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Wednesday, May 30, 2018

उसकी चूड़ी, उसकी बेंदी

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उसकी चूड़ी, उसकी बेंदी, उसकी चुनर से अलग।
मैं सफर में भी न हो पाया कभी घर से अलग।

गो कि मेरी ‘पास-बुक’ से भी बड़े थे उनके ख्वाब
फिर भी उसने पाँव फैलाये न चादर से अलग।

मुझसे वो अक्सर लड़ा करती है, मतलब साफ है
वो न भीतर से अलग है, वो न बाहर से अलग।

पत्रिकायें उसके पढ़ने की मैं लाया था कई
फिर भी उसने कुछ न देखा मेरे स्वेटर से अलग।

सोच में उसके भरी हैं मेरी लापरवाहियाँ
यों वो सोने जा रही हैं मेरे बिस्तर से अलग।

उम्र ढलते ही बनेगा कौन मेरा आइना
हो न पाया मैं कभी उससे इसी डर से अलग।

दोस्तों, हर प्रश्न का उत्तर तुम्हें मिल जायेगा
सोचना कुछ देर घर को अपने दफ्तर से अलग।

~ उर्मिलेश शंखधर


  May 30, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Monday, May 28, 2018

कोई ये कैसे बताए

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कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यूँ है
वो जो अपना था वही और किसी का क्यूँ है
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यूँ है
यही होता है तो आख़िर यही होता क्यूँ है

इक ज़रा हाथ बढ़ा दें तो पकड़ लें दामन
उन के सीने में समा जाए हमारी धड़कन
इतनी क़ुर्बत है तो फिर फ़ासला इतना क्यूँ है
*क़ुर्बत=नजदीकी

दिल-ए-बर्बाद से निकला नहीं अब तक कोई
इस लुटे घर पे दिया करता है दस्तक कोई
आस जो टूट गई फिर से बंधाता क्यूँ है

तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता
कहते हैं प्यार का रिश्ता है जनम का रिश्ता
है जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यूँ है
*मसर्रत=ख़ुशी

~ कैफ़ी आज़मी

  May 28, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, May 25, 2018

अब तो नींद नहीं आएगी

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अब तो नींद नहीं आएगी
देख सिरहाने याद तुम्हारी

हमने तो रिश्ता बोया था
प्यार न जाने कब उग आया
कब सींचा कब हरा हो गया
कैसे कर दी शीतल छाया
अब इस दिल को कौन संभाले
ना कांधा ना बांह तुम्हारी

कब जाना था साथ बंधे तो
दूर-दूर हो अलग चलेंगे
सातों कसमें खाने वाले
दो बातों तक को तरसेंगे
आधी रातें घनी चाँदनी
आँगन सूना मौसम भारी

दुनिया छोटी है, सुनते थे
दूर न कोई जा पाता है
समय लगा कर पंख, कहा था
पल भर में ही उड़ जाता है
पर पल भी युग बन जाता है
नहीं पता थी यह लाचारी

~ पूर्णिमा वर्मन

  May 27, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

काश मैं तेरे बुन-ए-गोश में बुंदा होता

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काश मैं तेरे बुन-ए-गोश (कान) में बुंदा होता
रात को बे-ख़बरी में जो मचल जाता मैं
तो तिरे कान से चुप-चाप निकल जाता मैं
सुब्ह को गिरते तिरी ज़ुल्फ़ों से जब बासी फूल
मेरे खो जाने पे होता तिरा दिल कितना मलूल (दुखी)

तू मुझे ढूँढती किस शौक़ से घबराहट में
अपने महके हुए बिस्तर की हर इक सिलवट में
जूँ ही करतीं तिरी नर्म उँगलियाँ महसूस मुझे
मिलता इस गोश (कान) का फिर गोशा-ए-मानूस (परिचित हिस्सा) मुझे
कान से तू मुझे हरगिज़ न उतारा करती
तू कभी मेरी जुदाई न गवारा करती

यूँ तिरी क़ुर्बत-ए-रंगीं(रंगीनियों से नज़दीकी) के नशे में मदहोश
उम्र भर रहता मिरी जाँ मैं तिरा हल्क़ा-ब-गोश (आदी)
काश मैं तेरे बुन-ए-गोश में बुंदा होता

~ मजीद अहमद

  May 25, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, May 18, 2018

जब तवक़्क़ो ही उठ गई

जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब'
क्यूँ किसी का गिला करे कोई
*तवक़्क़ो=उम्मीद
~ मिर्ज़ा ग़ालिब

جب توقع ہی اٹھ گئی غالبؔ
کیوں کسی کا گلہ کرے کوئی
مرزا غالب ~  

  May 10, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

देर लगी आने में तुम को

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देर लगी आने में तुम को शुक्र है फिर भी आए तो
आस ने दिल का साथ न छोड़ा वैसे हम घबराए तो

शफ़क़ धनक महताब घटाएँ तारे नग़्मे बिजली फूल
इस दामन में क्या क्या कुछ है दामन हाथ में आए तो
*शफ़क़=साँझ का धुँधलका; धनक=इंद्रधनुष; महताब=चाँद

चाहत के बदले में हम तो बेच दें अपनी मर्ज़ी तक
कोई मिले तो दिल का गाहक कोई हमें अपनाए तो

क्यूँ ये मेहर-अंगेज़ तबस्सुम मद्द-ए-नज़र जब कुछ भी नहीं
हाए कोई अंजान अगर इस धोके में आ जाए तो
*मेहर-अंगेज़=मोहब्बत से भरी; तबस्सुम=मुस्कान; मद्द-ए-नज़=आँखों के सामने

सुनी-सुनाई बात नहीं ये अपने उपर बीती है
फूल निकलते हैं शो'लों से चाहत आग लगाए तो

झूट है सब तारीख़ हमेशा अपने को दोहराती है
अच्छा मेरा ख़्वाब-ए-जवानी थोड़ा सा दोहराए तो
*ख़्वाब-ए-जवानी=जवानी के सपने

नादानी और मजबूरी में यारो कुछ तो फ़र्क़ करो
इक बे-बस इंसान करे क्या टूट के दिल आ जाए तो

~ अंदलीब शादानी


  May 18, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

किन ख़यालात में यूँ रहती हो

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किन ख़यालात में यूँ रहती हो खोई खोई
चाय का पानी पतीली में उबल जाता है
राख को हाथ लगाती हो तो जल जाता है
एक भी काम सलीक़े से नहीं हो पाता

एक भी बात मोहब्बत से नहीं कहती हो
अपनी हर एक सहेली से ख़फ़ा रहती हो
रात भर नाविलें पढ़ती हो न जाने किस की
एक जंपर नहीं सी पाई हो कितने दिन से
भाई का हाथ भी ग़ुस्से से झटक देती हो
मेज़ पर यूँ ही किताबों को पटक देती हो

किन ख़यालात में यूँ रहती हो खोई खोई

~ कफ़ील आज़र अमरोहवी


  May 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, May 6, 2018

तुम अधूरी बात सुनकर चल दिए

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तुम अधूरी बात सुनकर चल दिए!
जो कहा मैंने अभी तक, अनकहा इससे अधिक है
जो सुना तुमने अभी तक, अनसुना इससे अधिक है

मैं तुम्हारी और अपनी ही कहानी लिख रहा था
वक़्त ने जो की थी मुझ पे मेहरबानी लिख रहा था
पत्र मेरा अन्त तक पढ़ते तो ये मालूम होता
मैं तुम्हारे नाम अपनी ज़िन्दगानी लिख रहा था
तुम अधूरा पत्र पढ़कर चल दिए-
जो पढ़ा तुमने अभी तक, अनपढ़ा इससे अधिक है

प्रार्थना में लग रहा कोई कमी फिर रह गई है
हँस रहा हूँ किन्तु पलकों पर नमी फिर रह गई है
फिर तुम्हारी ही क़सम ने इस क़दर बेबस किया
ज़िन्दगी हैरान मुझको देखती फिर रह गई है
भाग्य-रेखाओं में मेरी आज तक-
जो लिखा तुमने अभी तक, अनलिखा इससे अधिक है

हो ग़मों की भीड़ फिर भी मुस्कुराऊँ, सोचता हूँ
मैं किसी को भूलकर भी याद आऊँ, सोचता हूँ
कोई मुझको आँसुओं की तरह पलकों पर सजाए
और करे कोई इशारा, टूट जाऊँ सोचता हूँ
ज़िन्दगी मुझसे मिली कहने लगी-
जो गुना तुमने अभी तक, अनगुना इससे अधिक है

यूँ तो शिखरों से बड़ी ऊँचाईयों को छू लिया है
छूने को पाताल-सी गहराईयों को छू लिया है
विष भरी बातें हँसी जब बींध कर मेरे ह्रदय को
ख़ुश्बुएँ छू कर लगा अच्छाईयों को छू लिया है
तुम मिले जिस पल मुझे ऐसा लगा-
जो छुआ मैंने अभी तक, अनछुआ इससे अधिक है

तुम अधूरी बात सुनकर चल दिए!
जो कहा मैंने अभी तक, अनकहा इससे अधिक है
जो सुना तुमने अभी तक, अनसुना इससे अधिक है

~ दिनेश रघुवंशी


  May 6, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, May 5, 2018

फल जाए मोहब्बत तो

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फल जाए मोहब्बत तो मोहब्बत है मोहब्बत
और रास न आए तो मुसीबत है मोहब्बत

सरमाया-ए-दीवाना-ए-उल्फ़त है मोहब्बत
ऐ उल्टे हुए दिल तिरी क़ीमत है मोहब्बत
*सरमाया-=धन; उल्फ़त=प्रेम

है हम ही तलक ख़ैर ग़नीमत है मोहब्बत
हो जाए उन्हें भी तो क़यामत है मोहब्बत

रो रो के वो पोछेंगे मिरी आँख से आँसू
आएँगे वो दिन भी जो सलामत है मोहब्बत

बदनाम किया लाख तुझे ख़ुद-ग़रज़ों ने
फिर भी तिरी दुनिया को ज़रूरत है मोहब्बत

दुनिया कहे कुछ है मगर ईमान की ये बात
होने की तरह हो तो इबादत है मोहब्बत

है जिन से उन आँखों की क़सम खाता हूँ 'मंज़र'
मेरे लिए परवाना-ए-जन्नत है मोहब्बत
*परवाना=अनुमति

~ मंज़र लखनवी


  May 5, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, May 4, 2018

मेरा मन इक ख़्वाब-नगर है

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मेरा मन इक ख़्वाब-नगर है
मेरे मन की गलियों, बाज़ारों और चौराहों में
लफ़्ज़ों, रंगों और ख़ुशबुओं की
हल्की हल्की बारिश होती रहती है

मेरा मन इक ख़्वाब-नगर है
मेरे मन में
चाह के चश्मे
अम्न की नहरें
आस के दरिया
प्यार समुंदर
हर सू बहते रहते हैं
जिन में नहा कर
अपने भी बेगाने भी
दानाई (बुद्धिमत्ता )की धूप में लेटे
सेहर-ज़दा (वशी-भूत) से रहते हैं

मेरा मन इक ख़्वाब-नगर है
मेरे मन में
दरवेशों का डेरा भी है
इस डेरे पर
शाएर, सूफ़ी, पापी, दाना सब आते हैं
कुछ सपने वो ले जाते हैं
कुछ सपने वो दे जाते हैं
इन सपनों की धरती से जब
ग़ज़लों, नज़्मों, गीतों के कुछ
फूल खुलीं तो बरसों फिर वो
ख़्वाब-नगर को महकाते हैं

मेरा मन इक ख़्वाब-नगर है
मेरे मन की गलियों, बाज़ारों और चौराहों पर
लफ़्ज़ों, रंगों और ख़ुशबुओं की
हल्की हल्की बारिश होती रहती है

~ ख़ालिद सुहैल


  May 4, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh