है,
कृष्ण बुद्धि, कृष्ण चित्त, कृष्ण मन विभोर है।
कृष्ण रात्रि, कृष्ण दिवस, कृष्ण स्वप्न-शयन है,
कृष्ण काल, कृष्ण कला, कृष्ण मास, अयन है।
कृष्ण शब्द, कृष्ण अर्थ, कृष्ण ही परमार्थ है,
कृष्ण कर्म, कृष्ण भाग्य कृष्ण ही पुरुषार्थ है।
कृष्ण स्नेह, कृष्ण राग, कृष्ण ही अनुराग है,
कृष्ण कली, कृष्ण कुसुम, कृष्ण ही पराग है।
कृष्ण भोग, कृष्ण त्याग, कृष्ण तत्व ज्ञान है,
कृष्ण भक्ति, कृष्ण प्रेम, कृष्ण ही विज्ञान है।
कृष्ण स्वर्ग कृष्ण मोक्ष, कृष्ण परम साध्य है,
कृष्ण जीव, कृष्ण ब्रह्म, कृष्ण ही आराध्य है।

*अयन=छः मास (हिन्दू समय मापन इकाई)

~ इस सुंदर भावमय कविता के रचयिता का नाम अज्ञात है, यदि किसी को कवि का नाम मालूम हो ज़रूर बतायें।


Aug 25, 2015|e-kavya.blogspot.com
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ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा

ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो।
शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीख तो लाखों का गुज़ारा ही न हो।।

~ जाँ निसार अख़्तर

Aug 24, 2015|e-kavya.blogspot.com
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मुहब्बत ऐसा नगमा है





मुहब्बत ऐसा नगमा है
ज़रा भी झोल हो लय में
तो सुर कायम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा शोला है
हवा जैसी भी चलती हो
कभी मद्धम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा रिश्ता है
के जिसमे बंधने वालों के
दिलों में गम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा पौधा है
जो तब भी सब्ज़ रहता है
के जब मौसम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा रास्ता है
अगर पैरों में लर्जिश हो
तो ये महरम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा दरिया है
के बारिश रूठ भी जाये
तो पानी कम नहीं होता

~ अमजद इस्लाम अमजद


Aug 24, 2015|e-kavya.blogspot.com
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मुझे जो छू लिया तूने नहीं कुछ होश




मुझे जो छू लिया तूने, नहीं कुछ होश रहता है।
कभी दिल ये सिसकता है, कभी दिल ये महकता है॥

उन पलकों की मुंडेरों पे, उतरती धूप-सा काजल,
उन निगाहों के दरीचों से फिसलते अश्क की साँकल,
इस साँकल से लिपटकर जब, तेरा काजल बिखरता है,
तेरी आँखों का हर कतरा मेरी आँखों से बहता है।
मुझे जो छू लिया तूने, नहीं कुछ होश रहता है।

मेरे चाहत के पंछी का तेरा दिल ही ठिकाना है,
उसी की शरारत तो ये धड़कन का तराना है,
मचलकर इस तराने से तेरा आँचल जो गिरता है,
बिना पीए ही सारा जिस्म थिरकता है, बहकता है।
मुझे जो छू लिया तूने, नहीं कुछ होश रहता है।

तुलसी की महक-सी तुम मेरी साँसों में बसती है,
गालिब की गजल बनकर जुबां से तुम फिसलती हो,
मैं जलता हूँ, जलूँगा, कौन किसकी फिक्र करता है,
जलने में मजा है क्या वह दिया ही समझता है।
मुझे जो छू लिया तूने, नहीं कुछ होश रहता है।

दो पाटों में नदी की सी चली है जिंदगी मेरी,
मिलन की आरजू लेकर बही है जिंदगी मेरी,
लहर को है कहाँ मालूम किनारा क्यों तरसता है,
उसी की याद में हरदम धीरे-धीरे कटता है।
मुझे जो छू लिया तूने, नहीं कुछ होश रहता है

~ अमित कुलश्रेष्ठ


Aug 23, 2015|e-kavya.blogspot.com
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तुम्हें याद हो कि न याद हो



वो किसी से तुम को जो रब्त था तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो किसी पे था कोर्इ मुब्तला तुम्हें याद हो कि न याद हो
*रब्त=मेल-जोल और आत्मीयता; मुब्तला=आसक्त

कभी हम में तुम में भी प्यार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
कभी हम भी तुम भी थे एक-जा तुम्हें याद हो कि न याद हो

वो बनाना चेहरा इताब का वो न देना मुँह से जवाब का
वो किसी की मिन्नत ओ इल्तिजा तुम्हें याद हो कि न याद हो
*इताब=गुस्सा

तुम्हें जिस की चाह पे नाज़ था जो तुम्हारा महरम-ए-राज़ था
मैं वही हूँ आशिक़-ए-बा-वफ़ा तुम्हें याद हो कि न याद हो
*महरम-ए-राज़=प्रेम में छुपायी गयी बातें; आशिक़-ए-बा-वफ़ा=सच्चा प्रेमी

कभी हम में तुम में भी साज़ थे कभी हम भी वक़्फ़-ए-नियाज़ थे
हमें याद था सो जता दिया तुम्हें याद हो कि न याद हो
*वक़्फ़-ए-नियाज़=दुआ में तल्लीन

कभी बोलना वो ख़फ़ा ख़फ़ा कभी बैठना वो जुदा जुदा
वो ज़माना नाज़ ओ नियाज़ का तुम्हें याद हो कि न याद हो
*नाज़=गर्व; नियाज़=तमन्ना

अभी थोड़े दिन का है तज़्किरा कि रक़ीब कहते थे बर्मला
मेरे आगे तुम को बुरा-भला तुम्हें याद हो कि न याद हो
*तज़्किरा=ज़िक्र; बर्मला=खुले-आम

कभी हँस के मुँह को छुपा लिया कभी मुस्कुरा के दिखा दिया
कभी शोख़ियाँ थीं कभी हया तुम्हें याद हो कि न याद हो

जो बना है आरिफ़-ए-बा-ख़ुदा ये वही 'ज़हीर' है बे-हया
वो जो रिंद-ए-ख़ाना-बदोश था तुम्हें याद हो कि न याद हो
*आरिफ़-ए-बा-ख़ुदा=जिसको ख़ुदा की जानकारी हो; रिंद-ए-ख़ाना-बदोश=पियक्कड़ - आवारा

~ 'ज़हीर' देहलवी


Aug 21, 2015|e-kavya.blogspot.com
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ग़म नहीं हो तो ज़िंदगी भी क्या



ग़म नहीं हो तो ज़िंदगी भी क्या
ये ग़लत है तो फिर सही भी क्या

सच कहूँ तो हजार तकलीफ़ें
झूठ बोलूं तो आदमी भी क्या

बाँट लेती हैं मुश्किलें अपनी
हो न ऐसा तो दोस्ती भी क्या

चंद दाने, उड़ान मीलों की
हम परिंदों की ज़िंदगी भी क्या

रंग वो क्या है जो उतर जाए
जो चली जाए वो ख़ुशी भी क्या

~ हस्तीमल 'हस्ती'


Aug 20, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

अब एक कम है तो एक की आवाज कम



अब एक कम है तो एक की आवाज कम है
एक का अस्तित्व एक का प्रकाश
एक का विरोध
एक का उठा हुआ हाथ कम है
उसके मौसमों के वसंत कम हैं

एक रंग के कम होने से
अधूरी रह जाती है एक तस्वीर
एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश
एक फूल के कम होने से फैलता है उजाड़ सपनों के बागीचे में

एक के कम होने से कई चीजों पर फर्क पड़ता है एक साथ
उसके होने से हो सकनेवाली हजार बातें
यकायक हो जाती हैं कम
और जो चीजें पहले से ही कम हों
हादसा है उनमें से एक का भी कम हो जाना

मैं इस एक के लिए
मैं इस एक के विश्वास से
लड़ता हूँ हजारों से
खुश रह सकता हूँ कठिन दुःखों के बीच भी

मैं इस एक की परवाह करता हूँ

~ कुमार अंबुज


Aug 20, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

जिस छिद्र में फूँक भरने से

जिस छिद्र में फूँक भरने से
मेरी बाँसुरी बजती है,
तुमने उसी में फूँक भरी है।

उस फूँक से जो स्वर निकलेगा,
उससे सारा जंगल हिल उठेगा।
पक्षी बोल उठेंगे,
हवा चल पड़ेगी,
फूल खिल उठेगा।

~ नंदकिशोर नवल


Aug 19, 2015|e-kavya.blogspot.com
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