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Saturday, March 30, 2019

हवा हर इक सम्त बह रही है

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हवा हर इक सम्त बह रही है
जिलौ में कूचे मकान ले कर
सफ़र के बे-अंत पानियों की थकान ले कर
जो आँख के इज्ज़ (दुर्बलता) से परे हैं
उन्ही ज़मानों का ज्ञान ले कर
तिरे इलाक़े की सरहदों के निशान ले कर
हवा हर इक सम्त बह रही है

ज़मीन चुप
आसमान वुसअ'त (फैलाव) में खो गया है
फ़ज़ा सितारों की फ़स्ल से लहलहा रही है
मकाँ मकीनों (मकान में रहने वाला) की आहटों से धड़क रहे हैं
झुके झुके नम-ज़दा (भीगा हुआ) दरीचों में
आँख कोई रुकी हुई है

फ़सील-ए-शहर-ए-मुराद (पसंदीदा शह्र के चारो ओर) पर
ना-मुराद (अभागी) आहट अटक गई है
ये ख़ाक तेरी मिरी सदा (पुकार) के दयार (इलाक़ा) में
फिर भटक गई है

दयार शाम-ओ-सहर के अंदर
निगार-ए-दश्त-ओ-शजर (पेड़ और जंगलों की रंग साज़ी) के अंदर
सवाद-ए-जान-ओ-नज़र (सवाद=स्वाद) के अंदर
ख़मोशी बहर-ओ-बर (पानी और ज़मीन) के अंदर
रिदा-ए-सुब्ह-ए-ख़बर (रिदा=ओडः‌अने की चादर) के अंदर
अज़िय्यत (कष्ट) रोज़-ओ-शब में
होने की ज़िल्लतों में निढाल सुब्हों की
ओस में भीगती ठिठुरती
ख़मोशियों के भँवर के अंदर
दिलों से बाहर
दिलों के अंदर
हवा हर इक सम्त बह रही है

~ अबरार अहमद


 Mar 31, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

रात भर नर्म हवाओं के झोंके

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रात भर नर्म हवाओं के झोंके
वक़्त की मौज रवाँ पर बहते
तेरी यादों के सफ़ीने लाए
कि जज़ीरों से निकल कर आए
गुज़रा वक़्त का दामन थामे
तिरी यादें तिरे ग़म के साए

एक इक हर्फ़-ए-वफ़ा की ख़ुश्बू
मौजा-ए-गुल में सिमट कर आए
एक इक अहद-ए-वफ़ा का मंज़र
ख़्वाब की तरह गुज़रते बादल
तेरी क़ुर्बत के महकते हुए पल
मेरे दामन से लिपटने आए
नींद के बार से बोझल आँखें
गर्द-ए-अय्याम से धुँदलाए हुए
एक इक नक़्श को हैरत से तकें

लेकिन अब उन से मुझे क्या लेना
मेरे किस काम के ये नज़राने
एक छोड़ी हुई दुनिया के सफ़ीर
मेरे ग़म-ख़ाने में फिर क्यूँ आए
दर्द का रिश्ता रिफ़ाक़त की लगन
रूह की प्यास मोहब्बत के चलन
मैं ने मुँह मोड़ लिया है सब से
मैं ने दुनिया के तक़ाज़े समझे
अब मेरे पास कोई क्यूँ आए

रात भर नौहा-कुनाँ याद की बिफरी मौजें
मेरे ख़ामोश दर ओ बाम से टकराती हैं
मेरे सीने के हर इक ज़ख़्म को सहलाती है
मुझे एहसास की उस मौत पर सह दे कर
सुब्ह के साथ निगूँ सार पलट जाती है

~ महमूद अयाज़


 Mar 30, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, March 29, 2019

तो आ जाना


फ़ज़ा में दर्द-आगीं गीत लहराए तो आ जाना
सुकूत-ए-शब में कोई आह थर्राए तो आ जाना
जहाँ का ज़र्रा ज़र्रा यास बरसाए तो आ जाना
दर-ओ-दीवार पर अंदोह छा जाए तो आ जाना

समझ लेना कोई रो रो के तुझ को याद करता है
समझ लेना कोई ग़म का जहाँ आबाद करता है
कोई तक़दीर का मारा हुआ फ़रियाद करता है
तिरी आँखों में अश्क-ए-ग़म उतर आए तो आ जाना

दिलों को गुदगुदाए जब तरन्नुम आबशारों का
घटा बरसात की जब चूम ले मुँह कोहसारों का
मुलाक़ातों के जब दिन हों ज़माना हो बहारों का
बहार-ए-गुल मुलाक़ातों पे उकसाए तो आ जाना

ज़माना मुश्किलों के जाल फैलाए तो फैलाए
क़दम बढ़ते रहें बे-दर्द दुनिया लाख बहकाए
समझते हैं कहीं दीवानगान-ए-इश्क़ समझाए
तिरे होंटों पे मेरा नाम आ जाए तो आ जाना

झड़ी बरसात की जब आग तन मन में लगाती हो
गुलों को बुलबुल-ए-नाशाद हाल-ए-दिल सुनाती हो
कोई बिरहन किसी की याद में आँसू बहाती हो
अगर ऐसे में तेरा दिल धड़क जाए तो आ जाना

~ राजेन्द्रनाथ रहबर


 Mar 29, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, March 24, 2019

लेकिन तुम नहीं होतीं

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वही ग़ुंचों की शादाबी वही फूलों की निकहत है
वही सैर-ए-गुलिस्ताँ है वही जोश-ए-मसर्रत है
वही मौज-ए-तबस्सुम है वही अंदाज़-ए-फ़ितरत है
वही दाम-ए-तख़य्युल है वही रंग-ए-हक़ीक़त है
वही सुब्ह-ओ-मसा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

वही मख़मूर रातें अब भी तस्वीर-ए-तख़य्युल हैं
वही दिल-चस्प बातें अब भी तस्वीर-ए-तख़य्युल हैं
वही पुर-कैफ़ घातें अब भी तस्वीर-ए-तख़य्युल हैं
सितारों की बरातें अब भी तस्वीर-ए-तख़य्युल हैं
वही मौज-ए-सबा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

घटाएँ अब भी उठती हैं तलातुम अब भी होता है
शगूफ़े अब भी खिलते हैं तबस्सुम अब भी होता है
अनादिल अब भी गाते हैं तरन्नुम अब भी होता है
जवानी अब भी हँसती है तकल्लुम अब भी होता है
हर इक शय ख़ुश-नुमा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

तुम्हारी याद ऐसे में सताती है मुझे अब भी
शब-ए-तन्हाई में पहरों रुलाती है मुझे अब भी
सबा के दोश पर आ कर जगाती है मुझे अब भी
हवास-ओ-होश से बे-ख़ुद बनाती है मुझे अब भी
तमन्ना-ए-वफ़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

जुनूँ-सामाँ नज़ारों के तक़ाज़े अब भी होते हैं
तमन्ना अब भी होती है इरादे अब भी होते हैं
ज़माना अब भी हँसता है तमाशे अब भी होते हैं
निगाहें अब भी उठती हैं इशारे अब भी होते हैं
ख़ुशी दिल-आश्ना होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

रहेगा यूँ लबों पर शिकवा-ए-जौर-ए-ख़िज़ाँ कब तक
सताएगा भला नाज़ुक दिलों को ये जहाँ कब तक
मुसलसल आज़माइश और पैहम इम्तिहाँ कब तक
मैं तुम से दूर रह कर जी सकूँगा यूँ यहाँ कब तक
तमन्ना क्या से क्या होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

मुझे दिन रात रहती है तुम्हारी जुस्तुजू अब भी
तसव्वुर में किया करता हूँ तुम से गुफ़्तुगू अब भी
ख़ुदा शाहिद है मेरे दिल में है ये आरज़ू अब भी
कि तुम आ जाओ चश्म-ए-मुंतज़र के रू-ब-रू अब भी
ये ख़्वाहिश बारहा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

~ शौकत परदेसी


 Mar 24, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, March 17, 2019

जब भी चूम लेता हूँ

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जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को
सौ चराग़ अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं
ख़ुश्क ख़ुश्क होंटों में जैसे दिल खिंच आता है
दिल में कितने आईने थरथराने लगते हैं

फूल क्या शगूफ़े क्या चाँद क्या सितारे क्या
सब रक़ीब क़दमों पर सर झुकाने लगते हैं
ज़ेहन जाग उठता है रूह जाग उठती है
नक़्श आदमियत के जगमगाने लगते हैं

लौ निकलने लगती है मंदिरों के सीने से
देवता फ़ज़ाओं में मुस्कुराने लगते हैं
रक़्स करने लगती हैं मूरतें अजंता की
मुद्दतों के लब-बस्ता ग़ार गाने लगते हैं
*लब-बस्ता=सिले हुए होंट

फूल खिलने लगते हैं उजड़े उजड़े गुलशन में
तिश्ना तिश्ना गीती पर अब्र छाने लगते हैं
लम्हा भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है
लम्हा भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं

~ कैफ़ी आज़मी

 Mar 17, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, March 16, 2019

ज़ेहन जब तक है

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ज़ेहन जब तक है
ख़यालात की ज़ंजीर कहाँ कटती है,
होंट जब तक हैं
सवालात की ज़ंजीर कहाँ कटती है,
बहस करते रहो लिखते रहो नज़्में ग़ज़लें
ज़ेहन पर सदियों से तारी (छायी) है जो मज्लिस (महफ़िल) की फ़ज़ा
इस ख़ुनुक (ख़ुशनुमा) आँच से क्या पिघलेगी
सोच लेने ही से हालात की ज़ंजीर कहाँ कटती है

नींद में डूबी हुई आँखों से वाबस्ता ख़्वाब
तेज़ किरनों की सिनानों (स्नान) पे ही रुस्वा सर-ए-आम
ये शहीद अपनी सलीबों से पलट आते हैं दिल में हर शाम
सुब्ह होती है मगर रात की ज़ंजीर कहाँ कटती है

दिन गुज़र जाता है बे-फ़ैज़ (बग़ैर ख़ुशी) कद-ओ-काविश (प्रयत्न) में
एक अन-देखे जहन्नम की तब-ओ-ताबिश (चमक-दमक) में
जिस्म और जाँ की तग-ओ-ताज़ (मेहनत-मुश्किल) की हर पुर्सिश (पूछ ताछ) में
दर्द-ओ-ग़म हसरत-ओ-महरूमी की हर काहिश (कमी) में
तलब-ओ-तर्क-ए-तलब सिलसिला-ए-बे-पायाँ (समाप्ति)
मर्ग (मृत्यु) ही ज़ीस्त का उन्वान (शीर्षक) है हर ख़ून-शुदा ख़्वाहिश में
ग़म से भागें भी तो फ़रियाद-ओ-शिकायात की ज़ंजीर कहाँ कटती है

वक़्त वो दौलत-ए-नायाब है आता नहीं हाथ
हम मशीनों की तरह जीते हैं पाबंदी-ए-औक़ात के साथ
वक़्त बे-कार गुज़रता ही चला जाता है
कुर्सियों मेज़ों से बे-मा'नी मुलाक़ातों में
सैंकड़ों बार की अगली हुई दोहराई हुई बातों में
मंदगी रहने की तमन्ना की मुदारातों (आतिथ्य) में
शिकम-ओ-जाँ (पेट और जान) की इबादात की ज़ंजीर कहाँ कटती है

सुब्ह से शाम तलक इतने ख़ुदा मिलते हैं हर काफ़िर को
सज्दा-ए-शुक्र से इंकार की मोहलत नहीं मिलने पाती
सैंकड़ों लाखों ख़ुदाओं की नज़र से छुप कर
ख़ुद से मिल लेने की रुख़्सत नहीं मिलने पाती
ख़ुद-परस्तों (स्वार्थी) से भी ताआत (इबादत) की ज़ंजीर कहाँ कटती है

रात आती है तो दिल कहता है हम अपने हैं
ख़ल्वत-ए-ख़्वाब (ख़्वाब की तन्हाई) में दुनिया से किनारा कर लें
कल भी देना है लहू अपना दिल-ओ-दीदा (दिल और आँख) की झोली भर लें
जिस्म के शोर से और रूह की फ़रियाद से दम घुटता है
दिन के बे-कार ख़यालात की ज़ंजीर कहाँ कटती है
बे-नियाज़ाना (बेफ़िकी में) भी जीना है फ़क़त एक गुमाँ
फ़िक्र-ए-मौजूद (होने का ग़म) को छोड़ें तो ग़म-ए-ना-मौजूद (नहीं रह जाने का दुख)
साथ हर साँस के है सिलसिला-ए-हसत-ओ-बूद (क्या था और क्या है)
ग़म-ए-आफ़ाक़ (दुख का आसमान) को ठुकराएँ करें तर्क-ए-जहाँ (दुनिया का त्याग)
फिर भी ये फ़िक्र कि जीने का हो कोई उनवाँ
बे-नियाज़ी (बेफ़िक्री) से ग़म-ए-ज़ात (ख़ुद के दुख) की ज़ंजीर कहाँ कटती है

ज़ेहन में अंधे अक़ीदों (विश्वास) की सियाही भर लो
ताकि इस नगरी में
कभी अफ़्कार (चिंताएँ) के शो'लों का गुज़र हो न सके
जब्र (मजबूरी) का हुक्म सुनो
होंटों को अपने सी लो
ताकि उन राहों से
कभी लफ़्ज़ों का सफ़र हो न सके
ज़ेहन-ओ-लब फिर भी नहीं चुप होते
उन के ख़ामोश सवालात की
पेच-दर-पेच (उलझे हुए) ख़यालात की
ज़ंजीर कहाँ कटती है

~ वहीद अख़्तर


 Mar 16, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, March 15, 2019

यूँ वक़्त गुज़रता है

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यूँ वक़्त गुज़रता है
फ़ुर्सत की तमन्ना में
जिस तरह कोई पत्ता
बहता हुआ दरिया में
साहिल के क़रीब आ कर
चाहे कि ठहर जाऊँ
और सैर ज़रा कर लूँ
उस अक्स-ए-मोशज्जर की
जो दामन-ए-दरिया पर
ज़ेबाइश-ए-दरिया है
या बाद का वो झोंका
जो वक़्फ़-ए-रवानी है
इक बाग़ के गोशे में
चाहे कि यहाँ दम लूँ
दामन को ज़रा भर लूँ
उस फूल की ख़ुशबू से
जिस को अभी खिलना है
फ़ुर्सत की तमन्ना में
यूँ वक़्त गुज़रता है

*अक्स=प्रतिबिम्ब; मोशज्जर= एक पत्थर जिस पर प्रायः वृक्षों के चित्र बने होते हैं; बाद-हवा; वक़्फ़-ए-रवानी=(हवा) चलने की पृवत्ति; गोशा=कोना; ज़ेबाइश=सज्जा

अफ़्कार मईशत के
फ़ुर्सत ही नहीं देते
मैं चाहता हूँ दिल से
कुछ कस्ब-ए-हुनर कर लूँ
गुल-हा-ए-मज़ामीं से
दामान-ए-सुख़न भर लूँ
है बख़्त मगर वाज़ूँ
फ़ुर्सत ही नहीं मिलती
फ़ुर्सत को कहाँ ढूँडूँ
फ़ुर्सत ही का रोना है
फिर जी में ये आती है
कुछ ऐश ही हासिल हो
दौलत ही मिले मुझ को
वो काम कोई सोचूँ
फिर सोचता ये भी हूँ
ये सोचने का धंदा
फ़ुर्सत ही में होना है
फ़ुर्सत ही नहीं देते
अफ़्कार मईशत के

*अफ़्कार=चिंताएँ; मईशत=जीविका(म’आश); कस्ब-ए-हुनर=; गुल-हा-ए-मज़ामीं=फूलों के मज़मून से; बख़्त=किस्मत; वाज़ूँ=उलटी हुई

~ हफ़ीज़ जालंधरी


 Mar 15, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, March 10, 2019

इस आग से लोगो दूर रहो

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दिल पीत की आग में जलता है हाँ जलता रहे उसे जलने दो
इस आग से लोगो दूर रहो ठंडी न करो पंखा न झलो

हम रात दिना यूँ ही घुलते रहें कोई पूछे कि हम को ना पूछे
कोई साजन हो या दुश्मन हो तुम ज़िक्र किसी का मत छेड़ो
सब जान के सपने देखते हैं सब जान के धोके खाते हैं
ये दीवाने सादा ही सही पर इतने भी सादा नहीं यारो
किस बैठी तपिश के मालिक हैं ठिठुरी हुई आग के अंगियारे
तुम ने कभी सेंका ही नहीं तुम क्या समझो तुम क्या जानो
दिल पीत की आग में जलता है हाँ जलता रहे उसे जलने दो

हर महफ़िल में हम दोनों की क्या क्या नहीं बातें होती हैं
इन बातों का मफ़्हूम है क्या तुम क्या समझो तुम क्या जानो
दिल चल के लबों तक आ न सका लब खुल न सके ग़म जा न सका
अपना तो बस इतना क़िस्सा था तुम अपनी सुनाओ अपनी कहो
वो शाम कहाँ वो रात कहाँ वो वक़्त कहाँ वो बात कहाँ
जब मरते थे मरने न दिया अब जीते हैं अब जीने दो
दिल पीत की आग में जलता है हाँ जलता रहे उसे जलने दो

लोगों की तो बातें सच्ची हैं और दिल का भी कहना करना हुआ
पर बात हमारी मानो तो या उन के बनो या अपने रहो
राही भी नहीं रहज़न भी नहीं बिजली भी नहीं ख़िर्मन भी नहीं
ऐसा भी भला होता है कहीं तुम भी तो अजब दीवाने हो
इस खेल में हर बात अपनी कहाँ जीत अपनी कहाँ मात अपनी कहाँ
या खेल से यकसर उठ जाओ या जाती बाज़ी जाने दो
दिल पीत की आग में जलता है हाँ जलता रहे उसे जलने दो
इस आग से लोगो दूर रहो ठंडी न करो पंखा न झलो

~ इब्न-ए-इंशा

 Mar 10, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो



इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरा लहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झाने वाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिल सी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वर ताल-मयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे,
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थ बना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर, जो रो रो कर हमने ढोए,
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा!
उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए!
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूर कठिन को कोस चुके,
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

संसृति के जीवन में, सुभगे, ऐसी भी घड़ियाँ आऐंगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी,
तब रविश शिपोषित यह पृथ्वी कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब तेरा मेरा नन्हा सा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गा-गा जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर 'भरभर' न सुने जाएँगे,
अलि-अवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज 'टलमल', सरिता अपना 'कलकल' गायन,
वह गायक नायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नर गण!
संगीत सजीव हुआ जिनमें, जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने!
जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभा शुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है!
मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों, सब संगी साथी,
दुनिया रोती धोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

~ हरिवंशराय बच्चन


 Mar 07, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

चलो घर चलें चाँद छुपने लगा है


चलो घर चलें चाँद छुपने लगा है
समुंदर भी लगता है सोने चला है
हवाओं की रफ़्तार थम सी गई है
न आएगा कोई सहर हो चली है
न अब पास में कोई पत्थर बचा है
न अब बाज़ुओं में असर रह गया है



सड़क की सभी रौशनी बुझ गई है
अंधेरा हटा राह दिखने लगी है
न आहट है कोई न कोई भरम है
थकी आरज़ू और बोझल क़दम है
नज़र पर बग़ावत असर कर रही है
ज़मीं भीग कर तर-ब-तर हो चली है

चलो घर चलें चाँद छुपने लगा है

~ विनोद कुमार त्रिपाठी 'बशर'

 Mar 06, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

इश्क़ में भी कोई अंजाम

इश्क़ में भी कोई अंजाम हुआ करता है?
इश्क़ में याद है आग़ाज़ ही आग़ाज़ मुझे

~ ज़िया जालंधरी


 Feb 18, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh