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Friday, November 30, 2018

तेरा चेहरा सादा काग़ज़

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तेरा चेहरा सादा काग़ज़
है तअस्सुर कोरा कोरा
दाग़ है कोई न कोई नक़्श है!
क्यूँ ये खिड़की बंद है?

*तअस्सुर=भाव, मुद्रा; नक़्स=चिन्ह

आ तुझे अपने लबों से चूम कर
तेरे चेहरे को बना दूँ एक अच्छी सी बयाज़
ताकि इस पर हरी घड़ी बनते रहें मिटते रहें
तेरे अंदर घूमते फिरते हुए
ना-शुनीदा और ना-गुफ़्ता हुरूफ़

*बयाज़=कविता लिखने की पुस्तिका; ना-शुनीदा=अन-सुने; ना-गुफ़्ता=अन-कहे; हुरूफ़=शब्द

आ ये खिड़की खोल दूँ
ताकि तेरा अंदरूँ
(तेरी पलकों की चिक़ों तक ही सही) बाहर तो आए
सादा काग़ज़ पर कोई तहरीर हो
चौखटे में कोई तो तस्वीर हो

*तहरीर=लिखावट

वर्ना ये बन जाएगा अख़बार
कारोबार-ए-ईन-ओ-आँ का इश्तिहार
वक़्त के तलवों से क़तरा क़तरा ख़ूँ
तेरे चेहरे पर टपकता जाएगा जम जाएगा
ना-शुनीदा और ना-गुफ़्ता हुरूफ़
गड्ड-मडा जाएँगे हो जाएँगे जम्बल-अप' बहम

*ईन-ओ-आँ=इनका और उनका; जम्बल-उप (jumple-up)=बेतरतीब; बहम=आपस में

बंद खिड़की के पटों पर शोख़ लड़के
कुछ का कुछ लिखते रहेंगे

~ अमीक़ हनफ़ी


 Nov 30, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, November 24, 2018

क़तरा क़तरा टपक रहा है लहू

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क़तरा क़तरा टपक रहा है लहू
लम्हा लम्हा पिघल रही है हयात
मेरे ज़ानू पे रख के सर अपना
रो रही है उदास तन्हाई
कितना गहरा है दर्द का रिश्ता
कितना ताज़ा है ज़ख्म-ए-रुस्वाई
हसरतों के दरीदा दामन में
जाने कब से छुपाए बैठा हूँ
दिल की महरूमियों का सरमाया
टूटे-फूटे शराब के साग़र
मोम-बत्ती के अध-जले टुकड़े
कुछ तराशे शिकस्ता नज़्मों के
उलझी उलझी उदास तहरीरें
गर्द-आलूद चंद तस्वीरें
मेरे कमरे में और कुछ भी नहीं
मेरे कमरे में और कुछ भी नहीं

*ज़ानू=घुटना; रुसवाई=बे-इज़्ज़ती; दरीदा=फटेहाल; महरूमियाँ=अभाव; शिकस्ता=(घसीट में लिखा हुआ), टूटा हुआ; गर्द-आलूद=धूल से भरी

वक़्त का झुर्रियों भरा चेहरा
काँपता है मिरी निगाहों में
खो गई है मुराद की मंज़िल
ग़म की ज़ुल्मत-फ़रोश राहों में
मेरे घर की पुरानी दीवारें
हर घड़ी देखती हैं ख़्वाब नए
पर मिरी रूह के ख़राबे में
कौन आएगा इतनी रात गए

*मुराद=इच्छा; ज़ुल्मत-फ़रोश=अत्याचारी; ख़राबे=बिगड़े हुए

ज़िंदगी मेहरबाँ नहीं तो फिर
मौत क्यूँ दर्द-आश्ना होगी
खटखटाया है किस ने दरवाज़ा
देखना सर-फिरी हवा होगी

~ प्रेम वरबारतोनी


 Nov 24, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, November 23, 2018

मेरे पास क्या कुछ नहीं है

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मेरे पास रातों की तारीकी* में
खिलने वाले फूल हैं
और बे-ख़्वाबी
दिनों की मुरझाई हुई रौशनी है
और बीनाई*
मेरे पास लौट जाने को एक माज़ी है
और याद...
मेरे पास मसरूफ़ियत की तमाम तर रंगा-रंगी है
और बे-मानवीयत
और इन सब से परे खुलने वाली आँख
मैं आसमाँ को ओढ़ कर चलता
और ज़मीन को बिछौना करता हूँ
जहाँ मैं हूँ
वहाँ अबदियत* अपनी गिरहें* खोलती है
जंगल झूमते हैं
बादल बरसते हैं
मोर नाचते हैं
मेरे सीने में एक समुंदर ने पनाह ले रक्खी है
मैं अपनी आग में जलता
अपनी बारिशों में नहाता हूँ
मेरी आवाज़ में
बहुत सी आवाज़ों ने घर कर रक्खा है
और मेरा लिबास
बहुत सी धज्जियों को जोड़ कर तय्यार किया गया है
मेरी आँखों में
एक गिरते हुए शहर का सारा मलबा है
और एक मुस्तक़िल इंतिज़ार
और आँसू
और इन आँसुओं से फूल खिलते हैं
तालाब बनते हैं
जिन में परिंदे नहाते हैं
हँसते और ख़्वाब देखते हैं
मेरे पास
दुनिया को सुनाने के लिए कुछ गीत हैं
और बताने के लिए कुछ बातें
मैं रद किए जाने की लज़्ज़त से आश्ना हूँ
और पज़ीराई* की दिल-नशीं मुस्कुराहट से
भरा रहता हूँ
मेरे पास
एक आशिक़ की वारफ़्तगी*
दर-गुज़र* और बे-नियाज़ी* है

तुम्हारी इस दुनिया में
मेरे पास क्या कुछ नहीं है
वक़्त और तुम पर इख़्तियार के सिवा?

*तारीकी=अंधेरा; अबदियत=नियमित रूप से; गिरहें=गाठें; मुस्तकिल=लगातार; पजीराई=स्वीकृति; वारफ़्तगी=अपनी ही धुन में; दर-गुज़र=क्षमा करना; बे-नियाज़ी=उपेक्षा का भाव

~ अबरार अहमद

 Nov 23, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Thursday, November 22, 2018

बिखरे हुए से ख़्वाब

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ख़्वाब कुछ बिखरे हुए से ख़्वाब हैं
कुछ अधूरी ख़्वाहिशें
तिश्ना-लब आवारगी के रोज़-ओ-शब
एक सहरा चार सू बिखरा हुआ
और क़दमों से थकन लिपटी हुई
एक गहरी बे-यक़ीनी के नुक़ूश
जाने कब से दो दिलों पर सब्त हैं
रात है और वसवसों की यूरिशें

*तिश्ना-लब=प्यासे होंठ; रोज़-ओ-शब=दिन और रात; चार सू=हर तरफ; नुक़ूश=नक़्श बहुवचन; सब्त=अंकित; वसवसों=सनक, झक; यूरिश=हमला

ये अचानक
ताक़ पे जलते दिए को क्या हुआ
सुब्ह होने में तो ख़ासी देर है
आइने और अक्स में दूरी है क्यूँ
रूह प्यासी है अज़ल से
दरमियाँ ताख़ीर का इक दश्त है
ना-गहाँ फिर ना-गहाँ
ये वही दस्तक वही आहट तो है

*अक्स=साया; अजल=आदिकाल; ताख़ीर=देर; दश्त=जंगल; ना-गहाँ=अचानक

हाँ मगर इन दूरियों मजबूरियों के दरमियाँ
कौन आएगा चलो फिर भी चलें
शायद उस को याद आए कोई भूली-बिसरी बात
वो दरीचा बंद है तो क्या हुआ
चाँद है उस बाम पर जागा हुआ

*दरीचा=खिड़की, झरोखा; बाम=छत

~ ख़ालिद मोईन

 Nov 22, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, November 21, 2018

सोने वालो जागो

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सोने वालो जागो
जागो सोने वालो जागो
वक़्त के खोने वालो जागो

बाग़ में चिड़ियाँ बोल रही हैं
कलियाँ आँखें खोल रही हैं
फूल ख़ुशी से झूम रहे हैं
पत्तों का मुँह चूम रहे हैं
जाग उठे दरिया और नहरें
जाग उठीं मौजें और लहरें
नाव चलाने वाले जागे
पार लगाने वाले जागे
सारी दुनिया जाग रही है
काम की जानिब भाग रही है
लिखने पढ़ने वालो जागो
फूलने बढ़ने वालो जागो
वक़्त के खोने वालो जागो

मुँह धो-धा कर नाश्ता खाओ
बस्ता ले कर मदरसे जाओ
सुब्ह का सोना ख़ूब नहीं है
अच्छा ये उस्लूब नहीं है
जागो सोने वालो जागो
वक़्त के खोने वालो जागो

*उस्लूब=आचरण, व्यवहार

~ हफ़ीज़ जालंधरी


 Nov 21, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, November 18, 2018

वापसी की तमन्ना

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मैं ने सोचा तुम्हें मुद्दत से नहीं देखा है
दिल बहुत दिन से है बेचैन चलूँ घर हो आऊँ

दूर से घर नज़र आया रौशन
सारी बस्ती में मिला एक मिरा घर बे-ख़्वाब
पास पहुँचा तो वो देखा जो निगाहों में मिरी घूम रहा है अब तक
रौशन कमरे के अंदर,
और दहलीज़ पे तुम।

*बे-ख़्वाब=व्याकुल;

सुन के शायद मिरी चाप
तुम निकल आई थीं बिजली की तरह
और वहीं रुक सी गई थीं!
देर तक।

पाँव दहलीज़ पे चौखट पे रखे दोनों हाथ
बाल बिखराए हुए शानों पर
रौशनी पुश्त पे हाले की तरह
साँस की आमद-ओ-शुद थी न कोई जुम्बिश-ए-जिस्म
जैसे तस्वीर लगी हो
जैसे आसन पे खड़ी हो देवी

*शानो=कंधों; पुश्त=पीठ, हाले=halo; आमद-ओ-शुद=अस्तित्व; जुम्बिश-ए-जिस्म=हरकत

मैं ने सोचा अभी तुम ने मुझे पहचाना नहीं
बस इसी सोच में ले कर तुम्हें अंदर आया
पास बिठला के किया यूँही किसी बात का ज़िक्र
तुम ने बातें तो बहुत कीं मगर उन बातों में
कोई वाबस्तगी-ए-दिल
कोई मानूस इशारा
लब पे इज़हार-ए-ख़ुशी
न कोई ग़म की लकीर
अरे कुछ भी तो न था

*वाबस्तगी-ए-दिल=घनिष्टता; मानूस=अनौपचारिक

न वो हँसना, न वो रोना, न शिकायत, न गिला
न वो रग़बत की कोई चीज़ पकाने का ख़याल
न दरी ला के बिछाना न वो आँगन की लिपाई की कोई बात
न निगाहों में ये एहसास कि हम तुम दोनों
हैं कोई बीस बरस से इक साथ
लाख कोशिश पे भी तुम ने मुझे पहचाना नहीं
मैं ने जाना तुम्हें मैं ने भी नहीं पहचाना
एक इशारे में ज़माना ही बदल जाता है
सिलसिला उन्स ओ रिफ़ाक़त का कोई आज भी है
पर ये है और कोई
जिस से बाँधा है नया रिश्ता-ए-ज़ीस्त

*रगबत=दिलचस्पी; उन्स ओ रिफ़ाक़त=लगाव या दोस्ताना; रिश्ता-ए-ज़ीस्त=जीवन का रिश्ता

मैं भी हूँ और कोई, जिस के साथ
तुम भी हँस-बोल के रह लेती हो
वो भी थी और कोई
जो वहीं रुक गई उस चौखट पर
जैसे तस्वीर लगी हो
जैसे आसन पे खड़ी हो देवी

~ हबीब तनवीर 

 Nov 18, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 17, 2018

जोगन, नैन मिले अनमोल

 
जोगन, नैन मिले अनमोल,
ओस कनों से कोमल सपने
पलकों-पलकों तौल!
जोगन, नैन मिले अनमोल!

इन सपनों की बात निराली,
दिन-दिन होली, रात दिवाली।
इनसे माँग नदी-झरनों के
मीठे-मीठे बोल !
जोगन, नैन मिले अनमोल!

सपनों का क्या ठौर-ठिकाना,
जाने कब आना, कब जाना।
नयन झरोखों से तू अपनी
दुनिया में रस घोल,
जोगन, नैन मिले अनमोल।

~ शतदल

  Nov 17, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 16, 2018

अल्ताफ़-ओ-करम

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अल्ताफ़-ओ-करम ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब कुछ भी नहीं है
था पहले बहुत कुछ मगर अब कुछ भी नहीं है

*अल्ताफ़-ओ-करम=अनुग्रह व कृपा; ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब=तमक और रोष

बरसात हो सूरज से समुंदर से उगे आग
मुमकिन है हर इक बात अजब कुछ भी नहीं है

दिल है कि हवेली कोई सुनसान सी जिस में
ख़्वाहिश है न हसरत न तलब कुछ भी नहीं है

अब ज़ीस्त भी इक लम्हा-ए-साकित है कि जिस में
हंगामा-ए-दिन गर्मी-ए-शब कुछ भी नहीं है

*जीस्त=जीवन; लम्हा-ए-साकित=एक चुप्पी भरा पल; हंगामा-ए-दिन=रौनकों से भरा दिन; गर्मी-ए-शब=लिप्सा से भरी रातें

सब क़ुव्वत-ए-बाज़ू के करिश्मात हैं 'राही'
क्या चीज़ है ये नाम-ओ-नसब कुछ भी नहीं है

*कुव्वत-ए-बाज़ू=बाज़ुओं की ताकत; नाम-ओ-नसब=नाम और कुल


~ महबूब राही, 

   Nov 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, November 11, 2018

अक्स

https://moderndaycontemplative.files.wordpress.com/2014/09/nature___rivers_and_lakes_flowering_trees_near_the_water_041725_.jpg

दरख़्तों! मुंतज़िर हो!
पानियों में झाँकते क्या हो?
खड़े हो साकित-ओ-जामिद
ख़ुद अपने अक्स की हैरानियों में गुम
तको इक दूसरे का मुँह
रहो यूँ ईस्तादा
पानियों को क्या
यूं हीं बहते रहेंगे

*मुंतज़िर=आशावान; चुपचाप और स्थिर; अक्स=प्रतिबिम्ब, ईस्ताद=खड़े

अक्स जो झलकेगा
सतह-ए-आब बस आईना बन कर जगमगाएगी
हवा जो मौज में आई
तो बस लहरों से खेलेगी!
तुम्हारे डगमगाते अक्स को
कोई सँभाला तक नहीं देगा!
तुम्हारे अपने पत्ते तालियाँ पीटेंगे
सन-सन सनसनाहट से हवा की
काँपती शाख़ें
करेंगी क्या
कनार-ए-आबजू मह-रू
तका करता था घंटों महवियत से
इश्तियाक़-ए-दीद का आलम
हर इक पत्ते की आँखों में
तुम्हारा दिलरुबा मह-रू
वो अब लौटे भला कैसे
दरख़्तो भूल सकती है कहाँ

*सतह-ए-आब=पानी की सतह; कनार-ए-आबजू=झरने का किनारा; मह-रू=चाँद सी शक्ल

वो शक्ल
जिस को देख कर पानी की आँखें
इस तरह से जगमगाती थीं
कि उस को देखने
क़ौस-ए-क़ुज़ह के रंग
हँसते खिलखिलाते
आ गले लगते थे लहरों से!

*क़ौस-ए-क़ुज़ह=इंद्रधनुष

कई इक बार तुम ने भी
उसी की चाह में
झुक कर
हवा-ए-तेज़ में भी
बे-ख़तर
चूमी थी पेशानी इसी पानी की
जो मिल कर हवाओं से
जड़ों में भर रहा है नम!
उसे किस बात का है ग़म
गिरोगे मुँह के बल तो
क़हक़हा पानी का सुन लेना!
तुम्हें अपनी तहों में यूँ छुपाएगा
ख़बर तक भी नहीं होगी किसी को
तुम यहाँ पर थे
बहा ले जाएगा
अंजान से उन साहिलों तक
और
वहाँ उन साहिलों पर
ख़स-ओ-ख़ाशाक में ढल कर
तुम्हारी मुंतज़िर आँखें सलामत रह गईं तो
देख लोगे ख़ुद
वही मह-रू
पलट कर जो कभी आया नहीं था!

*ख़स-ओ-ख़ाशाक =घास तिनके

~ आरिफ़ा शहज़ाद

  Nov 11, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 9, 2018

उजाला

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मेरी हमदम, मिरे ख़्वाबों की सुनहरी ताबीर
मुस्कुरा दे कि मिरे घर में उजाला हो जाए
आँख मलते हुए उठ जाए किरन बिस्तर से
सुब्ह का वक़्त ज़रा और सुहाना हो जाए

*ताबीर=स्पष्टीकरण

मेरे निखरे हुए गीतों में तिरा जादू है
मैं ने मेयार-ए-तसव्वुर से बनाया है तुझे
मेरी परवीन-ए-तख़य्युल, मिरी नसरीन-ए-निगाह
मैं ने तक़्दीस के फूलों से सजाया है तुझे

*मेयार-ए-तसव्वुर=कल्पना का ऊँचा स्तर; परवीन-ए-तख़य्युल=काल्पनिक कुशलता; नसरीन=जंगली गुलाब

दूध की तरह कुँवारी थी ज़मिस्ताँ की वो रात
जब तिरे शबनमी आरिज़ ने दहकना सीखा
नींद के साए में हर फूल ने अंगड़ाई ली
नर्म कलियों ने तिरे दम से चटकना सीखा
ज़मिस्ता=सर्दी; आरिज़=गाल

मेरी तख़्ईल की झंकार को साकित पा कर!
चूड़ियाँ तेरी कलाई में खनक उठती थीं
उफ़ मिरी तिश्ना-लबी तिश्ना-लबी तिश्ना-लबी!
कच्ची कलियाँ तिरे होंटों की महक उठती थीं

*तख़ईल=कल्पना; साकित=चुप

वक़्त के दस्त-ए-गिराँ-बार से मायूस न हो
किस को मालूम है क्या होना है और क्या हो जाए
मेरी हमदम, मिरे ख़्वाबों की सुनहरी ताबीर
मुस्कुरा दे कि मिरे घर में उजाला हो जाए

*दस्त-ए-गिराँ-बार=बोझ, भारी हाथों

~ मुस्तफ़ा ज़ैदी

  Nov 9, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Thursday, November 8, 2018

दीवाली, दिलों का मिलन

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घर की क़िस्मत जगी घर में आए सजन
ऐसे महके बदन जैसे चंदन का बन
आज धरती पे है स्वर्ग का बाँकपन
अप्सराएँ न क्यूँ गाएँ मंगलाचरण

ज़िंदगी से है हैरान यमराज भी
आज हर दीप अँधेरे पे है ख़ंदा-ज़न
उन के क़दमों से फूल और फुल-वारियाँ
आगमन उन का मधुमास का आगमन
*ख़ंदा-ज़न=हँसी उड़ाता हुआ

उस को सब कुछ मिला जिस को वो मिल गए
वो हैं बे-आस की आस निर्धन के धन
है दीवाली का त्यौहार जितना शरीफ़
शहर की बिजलियाँ उतनी ही बद-चलन

उन से अच्छे तो माटी के कोरे दिए
जिन से दहलीज़ रौशन है आँगन चमन
कौड़ियाँ दाँव की चित पड़ें चाहे पट
जीत तो उस की है जिस की पड़ जाए बन

है दीवाली-मिलन में ज़रूरी 'नज़ीर'
हाथ मिलने से पहले दिलों का मिलन

~ नज़ीर बनारसी


  Nov 8, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 3, 2018

कुछ इतने धुँधले साए हैं

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मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँधले साए हैं

दो पाँव बने हरियाली पर
एक तितली बैठी डाली पर
कुछ जगमग जुगनू जंगल से
कुछ झूमते हाथी बादल से
ये एक कहानी नींद भरी
इक तख़्त पे बैठी एक परी
कुछ गिन गिन करते परवाने
दो नन्हे नन्हे दस्ताने
कुछ उड़ते रंगीं ग़ुबारे
बब्बू के दुपट्टे के तारे
ये चेहरा बन्नो बूढ़ी का
ये टुकड़ा माँ की चूड़ी का
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँधले साए हैं

अलसाई हुई रुत सावन की
कुछ सौंधी ख़ुश्बू आँगन की
कुछ टूटी रस्सी झूले की
इक चोट कसकती कूल्हे की
सुलगी सी अँगीठी जाड़ों में
इक चेहरा कितनी आड़ों में
कुछ चाँदनी रातें गर्मी की
इक लब पर बातें नरमी की
कुछ रूप हसीं काशानों का
कुछ रंग हरे मैदानों का
कुछ हार महकती कलियों के
कुछ नाम वतन की गलियों के
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँधले साए हैं

कुछ चाँद चमकते गालों के
कुछ भँवरे काले बालों के
कुछ नाज़ुक शिकनें आँचल की
कुछ नर्म लकीरें काजल की
इक खोई कड़ी अफ़्सानों की
दो आँखें रौशन-दानों की
इक सुर्ख़ दुलाई गोट लगी
क्या जाने कब की चोट लगी
इक छल्ला फीकी रंगत का
इक लॉकेट दिल की सूरत का
रूमाल कई रेशम से कढ़े
वो ख़त जो कभी मैं ने न पढ़े
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
में ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँधले साए हैं

कुछ उजड़ी माँगें शामों की
आवाज़ शिकस्ता जामों की
कुछ टुकड़े ख़ाली बोतल के
कुछ घुँघरू टूटी पायल के
कुछ बिखरे तिनके चिलमन के
कुछ पुर्ज़े अपने दामन के
ये तारे कुछ थर्राए हुए
ये गीत कभी के गाए हुए
कुछ शेर पुरानी ग़ज़लों के
उनवान अधूरी नज़्मों के
टूटी हुई इक अश्कों की लड़ी
इक ख़ुश्क क़लम इक बंद घड़ी
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँधले साए हैं

कुछ रिश्ते टूटे टूटे से
कुछ साथी छूटे छूटे से
कुछ बिगड़ी बिगड़ी तस्वीरें
कुछ धुँदली धुँदली तहरीरें
कुछ आँसू छलके छलके से
कुछ मोती ढलके ढलके से
कुछ नक़्श ये हैराँ हैराँ से
कुछ अक्स ये लर्ज़ां लर्ज़ां से
कुछ उजड़ी उजड़ी दुनिया में
कुछ भटकी भटकी आशाएँ
कुछ बिखरे बिखरे सपने हैं
ये ग़ैर नहीं सब अपने हैं
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँधले साए हैं

~ जाँ निसार अख़्तर


  Nov 3, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 2, 2018

जिन्हें हम दोस्त कहते हैं



वो कैसे लोग होते हैं जिन्हें हम दोस्त कहते हैं
न कोई ख़ून का रिश्ता न कोई साथ सदियों का
मगर एहसास अपनों सा वो अनजाने दिलाते हैं
वो कैसे लोग होते हैं जिन्हें हम दोस्त कहते हैं

ख़फ़ा जब ज़िंदगी हो तो वो आ के थाम लेते हैं
रुला देती है जब दुनिया तो आ कर मुस्कुराते हैं 

अकेले रास्ते पे जब मैं खो जाऊँ तो मिलते हैं
सफ़र मुश्किल हो कितना भी मगर वो साथ जाते हैं
वो कैसे लोग होते हैं जिन्हें हम दोस्त कहते हैं

नज़र के पास हों न हों मगर फिर भी तसल्ली है
वही मेहमान ख़्वाबों के जो दिल के पास रहते हैं
मुझे मसरूर करते हैं वो लम्हे आज भी 'इरफ़ान'
कि जिन में दोस्तों के साथ के पल याद आते हैं
वो कैसे लोग होते हैं जिन्हें हम दोस्त कहते हैं

~ इरफ़ान अहमद मीर


  Nov 2, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh