Disable Copy Text

Sunday, August 26, 2018

चाँद तारे याद आते हैं

Image may contain: one or more people

सुहानी रात में दिलकश नज़ारे याद आते हैं
नहीं हो तुम मगर वो चाँद तारे याद आते हैं

उसी सूरत से दिन ढलता है सूरज डूब जाता है
उसी सूरत से शबनम में हर इक ज़र्रा नहाता है
तड़प जाता हूँ मैं जब दिल ज़रा तस्कीन पाता है
उसी अंदाज़ से मुझ को सहारे याद आते हैं
नहीं हो तुम मगर वो चाँद तारे याद आते हैं

* तस्कीन=तसल्ली

अकेले मैं तुम्हारी याद से बच कर कहाँ जाऊँ?
लब-ए-ख़ामोश की फ़रियाद से बच कर कहाँ जाऊँ?
तुम्हीं कह दो दिल-ए-नाशाद से बच कर कहाँ जाऊँ?
किनायों को भुलाता हूँ इशारे याद आते हैं
नहीं हो तुम मगर वो चाँद तारे याद आते हैं

* दिल-ए-नाशाद=निराश दिल

निगाहों में अभी तक है उसी दिन रात का मंज़र
तुम्हारे साथ में बीते हुए लम्हात का मंज़र
मचलते, मुस्कुराते, जागते, जज़्बात का मंज़र
तसव्वुर-आफ़रीं वो शाह-पारे याद आते हैं
नहीं हो तुम मगर वो चाँद तारे याद आते हैं

* मंज़र=दृश्य

मिरी नज़रों से ओझल अब मक़ाम-ए-जोहद-ए-हस्ती है
न वो एहसास-ए-इशरत है, न वो अंजुम-परस्ती है
अकेला जान कर मुझ को मिरी तन्हाई डसती है
मुझे बीते हुए लम्हात सारे याद आते हैं
नहीं हो तुम मगर वो चाँद तारे याद आते हैं

*ज़िंदगी के सघर्ष की जगह; एहसास-ए-इशरत=आनंद की अनुभूतु; अंजुम-परस्ती=सितारों को पूजना

तमन्नाओं के मेले अब नहीं लगते कभी दिल में
कशिश बाक़ी रही कोई न राहों में, न मंज़िल में
धुआँ सा अब नज़र आता है मुझ को माह-ए-कामिल में
तुम्हारे साथ जितने दिन गुज़ारे याद आते हैं
नहीं हो तुम मगर वो चाँद तारे याद आते हैं

*माह-ए-कामिल=पूनम का चाँद

गिला इस का नहीं क्यूँ तुम ने मुझ से अपना मुँह मोड़ा
नहीं क़ाबू था अपने दिल पे पैमान-ए-वफ़ा तोड़ा
तुम्हारी याद ने लेकिन न क्यूँ अब तक मुझे छोड़ा
ये क्यूँ पैहम मुझे पैमाँ तुम्हारे याद आते हैं
नहीं हो तुम मगर वो चाँद तारे याद आते हैं

*पैहम=लगातार; पैमाँ=वादे

~ शौकत परदेसी

  Aug 26, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, August 24, 2018

तुम कैसे गुन वाले हो

Image may contain: 1 person, outdoor and water

हीरे मोती ला'ल जवाहर रोले भर भर थाली
अपना कीसा अपना दामन अपनी झोली ख़ाली
अपना कासा पारा पारा अपना गरेबाँ चाक
चाक गरेबाँ वाले लोगो तुम कैसे गुन वाले हो

*कीसा=जेब; कासा=कटोरा (भीख माँगने का)

काँटों से तलवे ज़ख़्मी हैं रूह थकन से चूर
कूचे कूचे ख़ुश्बू बिखरी अपने घर से दूर
अपना आँगन सूना सूना अपना दिल वीरान
फूलों कलियों के रखवालो तुम कैसे गुन वाले हो

तूफ़ानों से टक्कर ले ली जब थामे पतवार
प्यार के नाते जिस कश्ती के लाखों खेवन-हार
साहिल साहिल शहर बसाए सागर सागर धूम
माँझी अपनी नगरी भोले तुम कैसे गुन वाले हो

आँखों किरनें माथे सुरज और कुटिया अँधियारी
कैसे लिख लुट राजा हो तुम समझें लोग भिखारी
शीशा सच्चा उजला जब तक ऊँचा उस का भाव
अपना मोल न जाना तुम ने कैसे गुन वाले हो

जिन खेतों का रंग निखारे जलती तपती धूप
सावन की फुवारें भी चाहें इन खेतों का रूप
तुम को क्या घाटा दिल वालो
तुम जो सच्चे हो गुन वाले हो

~ अदा जाफ़री


  Aug 24, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

शाएर का जशन-ए-सालगिरह

शाएर का जशन-ए-सालगिरह है शराब ला
मंसब ख़िताब रुत्बा उन्हें क्या नहीं मिला
बस नक़्स है तो इतना कि मम्दूह ने कोई
मिस्रा किसी किताब के शायाँ नहीं लिखा

*मंसब=पदवी, ख़िताब; नक़्स=कमी; मम्दूह=प्रसिद्ध (व्यक्ति); शायाँ=क़ाबिल

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

  Aug 22, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, August 17, 2018

आदमी सिर्फ आदमी होता है



आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है,
न बड़ा होता है, न छोटा होता है।
आदमी सिर्फ आदमी होता है।

पता नहीं, इस सीधे-सपाट सत्य को
दुनिया क्यों नहीं जानती है?
और अगर जानती है,
तो मन से क्यों नहीं मानती
इससे फर्क नहीं पड़ता
कि आदमी कहां खड़ा है?
पथ पर या रथ पर?
तीर पर या प्राचीर पर?

फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है,
या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है,
वहां उसका धरातल क्या है?
हिमालय की चोटी पर पहुंच,
एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा,
कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध
अपने साथी से विश्वासघात करे,
तो उसका क्या अपराध
इसलिए क्षम्य हो जाएगा कि
वह एवरेस्ट की ऊंचाई पर हुआ था?
नहीं, अपराध अपराध ही रहेगा,
हिमालय की सारी धवलता
उस कालिमा को नहीं ढ़क सकती।
कपड़ों की दुधिया सफेदी जैसे
मन की मलिनता को नहीं छिपा सकती।

किसी संत कवि ने कहा है कि
मनुष्य के ऊपर कोई नहीं होता,
मुझे लगता है कि मनुष्य के ऊपर
उसका मन होता है।
छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता,
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।
इसीलिए तो भगवान कृष्ण को
शस्त्रों से सज्ज, रथ पर चढ़े,
कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े,
अर्जुन को गीता सुनानी पड़ी थी।
मन हारकर, मैदान नहीं जीते जाते,
न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।

चोटी से गिरने से
अधिक चोट लगती है।
अस्थि जुड़ जाती,
पीड़ा मन में सुलगती है।
इसका अर्थ यह नहीं कि
चोटी पर चढ़ने की चुनौती ही न माने,
इसका अर्थ यह भी नहीं कि
परिस्थिति पर विजय पाने की न ठानें।
आदमी जहां है, वही खड़ा रहे?
दूसरों की दया के भरोसे पर पड़ा रहे?

जड़ता का नाम जीवन नहीं है,
पलायन पुरोगमन नहीं है।
आदमी को चाहिए कि वह जूझे
परिस्थितियों से लड़े,
एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।
किंतु कितना भी ऊंचा उठे,
मनुष्यता के स्तर से न गिरे,
अपने धरातल को न छोड़े,
अंतर्यामी से मुंह न मोड़े।
एक पांव धरती पर रखकर ही
वामन भगवान ने आकाश-पाताल को जीता था।

धरती ही धारण करती है,
कोई इस पर भार न बने,
मिथ्या अभियान से न तने।
आदमी की पहचान,
उसके धन या आसन से नहीं होती,
उसके मन से होती है।
मन की फकीरी पर
कुबेर की संपदा भी रोती है।

~ अटल बिहारी वाजपेयी


  Aug 17, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Thursday, August 16, 2018

मौत से ठन गई!

Image may contain: 1 person, standing and indoor

ठन गई!
मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।

~ अटल बिहारी वाजपेयी


  Aug 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मुझ से पहले तुझे जिस शख़्स ने

Image may contain: 1 person, closeup

मुझ से पहले तुझे जिस शख़्स ने चाहा उस ने
शायद अब भी तिरा ग़म दिल से लगा रक्खा हो
एक बे-नाम सी उम्मीद पे अब भी शायद
अपने ख़्वाबों के जज़ीरों को सजा रक्खा हो
*जज़ीरे=द्वीप, आइलैंड

मैं ने माना कि वो बेगाना-ए-पैमान-ए-वफ़ा
खो चुका है जो किसी और की रानाई में
शायद अब लौट के आए न तिरी महफ़िल में
और कोई दुख न रुलाये तुझे तन्हाई में
*बेगाना-ए-पैमान-ए-वफ़ा=वादा न पूरा करने वाला; रानाई=सुंदरता

मैं ने माना कि शब ओ रोज़ के हंगामों में
वक़्त हर ग़म को भुला देता है रफ़्ता रफ़्ता
चाहे उम्मीद की शमएँ हों कि यादों के चराग़
मुस्तक़िल बोद बुझा देता है रफ़्ता रफ़्ता
* मुस्तक़िल=सदा के लिये

फिर भी माज़ी का ख़याल आता है गाहे-गाहे
मुद्दतें दर्द की लौ कम तो नहीं कर सकतीं
ज़ख़्म भर जाएँ मगर दाग़ तो रह जाता है
दूरियों से कभी यादें तो नहीं मर सकतीं
*माज़ी=बीता हुआ

ये भी मुमकिन है कि इक दिन वो पशीमाँ हो कर
तेरे पास आए ज़माने से किनारा कर ले
तू कि मासूम भी है ज़ूद-फ़रामोश भी है
उस की पैमाँ-शिकनी को भी गवारा कर ले
*पसीमाँ=शर्मिंदा; ज़ूद-फ़रामोश=जो जल्दी भूल जाता हो; पैमाँ-शिकनी=वादा तोड़ना

और मैं, जिस ने तुझे अपना मसीहा समझा
एक ज़ख़्म और भी पहले की तरह सह जाऊँ
जिस पे पहले भी कई अहद-ए-वफ़ा टूटे हैं
इसी दो-राहे पे चुप-चाप खड़ा रह जाऊँ
*अहद-ए-वफ़ा=वादा निभाना

~ अहमद फ़राज़

  Aug 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, August 15, 2018

प्रथम चरण है नए स्वर्ग का

Image may contain: one or more people, people standing, sky and outdoor

प्रथम चरण है नए स्वर्ग का,
नए स्वर्ग का प्रथम चरण है,
नए स्वर्ग का नया चरण है,
नया क़दम है!

जिंदा है वह जिसने अपनी
आज़ादी की क़ीमत जानी,
ज़िंदा, जिसने आज़ादी पर
कर दी सब कुछ की कुर्बानी,
गिने जा रहे थे मुर्दों में
हम कल की काली घड़ियों तक,
आज शुरू कर दी फिर हमने
जीवन की रंगीन कहानी।

इसीलिए तो आज हमारे
देश जाति का नया जनम है,
नया कदम है!
नए स्वर्ग का प्रथम का चरण है,
नए स्वर्ग का नया चरण है,
नया कदम है,
नया जनम है!

हिंदू अपने देवालय में
राम-रमा पर फूल चढ़ाता,
मुस्लिम मस्जिद के आंगन में
बैठ खुदा को शीश झुकाता,
ईसाई भजता ईसा को
गाता सिक्ख गुरू की बानी,
किंतु सभी के मन-मंदिर की
एक देवता भारतमाता!

स्वतंत्रता के इस सतयुग में
यही हमारा नया धरम है,
नया कदम है!
नए स्वर्ग का प्रथम का चरण है,
नए स्वर्ग का नया चरण है,
नया कदम है,
नया धरम है!

अमर शहीदों ने मर-मरकर
सदियों से जो स्वप्न सँवारा,
देश-पिता गाँधी रहते हैं
करते जिसकी ओर इशारा,
नए वर्ष में नए हर्ष से
नई लगन से लगी हुई हो
उसी तरफ़ को आँख हमारी,
उसी तरफ़ को पाँव हमारा।

जो कि हटे तिल भर भी पीछे
देश-भक्ति की उसे कसम है,
नया कदम है!
नए स्वर्ग का प्रथम का चरण है,
नए स्वर्ग का नया चरण है,
नया कदम है!
नया जनम है!
नया धरम है!

~ हरिवंशराय बच्चन


  Aug 15, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, August 12, 2018

मज़दूर

Image may contain: one or more people and outdoor

मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या?
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।

अम्बर पर जितने तारे, उतने वर्षों से
मेरे पुरखों ने धरती का रूप सँवारा,
धरती को सुंदरतम करने की ममता में
बिता चुका है कई पीढियाँ वंश हमारा।
और अभी आगे आने वाली सदियों में
मेरे वंशज धरती का उद्धार करेंगे,
इस प्यासी धरती के हित मैं ही लाया था
हिमगिरि चीर, सुखद गंगा की निर्मल धारा।
मैंने रेगिस्तानों की रेती धो-धो कर
वंध्या धरती पर भी स्वर्णिम पुष्प खिलाए।
मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या?

अपने नहीं अभाव मिटा पाया जीवन भर
पर औरों के सभी अभाव मिटा सकता हूँ,
तूफ़ानों भूचालों की भय-प्रद छाया में,
मैं ही एक अकेला, जो गा सकता हूँ।
मेरे 'मैं' की संज्ञा भी इतनी व्यापक है
इसमें मुझ-से अगणित प्राणी आ जाते हैं
मुझको अपने पर अदम्य विश्वास रहा है
मैं खंडहर को फिर महल बना सकता हूँ
जब जब भी मैंने खंडहर आबाद किए हैं
प्रलय-मेघ भूचाल देख मुझको शरमाए।
मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या?

ऐसे ही मेरे कितने साथी भूखे रह,
लगे हुए हैं औरों के हित अन्न उगाने,
इतना समय नहीं मुझको जीवन में मिलता
अपनी ख़ातिर सुख के कुछ सामान जुटा लूँ।
पर मेरे हित उनका भी कर्तव्य नहीं क्या?
मेरी बाँहें जिनके भरती रहीं खज़ाने,
अपने घर के अंधकार की मुझे न चिंता
मैंने तो औरों के बुझते दीप जलाए।

मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या?
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।

~ देवराज दिनेश


  Aug 12, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, August 11, 2018

लो तुम जीत गए

 
दीवारें दरवाज़े दरीचे गुम-सुम हैं
बातें करते बोलते कमरे गुम-सुम हैं
हँसती शोर मचाती गलियाँ चुप चुप हैं
रोज़ चहकने वाली चिड़ियाँ चुप चुप हैं

पास पड़ोसी मिलने आना भूल गए
बर्तन आपस में टकराना भूल गए
अलमारी ने आहें भरना छोड़ दिया
संदूक़ों ने शिकवा करना छोड़ दिया

मिट्ठू ''बी-बी रोटी दो'' कहता ही नहीं
सूनी सेज पे दिल बस में रहता ही नहीं
सिंगर की आवाज़ को कान तरसते हैं
घर में जैसे सब गूँगे हैं बस्ते हैं

तुम क्या बिछड़े समय सुहाने बीत गए
लौट आओ मैं हारा लो तुम जीत गए!

~ मोहम्मद अल्वी

  Aug 11, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, August 10, 2018

ग्लेनफिडिच

Image may contain: 1 person, closeup

उसने मेरी कमर पर
हाथ रखा,
और कहा
मैं तुम्हारी रूह से प्यार करता हूँ
चेहरे से नहीं
फिर जैसे बेखयाल होकर
हाथ ऊपर को बढ़ाया
और कहा,
तुमसे
वर्जिनिया वूल्फ की-सी महक आती है
और ये भी कहा
उसे बहुत पसंद हैं
फेमिनिस्ट औरतें!
माया एंजेलो उसे उत्तेजित करती है
और मैं भी।

उसने ब्रेख्त की कविता पढ़ी
कहा विश्व एक कम्यून है
और मेरे कन्धों की गोलाई के साथ
पूरा आवर्त (चारों ओर फेरा) घूम गया

फिर बताया कि
कितनी पीली होती है सरसों
और कितना मादक महुआ!
मजदूर का पसीना!
जमीन की खुशबू!
और क्यों वाजिब है
आदिवासी गुस्सा
गरीब की शिकायत

फिर अलमारी से एक
खूबसूरत ग्लास निकालते हुए कहा
ग्लेनफिडिच एक सिंगल माल्ट ह्विस्की है!

~ ज्योत्स्ना मिश्रा

- लंडन में जन्मी (1882), वर्जीनिया वूल्फ की गिनती विश्व की महान महिला लेखिकाओं में होती है।

- बर्तोल्त ब्रेख्त: (जर्मनी, 19 फरवरी - 14 अगस्त 1956 ) एक साथ, एक ही समय में सघन संवेदना के कवि, बेचैन नाटककार, अग्रिम मोर्चे पर जूझते संस्कृतिकर्मी और सजग राजनीतिक अध्येता

- माया एंजेलो: अमेरिकी (अफ्रीका मूल की) कवयित्री, समाजसेवी, मनोरंजक, और अपनी आत्मकथाओं और कविताओं के लिए प्रसिद्ध लेखिका


  Aug 10, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, August 8, 2018

तिरे चाहने वाले और भी हैं

Image may contain: 1 person

नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
कोई छोड़ गया ये शहर तो क्या तिरे चाहने वाले और भी हैं

कई पलकें हैं और पेड़ कई महफ़ूज़ है ठंडक जिन की अभी
कहीं दूर न जा मत ख़ाक उड़ा तिरे चाहने वाले और भी हैं

कहती है ये शाम की नर्म हवा फिर महकेगी इस घर की फ़ज़ा
नया कमरा सजा नई शम्अ' जला तिरे चाहने वाले और भी हैं

कई फूलों जैसे लोग भी हैं इन्ही ऐसे-वैसे लोगों में
तू ग़ैरों के मत नाज़ उठा तिरे चाहने वाले और भी हैं

बेचैन है क्यूँ ऐ 'नासिर' तू बेहाल है किस की ख़ातिर तू
पलकें तो उठा चेहरा तो दिखा तिरे चाहने वाले और भी हैं

~ साबिर ज़फ़र


  Aug 08, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, August 7, 2018

रेत मुट्ठी में कभी ठहरी है

Image may contain: 1 person

रेत मुट्ठी में कभी ठहरी है
प्यास से उस को इलाक़ा (संबंध) क्या है
उम्र का कितना बड़ा हिस्सा गँवा बैठा मैं
जानते बूझते किरदार ड्रामे का बना
और इस रोल को सब कहते हैं
होशियारी से निभाया मैं ने

हँसने के जितने मक़ाम आए हँसा
बस मुझे रोने की साअत (क्षण) पे ख़जिल (शर्मिंदा) होना पड़ा
जाने क्यूँ रोने के हर लम्हे को
टाल देता हूँ किसी अगली घड़ी पर
दिल में ख़ौफ़ ओ नफ़रत को सजा लेता हूँ
मुझ को ये दुनिया भली लगती है

भीड़ में अजनबी लगने में मज़ा आता है
आश्ना चेहरों के बदले हुए तेवर मुझ को
हाल से माज़ी (गुज़रे हुए समय) में ले जाते हैं
कुहनियाँ ज़ख़्मी हैं और घुटनों पर
कुछ ख़राशों के निशाँ
सोंधी मिट्टी की महक खींचे लिए जाती है
तितलियाँ फूल हवा चाँदनी कंकर पत्थर
सब मिरे साथ में हैं
साँस बे-ख़ौफ़ी (बिना डरे) से लेता हूँ मैं

~ शहरयार

  Aug 07, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, August 3, 2018

रात ओढ़े हुए आई है फ़क़ीरों का लिबास

Image may contain: 1 person, closeup

रात ओढ़े हुए आई है फ़क़ीरों का लिबास
चाँद कश्कोल-ए-गदाई की तरह नादिम है
एक इक साँस किसी नाम के साथ आती है
एक इक लम्हा-ए-आज़ाद नफ़स मुजरिम है
*कश्कोल-ए-गदाई=(भिखारी का) कटोरा; नादिम=लज्जित; नफ़स=साँस

कौन ये वक़्त के घूँघट से बुलाता है मुझे
किस के मख़मूर इशारे हैं घटाओं के क़रीब
कौन आया है चढ़ाने को तमन्नाओं के फूल
इन सुलगते हुए लम्हों की चिताओं के क़रीब
*मख़मूर=नशीले

वो तो तूफ़ान थी, सैलाब ने पाला था उसे
उस की मदहोश उमंगों का फ़ुसूँ क्या कहिए
थरथराते हुए सीमाब की तफ़्सीर भी क्या
रक़्स करते हुए शोले का जुनूँ क्या कहिए
*फ़ुसूँ=जादू; सीमाब=पारा; तफ़्सीर=फैलाव; रक़्स=नृत्य

रक़्स अब ख़त्म हुआ मौत की वादी में मगर
किसी पायल की सदा रूह में ताबिंदा है
छुप गया अपने निहाँ-ख़ाने में सूरज लेकिन
दिल में सूरज की इक आवारा किरन ज़िंदा है
*ताबिंदा=रौशन; निहाँ=ख़ाने=छुपने की जगह

कौन जाने कि ये आवारा किरन भी छुप जाए
कौन जाने कि इधर धुँद का बादल न छटे
किस को मालूम कि पायल की सदा भी खो जाए
किस को मालूम कि ये रात भी काटे न कटे

ज़िंदगी नींद में डूबे हुए मंदिर की तरह
अहद-ए-रफ़्ता के हर इक बुत को लिए सूती है
घंटियाँ अब भी मगर बजती हैं सीने के क़रीब
अब भी पिछले को, कई बार सहर होती है
*अहद-ए-रफ़्ता=गुज़रे हुए दिन; सूती=कपास का

~ मुस्तफ़ा ज़ैदी

  Aug 03, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

बारहा उन से न मिलने

बारहा उन से न मिलने
की क़सम खाता हूँ मैं,
और फिर ये बात क़स्दन
भूल भी जाता हूँ मैं

*क़स्दन=जान बूझ कर

~ इक़बाल अज़ीम

  Jul 31, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh