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Sunday, May 15, 2016

कभी कभी खुद से बात करो



कभी कभी खुद से बात करो, कभी खुद से बोलो।
अपनी नज़र में तुम क्या हो? ये मन की तराजू पर तोलो।
कभी कभी खुद से बात करो।
कभी कभी खुद से बोलो।

हरदम तुम बैठे ना रहो -शौहरत की इमारत में।
कभी कभी खुद को पेश करो आत्मा की अदालत में।
केवल अपनी कीर्ति न देखो- कमियों को भी टटोलो।
कभी कभी खुद से बात करो।
कभी कभी खुद से बोलो।

दुनिया कहती कीर्ति कमा के, तुम हो बड़े सुखी।
मगर तुम्हारे आडम्बर से, हम हैं बड़े दु:खी।
कभी तो अपने श्रव्य-भवन की बंद खिड़कियाँ खोलो।
कभी कभी खुद से बात करो।
कभी कभी खुद से बोलो।

ओ नभ में उड़ने वालो, जरा धरती पर आओ।
अपनी पुरानी सरल-सादगी फिर से अपनाओ।
तुम संतो की तपोभूमि पर मत अभिमान में डालो।
अपनी नजर में तुम क्या हो? ये मन की तराजू में तोलो।
कभी कभी खुद से बात करो।
कभी कभी खुद से बोलो।

~ कवि प्रदीप


  May 15, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ख़ूब हँस लो मेरी आवारा-मिज़ाजी पर



ख़ूब हँस लो मेरी आवारा-मिज़ाजी पर तुम
मैं ने बरसों यूँ ही खाए हैं मोहब्बत के फ़रेब
अब न एहसास-ए-तक़द्दुस न रिवायत की फ़िक्र
अब उजालों में खाऊँगी मैं ज़ुल्मत के फ़रेब

*आवारा-मिज़ाजी=घुमक्कड़ प्रवत्ति; एहसास-ए-तक़द्दुस=पवित्र भाव; रिवायत=अनुभव या तथ्य की बात

ख़ूब हँस लो की मेरे हाल पे सब हँसते हैं
मेरी आँखों से किसी ने भी न आँसू पोंछे
मुझ को हमदर्द निगाहों की ज़रूरत भी नहीं
और शोलों को बढ़ाते हैं हवा के झोंके

ख़ूब हँस लो की तकल्लुफ़ से बहुत दूर हूँ मैं
मैं ने मसनूई तबस्सुम का भी देखा अंजाम
मुझ से क्यूँ दूर रहो आओ मैं आवारा हूँ
अपने हाथों से पिलाओ तो मय-ए-तल्ख़ का जाम

*तकल्लुफ़=प्रचलित नियम; मसनूई=कृत्रिम; तबस्सुम=मुस्कान;मय-ए-तल्ख़=कड़वी शराब

ख़ूब हँस लो कि यही वक़्त गुज़र जाएगा
कल न वारफ़्तगी-ए-शौक़ से देखेगा कोई
इतनी मासूम लताफ़त से ने खेलेगा कोई

*वारफ़्तगी-ए-शौक़=चाहत में खो कर; लताफ़त=माधुर्य

ख़ूब हँस लो की यही लम्हे ग़नीमत हैं अभी
मेरी ही तरह तुम भी तो हो आवारा-मिज़ाज
कितनी बाँहों ने तुम्हें शौक़ से जकड़ा होगा
कितने जलते हुए होंटो ने लिया होगा ख़िराज

* ग़नीमत=सन्तोष की बात; ख़िराज=सम्मान, टैक्स

ख़ूब हँस लो तुम्हें बीते हुए लम्हों की क़सम
मेरी बहकी हुई बातों का बुरा मत मानो
मेरे एहसास को तहज़ीब कुचल देती है
तुम भी तहज़ीब के मलबूस उतारो फेंको

*मलबूस=पहनावा

ख़ूब हँस लो की मेरे लम्हे गुरेज़ाँ हैं अब
मेरी रग रग में अभी मस्ती-ए-सहबा भर दो
मैं भी तहज़ीब से बेज़ार हूँ तुम भी बेज़ार
और इस नग्न को बरहना कर लो

*लम्हे गुरेज़ाँ=भागते पल; मस्ती-ए-सहबा=मय का नशा; तहज़ीब=सभ्यता; बेज़ार=ऊब जाना; नग्न=नग्न शरीर; बरहना=नग्न

~ अख़्तर पयामी


  May 14, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ना-शगुफ़्ता कलियों में शौक़ है



ना-शगुफ़्ता कलियों में शौक़ है तबस्सुम का
बार सह नहीं सकतीं देर तक तलातुम का
*ना-शगुफ़्ता=अनखिली; तलातुम=उथल-पुथल

जाने कितनी फ़रियादें ढल रही हैं नग़्मों में
छिड़ रही है दुख की बात नाम है तरन्नुम का

कितने बे-कराँ दरिया पार कर लिए हम ने
मौज मौज में जिन की ज़ोर था तलातुम का
*बे-कराँ=जिसके छोर का किनारा न हो

ऐ ख़याल की कलियो और मुस्कुरा लेतीं
कुछ अभी तो आया था रंग सा तबस्सुम का
*तबस्सुम=मुस्कुराहट;

गुफ़्तुगू किसी से हो तेरा ध्यान रहता है
टूट टूट जाता है सिलसिला तकल्लुम का
*तकल्लुम=बातचीत

हसरत ओ मोहब्बत से देखते रहो 'जावेद'
हाथ आ नहीं सकता हुस्न माह-ओ-अंजुम का
*माह-ओ-अंजुम=चाँद-तारे

~ फ़रीद जावेद

  May 13, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

क्यूँ बांधते हो अपने को,

क्यूँ बांधते हो
अपने को,
अपनों को।
बंधन के तीन कारण
भाव, स्वभाव और अभाव
और दो विकल्प है ,
मन और जिस्म।
मन की गति अद्भुत है.…
जब अपना न बन्ध सका ,
तो पराये पर जोर कैसा
बंधना - बांधना छोड़ो---दृष्टा बनो !
क्या कहा,
बांधोगे जिस्म को....,
अरे उसकी गति तो
मन से भी द्रुत है,
फ़ना हो जायेगा
और पता भी नहीं चलेगा।


~ विनय जोशी


  May 13, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Thursday, May 12, 2016

मैं ने सोचा था कि इस बार...




जगजीत सिंह की गायी हुयी नज़्म 'बात निकलेगी तो फिर दूर तलक....' के शायर।

मैं ने सोचा था कि इस बार तुम्हारी बाहें
मेरी गर्दन में ब-सद-शौक़ हमाइल होंगी
मुश्किलें राह-ए-मोहब्बत में न हाइल होंगी
*ब-सद-शौक़=प्रेम से सराबोर; हमाइल=गले से लटकी; हाइल=नियंत्रण

मैं ने सोचा था कि इस बार निगाहों के सलाम
आयेंगे और ब-अंदाज़-ए-दिगर आयेंगे
फूल ही फूल फ़ज़ाओं में बिखर जायेंगे
*ब-अंदाज़-ए-दिगर=एक अलग अंदाज़ में

मैं ने सोचा था कि इस बार तुम्हारी सांसें
मेरी बहकी हुयी साँसों से लिपट जायेंगीं
बज़्म-ए-अहसास की तारीकियाँ छट जायेंगी
*बज़्म-ए-अहसास=अहसासों की महफिल; तारीकियाँ=अंधेरापन

मैं ने सोचा था कि इस बार तुम्हार पैकर
मेरे बे-ख़्वाब दरीचों को सुला जायेगा
मेरे कमरे को सलीक़े से सज़ा जायेगा
*पैकर=आकार; दरीचों==खिड़कियां

मैं ने सोचा था कि इस बार मिरे आँगन में
रंग बिखरेंगे, उम्मीदों की धनक टूटेगी
मेरी तन्हाई के आरिज़ पे शफ़क़ फूटेगी
*धनक=इंद्रधनुष; आरिज़=गाल; शफ़क़=क्षितिज (शाम की लालीपन)

मैं ने सोचा था कि इस बार ब-ईं सूरत-ए-हाल
मेरे दरवाज़े पे शहनाइयाँ सब देखेंगे
जो कभी पहले नहीं देखा था अब देखेंगे
*ब-ईं=इसके साथ; सूरत-ए-हाल=मौज़ूदा हालात

मैं ने सोचा था कि इस बार मोहब्बत के लिये
गुनगुनाते हुये जज़्बों की बरात आयेगी
मुद्दतों ब'अद तमन्नाओं की रात आयेगी
*जज़्बों=भावनाओं

तुम मिरे इश्क़ की तक़दीर बनोगी इस बार
जीत जायेगा मिरा जोश-ए-जुनूँ सोचा था
और अब सोच रहा हूँ कि ये क्या सोचा था

~ कफ़ील आज़र अमरोहवी

  May 12, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, May 11, 2016

भोले थे कर दिया भाला



भोले थे कर दिया भाला किसी ने
लो मशालों को जगा डाला किसी ने

है शहर ये कोयलों का, ये मगर न भूल जाना
लाल शोले भी इसी बस्ती में रहते हैं युगों से
रास्तो में धूल है ..कीचड़ है, पर ये याद रखना
ये जमीं धुलती रही संकल्प वाले आँसुओं से

मेरे आँगन को है धो डाला किसी ने
लो मशालों को जगा डाला किसी ने
भोले थे कर दिया भाला किसी ने
लो मशालों को जगा डाला किसी ने

आग बेवजह कभी घर से निकलती ही नहीं है,
टोलियाँ जत्थे बनाकर चींखकर यूँ चलती नहीं है..
रात को भी देखने दो, आज तुम सूरज के जलवे
जब तपेगी ईंट तभी होश में आएँगे तलवे

तोड़ डाला मौन का ताला किसी ने,
लो मशालों को जगा डाला किसी ने,
भोले थे अब कर दिया भाला किसी ने
लो मशालों को जगा डाला किसी ने

~ प्रसून जोशी


  May 11, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

जवानियों में जवानी को धूल

जवानियों में जवानी को धूल करते हैं
जो लोग भूल नहीं करते, भूल करते हैं

अगर अनारकली हैं सबब बग़ावत का
सलीम हम तेरी शर्ते क़बूल करते हैं

~ राहत इन्दोरी

  May 10, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तेरे देस में जाने क्या हो



तेरे देस में जाने क्या हो
रुत कैसी हो कैसी हवा हो
लेकिन मेरे देस में अबके
अब्र बहुत खुल कर बरसा है
जंगल, पर्बत, शहर, बयाँबाँ
वीराने, मयख़ाने, गलियाँ
हर पैरहन भीग चुका है
*अब्र=बादल; पैरहन=पोशाक

रातें कितनी बार न जानें
जाम लिए आई थीं लेकिन
जाम ने तेरी बात नहीं की
रात ने तेरे ग़म न जगाए
पलकों पर एक बून्द न आई

पीले-पीले अब्र भी अबके
तेरे गेसू भूल गया था
पीली-पीली सर्द हवाएँ
मेरे दामन जला न सकी थीं

सूरज ने अब्र की चौखट पर
तेरे रूख़सारों की ज़ियाँ को
जाने क्यों आवाज़ नहीं दी
किस धुन में था चाँद न जाने
तेरा माथा याद ना आया
* रूख़सारों=गालों; ज़ियाँ=नुकसान

आबादी को तेरी आँखें
वीरानों को तेरा तबस्सुम
अब के कुछ भी याद नहीं है
मैं कुछ इतना ख़ुश तो नहीं था
न जाने क्यूँ अब के बरखा रुत
क्यूँ इतनी अनजान गई है

सोच रहा हूँ शायद दिल को
और भी कुछ जीने के बहाने
दर्द दे जहाँ ने बख़्श दिए हैं
और मैं इस आबाद जहाँ में
तेरा चेहरा भूल गया हूँ

~ अज़ीज़ क़ैसी


  May 9, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

माँ सुनाओ मुझे वो कहानी




माँ सुनाओ मुझे वो कहानी
जिसमें राजा ना हो, ना हो रानी

जो हमारी तुम्हारी कथा हो
जो सभी के हृदय की व्यथा हो
गंध जिसमें भरी हो धरा की
बात जिसमें ना हो अप्सरा की
हो ना परियाँ जहाँ आसमानी

जो किसी भी हृदय को हिला दे
आदमी आदमी को मिला दे
आग कुछ इस तरह की लगा दे
माधुरी आग में भी मिला दे
जो सुने हो चले पानी पानी

वो कहानी जो हँसना सिखा दे
पेट की भूख को जो भुला दे
जिसमें सच की भरी चाँदनी हो
जिसमें उम्मीद की रोशनी हो
जिसमें ना हो कहानी पुरानी

~ नन्दलाल पाठक
 

May 8, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

सोने के पिंजरे में था पिंजरे का पंछी

 

सोने के पिंजरे में था पिंजरे का पंछी,
और वन का पंछी था वन में !
जाने कैसे एक बार दोनों का मिलन हो गया,
कौन जाने विधाता के मन में क्या था !
वन के पंछी ने कहा,'भाई पिंजरे के पंछी
हम दोनों मिलकर वन में चलें.'
पिंजरे का पंछी बोला,'भाई बनपाखी,आओ
हम आराम से पिंजरे में रहें.'
वन के पंछी ने कहा,'नहीं
मैं अपने-आपको बांधने नहीं दूँगा.'
पिंजरे के पंछी ने पूछा,
'मगर मैं बाहर निकलूं कैसे !'

बाहर बैठा-बैठा वन का पंछी वन के तमाम गीत गा रहा है,
और पिंजरे का पंछी अपनी रटी-रटाई बातें दोहरा रहा है;
एक की भाषा का दूसरे की भाषा से मेल नहीं.
वन का पंछी कहता है,
'भाई पिंजरे के पंछी, तनिक वन का गान तो गाओ.'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'तुम पिंजरे का संगीत सीख लो.'
वन का पंछी कहता है,
'ना,मैं सिखाए-पढाये गीत नहीं गाना चाहता.'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'भला मैं जंगली गीत कैसे गा सकता हूँ.'

वन का पंछी कहता है,
'आकाश गहरा नीला है,
उसमें कहीं कोई बाधा नहीं है.'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'पिंजरे की परिपाटी
कैसी घिरी हुई है चारों तरफ़ से !'
वन का पंछी कहता है,
'अपने-आपको
बादलों के हवाले कर दो.'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'सीमित करो,अपने को सुख से भरे एकांत में.'
वन का पंछी कहता है,
'नहीं,वहाँ मैं उडूंगा कैसे !'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'हाय, बादलों में बैठने का ठौर कहाँ है !'

इस तरह दोनों एक-दूसरे को चाहते तो हैं,
किन्तु पास-पास नहीं आ पाते .
पिंजरे की तीलियों में से
एक-दूसरे की चोंच छू-छूकर रह जाते हैं,
चुपचाप एक-दूसरे को टुकुर-टुकुर देखते हैं.
एक-दूसरे को समझते नहीं हैं
न अपने मन की बात समझा पाते हैं.
दोनों अलग-अलग डैने फड़फड़ाते हैं
कातर होकर कहते है 'पास आओ.'
वन का पंछी कहता है,
'नहीं कौन जाने कब
पिंजरे की खिड़की बंद कर दी जाय.'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'हाय मुझमें उड़ने की शक्ति नहीं है.'

~ रवीन्द्रनाथ टैगोर

 
May 7, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

क़यामत हैं बाँकी अदायेँ

क़यामत हैं बाँकी अदायेँ तुम्हारी
इधर आओ ले लूँ बलायेँ तुम्हारी

~ दाग़

  May 6, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आ गया लब पे अफ़साना-ए-आशिक़ी



आ गया लब पे अफ़साना-ए-आशिक़ी
अब किसी भी फ़साने की परवाह नहीं
हम तो उनसे मोहब्बत किए जायेंगे
अब हमें इस ज़माने की परवाह नहीं

*अफ़साना=झूठी या सच्ची प्रेम कथा

आज ऐ इश्क़ साया तेरा सर पे है
ताज क़दमों में है तख़्त ठोकर पे है
मिल गई हैं हमें प्यार की दौलतें
अब किसी भी ख़ज़ाने की परवाह नहीं

ज़िन्दगी में बहारें रहेंगीं सदा
हमने उल्फ़त के गुलशन में पा ली जगह
चाहे बिजली गिरे या चलें आँधियाँ
अब हमें आशियाने की परवाह नहीं

बन्दगी कर रहे हैं मोहब्बत की हम
ये नहीं जानते क्या है दैर-ओ-हरम
झुक गई है जबीं हुस्न के सामने
अब कहीं सर झुकाने की परवाह नहीं

*दैर-ओ-हरम=मंदिर और मस्जिद; जबीं=माथा

~ शकील 'बदायूँनी'


  May 6, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

यहाँ तो उम्र गुज़री है मौज-ओ

यहाँ तो उम्र गुज़री है मौज-ओ-तलातुम में,
वो कोई और होंगे सैर-ए-साहिल देखने वाले

*मौज-ओ-तलातुम=लहरों और तूफ़ानों; सैर-ए-साहिल=किनारे की सैर

~ असग़र गोंडवी

  May 5, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

घर जब बना लिया तेरे दर पर



घर जब बना लिया तेरे दर पर कहे बग़ैर
जानेगा अब भी तू न मेरा घर कहे बग़ैर

कहते हैं, जब रही न मुझे ताक़त-ए-सुख़न
जानूं किसी के दिल की मैं क्योंकर कहे बग़ैर
*ताक़त-ए-सुख़न=शायरी

काम उससे आ पड़ा है कि जिसका जहान में
लेवे ना कोई नाम सितमगर कहे बग़ैर
*जहान=दुनिया; सितमगर=अत्याचारी, ज़ुल्मी

जी में ही कुछ नहीं है हमारे, वगरना हम
सर जाये या रहे, न रहें पर कहे बग़ैर

छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़िर कहे बग़ैर
*बुत-ए-काफ़िर=मोहक सुंदरी; ख़ल्क़=लोग; काफ़िर=नास्तिक, इस्लाम न मानने वाला

मक़सद है नाज़-ओ-ग़म्ज़ा वले गुफ़्तगू में काम
चलता नहीं है, दश्ना-ओ-ख़ंजर कहे बग़ैर
*नाज़-ओ-ग़म्ज़ा=नाज़-नखरा; वले=मगर; दश्ना-ओ-ख़ंजर=छुरा और चाकू

हरचन्द हो मुशाहित-ए-हक़ की गुफ़्तगू
बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर
*हरचन्द=हर तरफ; मुशाहित-ए-हक़= ख़ुदा को देखने; बादा-ओ-साग़र=मय और प्याला

बहरा हूँ मैं तो चाहिये दूना हो इल्तफ़ात
सुनता नहीं हूँ बात मुक़र्रर कहे बग़ैर
*इल्तफ़ात=कृपा; मुक़र्रर=दुबारा

'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार-बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर

~ मिर्ज़ा ग़ालिब


  May 5, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मुस्कुरा कर उन का मिलना

मुस्कुरा कर उन का मिलना और बिछड़ना रूठ कर
बस यही दो लफ़्ज़ इक दिन दास्ताँ हो जाएँगे

~ 'दानिश' अलीगढ़ी


  May 4, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

कल्पना के घन बरसते



कल्पना के घन बरसते गीत गीले हो रहे
भाव रिमझिम कर रहे हैं स्वर रसीले हो रहे

नाचतीं श्यामल घटाएँ थिरकती बरसात है
इक कहानी बनके आई ये सुहानी रात है
झूमता फिरता पवन, झोंके नशीले हो रहे
कल्पना के घन बरसते गीत गीले हो रहे

किस प्रणय की आग में जल गीत गाता है पवन
मांग भरता है दुल्हन की मोतियों से ये गगन
झुक रहे तेरे नयन कितने, न हीले हो रहे
कल्पना के घन बरसते गीत गीले हो रहे

~ भरत व्यास


  May 3, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आदत नहीं करे जो शिकायत

आदत नहीं, करे जो शिकायत किसी से हम
करते ज़रुर वरना, कभी आप ही से हम।

~ जाज़िब आफ़ाकी

  May 2, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मुहासरा - घेराव



मेरे ग़नीम ने मुझको पयाम भेजा है
कि हल्क़ा-ज़न हैं मेरे गिर्द लश्करी उस के
फ़सील-ए--शहर के हर बुर्ज, हर मीनारे पर
कमां-बदस्त सितादा है अस्करी उसके

*ग़नीम=शत्रु; हल्क़ाज़न=घेरे हुए; गिर्द=चारो ओर; लश्करी=सिपाही; फ़सील-ए-शहर=नगर की चारदीवारी; कमां-बदस्त=कमान हाथ में; सितादा=तैयार; अस्करी=सैनिक

वह बर्क़ लहर बुझा दी गई है जिस की तपिश
वजूद-ए-ख़ाक में आतिशफ़िश़ां जगाती थी
बिछा दिया गया बारूद उसके पानी में
वो जू-ए-आब जो मेरी गली को आती थी

*तपिश=गरमी; बर्क़=बिजली; वजूद-ए-ख़ाक=मिट्टी का पुतला; आतिशफ़िश़ां=ज्वालामुखी; जू-ए-आब=नहर

सभी दरीदा-दहन अब बदन-दुरीदा हुये
सुपर्द-ए-दारो-रसन सारे सर-कशीदा हुये
तमाम सूफी-ओ-सालिक़ सभी शयूख-ओ-इमाम
उम्मीद-ए-लुत्फ पे ईवान-ए-कज- कुलाह में हैं
मोअज़्ज़िज़ीन-ए-अदालत भी हल्फ़ उठाने को
मिसाल-ए-साइल-ए-मुबर्रम नशिस्ता राह में हैं

*दरीदा-दहन=गुस्ताख़, अत्याचारी; बदन-दुरीदा=फटेहाल; सुपर्द-ए-दारो-रसन=सूली और रस्सी के हवाले; सालिक़=राहगीर; मोअज़्ज़िज़ीन=इज़्ज़तदार; हल्फ़=शपथ; नशिस्ता=बैठे हुये

तुम अहल-ए-हर्फ के पिंदार के सना-गर थे
वो आसमान-ए-हुनर के नुजूम सामने हैं
बस इस क़दर था कि दरबार से बुलावा था
गदागरान-ए-सुखन के हुजूम सामने थे

*अहल-ए-हर्फ=रचनाकार; पिंदार=गर्व; नुजूम=नक्षत्र; गदागरान-ए-सुखन=शायरी की भीख मांगने वाले

कलंदरान-ए-वफा की असास तो देखो
तुम्हारे साथ है कौन आस पास तो देखो
सो शर्त यह है जो जाँ की अमान चाहते हो
तो अपने लौहो-क़लम क़त्लगाह में रख दो
वगर्ना अब के निशाना कमानदारों का
बस एक तुम हो, सो ग़ैरत को राह में रख दो

*कलंदरान=आज़ादों जैसा; असास=बुनियाद; अमान=हिफ़ाज़त; लौहो-क़लम=क़लम और तख्ती; क़त्लगाह=वध स्थल; निशाना=लक्ष्य; ग़ैरत=स्वाभिमान

ये शर्त नामा जो देखा तो ऐलची से कहा
उसे ख़बर नहीं तारीख़ क्या सिखाती है
कि रात जब किसी ख़ुर्शीद को शहीद करे
तो सुबह इक नया सूरज तराश लाती है

*ऐलची=दूत; तारीख़=इतिहास; ख़ुर्शीद=सूर्य;

सो यह जवाब है मेरा मेरे अदू के लिए
कि मुझको हिर्स-ए-करम है न ख़ौफ़े-ख़म्याज़ा
उसे है सतवते-शमशीर पर घमंड बहुत
उस शिकोह-ए- क़लम का नहीं है अंदाज़ा

*अदू=शत्रु; हिर्स-करम=पुरस्कार की लालसा; ख़ौफ़े-ख़म्याज़ा=अंजाम का डर; सतवते-शमशीर=तलवार की ताक़त; शिकोह-ए- क़लम=क़लम का डर

मेरा क़लम नहीं किरदार उस मुहाफ़िज का
जो अपने शहर को महसूर करके नाज़ करे
मेरा क़लम नहीं कासा किसी सुबुक सर का
जो गासिबों को क़सीदों से सरफ़राज़ करे

*मुहाफ़िज=रक्षक; महसूर=घेरकर; कासा=कवच; गासिबों=अतिक्रमी; क़सीदा=शायरी, जिसमें किसी की प्रशंसा की जाये; सरफ़राज़=मशहूर,

मेरा क़लम नही उस नक़बज़न का दस्ते-हवस
जो अपने घर की ही छत में शगाफ़ डालता है
मेरा क़लम नही उस दुज़्दे नीमशब का रफ़ीक
जो बेचराग़ घरों पर कमंद उछालता है।

*नक़बज़न=सेंधमार; दस्ते-हवस=लोभी हाथ; शगाफ़=दरार; दुज़्द=चोर या डाकू; नीमशब=आधी रात; रफ़ीक=साथी; कमंद=फंदा,

मेरा क़लम नही तस्बीह उस मुबल्लिग की
जो बंदगी का भी हरदम हिसाब रखता है
मेरा क़लम नहीं मीज़ान ऐसे आदिल की
जो अपने चेहरे पर दोहरा नक़ाब रखता है।

*तस्बीह=माला; मुबल्लिग=धर्म उपदेशक; मीज़ान= तराज़ू; आदिल=न्याय करने वाला

मेरा क़लम तो अमानत है मेरे लोगों की
मेरा क़लम अदालत मिरे ज़मीर की है
इसी लिये तो जो लिखा तपाक-ए-जाँ से लिखा
जभी तो लोच कमाँ का ज़बान तीर की है

मैं कट गिरूं कि सलामत रहूँ यक़ीं है मुझे
कि ये हिसार-ए-सितम कोई तो गिरायेगा
तमाम उम्र की ईज़ा नसीबिओं की क़सम
मिरे क़लम का सफ़र रायगाँ न जायेगा

*हिसार-ए-सितम=ज़ुल्म का घेरा

~ अहमद फ़राज़


  May 1, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh